RBSE Solutions for Class 11 Political Science Chapter 4 राज्य की अवधारणा एवं सम्प्रभुता

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Rajasthan Board RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 राज्य की अवधारणा एवं सम्प्रभुता

RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर।

RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा किस विद्वान की मानी जाती है?
उत्तर:
राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा डॉ. गार्नर की मानी जाती है।

प्रश्न 2.
राज्य और सरकार में कोई दो अन्तर बताइए।
उत्तर:
राज्य और सरकार में दो अन्तर निम्नलिखित हैं

  1. राज्य अमूर्त और सरकार मूर्त है।
  2. राज्य स्थायी जबकि सरकार परिवर्तनशील है।

प्रश्न 3.
राज्य और समुदाय में सरकार किसका आवश्यक तत्व है?
उत्तर:
सरकार, राज्य का आवश्यक तत्व है।

प्रश्न 4.
राज्य के तत्व लिखिए।
उत्तर:
राज्य के चार तत्व हैं-

  1. जनसंख्या
  2. निश्चित भूमि
  3. सरकार
  4. प्रभुसत्ता (राजसत्ता)

प्रश्न 5.
रूसो राज्य की उत्पत्ति के लिए किस सिद्धान्त का समर्थक है?
उत्तर:
रूसो राज्य की उत्पत्ति के लिए सामाजिक संविदा सिद्धान्त का समर्थक है।

प्रश्न 6.
‘शासन पर दो निबन्ध’ किसकी कृति है?
उत्तर:
शासन पर दो निबन्ध जॉन लॉक की कृति है।

प्रश्न 7.
सामान्य इच्छा सिद्धान्त का प्रतिपादक कौन है?
उत्तर:
सामान्य इच्छा सिद्धान्त का प्रतिपादक रूसो है।

प्रश्न 8.
प्रभुसत्ता के कितने लक्षण हैं?
उत्तर:
प्रभुसत्ता के 6 लक्षण हैं-

  1. पूर्णता
  2. सार्वभौमिकता
  3. अदेयता
  4. स्थायित्व
  5. अविभाज्यता
  6. अनन्यता।

प्रश्न 9.
प्रभुसत्ता कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
प्रभुसत्ता दो प्रकार की होती है-

  1. आन्तरिक प्रभुसत्ता
  2. बाहरी प्रभुसत्ता।

RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की उपयोगिता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में ही रहना चाहता है। एक निश्चित सीमा में बिना किसी नियन्त्रण के एक गठित सरकार के अधीन संगठित लोगों के समुदाय को राज्य कहा जाता है। राज्य की बहुत अधिक उपयोगिता है। यह समाज में नियम कानून लागू करता है। इसका अस्तित्व लोगों के अच्छे जीवन के लिए है तथा यह लोगों से आज्ञापालन कराने का अधिकार रखता है।

राज्य एक राजनैतिक परिकल्पना है तथा बाह्य सामाजिक व्यवस्था को नियन्त्रित करता है। राज्य एक ऐसा समुदाय है जिसमें अनेक मनुष्य एकता के सूत्र में बँधे होते हैं। राज्य, सरकार के माध्यम से कानून का निर्माण करवाता है और उनका पालन करवाता है। कानूनों का उल्लंघन करने वालों को दण्ड देता है। यह सरकार के माध्यम से अपनी इच्छा को लागू करवाता है तथा शान्ति की स्थापना करता है।

प्रश्न 2.
राज्य की उत्पत्ति के कौन-कौन से सिद्धान्त हैं?
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त – राज्य कब और केसे उत्पन्न हुआ, यह कहना अत्यन्त कठिन है। अनेक राजनीतिक दार्शनिकों ने समय-समय पर राज्य की उत्पत्ति के सन्दर्भ में विभिन्न कल्पनाएँ की हैं और अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। अभी तक किसी भी सिद्धान्त को अन्तिम रूप से स्वीकार नहीं किया गया है। किन्तु इनका अपना महत्त्व है। इन सिद्धान्तों ने राजा और प्रजा के मध्य सम्बन्धों को निर्धारित किया है। दूसरे, इन सिद्धान्तों से प्राचीनकालीन राजनीतिक प्रवृत्तियों का ज्ञान होता है। तीसरे, इन सिद्धान्तों में राज्य की उत्पत्ति के कुछ अंश पाये जाते हैं, जिससे इनकी परस्पर तुलना सम्भव है।

राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्त प्रचलित हैं:

  1. काल्पनिक सिद्धान्त – इसके अन्तर्गत दैवीय उत्पत्ति को सिद्धान्त, शक्ति का सिद्धान्त एवं सामाजिक संविदा का सिद्धान्त सम्मिलित है।
  2. अर्द्धकाल्पनिक एवं अर्द्धतथ्यपूर्ण सिद्धान्त – इसके अन्तर्गत पितृप्रधान सिद्धान्त तथा मातृ प्रधान सिद्धान्त सम्मिलित हैं।
  3. ऐतिहासिक सिद्धान्त – इसके अन्तर्गत राज्य का विकासवादी सिद्धान्त सम्मिलित है।

प्रश्न 3.
राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौते का सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौते का सिद्धान्त-राज्य की उत्पत्ति से सम्बन्धित सामाजिक समझौते का सिद्धान्त बहुत पुराना है। यह सिद्धान्त राज्य को दैवीय शक्ति द्वारा सृजित संस्था न मानकर लोगों द्वारा किए गए पारस्परिक समझौते का परिणाम मानता है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य एक मानवकृति संस्था है। वह न तो शक्ति पर निर्भर है और न ही दैवीय अधिकार पर। प्राचीन भारतीय साहित्य में भी

सामाजिक समझौता सिद्धान्त के सूत्र प्राप्त होते हैं। महाभारत के शान्ति पर्व में संविदा सिद्धान्त का बड़े विशद् रूप से वर्णन मिलता है। आचार्य चाणक्य ने राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सामाजिक समझौता, सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और राज्य को दैवीय उत्पत्ति का परिणाम न मानकर मानवीय प्रयत्नों द्वारा निर्मित व जनता की सहमति पर आधारित संस्था माना है। बौद्ध और जैन साहित्य में भी सामाजिक समझौते का उल्लेख मिलता है। इस सिद्धान्त के सूत्र पाश्चात्य देशों से भी प्राप्त होते हैं।

प्राचीन यूनान के सॉफिस्ट विचारकों ने संविदा । सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। इनके अनुसार राज्य संस्था की उत्पत्ति मनुष्यों की संविदा द्वारा हुई है। आधुनिक काल में व्यवस्थित सिद्धान्त के रूप में इसका प्रतिपादन हॉब्स, लॉक एवं रूसो द्वारा किया गया। हॉब्स इस सिद्धान्त के माध्यम से निरंकुश राजतन्त्र, लॉक सीमित राजतन्त्र एवं रूसो लेाकप्रिय प्रभुसत्ता को न्यायसंगत ठहराने का प्रयत्न करते हैं।

प्रश्न 4.
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धान्त-राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धान्त, सबसे पुराना सिद्धान्त है। यह पूरी तरह से एक काल्पनिक सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मानता है। वह राजा को जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं मानता है। यह सिद्धान्त निरङ्कुश राजतन्त्र का समर्थन करता है। प्रजा का कर्तव्य सदैव राजा की आज्ञा का पालन करना होता है। राजा की आज्ञाओं की अवहेलना करना, ईश्वर के प्रति अपराध माना जाता है।

राज्य मानव निर्मित संस्था न होकर दैवीय संस्था है। राज्य को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ईश्वरीय संस्था माना गया है। इस सिद्धान्त के समर्थकों में प्रथम स्थान चिंतकों यहूदियों का था। यूनान व रोम में भी इसी सिद्धान्त को मान्यता दी गयी। मिस्र और चीन के साथ – साथ प्राचीन भारतीय चिंतकों की मान्यता रही है कि राज्य की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा हुई है। मनुस्मृति के अनुसार, राज्य ईश्वर की कृति है।

महाभारत के शान्तिपर्व में भी राजा की दैवीय उत्पत्ति का संकेत मिलता है। 16वीं शताब्दी के पश्चात् इस सिद्धान्त का पतन होने लगा। इस सिद्धान्त को लोकतन्त्र के विरुद्ध, अवैज्ञानिक, रूढ़िवादी, धार्मिक सिद्धान्त मानकर आधुनिक राज्यों पर लागू न मानकर इसकी आलोचना की जाने लगी।

प्रश्न 5.
प्रभुसत्ता की विभिन्न परिभाषाओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रभुसत्ता की परिभाषाएँ एवं उनकी व्याख्या-प्रभुसत्ता को हिन्दी में राजसत्ता अथवा सम्प्रभुता कहा जाता है। प्रभुसत्ता का अंग्रेजी रूपान्तरण सॉवरेन्टी (Sovereignty) लैटिन भाषा के ‘सुप्रेनस’ (Suprenus) शब्द से बना है। जिसका अर्थ-सर्वोच्च शक्ति होता है। इस प्रकार प्रभुसत्ता को सर्वोच्च शक्ति के रूप में समझा जा सकता है। यह राज्य का विशेष लक्षण है और राज्य को बनाने वाले चार तत्वों में सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व है। विभिन्न विद्वानों ने प्रभुसत्ता की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं

  1. जैलिनेक के अनुसार, “प्रभुसत्ता राज्य का वह गुण है जिसके कारण वह अपनी इच्छा के अतिरिक्त किसी दूसरे की इच्छा या बाहरी शक्ति के आदेश से नहीं बाँधता है।”
  2. ग्रोशियस के अनुसार, “प्रभुसत्ता किसी में निहित वह सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति है जिसके कार्य किसी दूसरे के अधीन न हों तथा जिसकी इच्छा का कोई उल्लंघन न कर सके।”
  3. डयुग्विट के अनुसार, “प्रभुसत्ता राज्य की आदेश देने वाली शक्ति है। यह राज्य के रूप में संगठित राज्य की इच्छा है। यह राज्य की भूमि में रहने वाले समस्त व्यक्तियों को बिना शर्त आज्ञा देने का अधिकार है।”
  4. लॉस्की के अनुसार, “प्रभुसत्ताधारी ही वैधानिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय से उच्चतर है। वह सभी को अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए बाध्य कर सकता है।”
  5. वुडरो विल्सन के अनुसार, “प्रभुसत्ता वह शक्ति है जो प्रतिदिन क्रियाशील रहकर कानून बनाती है तथा उनका पालन कराती है।”
  6. विलोबी के अनुसार, “प्रभुसत्ता राज्य की सर्वोपरि इच्छा होती है।”
  7. बोडिन के अनुसार, “प्रभुसत्ता नागरिकों तथा प्रजा के ऊपर वह परम शक्ति है जो कि कानूनों से नियन्त्रित नहीं है।”
  8. बर्गेस के अनुसार, “प्रभुसत्ता प्रत्येक प्रजातन्त्र व उसके समुदायों पर राज्य की मौलिक, निरकुंश तथा असीमित शक्ति है।” उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रभुसत्ता राज्य की सर्वोच्च शक्ति होती है। यह आन्तरिक व बाहरी दोनों हो सकती है। इस पर सैद्धान्तिक रूप से कोई रुकावट नहीं लगायी जा सकती है।

प्रश्न 6.
प्रभुसत्ता के विभिन्न लक्षणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रभुसत्ता के प्रमुख लक्षण/विशेषताएँ – प्रभुसत्ता के प्रमुख लक्षण अथवा विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. पूर्णता – प्रभुसत्ता एक पूर्ण और असीम शक्ति है। यह अन्य किसी शक्ति पर निर्भर नहीं है। राज्य के अन्दर समस्त व्यक्ति एवं उनके समूह प्रभुसत्ताधारी के अधीन होते हैं। राज्य के बाहर भी प्रभुसत्ताधारी को अपने राज्य के सन्दर्भ में सर्वोच्च माना जाता है। अन्य कोई राज्य उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता और न ही उसे किसी बात के लिए विवश कर सकता है।

2. सार्वभौमिकता – प्रभुसत्ता राज्य के भीतर समस्त व्यक्तियों, संस्थाओं तथा अन्य वस्तुओं में सर्वोच्च होती है। राज्य स्वयं किसी विषय को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर रख सकता है परन्तु किसी व्यक्ति या संगठन को यह अधिकार नहीं होता कि वह स्वेच्छा से राज्य के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहे। राज्य के सीमा क्षेत्र के अन्तर्गत प्रभुसत्ता एक सर्वव्यापक, सार्वभौम और सार्वजनिक शक्ति है।

3. अदेयता – प्रभुसत्ता अखण्ड होती है। इस कारण यह किसी और को नहीं सौंपी जा सकती। यदि प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य अपनी प्रभुसत्ता किसी और को हस्तान्तरित करना चाहे तो उसका अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।

4. स्थायित्व – प्रभुसत्ता स्थायी होती है। जब तक राज्य को अस्तित्व रहता है, तब तक प्रभुसत्ता भी रहती है। दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

5. अविभाज्यता – प्रभुसत्ता पूर्ण और सर्वव्यापक होती है। अत: इसके टुकड़े नहीं किये जा सकते। प्रभुसत्ता के टुकड़े करते ही राज्य के भी टुकड़े हो जाएँगे।

6. अनन्यता – एक राज्य में दो प्रभुसत्ताधारी नहीं हो सकते हैं। यदि एक राज्य में दो प्रभुसत्ताधारी स्वीकार कर लिए जाएँ तो उससे राज्य की एकता नष्ट हो जाएगी।

प्रश्न 7.
प्रभुसत्ता के विभिन्न रूपों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रभुसत्ता के विभिन्न रूप-प्रभुसत्ता के विभिन्न रूप अग्रलिखित हैं
1. नाममात्र की तथा वास्तविक प्रभुसत्ता – पहले अनेक देशों में राजा या सम्राट निरंकुश होते थे। उनके हाथ में वास्तविक शक्तियाँ होती थीं तथा संसद उनके हाथों की कठपुतली होती थी। उस समय वे वास्तविक प्रभुसत्ता का प्रयोग करते थे। इंग्लैण्ड की गौरवपूर्ण क्रान्ति (1588 ई.) के पश्चात् स्थिति में परिवर्तन आया है। अब राजा या सम्राट की शक्तियाँ नाममात्र की रह गयी हैं। इनकी शक्तियों का प्रयोग मन्त्री ही करते हैं।

