अग्नाशय ग्रंथि | कार्य | स्थिति | संरचना चित्र | अधिवृक्क ग्रन्थि | हार्मोन

स्थिति : यह ग्रहणी के समीप स्थित होती है |

संरचना : यह मिश्रित ग्रन्थि होती है , यह पत्ती के समान लगभग 15cm लम्बी व 85gm भार की होती है , इसकी पालियो के बीच बीच में अन्त: स्त्रावी कोशिकाएँ होती है जिन्हें लैंगर हैन्स के द्वीप कहते है | इनकी खोज 1869 में लैंगर हेंस ने की थी , ये कोशिकाएँ तीन प्रकार की होती है –

  • एल्फा कोशिकाएँ = 25%
  • बीटा कोशिकाएँ = 60/65%
  • डेल्टा कोशिकाएं = 10%
  • एल्फा कोशिकाएं (alpha cells) : ये मध्यम आकार की कोशिकाएँ होती है , इन कोशिकाओ द्वारा ग्लूकैगोन हार्मोन का स्त्राव होता है जो रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को बढाता है | यह यकृत में ग्लूकोजियोलाइसिस को प्रेरित करता है , यह यकृत में ग्लूकोनियोजिनेसिस को प्रेरित करता है | इसे हाइपरग्लाइसिमिक कारक भी कहते है , ग्लूकैगोन की खोज किम्बल व मर्लिन ने 1932 में की थी |
  • बीटा कोशिकाएं : ये बड़े आकार की कोशिकाएँ होती है , इन कोशिकाओ द्वारा इन्सुलिन हार्मोन का स्त्राव होता है | इस हार्मोन को बेंटिक व बेस्ट (1921) में निष्कर्षण किया |

एबल ने इसके रर्वे प्राप्त किये | सेंगर ने इन्सुलिन की संरचना व इसकी प्रोटीन प्रकृति का पता लगाया , इस कार्य के लिए सेंगर को 1958 का नोबल पुरस्कार दिया गया |

कार्य : यह हार्मोन रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा का नियमन करता है , यह रक्त में ग्लूकोज को बढ़ने से रोकता है |

कमी से :

इन्सुलिन के कम स्त्राव से मधुमेह रोग हो जाता है , इस रोग के दौरान रक्त में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ जाती है , जो मूत्र के साथ बाहर निकलने लगती है |इस रोग का उपचार इंसुलिन थैरेपी द्वारा किया जाता है |

अधिकता से :

इन्सुलिन के अधिक स्त्राव से रक्त में ग्लूकोज की मात्रा कम हो जाती है जिसे हाइपोग्लसिमिया कहते है , इस रोग के दौरान तेज पसीना चिडचिडापन , दृष्टि ज्ञान कम तथा जनन क्षमता भी कमी हो जाती है |

  1. डेल्टा (delta) कोशिकाएँ : ये कोशिकाएं छोटी आकार की कोशिकायें होती है , इन कोशिकाओ द्वारा सामेटोस्टेटिन हार्मोन स्त्रवित होता है , यह हार्मोन भोजन के पाचन , अवशोषण व स्वांगीकरण को बढाता है |

अधिवृक्क ग्रन्थि (adrenal gland):-

स्थिति : प्रत्येक वृक्क के ऊपर टोपी के समान रचना के रूप में स्थित होती है |

संरचना : यह पीले भूरे रंग की होती है , इसका वजन 4-6 ग्राम का होता है , इसका बाहरी भाग वल्कुट व मध्य भाग मध्यांश कहलाता है , इस ग्रन्थि का उद्भव मिजोडर्म व एक्टोडर्म द्वारा होता है |

  1. वल्कुल : अधिवृक्क वल्कुट के तीन भाग –
  1. जोनाग्लोमेरुलोसा
  2. जोना फेसीकुल्टो
  3. जोना रेटिकुलेरिस

इन तीनो भागों से अलग अलग हार्मोन स्त्रवित होते है जिन्हें सामूहिक रूप से कोटिकोस्टेराइड कहते है , ये हार्मोन निन है –