2. वैधानिक प्रभुसत्ता – किसी भी देश में वहाँ की सर्वोच्च कानून बनाने वाली शक्ति को वैधानिक प्रभुसत्ता कहते हैं। उसको उस देश में कानून बनाने, संशोधन करने तथा निरस्त करने का पूर्ण अधिकार होता है। इंग्लैण्ड में सम्राट सहित संसद वहाँ की प्रभुसत्ताधारी है।

3. राजनीतिक प्रभुसत्ता – राजनीतिक प्रभुसत्ता का अर्थ है-राज्य में कानून के पीछे रहने वाला लोकमत, यह वैधानिक प्रभुसत्ता की आधारशिला है। इसे न्यायालयों द्वारा मान्यता दी जाती है। इस पर दलीय राजनीति व जनमत का नियन्त्रण रहता है।

4. लौकिक प्रभुसत्ता – लौकिक प्रभुसत्ता का अर्थ है-जनता की शक्ति सबसे बड़ी है। गार्नर के अनुसार, लौकिक प्रभुसत्ता का अभिप्राय केवल यही है कि जिन राज्यों में वयस्क को वोट देने का अधिकार है, उनमें मतदाताओं को अपनी इच्छा प्रकट करने तथा उस पर अमल करवाने की सत्ता प्राप्त है।

5. विधितः तथा वस्तुतः प्रभुसत्ता-विधिवत प्रभुसत्ताधारी वह होता है जो ‘कानूनी दृष्टि से राज्य के सर्वोच्च आदेश जारी कर सकता है। कानून के अनुसार, उसे शासन करने का अधिकार है तथा वह अपनी आज्ञा का पालन करवा सकता है परन्तु जब किसी देश पर कोई आक्रमण अथवा क्रान्ति हो जाती है तो वह विधितः प्रभुसत्ताधारी अपनी आज्ञा का पालन करवाने में असमर्थ रहता है और कोई नया आक्रमणकारी या क्रान्तिकारी नेता वस्तुतः प्रभुसत्ताधारी बन जाता है।

RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की परिभाषा दीजिए तथा उसके विभिन्न तत्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राज्य की परिभाषा राजनीतिशास्त्र का मुख्य विषय राज्य है, परन्तु इसका अनेक अर्थों में प्रयोग किया जाता है। राज्य शब्द को अंग्रेजी में स्टेट (State) कहा जाता है। अंग्रेजी शब्द स्टेट (State) लैटिन भाषा के स्टेटस (Status) शब्द से निकला है जिसका शाब्दिक अर्थ किसी व्यक्ति के सामाजिक स्तर से होता है परन्तु धीरे – धीरे इसका अर्थ परिवर्तित हुआ और बाद में इसका अर्थ सम्पूर्ण समाज के स्तर से हो गया। विद्वानों ने राज्य की अलग – अलग परिभाषाएँ दी हैं। राज्य की कुछ प्रचलित परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. अरस्तु के अनुसार, “राज्य परिवारों तथा ग्रामों का एक संघ होता है जिसका उद्देश्य एक पूर्ण तथा आत्मनिर्भर जीवन की स्थापना है।”
  2. सिसरो के अनुसार, “राज्य एक बहुसंख्यक समुदाय है जो अधिकारों की समान भावना तथा लाभ उठाने में आपसी सहायता द्वारा जुड़ा हुआ है।”
  3.  ब्लंटशली के अनुसार, “एक निश्चित प्रदेश के राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोग राज्य है।”
  4. बर्गेस के अनुसार, “राज्य एक संगठित इकाई के रूप में मानव जाति का एक विशिष्ट भाग है।”
  5. लॉस्की के अनुसार, “राज्य एक भूमिगत समाज है जो शासक और शासितों में बँटा होता है तथा अपनी सीमाओं के क्षेत्र में आने वाली अन्य संस्थाओं पर सर्वोच्चता का दावा करता है।”
  6. बुडरो विल्सन के अनुसार, “पृथ्वी के किसी निश्चित भाग में शान्तिमय जीवन के लिए संगठित जनता को राज्य कहा जाता है।”
  7. गार्नर के अनुसार, “राजनीतिशास्त्र और सार्वजनिक कानून की धारणा के रूप में राज्य थोड़े या अधिक संख्या वाले संगठन का नाम है जो कि स्थायी रूप से पृथ्वी के निश्चित भाग में रहता हो। वह बाहरी नियन्त्रण से सम्पूर्ण स्वतन्त्र या लगभग स्वतन्त्र हो और उसकी एक संगठित सरकार हो जिसकी आज्ञा का पालन अधिकतर जनता स्वभाव से करती हो।”
  8. ओपन हेम के अनुसार, “जब किसी देश के बसने वाले लोग अपनी सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न सरकार के अन्तर्गत रहते हैं तब वहाँ राज्य की स्थापना हो जाती है।”
  9.  बोडिन के अनुसार, “राज्य परिवारों तथा उनकी सांझी सम्पत्ति का एक समुदाय है जो एक सर्वश्रेष्ठ सत्ता तथा विवेक द्वारा शासित है।”
  10. विलोबी के अनुसार, राज्य मनुष्यों के उस समाज को कहते हैं जिसमें एक ऐसी सत्ता पायी जाती है जो अपने अन्तर्गत व्यक्तियों तथा व्यक्ति समूहों के कार्यों पर नियन्त्रण रखती हो लेकिन वह स्वयं किसी भी नियन्त्रण से मुक्त हो ।”

राज्य के विभिन्न तत्व राज्य के चार तत्व माने जाते हैं-

  1.  जनसंख्या
  2. निश्चित भू – भाग
  3. सरकार
  4. राज्यसत्ता।

(i) जनसंख्या – राज्य एक ऐसा समुदाय है जिसमें अनेक मनुष्य एकता के सूत्र में बँधे होते हैं अतः जनसंख्या राज्य का आवश्यक तत्त्व है। बिना जनसंख्या के राज्य नहीं बन सकता। निर्जन प्रदेश को राज्य नहीं कहा जा सकता। राज्य में कितनी जनसंख्या होनी चाहिए, यह निश्चित नहीं है।

(ii) निश्चित भू – भाग-राज्य का दूसरा आवश्यक तत्व निश्चित भू-भाग है। राज्य के पास निश्चित रूप में कुछ क्षेत्र होना चाहिए किन्तु राज्य के आकार के सन्दर्भ में सीमा व एकरूपता प्रस्तावित नहीं की जा सकती। विश्व के संगठित राज्यों के क्षेत्र में पर्याप्त भिन्नता है, जैसे-रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, भारत आदि का क्षेत्रफल बहुत अधिक है। वहीं वेटिकन सिटी, सेन मेरिनो व मोरक्को आदि देशों का क्षेत्रफल कुछ ही वर्ग किमी. है।

(iii) सरकार – सरकार राज्य का तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्व है। सरकार को ऐसे अभिकरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके माध्यम से राज्य की इच्छा को प्रतिपादित व क्रियान्वित किया जाता है। इस प्रकार राज्य में सरकार का निर्माण चाहे वह केन्द्रीय हो या स्थानीय, उसके तीन निकाय व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के योग से होता है।

(iv) राजसत्ता – राजसत्ता को प्रभुसत्ता या सम्प्रभुता के नाम से भी जाना जाता है। यह राज्य को प्राण है। इसके बिना राज्य नहीं बन सकता। राजसत्ती का अर्थ है – राज्य की सर्वोच्च शक्ति। राज्य सत्ता ही राज्य का एक ऐसा लक्षण है जो अन्य समुदायों से उसकी पृथक् पहचान बनाता है। राज्य अपना अस्तित्व तभी तक स्थापित रख सकता है जब तक वह प्रभुसत्ता से सम्पन्न रहता है। यदि बाह्य आक्रमण अथवा आन्तरिक विद्रोह के कारण राज्य अपनी राजसत्ता खो देता है तो उस राज्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 2.
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह प्राचीनतम सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त काल्पनिक सिद्धान्त की श्रेणी में आता है। यह सिद्धान्त मूलतः धार्मिक भावना या धर्म पर आधारित है। इस सिद्धान्त के अनुसार, राज्य की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा हुई है। ईश्वर राज्य में या तो स्वयं शासन करता है अथवा किसी प्रतिनिधि को इसे कार्य के लिए नियुक्त करता है, जोकि ईश्वर की ओर से शासन करता है। यह राजा ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है, न कि जनता के प्रति।

पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन में राज्य के ईश्वरीय रूप का प्रतिपादन हुआ है। दैवीय उत्पत्ति के सिद्धान्त के समर्थकों में यहूदी सर्वप्रथम थे। यहूदी धर्म ग्रन्थों में राजा को ईश्वर द्वारा नियुक्त किया हुआ माना गया है। ईश्वर ही राजा को गद्दी से हटा सकता है अथवा मार सकता है। यूनानी दार्शनिकों ने राज्य को एक स्वाभाविक व दैवीय संस्था माना है।

प्राचीन भारतीय चिंतकों की मान्यता रही है कि राज्य की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा हुई है। हिन्दू धर्मग्रन्थों एवं मनुस्मृति आदि में इस मत के प्रतिपादन का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति के अनुसार, राजा ईश्वर की कृति है। महाभारत के शान्ति पर्व में भी राजा की दैवीय उत्पत्ति का संकेत मिलता है।

दैवीय सिद्धान्त के आधारभूत तत्व – इस सिद्धान्त के आधारभूत तत्व निम्नलिखित हैं:

  1. राज्य एक ईश्वर निर्मित संस्था है। इसे ईश्वर ने लोगों के लाभ के लिए बनाया है।
  2. राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है। वह केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है।
  3. जनता का धार्मिक कर्त्तव्य है कि वह राजा की आज्ञा का पालन करे। राजा का विरोध करना ईश्वर का विरोध करना है।
  4. अत्याचारी राजा का विरोध करने का जनता को अधिकार नहीं है। ईश्वर स्वयं उसके बुरे कर्मों का हिसाब माँग लेगा।
  5. राजा किसी कानून के अधीन नहीं है, वह स्वयं कानून बनाता है।
  6. राजा के आदेश ही कानून हैं तथा उसके कार्य सदैव न्यायपूर्ण और उदार होते हैं।
  7. पृथ्वी पर कोई शक्ति राजा की इच्छा एवं शक्ति पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकती।
  8. राजसत्ता पैतृक होती है। राजा की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र उत्तराधिकारी होता है।
  9. शासन की सत्ता के विरुद्ध असन्तोष प्रकट करना तथा उसके कार्य को अन्यायपूर्ण बताना पाप है।

दैवीय सिद्धान्त की आलोचना:
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई:

  1. अवैज्ञानिक सिद्धान्त-दैवीय सिद्धान्त की मान्यताओं को केवल धार्मिक विश्वासों के आधार पर ही सही माना जा सकता है, तर्क के आधार पर नहीं।
  2. लोकतान्त्रिक भावनाओं के विरुद्ध-यह सिद्धान्त लोकतन्त्र के विरुद्ध है तथा निरङ्कुश राजतन्त्र का समर्थन करता है। इस सिद्धान्त का सहारा लेकर राजाओं ने अपनी शक्तियों को अपनी इच्छानुसार बढ़ाकर जनता पर अत्याचार किया।
  3. धार्मिक सिद्धान्त – आज के युग में जहाँ बहुत से लोग ईश्वर तथा धर्म में आस्था नहीं रखते, उनके लिए इसकी कोई उपयोगिता नहीं है।
  4. रूढ़िवादी सिद्धान्त – यह सिद्धान्त एक रूढ़िवादी सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त की मान्यताओं में कोई जनहितकारी परिवर्तन नहीं किये जा सकते क्योंकि राजा के प्रति विरोध को ईश्वर के प्रति अपराध एवं पाप माना गया है।
  5. आधुनिक राज्यों पर लागू नहीं – यह सिद्धान्त आधुनिक राज्यों पर लागू नहीं होता क्योंकि उनमें से अधिकांश राज्यों में राजतन्त्र नहीं है। जिन राज्यों में लोकतन्त्र है वहाँ राष्ट्रपति को ईश्वर नियुक्त नहीं करता बल्कि जनता या उसके प्रतिनिधि स्वयं चुनते हैं।

दैवीय सिद्धान्त का महत्त्व:
वर्तमान में यह सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या नहीं करता फिर भी इस सिद्धान्त की अपनी उपयोगिता है। इस सिद्धान्त ने प्रारम्भिक अराजकतापूर्ण समाज में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने में योगदान दिया है। इस सिद्धान्त ने राज्य के विकास में धर्म का प्रभाव प्रतिपादित किया है तथा जनता के मन में आज्ञापालन एवं अनुशासन की भावना को विकसित किया है।

यह सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति की क्रमबद्ध व्याख्या करने का प्रथम प्रयास था जिस पर आगे चलकर राज्य की उत्पत्ति के नये – नये सिद्धान्त विकसित हुए। यह सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति के इतिहास का प्रारम्भ माना जाता है। इस प्रकार आज भले ही यह सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या नहीं करता हो लेकिन प्रारम्भिक समय में इसने शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

प्रश्न 3.
राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धान्त:
राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सामाजिक समझौता सिद्धान्त बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य कोई दैवीय शक्ति द्वारा सृजित संस्था नहीं है। राज्य लम्बी विकास प्रक्रिया का परिणाम भी नहीं है। राज्य लोगों में राजनीतिक चेतना की स्वाभाविक परिणति है। अत: यह एक मानव निर्मित कृति है। राज्य लोगों द्वारा किए गए पारस्परिक समझौते का परिणाम है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्राचीनकाल में मनुष्य राज्य संस्था के अभाव में अपना जीवन व्यतीत करता था।

इस काल को हम अराजक काल अथवा प्राकृतिक दशा को काल कह सकते हैं। इस काल में मनुष्यों की क्या दशा थी, इस विषय में विचारकों में मतभेद हैं। कुछ विचारक इसे आदर्श दशा मानते हैं तो कुछ मानते हैं कि इस काल में मानव जीवन सुरक्षित नहीं था। बाद के समय में मनुष्यों को राज्य संस्था की आवश्यकता अनुभव हुई। अतः सभी ने परस्पर मिलकर एक संविदा की जिस कारण राज्य की उत्पत्ति हुई।

राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धान्त की व्याख्या
प्राचीन भारत में समझौता (संविदा सिद्धान्त) – प्राचीन भारतीय साहित्य में इस समझौता सिद्धान्त के सुत्र प्राप्त होते हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में इस बात का वर्णन मिलता है कि पहले राज्य नहीं था, उसके स्थान पर अराजकता थी। ऐसी स्थिति से तंग आकर मनुष्यों ने परस्पर समझौता किया और मनु को अपना शासक स्वीकार किया।

आचार्य चाणक्य ने भी राज्य संस्था की उत्पत्ति के सम्बन्ध में समझौता सिद्धान्त को स्वीकार किया। चाणक्य ने राज्य से पूर्व की स्थिति को अराजकता की स्थिति की संज्ञा दी है। चाणक्य राज्य को दैवीय उत्पत्ति का परिणाम नहीं मानते हैं, अपितु राज्य का मानवीय प्रयत्नों द्वारा निर्मित, जनता के प्रस्ताव एवं मनु (राजा) द्वारा व्यक्त सहमति का परिणाम मानते हैं। बौद्ध व जैन साहित्य में भी सामाजिक समझौते का उल्लेख मिलता है।

पाश्चात्य देशों में समझौता (संविदा) सिद्धान्त – पश्चिम में सर्वप्रथम यूनानी सोफिस्ट विचारकों ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इनके अनुसार राज्य संस्था की उत्पत्ति मनुष्यों की संविदा से हुई है। प्लेटो व अरस्तू ने राज्य संस्था को कृत्रिम न मानकर नैसर्गिक मानी है। इनके अनुसार, मनुष्य स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है तथा समाज के संगठन द्वारा ही मनुष्यों के हितों का सम्पादन होता है।

आधुनिक काल में समझौता (संविदा) सिद्धान्त -16 से 18र्वी शताब्दी में यूरोप में अनेक ऐसे विचारक उत्पन्न हुए जिन्होंने इस सिद्धान्त का विस्तृत रूप से प्रतिपादन किया। इन विचारकों में थामस हॉब्स, लॉक एवं रूसो प्रमुख हैं। थॉमस हॉब्स के अनुसार, राज्य संस्था के जन्म से पूर्व अराजकता या प्राकृतिक दशा का वातावरण था। मनुष्य स्वार्थी, झगड़ालू था। मनुष्य अपने सुख एवं स्वार्थों की पूर्ति हेतु अन्य लोगों से संघर्ष में लिप्त रहता था।

इस प्राकृतिक अवस्था में जीवन की असुरक्षा एवं असामयिक मृत्यु के भय ने व्यक्तियों को अराजकता को समाप्त कर व्यवस्थित राजनीतिक समाज का निर्माण करने हेतु प्रेरित किया। इस राजनीतिक समाज के निर्माण के लिए प्रत्येक व्यक्ति ने अन्य व्यक्तियों के साथ समझौता किया। इस समझौते से महामानव (लेवियाथन) की उत्पत्ति हुई। इसे सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न शासक की संज्ञा दी गई।

जॉन लॉक के अनुसार, राज्य संस्था के उदय से पूर्व अराजक था, प्राकृतिक दशा में मानव शान्तिपूर्वक निवास करता था, वह पूर्ण रूप से स्वतन्त्र था। सभी लोग प्राकृतिक कानूनों एवं नैतिकता के नियमों को मानते थे। पर अराजकता की यह दशा लम्बे समय तक स्थापित नहीं रह सकी क्योंकि इससे मनुष्यों को अनेक असुविधाएँ । जैसे उचित व अनुचित क्या है? प्रकृति के नियम क्या हैं? इस विषय में मतभेद होने पर निर्णायक व मध्यस्थ के अभाव में प्राकृतिक नियमों का सुचारू रूप से पालन सम्भव न होने से मनुष्यों ने सामाजिक समझौता कर राज्य संस्था की उत्पत्ति की।

रूसो ने राज्य संस्था के उदय से पूर्व अराजक दशा में मनुष्य को सादगी व स्वतन्त्रता के साथ निवास करता हुआ माना है। इस काल में लोगों को उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय या धर्म-अधर्म का कोई ज्ञान नहीं था। परन्तु धीरे-धीरे मनुष्यों की संख्या बढ़ने पर उनमें ईष्र्या, द्वेष व झगड़ों की स्थिति हो गई और अराजक दशा में समस्त सुखों व शान्ति का अन्त हो गया। इस दशा का परिणाम यह हुआ कि मनुष्यों ने अपने को एक राज्य संस्था में संगठित कर लेने की आवश्यकता अनुभव कर परस्पर एक समझौता किया।

इसी समझौते द्वारा सामान्य इच्छा का निर्माण हुआ और राज्य की उत्पत्ति हुई। समझौता सिद्धान्त का पतन -18वीं शताब्दी में राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी समझौता सिद्धान्त का पतन प्रारम्भ हो गया। इस शताब्दी में ऐसे कई विचारक हुए जिन्होंने इस सिद्धान्त के विरुद्ध आवाज उठायी। इनमें डेविड ह्यूम का नाम प्रमुख है। 19वीं शताब्दी में ल्यूदिवाग, बेन्थम, हैनरीमैन, ब्लंटशली व पोलाक आदि विचारकों ने इस सिद्धान्त का अनेक आधारों पर विरोध किया।

प्रश्न 4.
राज्य की उत्पत्ति तथा विकास में सहायक तत्वों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति एवं विकास में सहायक तत्व-राज्य की उत्पत्ति एवं विकास में सहायक तत्वों का वर्णन निम्नलिखित है
(क) जनसंख्या – किसी भी राज्य की उत्पत्ति एवं विकास के लिए जनसंख्या बहुत आवश्यक तत्व है। बिना जनसंख्या के राज्य का निर्माण सम्भव नहीं है। किसी राज्य की जनसंख्या कितनी हो, इसकी सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। किन्तु राज्य की जनसंख्या यदि राज्य में उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप हो, तो स्थिति बहुत अच्छी रहती है अन्यथा विभिन्न प्रकार की समस्याओं का उद्भव होने लगता है।

(ख) निश्चित प्रदेश या भूमि – राज्य की उत्पत्ति एवं विकास में सहायक दूसरा महत्वपूर्ण तत्व भूमि है किसी भी राज्य के लिए भूमि का क्षेत्रफल कितना हो इस बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। क्षेत्रफल कम भी हो सकता है और अधिक भी। यदि किसी राज्य के पास अधिक भूमि होती है तो वह उसके लिए शक्तिवर्धक सिद्ध होती है।

(ग) सरकार – यह राज्य का तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है। सरकार के द्वारा ही राज्य की इच्छा व्यक्त होती है। सरकार राज्य की इच्छाओं को क्रियान्वित करती है। इसके द्वारा ही समाज में संगठन का उद्भव होता है एवं राज्य में शान्ति की स्थापना होती है। सरकार अपना कार्य तीन अंगों के माध्यम से करती है-कार्यपालिका, विधानमण्डल और न्यायपालिका।
कार्यपालिका द्वारा देश का शासन संचालित होता है।

कानून कार्यपालिका के द्वारा ही लागू होते हैं। विधानमण्डल कानून का निर्माण करता है। न्यायपालिको कानूनों की व्याख्या करती है। सरकार अपने राज्य क्षेत्र में रह रहे व्यक्तियों से कानून का पालन करवाती है। जो कानून का पालन नहीं करते उन्हें दण्डित करती है राज्य में सरकार किस तरह की है, इस बारे में कोई निश्चित नियम नहीं है। विश्व के कई देशों में संसदीय सरकार है तो कई में अध्यक्षात्मक सरकार।

(घ) राजसत्ता या प्रभुसत्ता-इसका तात्पर्य है राज्य की सर्वोच्च शक्ति। राजसत्ता या प्रभुसत्ता राज्य का प्राण है यह दो प्रकार की होती है-बाहरी और आन्तरिक। बाहरी सत्ता का अर्थ है राज्य का किसी बाहरी शक्ति के अधीन न होना। आन्तरिक सत्ता का अर्थ हैं कि राज्य अपनी समस्त संस्थाओं और व्यक्तियों के ऊपर सर्वोच्च सत्ता रखता है।

किसी भी अन्य राज्य को दूसरे राज्य की संस्थाओं और व्यक्तियों पर नियन्त्रण रखने का आज्ञा अथवा अधिकार नहीं दिया जा सकता। राज्य की उत्पत्ति एवं विकास में सहायक चारों तत्वों के अलावा एक तत्व और महत्वपूर्ण है। यह है प्रजा द्वारा आज्ञापालन की भावना। राजनीति शास्त्री डॉ. बिलोबी के अनुसार, उपर्युक्त चार तत्वों के रहने के बावजूद यदि राज्य के लोगों में आज्ञा पालन का भाव नहीं है, तो वह राज्य अधिक समय तक अपना अस्तित्व बचाकर नहीं रख सकता।

प्रश्न 5.
राज्य की उत्पत्ति का ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त वैज्ञानिक और तर्कसंगत क्यों माना जाता है?
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति का ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति का ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत माना जाता है क्योंकि राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दैवीय सिद्धान्त, शक्ति सिद्धान्त, सामाजिक समझौता सिद्धान्त, पितृप्रधान सिद्धान्त एवं मातृप्रधान सिद्धान्त कल्पना पर आधारित हैं। राज्य किसी समय विशेष में निर्मित संस्था नहीं वरन् शताब्दियों के विकास का परिणाम है।

यह धीरे – धीरे अस्तित्व में आया है। राज्य के विकास का क्रम एक जैसा नहीं रहा। भिन्न-भिन्न कालों, अवस्थाओं एवं स्थानों में राज्य के विकास का क्रम भिन्न-भिन्न रहा है। यह सिद्धान्त राज्य को एक प्राकृतिक एवं स्वाभाविक संस्था मानता है। समाज, संस्कृति, सभ्यता एवं विज्ञान के विकास के साथ राज्य वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर पाया है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य के विकास में अनेक तत्वों का योगदान रहा है। ये प्रमुख तत्व हैं

(i) स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्ति – मनुष्य स्वभाव से एक सामाजिक एवं राजनीतिक प्राणी है। मनुष्य की समूह में रहने की प्रवृत्ति ने ही राज्य को जन्म दिया। समाज में विभिन्न व्यक्तियों के मध्य विवादों के समाधान के लिए एक प्रभुसत्ता सम्पन्न राजनीतिक संस्था की आवश्यकता समझी गयी। इस प्रकार राज्य का जन्म हुआ।

(ii) रक्त सम्बन्ध – प्राचीन काल में रक्त सम्बन्ध ने एकता और संगठन के भाव उत्पन्न किए। रक्त सम्बन्ध की प्राचीनतम और निकटतम इकाई परिवार था। जनसंख्या के बढ़ने के साथ-साथ परिवार के बढ़ने से जाति व कुल बने तब समाज का जन्म हुआ जिसने आगे चलकर राज्य का रूप धारण कर लिया।

(iii) धर्म – रक्त सम्बन्ध के समान ही राज्य के विकास में धर्म का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। रक्त सम्बन्ध की भाँति ही धर्म ने भी आदिम मनुष्य और समाज को जोड़ने का कार्य किया है। मनुष्य अपने परिवार के वृद्धजनों की मृत्यु हो जाने पर उनकी आत्मा की शान्ति के लिए पितृ पूजा करते थे। व्यक्ति पृथ्वी, सूर्य, अग्नि, इन्द्र आदि प्राकृतिक शक्तियों की भी पूजा करते थे। व्यक्तियों ने प्रकृति की प्रत्येक वस्तु एवं परिवर्तन में ईश्वर की शक्ति का अनुभव किया। एक ही शक्ति के उपासकों में परस्पर घनिष्ठ मैत्रीभाव उत्पन्न हुआ जो राज्य का आधार बना।

(iv) शक्ति – सामाजिक व्यवस्था को राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तित करने का कार्य युद्धों के द्वारा किया गया। कृषि और व्यवसाय की उन्नति से वैयक्तिक सम्पत्ति का उदय हुआ। इस सम्पत्ति की रक्षा हेतु युद्ध होने लगे। लोग सुरक्षा प्राप्ति हेतु शक्तिशाली व्यक्तियों का नेतृत्व स्वीकार करने लगे। इस प्रकार शक्ति अर्थात् युद्ध से राज्य की उत्पत्ति हुई।

(v) आर्थिक गतिविधियाँ – राज्य की उत्पत्ति एवं विकास में मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों का भी विशेष महत्त्व रहा है। आदिम काल से लेकर वर्तमान तक मनुष्य चार आर्थिक अवस्थाओं से गुजरा, यथा-आखेट अवस्था, पशुपालन अवस्था, कृषि अवस्था एवं औद्योगिक अवस्था । आर्थिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के राजनीतिक संगठन में भी अनेक परिवर्तन हुए हैं। इस प्रकार आर्थिक गतिविधियों ने राज्य के विकास को प्रभावित किया।

(vi) राजनीतिक चेतना – राज्य के विकास में धर्म और रक्त सम्बन्ध तथा सामाजिक चेतना के साथ-साथ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व राजनीतिक चेतना है। इस राजनीतिक चेतना के द्वारा कुछ निश्चित राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त किया जाता है। लोगों की सुरक्षा, सम्पत्ति की रक्षा एवं जनसंख्या वृद्धि के कारण बढ़ते परिवारों के सम्बन्धों को निध. रित करने के लिए ऐसे राजनीतिक संगठन एवं कानूनों की आवश्यकता अनुभव की गई, जो व्यवस्था बनाए रख सकें। परिणामस्वरूप शासन एवं कानून का जन्म हुआ तथा राज्य मूर्त रूप में सामने आया।

प्रश्न 6.
प्रभुसत्ता से आप क्या समझते हैं? प्रभुसत्ता के विभिन्न रूपों एवं लक्षणों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
प्रभुसत्ता से अभिप्राय:
प्रभुसत्ता को हिन्दी में राजसत्ता अथवा सम्प्रभुता भी कहा जाता है। प्रभुसत्ता का अंग्रेजी रूपान्तरण ‘सॉवरेन्टी’ (Sovereignty) लैटिन भाषा के ‘सुप्रेनस’ (Suprenus) शब्द से बना है जिसका अर्थ-सर्वोच्च शक्ति होता है। इस प्रकार प्रभुसत्ता को सर्वोच्च शक्ति के रूप में समझा जा सकता है।
प्रभुसत्ता की परिभाषाएँ:

  1. जैलिनेक के अनुसार, “प्रभुसत्ता राज्य का वह गुण है जिसके कारण वह अपनी इच्छा के अतिरिक्त किसी-दूसरे की इच्छा या बाहरी शक्ति के आदेश से नहीं बँधता है।”
  2. लास्की के अनुसार, “प्रभुसत्ताधारी वैधानिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय से उच्चतर है। वह सभी को अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए बाध्य कर सकता है।”
  3. ग्रोशियस के अनुसार, “प्रभुसत्ता वह सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति है जिसके कार्य किसी दूसरे के अधीन न हों तथा जिसकी इच्छा का कोई उल्लंघन न कर सके।”
  4.  बुडरो विल्सन के अनुसार, “प्रभुसत्ता वह शक्ति है जो प्रतिदिन क्रियाशील रहकर कानून बनाती है और उनका पालन कराती है।”
  5. ड्यूग्विट के अनुसार, “प्रभुसत्ता राज्य की आदेश देने वाली शक्ति है। वह राज्य के रूप में संगठित राज्य की इच्छा है, यह राज्य की भूमि में रहने वाले सब व्यक्तियों को बिना शर्त आज्ञा देने का अधिकार है।”
  6. बर्गेस के अनुसार, “प्रभुसत्ता प्रत्येक प्रजा जन व उसके समुदायों पर राज्य की मौलिक, निरंकुश तथा असीमित शक्ति है।”
  7. बोडिन के अनुसार, “प्रभुसत्ता नागरिकों तथा प्रजा के ऊपर वह परम शक्ति है जो कि कानूनों से नियन्त्रित नहीं है।” उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रभुसत्ती राज्य की सर्वोच्च शक्ति होती है। यह आन्तरिक तथा बाह्य दोनों हो सकती है। इस पर सैद्धान्तिक दृष्टि से कोई रुकावट नहीं लगायी जा सकती है।

प्रभुसत्ता के विभिन्न रूप:
प्रभुसत्ता के विभिन्न रूपों का वर्णन निम्नलिखित ये है:
(i) नाममात्र की तथा वास्तविक प्रभुसत्ता – पहले अनेक देशों में राजा या सम्राट निरंकुश होते थे। उनके हाथ में वास्तविक शक्तियाँ होती थीं और संसद उनके हाथों की कठपुतली होती थी। उस समय वे वास्तविक प्रभुसत्ता को प्रयोग करते थे। अत: उन्हें वास्तविक प्रभुसत्ताधारी कहा जाता था, जैसे-इंग्लैण्ड में पन्द्रहवीं शताब्दी से पूर्व, रूस में अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में तथा फ्रांस में 1789 ई. के पूर्व सम्राट सर्वोपरि थे। वास्तविक रूप से प्रभुसत्ता उन्हीं में निहित। थी। 1688-89 ई. में हुई इंग्लैण्ड की क्रान्ति के पश्चात् वहाँ की स्थिति में बहुत परिवर्तन आया।

(ii) वैधानिक प्रभुसत्ता – किसी भी देश में वहाँ की सर्वोच्च कानून वाली शक्ति को वैधानिक राजसत्ताधारी कहते हैं। उसको उस देश में कानून बनाने, संशोधन करने तथा रद्द करने का पूर्ण अधिकार होता है। इंग्लैण्ड में सम्राट सहित संसद वहाँ की प्रभुसत्ताधारी है। इंग्लैण्ड में संसद को साधारण तथा संवैधानिक दोनों प्रकार के कानूनों में एक समान । प्रक्रिया से संशोधन करने का पूर्ण अधिकार होता है। वैधानिक प्रभुसत्ता स्पष्ट, निश्चित संगठित एवं सर्वोच्च होती है तथा इसे न्यायालयों द्वारा मान्यता दी जाती है।

(iii) राजनीतिक प्रभुसत्ता – राजनीतिक प्रभुसत्ता का अर्थ है-राज्य में कानून के पीछे रहने वाला लोकमत । आधुनिक प्रतिनिध्यात्मक सरकारों में इसे लोगों की इच्छा या लोकमत कहा जाता है। अतः राजनीतिक प्रभुसत्ता से आशय मतदाताओं एवं राज्य में उन समस्त अन्य प्रभावों से है जो लोकमत का निर्माण करते हैं।

लोकतन्त्र में मतदान, समाचार-पत्र, सभाओं, विरोध प्रदर्शन, प्रतिनिधि मण्डलों, संगठनों, हड़तालों एवं दबाव समूहों आदि के माध्यम से कानून निर्माण करने वाली सत्ता के ऊपर प्रभाव डाला जाता है एवं उसे नियन्त्रित किया जाता है। इस प्रकार लोकमत की शक्ति को राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी कहा जा सकता है।

(iv) लौकिक प्रभुसत्ता-लौकिक प्रभुसत्ता का अर्थ है कि-जनता की शक्ति सबसे बड़ी होती है। प्राचीनकाल में कई विचारकों ने इस सिद्धान्त को राजाओं की निरंकुशता का खण्डन करने के लिए अपनाया था। गार्नर नामक राजनीतिक विचारक ने लौकिक प्रभुसत्ता का अर्थ यह माना कि जिन राज्यों में वयस्क को वोट देने का अधिकार है, उनमें मतदाताओं को अपनी इच्छा प्रकट करने और उस पर अमल करवाने की सत्ता प्राप्त है।

(v) विधितः (कानूनी) और वस्तुतः प्रभुसत्ता – अनेक बार ऐसा होता है कि राज्य की वास्तविक एवं वैध प्रभुत्व शक्ति में भेद होता है। विधित: प्रभुसत्ताधारी वह होता है जो कानूनी दृष्टि से राज्य के सर्वोच्च आदेश जारी कर सकता है। कानून के अनुसार उसे शासन करने का अधिकार है और वह अपनी आज्ञा का पालन करवा सकता है।

कई बार जब किसी देश में कोई क्रान्ति अथवा आक्रमण हो जाता है तो विधितः प्रभुसत्ताधारी अपनी आज्ञा का पालन करवाने में असमर्थ रहता है और कोई नया क्रान्तिकारी नेता अथवा आक्रमणकारी नेता वस्तुतः प्रभुसत्ताधारी बन जाता है। वस्तुतः प्रभुसत्ताधारी कोई जनरल, तानाशाह, सम्राट अथवा जननायक हो सकता है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा ईरान में ऐसा ही देखने को मिलता है।

प्रभुसत्ता के लक्षण:
(i) पूर्णता – प्रभुसत्ता एक पूर्ण तथा असीम शक्ति है। यह अन्य किसी शक्ति पर निर्भर नहीं है। राज्य के भीतर समस्त व्यक्ति और उनके समूह प्रभुसत्ताधारी के नियन्त्रण में होते हैं। राज्य के बाहर भी प्रभुसत्ताधारी को अपने राज्य के सन्दर्भ में सर्वोच्च माना जाता है। अन्य कोई राज्य उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता और न ही उसे किसी बात के लिए विवश कर सकता है।

(ii) सार्वभौमिकता – प्रभुसत्ता राज्य के भीतर समस्त व्यक्तियों, संस्थाओं एवं अन्य वस्तुओं में सर्वोच्च होती है। राज्य स्वयं किसी विषय को अपने अधिकार क्षेत्र में रख सकता है परन्तु किसी व्यक्ति या संगठन को यह अधिकार नहीं होता कि वह स्वेच्छा से राज्य के अधिकार, क्षेत्र से बाहर रहे। राज्य के सीमा क्षेत्र के अन्तर्गत प्रभुसत्ता एक सर्वव्यापक, सार्वभौम तथा सार्वजनिक शक्ति है।

(iii) अदेयता – प्रभुसत्ता अखण्ड होती है। अत: यह किसी और को नहीं सौंपी जा सकती। यदि प्रभुरव-सम्पन्न राज्य अपनी प्रभुसत्ता किसी और को हस्तान्तरित करना चाहे तो उसका अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा! यदि एक राज्य अपने क्षेत्र का कोई भाग किसी और राज्य को अर्पित कर देता है, तो उस भाग पर उसकी अपनी प्रभुसत्ता समाप्त हो जाएगी और दूसरे राज्य की प्रभुसत्ता स्थापित हो जाएगी। यदि कोई प्रभुसत्ताधारी सत्ता का त्याग करता है तो ऐसी स्थिति में सरकार बदल जाती है, प्रभुसत्ता का स्थान नहीं बदलता।

(iv) स्थायित्व – प्रभुसत्ता स्थायी होती है। जब तक राज्य का अस्तित्व रहता है, तब तक प्रभुसत्ता भी रहती है। दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। किसी भी देश में सम्राट या राष्ट्रपति की मृत्यु या पदत्याग से प्रभुसत्ता का अन्त नहीं होता बल्कि वह तत्काल दूसरे सम्राट या राष्ट्रपति में निहित हो जाती है। सरकार बदल जाने पर जैसे राज्य का अस्तित्व बना रहता है, वैसे ही प्रभुसत्ता का अस्तित्व भी बना रहता है।
(v) अविभाज्यता – प्रभुसत्ता पूर्ण एवं सर्वव्यापक होती है, अत: उसके टुकड़े नहीं किए जा सकते । प्रभुसत्ता के टुकड़े करते ही राज्य के भी टुकड़े हो जाएँगे। राज्य के क्षेत्र में रहने वाले अन्य समूह और संस्थाएँ अपने सदस्यों के सन्दर्भ में जिस सत्ता का प्रयोग करते हैं वह राज्य की प्रभुसत्ता की ही देन होती है।

राज्य की प्रभुसत्ता के समक्ष अन्य समस्त व्यक्तियों एवं संस्थाओं की सत्ता गौण होती है। संघीय व्यवस्था के अन्तर्गत प्रभुसत्ता संघ एवं इकाइयों में नहीं बँटती बल्कि निर्दिष्ट विषयों के सन्दर्भ में उनके अधिकार क्षेत्र बँटे होते हैं। अधिकार क्षेत्रों का यह वितरण एवं उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन प्रभुसत्ता के प्रयोग से ही सम्भव होता है।

(vi) अनन्यता – अनन्यता से आशय यह है कि एक राज्य में दो प्रभुसत्ताधारी नहीं हो सकते हैं। यदि एक राज्य में दो प्रभुसत्ताधारी स्वीकार कर लिए जाएँ तो उससे राज्य की एकता नष्ट हो जाएगी। एक प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य के अन्दर दूसरा प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य नहीं रह सकता है।

RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य और अन्य समुदायों में मुख्य अन्तर है
(अ) स्वरूप का
(ब) सम्प्रभुता का
(स) सहयोग का
(द) उत्पत्ति का।
उत्तर:
(ब) सम्प्रभुता का

प्रश्न 2.
राज्य की उत्पत्ति का सर्वाधिक प्राचीन सिद्धान्त है
(अ) दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त
(ब) शक्ति सिद्धान्त
(स) सामाजिक समझौता सिद्धान्त
(द) विकासवादी सिद्धान्त।
उत्तर:
(अ) दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त

प्रश्न 3.
सामाजिक समझौता सिद्धान्त का समर्थन करने वाले विचारक हैं
(अ) मार्क्स तथा हॉब्स
(ब) लॉक तथा रूसो
(स) हॉब्स तथा आईंस्टीन
(द) रूसो तथा डेविड ईस्टन।
उत्तर:
(ब) लॉक तथा रूसो

प्रश्न 4.
रूसो के अनुसार प्रभुसत्ता का निवास कहाँ पर है
(अ) सम्राट में
(ब) संसद में
(स) सामान्य इच्छा में
(द) वयस्क नागरिकों में।
उत्तर:
(स) सामान्य इच्छा में

प्रश्न 5.
हॉब्स के अनुसार प्राकृतिक अवस्था का लक्षण है।
(अ) शान्ति और सम्पत्ति,
(ब) निरन्तर युद्ध
(स) अमन चैन
(द) व्यापार व वाणिज्य का विकास।
उत्तर:
(ब) निरन्तर युद्ध

प्रश्न 6.
लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था का लक्षण है
(अ) सतत् संघर्ष
(ब) परम आनन्द और सुख
(स) शान्ति और सहयोग
(द) वैयक्तिक सम्पत्ति का अभाव।
उत्तर:
(स) शान्ति और सहयोग

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में कौन-सा प्रभुसत्ता का लक्षण है?
(अ) अदेयता
(ब) नागरिकता
(स) तानाशाही
(द) अधिकार
उत्तर:
(अ) अदेयता

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में कौन-सा प्रभुसत्ता का लक्षण नहीं है?
(अ) मताधिकार
(ब) पूर्णता
(स) अनन्यता
(द) अदेयता।
उत्तर:
(अ) मताधिकार

RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्न में से किस राजनीतिक विचारक ने राज्य को एक वर्गीय संस्था माना है
(अ) बर्गेस ने
(ब) बुडरो विल्सन ने
(स) कार्ल मार्क्स ने
(द) अरस्तू ने
उत्तर:
(स) कार्ल मार्क्स ने

प्रश्न 2.
“राज्य एक संगठित इकाई के रूप में मानव शक्ति का एक विशिष्ट भाग है।” यह कथन है
(अ) अरस्तू का
(ब) हॉल का
(स) सिसरो का
(द) बर्गेस का
उत्तर:
(द) बर्गेस का

प्रश्न 3.
“राज्य परिवारों तथा ग्रामों का एक संघ होता है?” उपर्युक्त विचार जिस विचारक का है, वह है
(अ) सिसरो
(ब) बोदिन
(स) अरस्तू
(द) गाँधी।
उत्तर:
(स) अरस्तू

प्रश्न 4.
राज्य को अनिवार्य तत्व है
(अ) कार्यपालिका
(ब) न्यायपालिका
(स) प्रभुसत्ता
(द) व्यवस्थापिका
उत्तर:
(स) प्रभुसत्ता

प्रश्न 5.
निम्न में से राज्य है
(अ) भारत
(ब) राजस्थान
(स) संयुक्त राष्ट्र संघ
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) भारत

प्रश्न 6.
राज्य का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है
(अ) व्यवस्थापिका
(ब) जनसंख्या
(स) निश्चित भूमि
(द) सरकार।
उत्तर:
(द) सरकार।