  • मिनरैलोकोर्टीकोइटस : यह जोनाग्लोमेरुलोसा द्वारा स्त्रवित होता है , इसमें मुख्यतः एल्डोस्टेरोन होते है , यह हार्मोन Na, K , Cl व जल की उपयुक्त मात्रा शरीर में बनाए रखने में सहायक है |
  • ग्लूकोकोर्टीकाइडस : यह कोर्तिसोन प्रकार के होते है , ये अंग प्रत्यारोपण घठिया व दया के उपचार में सहायक है , ये यकृत में एमीनो अम्लों का ग्लूकोज में परिवर्तन कर ग्लूकोज का रक्त में नियमन करते है , ये प्रतिरक्षी निषेधात्मक प्रदाह विरोद्धी व एन्टीएलर्जिक प्रकृति के होते है |
  • लिंगी हार्मोन : यह जोना रेटिकुलेरिस द्वारा स्त्रवित होता है , इनमे एंड्रोजन , एस्ट्रोजन व प्रोजेस्ट्रोन के सूक्ष्म मात्रा पायी जाती है , ये हार्मोन बाह्य जनन अंगो व यौन व्यवहार की प्रभावित को प्रभावित करते है |

अधिवृक्क मध्यांश के हार्मोन :

मेड्युला की क्रोमोफिल कोशिकाओ से दो प्रकार के हार्मोन स्त्रवित होते है –

  1. एड्रीनेलिन : एड्रिनेलिन हार्मोन संकटकालीन परिस्थितियों का सामना करने के लिए मानव शरीर को प्रेरित करता है |यह अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र की क्रियाओ को संचालित करता है | अरैखित पेशियों को उत्तेजित करता है , जिससे रक्त दाब बढ़ना , ह्रदय की धडकन बढना , आँखे चौड़ी , व पुतली फैल जाना , रौंगटे खड़े होना , पसीना आना , ग्लाइकोजन का ग्लूकोज में परिवर्तन होना आदि | मानसिक तनाव , गुस्से तथा डर के समय यह हार्मोन अधिक स्त्रवित होता है |
  2. नॉर एड्रीनेलिन : यह हार्मोन एड्रिनेलिन के द्वारा नियमित होने वाली क्रियाओ को प्रेरित करता है , एड्रीनल मेड्युला को 3f ग्रन्थि भी कहते है , क्योंकि यह भय (Fear) संघर्ष (Fight) व पलायन (Flight) अनुक्रिया ऊत्पन्न करता है |

एड्रीनल ग्रन्थि को 4S ग्रंथि भी कहते है क्योंकि यह प्रतिक्रिया (stress) , शर्करा (Sugar) , लवण (salt) व लैंगिक विकास (sex) से सम्बन्धित क्रियाओं का नियमन करती है |

कमी से :

  • एडिसन रोग : यह मिनरेलोकार्टीकाइट की कमी से उत्पन्न होता है इसमें सोडियम आयनों की रक्त हो जाती है जिससे शरीर में निर्जलीकरण हो जाता है , इस रोग में रक्त दाब व शरीर ताप घट जाते है त्वचा कांस्य वर्ण हो जाती है , भूख कम , घबराहट व मितली होने लगती है |
  • कोंस रोग : यह भी मिनरेलोकार्टीकाइट की कमी से उत्पन्न होता है , इस रोग के दौरान सोडियम व पौटेशियम लवणों का संतुलन बिगड़ जाता है , पेशियों में अक्कड़न होने लगती है

अधिकता से :

  1. कुशिंग रोग : यह रोग ग्लूकोकार्टीकाईट की अधिकता से उत्पन्न होता है , इस रोग के दौरान शरीर में वसा का जमाव होने लगता है जिससे चेहरा लाल , गोलू व पेट फूल जाता है , परिणामस्वरूप शरीर भोंडा (बदसूरत) दिखाई देने लगता है |
  2. एड्रीनल विरिलिज्म : यह लिंगी हार्मोन की अधिकता से उत्पन्न होता है , इस रोग के दौरान लड़कियो में लड़को जैसे लक्षण उत्पन्न हो जाते है |
  3. आइनी कौमैस्ट्रिया : यह भी लिंगी हार्मोन की अधिकता से उत्पन्न होता है , इस विकार के दौरान स्त्रियों में नर जनन अंग बनने लगते है ऐसी स्त्रियाँ बाँझ होती है इसे आभासी उभयलिंगता कहते है , इस विकार के दौरान लडको में स्तन उभर आते है |
  4. इडीमा : यह विकार मिनरेलोकोर्टिकाइड की अधिकता से उत्पन्न होता है , इस विकार के दौरान रक्त में सोडियम आयन व जल की मात्रा बढ़ जाती है , शरीर जगह जगह से फूल जाता है , रोगी को लकवा भी हो सकता है |

Remark:

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