प्रश्न 7.
प्रभुसत्ता (सम्प्रभुता) है
(अ) राज्य की सर्वोच्च शक्ति
(ब) बहुमत
(स) जनमत
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(अ) राज्य की सर्वोच्च शक्ति

प्रश्न 8.
“प्रजा द्वारा आज्ञापालन की भावना” भी राज्य के लिए आवश्यक तत्व है।” यह कथन है
(अ) डॉ. विलोबी का
(ब) रूसो का
(स) हॉब्स का
(द) उपर्युक्त सभी का
उत्तर:
(अ) डॉ. विलोबी का

प्रश्न 9.
निम्न में से राज्य की विशेषता है
(अ) अमूर्त
(ब) राजसत्ता
(स) स्थायी
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 10.
राज्य और सरकार में मुख्य अन्तर है
(अ) राजसत्ता का
(ब) स्वरूप का
(स) सहयोग का
(द) उत्पत्ति का।
उत्तर:
(अ) राजसत्ता का

प्रश्न 11.
राज्य की उत्पत्ति का काल्पनिक सिद्धान्त है
(अ) दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त
(ब) विकासवादी सिद्धान्त
(स)पितृ – प्रधान सिद्धान्त
(द) मातृ – प्रधान सिद्धान्त
उत्तर:
(अ) दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त

प्रश्न 12.
निम्न में से किस देश के प्राचीन निवासी राजा को साक्षात् ईश्वर मानते थे|
(अ) इंग्लैण्ड
(ब) भारत
(स) स्पेन
(द) मिस्र
उत्तर:
(द) मिस्र

प्रश्न 13.
‘राज्य ईश्वर द्वारा स्थापित किया हुआ माना जाता है। यह कथन राज्य की उत्पत्ति के किस सिद्धान्त से सम्बन्धित है
(अ) दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त
(ब) सामाजिक समझौते का सिद्धान्त
(स) विकासवादी सिद्धान्त
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त

प्रश्न 14.
राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धान्त राजा को किसका प्रतिनिधि मानता है
(अ) जनमत का
(ब) प्रभुसत्ता का
(स) ईश्वर का
(द) उपर्युक्त सभी का।
उत्तर:
(स) ईश्वर का

प्रश्न 15.
राज्य की उत्पत्ति एवं विकास शक्ति के द्वारा हुआ है। यह कथन राज्य की उत्पत्ति के किस सिद्धान्त से सम्ब. न्धित है
(अ) दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त
(ब) सामाजिक समझौता सिद्धान्त
(स) विकासवादी सिद्धान्त
(द) शक्ति सिद्धान्त।
उत्तर:
(द) शक्ति सिद्धान्त।

प्रश्न 16.
“न्याय शक्तिशाली के हित के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।” उपर्युक्त विचार जिस विचारक के हैं, वे हैं
(अ) अरस्तू
(ब) सोफिस्ट
(स) श्रेसीमेक्स
(द) प्लेटो।
उत्तर:
(स) श्रेसीमेक्स

प्रश्न 17.
निम्न में से किसके अनुसार राज्य एक अमावश्यक बुराई है
(अ) व्यक्तिवादियों के अनुसार
(ब) अराजकतावादियों के अनुसार
(स) समाजवादियों के अनुसार।
(द) साम्यवादियों के अनुसार।
उत्तर:
(ब) अराजकतावादियों के अनुसार

प्रश्न 18.
समाजवाद और साम्यवाद का जन्मदाता कौन था
(अ) बुडरो विल्सन
(ब) चाणक्य
(स) कार्ल मार्क्स
(द) लीकॉक।
उत्तर:
(स) कार्ल मार्क्स

प्रश्न 19.
निम्न – में से शक्ति सिद्धान्त के समर्थक विद्वान हैं
(अ) ओपन हाइम
(ब) जैक्स
(स) रेटजल हॉकर
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 20.
‘हिस्ट्री ऑफ पॉलिटिक्स’ के लेखक हैं
(अ) जैक्स
(ब) वॉल्टेयर
(स) कार्ल मार्क्स
(द) ब्लंटशली।
उत्तर:
(अ) जैक्स

प्रश्न 21.
रूसी समाजवाद के जनक माने जाते हैं
(अ) लेनिन
(ब) मार्क्स
(स) हॉब्स
(द) रूसो।
उत्तर:
(अ) लेनिन

प्रश्न 22.
राज्य परिवारों का विकसित रूप है, इस विचार को किस सिद्धान्त वाले विचारक मानते हैं
(अ) विकासवादी सिद्धान्त वाले
(ब) शक्ति सिद्धान्त वाले।
(स) मातृ – पितृ सत्तात्मक सिद्धान्त वाले’.
(द) दैवीय सिद्धान्त वाले।
उत्तर:
(स) मातृ – पितृ सत्तात्मक सिद्धान्त वाले’.

प्रश्न 23.
“राज्य संस्था एक मानव कृति है।” यह तथ्य राज्य की उत्पत्ति के किस सिद्धान्त से सम्बन्धित है
(अ) सामाजिक संविदा सिद्धान्त
(ब) शक्ति सिद्धान्त
(स) पितृ प्रधान सिद्धान्त
(द) मातृ प्रधान सिद्धान्त।
उत्तर:
(अ) सामाजिक संविदा सिद्धान्त

प्रश्न 24.
प्राचीन भारत में संविदा सिद्धान्त का वर्णन निम्न में से किस ग्रन्थ में मिलता है
(अ) महाभारत में
(ब) रामायण में
(स) कुरान में
(द) बाईबल में।
उत्तर:
(अ) महाभारत में

प्रश्न 25.
प्राचीन यूनान में विचारकों का एक ऐसा सम्प्रदाय जिसने संविदा सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था, कहलाए
(अ) अराजकतावादी
(ब) व्यक्तिवादी
(स) सॉफिस्ट
(द) मार्क्सवादी।
उत्तर:
(स) सॉफिस्ट

प्रश्न 26.
आधुनिक काल में संविदा सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक विद्वान हैं
(अ) रूसो
(ब) हॉब्स
(स) लॉक
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 27.
“शासक समझौते का पक्ष नहीं, परिणाम है” यह कथन किसे राजनीतिक विचारक से सम्बन्धित है
(अ) रूसो
(ब) लॉक
(स) हॉब्स
(द) प्लेटो।
उत्तर:
(स) हॉब्स

प्रश्न 28.
“अराजक दशा में मनुष्य असभ्य व जंगली अवश्य थे पर साथ ही अपनी प्रकृति में श्रेष्ठ भी थे।” यह कथन किस विचारक के सम्बन्धित है
(अ) लॉक
(ब) रूसो
(स) हॉब्स
(द) अरस्तू।
उत्तर:
(ब) रूसो

प्रश्न 29.
“राज्य एक लम्बे समय से चले आ रहे क्रमिक विकास का परिणाम है।” यह कथन राज्य की उत्पत्ति के किस सिद्धान्त से सम्बन्धित है
(अ) विकासवादी सिद्धान्त
(ब) शक्ति सिद्धान्त
(स) दैवीय सिद्धान्त
(द) संविदा सिद्धान्त।
उत्तर:
(अ) विकासवादी सिद्धान्त

प्रश्न 30.
निम्न में से किस नदी घाटी के प्राचीन निवासी सुमेरियन लोग थे
(अ) सिन्धु नदी घाटी
(ब) ह्वांग्हो नदी घाटी
(स) नील नदी घाटी
(द) यूक्रेटिस व टिग्रिस नदी घाटी।
उत्तर:
(द) यूक्रेटिस व टिग्रिस नदी घाटी।

प्रश्न 31.
इटली के मध्य टाइबर नदी के तट पर स्थित राज्य था
(अ) रोम
(ब) एथेन्स
(स) स्पार्टा
(द) यूनान
उत्तर:
(अ) रोम

प्रश्न 32.
निम्न में से किस विद्वान ने राज्य के विकास क्रम की विशेषताएँ बतायी हैं
(अ) जीन बोदाँ
(बे) प्रो. गैटेल
(स) प्लेटो
(द) अरस्तू
उत्तर:
(बे) प्रो. गैटेल

प्रश्न 33.
“सम्प्रभुता नागरिकों तथा प्रजा के ऊपर वह परम शक्ति है, जो कि कानूनों से नियन्त्रित नहीं है। उपर्युक्त विचार किस विचारक के हैं
(अ) जीन बोदां
(ब) लास्की
(स) रूसो
(द) लॉक
उत्तर:
(अ) जीन बोदां

प्रश्न 34.
‘द रिपब्लिक’ पुस्तक के लेखक हैं
(अ) लॉस्की
(ब) रूसो
(स) बुडरो विल्सन
(द) जीन बोदां
उत्तर:
(द) जीन बोदां

प्रश्न 35.
प्रभुसत्ता का लक्षण है
(अ) पूर्णता
(ब) सार्वभौमिकता
(स) अनन्यता
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 36.
राज्य के किस मूल तत्व के कारण उसकी सहायता अनन्य है
(अ) सरकार
(ब) जनसंख्या
(स) प्रभुसत्ता
(द) भू – भाग
उत्तर:
(स) प्रभुसत्ता

प्रश्न 37.
निम्न में से प्रभुसत्ता का कौन-सा रूप अमेरिका के संविधान में भी अपनाया गया है
(अ) वास्तविक प्रभुसत्ता
(ब) नाममात्र प्रभुसत्ता
(स) वैधानिक प्रभुसत्ता
(द) लौकिक प्रभुसत्ता।
उत्तर:
(द) लौकिक प्रभुसत्ता।

प्रश्न 38.
जो व्यक्ति को वैधानिक दृष्टि से राज्य के सर्वोच्च आदेश जारी कर सकता है, कहलाता है
(अ) विधित: प्रभुसत्ताधारी
(ब) वस्तुत: प्रभुसत्ताधारी
(स) वस्तुत: राजसत्ताधारी
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(अ) विधित: प्रभुसत्ताधारी

प्रश्न 39.
वर्तमान में चीन की साम्यवादी सरकार है
(अ) राजनीति प्रभुसत्ताधारी
(ब) नाममात्र प्रभुसत्ताधारी
(स) वस्तुत: राजसत्ताधारी
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(स) वस्तुत: राजसत्ताधारी

RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की लॉस्की ने क्या परिभाषा दी है?
उत्तर:
लॉस्की के अनु0सार, “राज्य एक भूमिगत समाज है जो शासक और शासितों में बँटा होता है और अपनी सीमाओं के क्षेत्र में आने वाली अन्य संस्थाओं पर सर्वोच्चता का दावा करता है।”

प्रश्न 2.
राज्य शब्द का शाब्दिक अर्थ बताइए।
उत्तर:
राज्य शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर ‘state’ लैटिन भाषा के स्टेट्स ‘Status’ से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ किसी व्यक्ति के सामाजिक स्तर से होता है परन्तु धीरे-धीरे इसका अर्थ सम्पूर्ण समाज के स्तर से हो गया।

प्रश्न 3.
गार्नर के अनुसार राज्य को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
गार्नर के अनुसार, “राजनीतिशास्त्र और सार्वजनिक कानून की धारणा के रूप में राज्य थोड़े या अधिक संख्या वाले संगठन का नाम है जो कि स्थायी रूप से पृथ्वी के निश्चित भाग में रहता है। वह बाहरी नियन्त्रण से सम्पूर्ण स्वतन्त्र या लगभग स्वतन्त्र और उसकी एक संगठित सरकार जिसकी आज्ञा का पालन अधिकतर जनता स्वभाव से करती।”

प्रश्न 4.
राजस्थान राज्य क्यों नहीं है?
उत्तर:
राजस्थान राज्य इसलिए नहीं है क्योंकि इसमें प्रभुसत्ता तत्व का अभाव है।

प्रश्न 5.
सरकार क्या होती है?
उत्तर:
सरकार वह एजेन्सी है जिसके द्वारा राज्य की इच्छा प्रकट होती है और क्रियान्वित होती है।

प्रश्न 6.
सरकार के अंगों के नाम लिखिए
अथवा
सरकार के कितने अंग होते हैं?
उत्तर:
सरकार के तीन अंग होते हैं-

  1. कार्यपालिका
  2. विधायिका
  3. न्यायपालिका।

प्रश्न 7.
राजसत्ता या प्रभुसत्ता का अर्थ बताइए।
उत्तर:
राजसत्ता या प्रभुसत्ता का अर्थ है-राज्य की सर्वोच्च शक्ति ।

प्रश्न 8.
जनसंख्या एवं भू-भाग जैसे भौतिक तत्वों के बावजूद राज्य अमूर्त क्यों कहलाता है?
उत्तर:
राज्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व प्रभुसत्ता है, जोकि अमूर्त है, इस कारण राज्य अमूर्त कहलाता है।

प्रश्न 9.
राज्य और सरकार में कोई दो अन्तर लिखिए।
उत्तर:

  1. राज्य अमूर्त है और सरकार मूर्त है।
  2. राज्य स्थायी है और सरकार परिवर्तनशील है।

प्रश्न 10.
राज्य और समाज में कोई दो अन्तर लिखिए।
उत्तर:

  1. राज्य एक राजनीतिक व्यवस्था है, जबकि समाज एक सामाजिक व्यवस्था है।
  2.  राज्य मनुष्य के राजनीतिक पहलू से सम्बन्धित है, जबकि समाज नैतिक पहलू से सम्बन्धित है।

प्रश्न 11.
राज्य की उत्पत्ति के किन्हीं दो सिद्धान्तों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त
  2. विकासवादी सिद्धान्त।

प्रश्न 12.
राज्य की उत्पत्ति से सम्बन्धित काल्पनिक सिद्धान्त कौन – कौन से हैं?
उत्तर:

  1. दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त
  2. शक्ति का सिद्धान्त
  3. सामाजिक समझौते का सिद्धान्त।

प्रश्न 13.
राज्य की उत्पत्ति के अर्द्ध काल्पनिक एवं अर्द्ध तथ्यपूर्ण सिद्धान्त कौन-कौन से हैं?
उत्तर:

  1.  पितृ प्रधान सिद्धान्त
  2. मातृ प्रधान सिद्धान्त

प्रश्न 14.
राज्य की उत्पत्ति के ऐतिहासिक सिद्धान्त का नाम बताइए।
उत्तर:
विकासवादी सिद्धान्त।

प्रश्न 15.
राज्य की उत्पत्ति का सबसे प्राचीन सिद्धान्त कौन-सा है?
उत्तर:
दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त।

प्रश्न 16.
दैवीय उत्पत्ति के सिद्धान्त के अनुसार राज्य की स्थापना किसने की है?
उत्तर:
ईश्वर ने।

प्रश्न 17.
प्राचीन मिस्र की परम्परा में राजा को किसका पुत्र कहा गया है?
उत्तर:
सूर्य देवता का।

प्रश्न 18.
दैवीय उत्पत्ति के सिद्धान्त के प्रथम समर्थक कौन थे?
उत्तर:
यहूदी।

प्रश्न 19.
भारत में आदिकाल में राज्य की उत्पत्ति से सम्बन्धित कौन-सा सिद्धान्त माना जाता था?
उत्तर:
दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त।

प्रश्न 20.
किन्हीं दो भारतीय धर्म ग्रन्थों का उल्लेख कीजिए जिनमें राज्य की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा मानी गयी है।
उत्तर:

  1. मनुस्मृति
  2. महाभारत

प्रश्न 21.
दैवीय उत्पत्ति के सिद्धान्त से सम्बन्धित कोई दो आधारभूत तत्व बताइए।
अथवा
दैवीय सिद्धान्त की कोई दो मान्यताएँ बताइए।
उत्तर:

  1. राज्य एक दैवीय संस्था है।
  2. राज्य के आदेश ही कानून हैं और उसके कार्य सदैव न्यायपूर्ण व उदार होते हैं।

प्रश्न 22.
गिलक्राइस्ट के अनुसार दैवीय उत्पत्ति के सिद्धान्त के पतन के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:

  1. सामाजिक समझौते के सिद्धान्त का उदय होना।
  2. चर्च और राज्य के पृथक्करण के कारण सांसारिक मामलों में धर्म का महत्व कम होना।

प्रश्न 23.
दैवीय उत्पत्ति के सिद्धान्त की आलोचना के कोई दो आधार बताइए।
अथवा
दैवीय सिद्धान्त के कोई दो दोष बताइए।
उत्तर:

  1. लोकतन्त्र के विरुद्ध
  2. आधुनिक राज्यों पर लागू नहीं होना।

प्रश्न 24.
दैवीय उत्पत्ति के सिद्धान्त का महत्त्व बताइए।
अथवा
दैवीय सिद्धान्त का गुण बताइए।
उत्तर:
दैवीय उत्पत्ति के सिद्धान्त ने तत्कालीन समाज में अव्यवस्था, अशान्ति एवं अराजकता को हटाकर शान्ति व व्यवस्था बनाए रखने में सहयोग प्रदान किया।

प्रश्न 25.
राजसत्ता पूर्ण निरंकुश, सर्वोच्च एवं असीमित होती है, ऐसा ईश्वर की इच्छा से होता है। यह मान्यता किस सिद्धान्त की है?
उत्तर:
दैवीय उत्पत्ति के सिद्धान्त की।

प्रश्न 26.
दैवीय सिद्धान्त शासन के किस रूप को सर्वोत्कृष्ट मानता है?
उत्तर:
राजतन्त्र को।

प्रश्न 27.
राज्य की उत्पत्ति के किस सिद्धान्त के अनुसार राज्य मानव निर्मित संस्था न होकर दैवीय संस्था है?
उत्तर:
दैवीय सिद्धान्त के अनुसार।

प्रश्न 28.
राज्य की उत्पत्ति के उस सिद्धान्त का नाम बताइए जो ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के सिद्धान्त पर आधारित है।
उत्तर:
शक्ति सिद्धान्त

प्रश्न 29.
‘प्रथम राजा एक भाग्यशाली योद्धा था।’ शक्ति सिद्धान्त के सन्दर्भ में यह किस राजनीतिक विचारक का कथन है?
उत्तर:
वॉल्टेयर का

प्रश्न 30.
राज्य की उत्पत्ति का कौन – सा सिद्धान्त युद्ध का समर्थन करता है?
उत्तर:
शक्ति सिद्धान्त।

प्रश्न 31.
“शक्ति राज्य संगठन का एक आवश्यक तत्व है।” यह किस विद्वान का कथन है?
उत्तर:
ब्लंटशली का।

प्रश्न 32.
यूनान के सोफिस्ट विचारकों ने राज्य की उत्पत्ति के किस सिद्धान्त का समर्थन किया?
उत्तर:
शक्ति सिद्धान्त का।

प्रश्न 33.
राज्य की उत्पत्ति का कौन – सा सिद्धान्त साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है?
उत्तर:
शक्ति सिद्धान्त।

प्रश्न 34.
उस सिद्धान्त का नाम बताइए जिसके अनुसार राज्य की उत्पत्ति बल प्रयोग के कारण हुई?
उत्तर:
शक्ति सिद्धान्त।

प्रश्न 35.
व्यक्तिवादियों के अनुसार राज्य एक बुरी संस्था क्यों है?
उत्तर:
व्यक्तिवादियों के अनुसार राज्य का आधार शक्ति है इसलिए यह बुरी संस्था है।

प्रश्न 36.
समाजवाद और साम्यवाद के जन्मदाता कौन थे?
उत्तर:
कार्ल मार्क्स।

प्रश्न 37.
रूसी समाजवाद के जनक कौन माने जाते हैं?
उत्तर:
लेनिन।

प्रश्न 38.
शक्ति सिद्धान्त की कोई दो मान्यताएँ लिखिए।
उत्तर:

  1. शक्ति ही राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र आधार है।
  2. प्रत्येक राज्य में हमेशा ही शक्तिशालियों द्वारा निर्बलों पर शासन होता आया है।

प्रश्न 39.
“न्याय शक्तिशाली के हित के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।” यह किस राजनीतिक विचारक का कथन है?
उत्तर:
श्रेसीमेक्स का।

प्रश्न 40.
वर्तमान में शक्ति सिद्धान्त के किन्हीं दो समर्थकों का नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. ओपन हीम
  2. जैक्स।

प्रश्न 41.
शक्ति सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शक्ति सिद्धान्त के अनुसार, राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र आधार शक्ति है। राज्य शक्तिशाली लोगों द्वारा निर्बलों को अधीन बनाने की प्रवृत्ति का परिणाम है।

प्रश्न 42.
शक्ति सिद्धान्त की आलोचना के कोई दो आधार बताइए।
उत्तर:

  1. राज्य का विस्तार केवल शक्ति के द्वारा ही नहीं हुआ है।
  2. राज्य का वास्तविक एवं स्थायी आधार नैतिक शक्ति है, पशुबल नहीं।

प्रश्न 43.
मातृ – प्रधान सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भिक परिवार का मुखिया कौन होता था?
उत्तर:
मातृ प्रधान सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भिक परिवार का मुख्यिा स्त्री होती थी।

प्रश्न 44.
मातृ – प्रधान सिद्धान्त के किन्हीं दो समर्थकों का नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. मैक्लीनन
  2. मोर्गन।

प्रश्न 45.
मातृ – प्रधान सिद्धान्त की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  1. माता ही परिवार की मुखिया मानी जाती थी।
  2. वैवाहिक सम्बन्ध अस्थायी थे।

प्रश्न 46.
मातृ – प्रधान सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मातृ – प्रधान सिद्धान्त परिवारों का विकसित रूप राज्य को मानता है। अस्थायी विवाह सम्बन्धों के कारण माता ही परिवार की मुखिया तथा राज्य की शासक बनी।

प्रश्न 47.
मातृ – प्रधान सिद्धान्त की कोई दो आलोचनाएँ लिखिए।
उत्तर:

  1. यह सिद्धान्त ऐतिहासिक प्रमाणों पर आधारित नहीं है।
  2. यह सिद्धान्त राज्य के विकास की अवस्था के कई जटिल तत्वों की उपेक्षा करता है।

प्रश्न 48.
पितृ – प्रधान सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पितृ – प्रधान सिद्धान्त पुरुष प्रधान परिवार से कुल तथा कुलों से कबीले व कबीलों से राज्य के विकास की बात करता है तथा प्रथम राजा पुरुष पूर्वज को मानता है।

प्रश्न 49.
पितृ – प्रधान सिद्धान्त की कोई दो विशेषताएँ (तत्व) लिखिए।
उत्तर:

  1. प्राचीन समय में समाज की इकाई परिवार था न कि व्यक्ति।
  2. प्राचीनकाल में विवाह की प्रथा प्रचलित थी।

प्रश्न 50.
राज्य उत्पत्ति के पितृ-प्रधान सिद्धान्त का महत्त्व बताइए।
उत्तर:
राज्य उत्पत्ति का पितृ-प्रधान सिद्धान्त हमें राज्य के विकास में परिवार के सहयोग के बारे में बताता है।

प्रश्न 51.
सामाजिक संविदा सिद्धान्त के अनुसार राज्य संस्था के बारे में बताइए।
उत्तर:
सामाजिक संविदा सिद्धान्त के अनुसार राज्य संस्था एक मानवकृति है। वह न तो शक्ति पर और न ही दैवीय अधिकार पर निर्भर है। राज्य मनुष्यों की परस्पर की हुई संविदा का परिणाम है।

प्रश्न 52.
सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति को किसका परिणाम मानता है?
उत्तर:
सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य को दैवीय शक्ति द्वारा सृजित संस्था न मानकर लोगों द्वारा किए गए पारस्परिक समझौते का परिणाम मानता है।

प्रश्न 53.
आचार्य चाणक्य (कौटिल्य) ने राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में क्या कहा है?
उत्तर:
आचार्य चाणक्य (कौटिल्य) ने राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सामाजिक संविदा (समझौता) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है तथा राज्य को मानवीय प्रयत्नों द्वारा निर्मित, जनता की सहमति पर आधारित संस्था माना है।

प्रश्न 54.
किसी एक भारतीय प्राचीन ग्रन्थ को नाम लिखिए जिसमें सामाजिक संविदा सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है।
उत्तर:
महाभारत

प्रश्न 55.
प्राचीन यूनान में विचारकों ने किस सम्प्रदाय में संविदा सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था?
उत्तर:
सॉफिस्ट सम्प्रदाय ने।

प्रश्न 56.
राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में साँफिस्ट विचारकों के मत को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सॉफिस्ट विचारक राज्य संस्था को प्राकृतिक एवं नैसर्गिक नहीं मानते थे। उनके मतानुसार यह एक कृत्रिम संस्था है जिसे मनुष्यों ने परस्पर संविदा द्वारा निर्मित किया है।

प्रश्न 57.
व्यवस्थित रूप से सामाजिक संविदा सिद्धान्त का प्रतिपादन किन विचारकों ने किया है?
अथवा
राज्य उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धान्त के तीन प्रमुख प्रतिपादकों का नाम लिखिए।
उत्तर:
व्यवस्थित रूप से राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक संविदा सिद्धान्त का प्रतिपादन थॉमस हॉब्स, जॉन, लॉक एवं जीन जैक्स रूसो ने किया।

प्रश्न 58.
थॉमस हॉब्स ने प्राकृतिक दशा का चित्रण किस प्रकार किया है?
उत्तर:
थॉमस हॉब्स के अनुसार, प्राकृतिक दशा में मानव स्वार्थी, उच्छृखल एवं झगड़ालू था। केवल शक्ति ही उसके अधिकारों का निर्धारण करती थी।

प्रश्न 59.
थॉमस हॉब्स के सामाजिक संविदा सिद्धान्त की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  1.  हॉब्स के अनुसार समझौता लोगों के बीच परस्पर हुआ है।
    राजा इस समझौते का पक्षकार नहीं, बल्कि परिणाम है।

प्रश्न 60.
थॉमस हॉब्स किस प्रकार के शासन का उपासक था?
उत्तर:
राजतन्त्र का

प्रश्न 61.
सामाजिक संविदा सिद्धान्त के किस प्रतिपादक ने अपने सिद्धान्त में दो संविदाओं का संकेत दिया है?
उत्तर:
जॉन लॉक ने।

प्रश्न 62.
जॉन लॉक ने समझौते में किस प्रकार के शासन का समर्थन किया है?
उत्तर:
सीमित राजतन्त्र का।

प्रश्न 63.
जॉन लॉक के मानव स्वभाव की व्याख्या किस प्रकार की है?
उत्तर:
जॉन लॉक मानव स्वभाव की सकारात्मक व्याख्या करता है। उसने मानव में स्वभावत: प्रेम, सहानुभूति, दया, सहयोग एवं परमार्थ आदि गुण माने हैं।

प्रश्न 64.
जॉन लॉक ने प्राकृतिक अवस्था (स्टेट ऑफ नेचर) का चित्रण किस प्रकार किया है?
उत्तर:
जॉन लॉक के अनुसार, “प्राकृतिक अवस्था शान्तिपूर्ण थी। सभी मनुष्य समान थे। सभी लोग प्राकृतिक कानूनों एवं नैतिकता के नियम मानते थे। लोगों को जीवन, स्वतन्त्रता एवं सम्पत्ति के प्राकृतिक अधिकार प्राप्त थे।”

प्रश्न 65.
जॉन लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य को क्या असुविधाएँ थीं?
उत्तर:
लॉक के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य को तीन असुविधाएँ –

  1. प्राकृतिक कानून की व्याख्या करने वाली संस्था का अभाव
  2. प्राकृतिक कानून को लागू करने वाली संस्था का अभाव एवं
  3. न्याय की निष्पक्ष। सत्ता का अभाव।

प्रश्न 66.
जॉन लॉक के अनुसार, मनुष्य के प्राकृतिक अधिकार कौन-कौन से थे?
उत्तर:

  1. जीवन का अधिकार
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार
  3. सम्पत्ति का अधिकार।

प्रश्न 67.
जॉन लॉक के सामाजिक संविदा सिद्धान्त की कोई दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  1. जॉन लॉक के अनुसार, राज्य जन सहमति पर आधारित है।
  2. लॉक ने दो समझौते कराए-प्रथम के द्वारा समाज का निर्माण हुआ तथा दूसरे के द्वारा राज्य की स्थापना हुई।

प्रश्न 68.
रूसो राज्य की उत्पत्ति के किस सिद्धान्त का समर्थक माना जाता है?
उत्तर:
सामाजिक संविदा सिद्धान्त का।

प्रश्न 69.
सामाजिक संविदा सिद्धान्त के उस विचारक का नाम बताइए, जिसके अनुसार अराजक दशा में मनुष्य सादगी पसन्द व स्वतन्त्रता प्रेमी था?
उत्तर:
रूसो

प्रश्न 70.
नोबेल सेवेज क्या है?
उत्तर:
रूसो के अनुसार, अराजक दशा में मनुष्य सादगी एवं स्वतन्त्रता के साथ निवास करते थे। वे असभ्य व जंगली अवश्य थे, पर साथ ही अपनी प्रकृति में श्रेष्ठ भी थे। रूसो ने उन्हें ‘नोबेल सेवेज’ नाम दिया।

प्रश्न 71.
राज्य के निर्माण से पूर्व मानव स्वभाव के सम्बन्ध में हॉब्स व रूसो के विचारों में मुख्य अन्तर बताइए।
उत्तर:
हॉब्स के अनुसार, मानव स्वभावत: असामाजिक, स्वार्थी तथा झगड़ालू था, जबकि रूसो के अनुसार वह अच्छा, स्वतन्त्र व आत्मनिर्भर था।

प्रश्न 72.
रूसो ने प्राकृतिक अवस्था के आरम्भ में मनुष्य को क्या संज्ञा दी है?
उत्तर:
नोबेल सेवेज।

प्रश्न 73.
राज्य की उत्पत्ति के किस सिद्धान्त से राजनैतिक चेतना तत्व सम्बन्धित है?
उत्तर:
विकासवादी सिद्धान्त से।

प्रश्न 74.
राज्य की उत्पत्ति के विकासवादी सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति के विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार, राज्य एक लम्बे समय से चले आ रहे। क्रमिक विकास का परिणाम है। राज्य के विकास में रक्त सम्बन्ध, मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्तियाँ, धर्म, शक्ति, आर्थिक गतिविधियाँ एवं राजनीतिक चेतना आदि तत्व प्रमुख रूप से सहायक रहे हैं।

प्रश्न 75.
राज्य की उत्पत्ति के विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार राज्य के विकास में किन – किन तत्वों ने प्रमुख भूमिका निभायी?
उत्तर:
विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार राज्य के विकास में-

  1. रक्त सम्बन्ध
  2. मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्ति
  3. धर्म
  4. शक्ति
  5. आर्थिक गतिविधियाँ एवं
  6. राजनीतिक चेतना ने प्रमुख भूमिका निभायी।

प्रश्न 76.
रक्त सम्बन्ध की प्राचीनतम और निकटतम इकाई क्या थी?
उत्तर:
परिवार

प्रश्न 77.
प्रारम्भिक समाज में धर्म के कौन-कौन-से रूप प्रचलित थे?
उत्तर:

  1. पितृ – पूजा
  2. प्राकृतिक शक्तियों की पूजा।

प्रश्न 78.
ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक अवस्था को राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तित करने का कार्य किसके द्वारा किया गया?
उत्तर:
युद्ध के द्वारा।

प्रश्न 79.
आदिमकाल से वर्तमान काल तक मानव कौन – कौन-सी आर्थिक अवस्थाओं से होकर गुजरा है?
उत्तर:

  1. आखेट अवस्था
  2. पशुपालन अवस्था
  3. कृषि अवस्था
  4. औद्योगिक अवस्था।

प्रश्न 80.
मानव ने सर्वप्रथम स्थायी बस्तियों का विकास किन – किन नदी घाटियों में किया?
उत्तर:

  1. यूक्रेटिस व टिग्रिस (पश्चिम एशिया) नदी घाटी
  2. नील नदी घाटी (उत्तरी अफ्रीका)।
  3. ह्वांग्हो व पिआंगत-से कियांग नदी घाटी (चीन)
  4. सिन्धु नदी की घाटी (भारत)।

प्रश्न 81.
यूक्रेटिस एवं टिग्रिस नदी घाटियों के सबसे प्राचीन निवासी कौन थे?
उत्तर:
सुमेरियन लोग

प्रश्न 82.
किन्हीं दो ग्रीक राज्यों का नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. एथेन्स
  2. स्पार्टा।

प्रश्न 83.
प्राचीन ग्रीक (यूनान) के किन्हीं दो राजनीतिक विचारकों का नाम लिखिए जिन्होंने राजनीतिशास्त्र सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया?
उत्तर:

  1. प्लेटो
  2. अरिस्टॉटल (अरस्तू)।

प्रश्न 84.
रोम नामक नगर – राज्य की स्थापना कब व कहाँ हुई?
उत्तर:
रोम नामक नगर-राज्य की स्थापना 723 ई. पू. में इटली के मध्य में टाइबर नदी के तट पर हुई।

प्रश्न 85.
वर्तमान में राज्य का विकास किन दो दिशाओं में हो रहा है?
उत्तर:

  1. शासन पद्धति एवं राज्य के कार्य क्षेत्र के विषय में।
  2. राज्यों के पारसरक सम्बन्धों के विषय में।

प्रश्न 86.
प्रो. गैटेल द्वारा बतायी गयी राज्य के विकास क्रम की किन्हीं दो विशेषताओं को बताइए।
उत्तर:

  1. राज्य का विकास सरलता से जटिलता की ओर हुआ है।
  2. समय के साथ-साथ राज्यों की जनसंख्या और क्षेत्र बढ़ते चले गये।

प्रश्न 87.
जीन बोदां ने सम्प्रभुता को किस प्रकार परिभाषित किया?
उत्तर:
जीन बोदां के अनुसार, “सम्प्रभुता नागरिकों तथा प्रजा के ऊपर वह परम शक्ति है जो कि कानूनों से नियन्त्रित नहीं है।’

प्रश्न 88.
राज्य का अनिवार्य लक्षण क्या है?
उत्तर:
प्रभुसत्ता (सम्प्रभुता)।

प्रश्न 89.
सम्प्रभुता से आप क्या समझते हैं अथवा प्रभुसत्ता क्या है?
उत्तर:
सम्प्रभुता (प्रभुसत्ता) का अर्थ है – सर्वोच्च शक्ति। इसके दो रूप होते हैं – आन्तरिक प्रभुसत्ता तथा बाहरी प्रभुसत्ता। आन्तरिक प्रभुसत्ता अर्थात् आन्तरिक क्षेत्र में सर्वोच्च शक्ति और बाहरी प्रभुसत्ता अर्थात् बाहरी नियन्त्रण से मुक्त होना।

प्रश्न 90.
गार्नर के अनुसार प्रभुसत्ता क्या है?
उत्तर:
जे. डब्ल्यू. गार्नर के अनुसार, “प्रभुसत्ता राज्य के ऐसी विशेषता है जिसके कारण वह अपनी इच्छा के अलावा और किसी चीज से नहीं बँधा रहता और अपने अलावा किसी अन्य शक्ति से सीमित नहीं होता।”

प्रश्न 91.
राज्य की सर्वोच्च कानूनी सत्ता के विचार को किसके आधार पर स्थापित किया जा सकता है?
उत्तर:
राज्य की सर्वोच्च कानूनी सत्ता के विचार को प्रभुसत्ता की संकल्पना के आधार पर ही स्थापित किया जा सकता है।

प्रश्न 92.
आन्तरिक प्रभुसत्ता का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आन्तरिक प्रभुसत्ता का अर्थ है कि – राज्य की भीतर रहो वाले समस्त व्यक्ति एवं संस्थाएँ उसके पूर्णतः नियन्त्रण में होती हैं।

प्रश्न 93.
बाहरी प्रभुसत्ता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
बाहरी प्रभुसत्ता का अर्थ है कि-राज्य किसी बाहरी देश या संस्था के अधीन नहीं है। प्रत्येक राज्य को व्यापारिक सन्धियाँ और सैनिक समझौते करने का पूर्ण अधिकार होता है।

प्रश्न 94.
जैलिनेक के अनुसार प्रभुसत्ता क्या है?
उत्तर:
जैलिनेक के अनुसार, “प्रभुसत्ता राज्य का वह गुण है जिसके कारण वह अपनी इच्छा के अतिरिक्त किसी दूसरे की इच्छा या बाहरी शक्ति के आदेश से नहीं बँधता है।”

प्रश्न 95.
“प्रभुसत्ता राज्य की सर्वोपरि इच्छा होती है। यह किस राजनीतिक विचारक का कथन है?
उत्तर:
विलोबी का।

प्रश्न 96.
लॉस्की के अनुसार प्रभुसत्ता को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
लॉस्की के अनुसार, “प्रभुसत्ता वैधानिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय से उच्चतर है। वह सभी को अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए बाध्य कर सकती है।”

प्रश्न 97.
बुडरो विल्सन के अनुसार प्रभुसत्ता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
बुडरो विल्सन के अनुसार, “प्रभुसत्ता वह शक्ति है जो प्रतिदिन क्रियाशील रहकर कानून बनाती है और उनका पालन कराती है।”

प्रश्न 98.
किन्हीं चार विद्वानों के नाम लिखिए जिन्होंने प्रभुसत्ता के परम्परागत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था।
उत्तर:

  1. जीन बोदां
  2. थॉमस हॉब्स
  3. जीन जैक्स रूसो
  4. जॉन आस्टिन।

प्रश्न 99.
जीन बोदां द्वारा लिखित पुस्तक का नाम बताइए।
उत्तर:
‘द रिपब्लिक’

प्रश्न 100.
ग्रोशियस ने प्रभुसत्ता को किस प्रकार परिभाषित किया?
उत्तर:
ग्रोशियस के अनुसार, “प्रभुसत्ता सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति है जिसके कार्यों पर किसी दूसरे का नियन्त्रण नहीं होता और जिसकी इच्छा का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता।”

प्रश्न 101.
प्रभुसत्ता के किन्हीं दो लक्षणों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. पूर्णता
  2. सार्वभौमिकता।

प्रश्न 102.
अनन्यता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
अनन्यता का अर्थ यह है कि-राज्य में दो प्रभुसत्ताधारी नहीं हो सकते। एक प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य के अन्दर दूसरा प्रभुत्व सम्पन्न राज्य नहीं रह सकता।

प्रश्न 103.
प्रभुसत्ता के कोई दो रूप बताइए।
उत्तर:

  1. नाममात्र की तथा वास्तविक प्रभुसत्त
  2. वैधानिक प्रभुसत्ता।

प्रश्न 104.
इंग्लैण्ड की गौरवपूर्ण क्रान्ति कब हुई?
उत्तर:
सन् 1688 – 89 ई. में

प्रश्न 105.
कानूनी राजसत्ताधारी किसे कहते हैं?
उत्तर:
किसी भी देश में वहाँ की सर्वोच्च कानून बनाने वाली शक्ति को कानूनी राजसत्ताधारी कहते हैं।

प्रश्न 106.
राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी से क्या आशय है?
उत्तर:
राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी से आशय मतदाताओं तथा राज्य में उन समस्त अन्य प्रभावों से है जो लोकमत को बनाते हैं।

प्रश्न 107.
गार्नर के अनुसार, लौकिक प्रभुसत्ता का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
गार्नर के अनुसार, “लौकिक प्रभुसत्ता का अभिप्राय केवल यही है कि जिन राज्यों में वयस्क को वोट देने का अधिकार है, उनमें मतदाताओं को अपनी इच्छा प्रकट करने और उस पर अमल करवाने की सत्ता प्राप्त है।”

प्रश्न 108.
विधितः (कानूनी) प्रभुसत्ताधारी कौन होता है?
उत्तर:
विधित: प्रभुसत्ताधारी वह होता है जो वैधानिक दृष्टि से राज्य के सर्वोच्च आदेश जारी कर सकता है। कानून के अनुसार उसे शासन का अधिकार है और वह अपनी आज्ञा का पालन करवा सकता है।

RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की कोई पाँच परिभाषाएँ लिखिए।
उत्तर:
राज्य की पाँच परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. अरस्तु के अनुसार, “राज्य परिवारों तथा ग्रामों का एक संघ होता है जिसका उद्देश्य एक पूर्ण तथा आत्मनिर्भर जीवन की स्थापना है जिससे हमारा अभिप्राय सुखी और सम्माननीय जीवन से है।”
  2.  सिसरो के अनुसार, “राज्य एक ऐसा बहुसंख्यक समुदाय है जो अधिकारों की समान भावना तथा लाभ उठाने में आपसी सहायता द्वारा जुड़ा हुआ है।”
  3. लॉस्की के अनुसार, “राज्य एक भूमिगत समाज है जो शासक और शासितों में बँटा होता है और अपनी सीमाओं के क्षेत्र में आने वाली अन्य संस्थाओं पर सर्वोच्चता का दावा करता है।”
  4. ब्लंटशली के अनुसार, “एक निश्चित प्रदेश के राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोग राज्य हैं।”
  5. गार्नर के अनुसार, “राजनीतिशास्त्र और सार्वजनिक कानून की धारणा के रूप में राज्य थोड़े या अधिक संख्या वाले संगठन का नाम है जो कि स्थायी रूप से पृथ्वी के निश्चित भाग में रहता है। वह बाहरी नियन्त्रण से सम्पूर्ण स्वतन्त्र या लगभग स्वतन्त्र और उसकी एक संगठित सरकार हो जिसकी आज्ञा का पालन अधिकतर जनता स्वभाव से करती हो ।”

प्रश्न 2.
राज्य और सरकार में कोई पाँच अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राज्य और सरकार में निम्नलिखित पाँच अन्तर हैं

(i) राज्य अमूर्त है, जबकि सरकार मूर्त है – राज्य एक अमूर्त धारणा है, जबकि सरकार एक मूर्त, ठोस तन्त्र है जो मनुष्यों की निश्चित संख्या के योग से बनती है।

(ii) राज्य स्थायी जबकि सरकार परिवर्तनशील है – राज्य का अस्तित्व स्थायी होता है, यह सदैव एक जैसा रहता है। राज्य में सदैव चार तत्वों का संयोग होता है, जबकि सरकार अस्थायी होती है। सरकारें परिवर्तनशील होती हैं। इनमें परिवर्तन अनेक कारणों से हो सकते हैं, जैसे चुनाव, नैतिक क्रांति, विद्रोह, आक्रमण आदि।

(iii) राज्य की सदस्यता अनिवार्य, सरकार की नहीं – राज्य की सदस्यता सभी के लिए अनिवार्य होती है। यह हमें जन्म होते ही मिल जाती है, जबकि सरकार का सदस्य बनना व्यक्ति की इच्छा के ऊपर निर्भर करता है।

(iv) राज्य के पास राज्यसत्ता है, सरकार के पास नहीं – राजसत्ता राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। सरकार के पास राजसत्ता का अभाव रहता हैं क्योंकि लोकतंत्र में जनता, सरकार की समस्त शक्तियों का स्रोत मानी जाती है।

(v) राज्य के लिए भूभाग अनिवार्य, सरकार के लिए नहीं – राज्य हेतु निश्चित भू-भाग आवश्यक है, जबकि सरकार के लिए निश्चित भूभाग आवश्यक नहीं है। कई बार एक प्रदेश की सरकार दूसरे राज्य में भी स्थापित हो जाती है।

प्रश्न 3.
राज्य और समाज में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राज्य और समाज में निम्नलिखित अन्तर हैं
1. व्यवस्था सम्बन्धी अन्तर – राज्य एक राजनीतिक व्यवस्था है, जबकि समाज एक सामाजिक व्यवस्था है। राज्य समाज का वह यंत्र है जिसके द्वारा समाज में शांति स्थापित होती है।

2. प्रभुसत्ता सम्बन्धी अन्तर – राज्य के पास प्रभुसत्ता रहती है, जबकि समाज के पास प्रभुसत्ता नहीं रहती। राज्य का कानून भंग करने पर राज्य द्वारा दण्ड दिया जा सकता है।

3. समाज राज्यों की पूर्व अवस्था है – मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के कारण समाज का अस्तित्व पहले है, फिर समाज द्वारा राज्य को अस्तित्व में लाया गया। अत: समाज, राज्य का पूर्ववर्ती है।

4.  भूभाग सम्बन्धी अन्तर – राज्य के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक है, जबकि समाज के लिए यह आवश्यक नहीं है।

5. सरकार के आधार पर अन्तर – राज्य के लिए सरकार जैसी संगठित संस्था का होना आवश्यक है, जबकि समाज के लिए सरकार जैसी संगठित संस्था का होना आवश्यक नहीं है।

6. समाज राज्य से व्यापक है – राज्य केवल मनुष्य के राजनीतिक पक्ष से सम्बन्धित है, जबकि समाज में मनुष्य आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक, शारीरिक, नैतिक, भावात्मक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक आदि सभी पक्षों से जुड़ा रहता है।

प्रश्न 4.
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत के विकास को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत का विकास – राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत प्राचीनतम सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा हुई है। इस सम्बन्ध में प्राचीन भारतीय साहित्य तथा पाश्चात्य व अन्य देशों के चिंतन में विवरण मिलता है, यथा पाश्चात्य चिंतन – दैवीय उत्पत्ति के सिद्धांत के सर्वप्रथम समर्थक यहूदी थे।

यहूदी धर्मग्रन्थों में राजा की नियुक्ति ईश्वर द्वारा मानी गयी है, वही उसे पद से हटा अथवा मार सकता है। यूनान व रोम में भी इसी सिद्धांत को मान्यता दी गयी। यूनानी दार्शनिकों ने राज्य को एक स्वाभाविक एवं दैवीय संस्था माना। रोम के लोगों ने माना कि ईश्वर अप्रत्यक्ष रूप से राज्य का संचालन करता है।

प्राचीन मिस्र में राजा को साक्षात ईश्वर माना जाता था, वे राजा को सूर्य – पुत्र समझते थे। चीन में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि अवतार या वंशज माना जाता था। यूरोप के ईसाई धर्म के अनुसार ईश्वर ने राज्य को जन्म दिया है तथा राजा की नियुक्ति की है। भारतीय चिंतन – भारतीय चिंतन में भी राज्य को ईश्वर द्वारा निर्मित माना गया है।

राजा और राज्य दोनों ही दैवीय हैं। मनु स्मृति के अनुसार, राज्य ईश्वर की कृति है। महाभारत के शांति पर्व में भी राजा की दैवीय उत्पत्ति का संकेत मिलता है। इस प्रकार पश्चिमी राजनीतिक चिंतन व भारतीय चिंतन में राजा की दैवीय उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है।

प्रश्न 5.
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत के प्रमुख तत्व बताइए।
अथवा
दैवीय सिद्धांत की प्रमुख मान्यताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर;
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत के प्रमुख तत्व / मान्यताएँ

  1. राज्य एक ईश्वर निर्मित दैवीय संस्था है। राज्य न तो स्वत: विकसित संस्था है और न ही मानवकृत संस्था है।
  2. राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है। राजा दैवीय गुणों से सम्पन्न होता है तथा इसकी शक्तियाँ ईश्वर प्रदत्त हैं।
  3. राजा की शक्ति असीमित है, जनता सत्ता को उसके विरुद्ध कोई अधिकार प्राप्त नहीं है तथा जनता उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकती।
  4. राजा ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है, न कि जनता के प्रति । ईश्वर की तरह राजसत्ता के आदेश सर्वोच्च, उचित एवं न्यायसंगत होते हैं।
  5. राजा की आज्ञाओं का पालन करना जनता के लिए अनिवार्य कर्तव्य है। इसका उल्लंघन धार्मिक दृष्टि से पाप है।
  6. राज्य के आदेश ही कानून हैं और उसके कार्य सदैव न्यायपूर्ण व उदार होते हैं।
  7. राजसत्ता पैतृक होती है। राजा की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र ही उत्तराधिकारी होता है।
  8. राजा किसी कानून के अधीन नहीं है। राजा कानून बनाता है, कानून राजा को नहीं बनाते।

प्रश्न 6.
गिलक्राइस्ट के अनुसार राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत के पतन के प्रमुख कारण कौन-कौन से हैं?
अथवा
गिलक्राइस्ट के अनुसार दैवी सिद्धांत के ह्रास के कारण बताइए।
उत्तर:
गिलक्राइस्ट के अनुसार, राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत के पतन (ह्रास) के प्रमुख कारण अग्रलिखित हैं

  1. राज्य उत्पत्ति के सामाजिक संविदा सिद्धांत के प्रकाश में आने के कारण राजा व प्रजा के आपसी कर्तव्यों के पालन तथा जनता की इच्छा के महत्व को बल मिला। इसने आपसी सहमति पर अधिक बल दिया।
  2. धर्म तथा राज्य के अलग-अलग होने के कारण सांसारिक महत्व के मामलों में धर्म का प्रभाव कम हो गया। चूँकि देवी सिद्धांत भी धार्मिक था अतः इसका महत्व भी समाप्त हो गया।
  3. लोकतंत्र का उदय होने के पश्चात् लोगों को अपने-अपने अधिकारों की जानकारी प्राप्त हुई। अत: धीरे-धीरे राजाओं की शक्तियाँ कम होती चली गर्थी । अब यह सिद्धांत लगभग समाप्त हो चुका है।

प्रश्न 7.
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत की आलोचना के कोई पाँच आधार बताइए।
अथवा
दैवीय सिद्धांत की कमियाँ बताइए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत की प्रमुख कमियाँ / आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं

  1. यह सिद्धांत अवैज्ञानिक है क्योंकि इसका आधार केवल धार्मिक विश्वास है। वस्तुत: राज्य एक मानवीय संस्था है, ईश्वर ने इसे निर्मित नहीं किया है।
  2. यह सिद्धांत लोकतंत्र का विरोधी है तथा निरंकुशता का समर्थन करता है। इस सिद्धांत के अनुसार राजा, प्रजा के प्रति उत्तरदायी नहीं है।
  3. यह सिद्धांत राजा को दैवीय गुणों से सम्पन्न कहकर एक अतिवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
  4. यह सिद्धांत एक रूढ़िवादी सिद्धांत है क्योंकि राजा के प्रति विरोध को ईश्वर के प्रति अपराध एवं पाप माना गया है।
  5. यह सिद्धांत आधुनिक राज्यों पर लागू नहीं होता है क्योंकि उनमें से अधिकांश में राजतंत्र स्थापित नहीं है। बल्कि गणतंत्र स्थापित है जिसमें राष्ट्रपति को ईश्वर नियुक्त नहीं करता बल्कि जनता या उसके प्रतिनिधि स्वयं चुनते हैं।

प्रश्न 8.
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत का महत्व बताइए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत एक काल्पनिक सिद्धांत है, राज्य के उद्भव का विवेचन करने वाला यह प्राचीनतम सिद्धांत है। दैवीय सिद्धांत के अनुसार, राज्य का निर्माण ईश्वर के द्वारा किया गया है। राज्य का शासन चलाने के लिए ईश्वर ने अपने प्रतिनिधि के रूप में राजा को नियुक्त किया है। यद्यपि वर्तमान में दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या नहीं करता है, तथापि इसका अपना महत्व है। दैवीय सिद्धांत का महत्व निम्न प्रकार से है

  1. इस सिद्धांत ने प्रारम्भिक अराजकता पूर्ण समाज में शांति और व्यवस्था स्थापित करने में योगदान दिया।
  2. इस सिद्धांत ने जनता के मन में आज्ञा पालन एवं अनुशासन की भावना को विकसित किया।
  3. इस सिद्धांत ने राज्य के विकास में धर्म के प्रभाव को प्रतिपादित किया।
  4. यह सिद्धांत राज्य की उत्पत्ति की क्रमबद्ध व्याख्या करने का प्रथम प्रयास था, जिस पर आगे चलकर राज्य की। उत्पत्ति के नये-नये सिद्धांत विकसित हुए।

प्रश्न 9.
वर्तमान युग के परिप्रेक्ष्य में दैवीय सिद्धान्त की स्थिति स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वर्तमान युग में दैवीय सिद्धांत की संकल्पना उचित नहीं है, इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. वर्तमान युग में जहाँ अनेक लोग ईश्वर तथा धर्म में आस्था नहीं रखते, उनके लिए दैवीय सिद्धांत की व्याख्या, जिसका आधार धर्म तथा ईश्वर है, अनुचित है।
  2. वर्तमान युग लोकतंत्र एवं बुद्धिवाद का युग है। राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत लोकतंत्र का विरोधी है, क्योंकि यह राजा को जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाता है और न ही जनता राज्य सत्ता का विरोध कर सकती है। दूसरी ओर, यह सिद्धांत अतार्किक भी है और बुद्धि से परे है। इस कारण आज दैवीय सिद्धांत की संकल्पना उचित नहीं मानी। जाती है।

प्रश्न 10.
“शक्ति के कारण राज्य की उत्पत्ति हुई है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धांत के अनुसार, राज्य की उत्पत्ति का मूल आधार शक्ति है। प्रारम्भ में शक्ति का प्रयोग अधिक बलवान लोगों ने कमजोर व्यक्तियों को दबाने के लिए किया। शक्ति के उपयोग से संगठन प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे राज्य नामक राजनीतिक संगठन का विकास हुआ। यह सिद्धांत इस बात की पुष्टि करता है कि सर्वप्रथम कबीलों का संगठन शक्ति के आधार पर हुआ होगा। कबीलों के सरदार के नेतृत्व में जो राज्य निर्मित हुआ होगा, उसका आधार केवल शक्ति ही रही है। इससे स्पष्ट होता है कि शक्ति के कारण ही राज्य की उत्पत्ति हुई।

प्रश्न 11.
राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धांत की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धांत से आशय यह है कि राज्य की उत्पत्ति का मूल आधार शक्ति है। प्रत्येक राज्य में हमेशा से ही शक्तिशाली व्यक्तियों का निर्बलों पर शासन होता आया है। शक्ति सिद्धांत के समर्थकों का विश्वास है कि राज्य की उत्पत्ति एवं विकास शक्ति के द्वारा हुआ है। जब सृष्टि का आरम्भ हुआ तो उस समय भोजन की तलाश में मनुष्यों के समूह एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे।

इन समूहों में कई बार लड़ाई – झगड़ा हो जाता था। जब शक्तिशाली समूहों ने निर्बल समूहों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया तो राज्य की उत्पत्ति हो गई क्योंकि शक्तिशाली समूह का नेता राजा बन गया तथा हारे हुए समूह को प्रजा बना लिया। लीकॉक नामक राजनीतिक विचारक ने शक्ति सिद्धान्त का वर्णन निम्न प्रकार से किया है

“ऐतिहासिक रूप में इनका यह अभिप्राय है कि शासन मानव आक्रमण का परिणाम है, राज्य का जन्म एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य के गुलाम बनाने तथा एक निर्बल कबीले पर एक बलशाली कबीले की विजय से हुआ। साधारणतया श्रेष्ठ नैतिक शक्ति द्वारा जब किसी व्यक्ति ने अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए दूसरों पर अधिकार जमाया, उसी से राज्य सत्ता का उदय हुआ। इसी कारण कबीले से राज्य और राज्य से साम्राज्य का धीरे – धीरे विकास हुआ

प्रश्न 12.
शक्ति सिद्धांत की आलोचना के कोई पाँच बिन्दु लिखिए।
उत्तर:
शक्ति सिद्धांत की आलोचना – राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धांत की आलोचना के प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित हैं:

  1. राज्य की उत्पत्ति केवल शक्ति द्वारा ही नहीं हुई है – राज्य की उत्पत्ति में शक्ति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है लेकिन केवल शक्ति द्वारा ही राज्य की उत्पत्ति को मानना गलत होगा। यह राज्य निर्माण का सहायक तत्व है, एकमात्र निर्णायक तत्व नहीं है।
  2. राज्य का विस्तार केवल शक्ति के द्वारा ही नहीं हुआ है – राज्य के विस्तार में यद्यपि शक्ति ने बहुत योगदान दिया है लेकिन केवल शक्ति के आधार पर ही राज्य का विस्तार नहीं हुआ है। राज्य का विस्तार जनसहयोग से भी हो सकता है।
  3. प्रजातंत्र का विरोधी – यह सिद्धांत युद्ध और क्रांति में विश्वास करता है। अतः यह प्रजातंत्र का विरोधी है।
  4. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अंत – यदि शक्ति को ही राज्य का आधार माना जाए तो ऐसी परिस्थिति में पाश्विक शक्ति का राज्य स्थापित हो जाएगा तथा बलवान लोग कमजोरों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेंगे। इससे व्यक्ति के अधिकार और स्वतंत्रता का अंत हो जाएगा।
  5.  आन्तरिक व अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहन – यदि शक्ति को राज्य का आधार मान लिया जाए तो सम्पूर्ण विश्व के विभिन्न भागों में आन्तरिक संघर्ष छिड़ जाएगा तथा विभिन्न राज्यों में निरन्तर युद्ध चलते रहेंगे।

प्रश्न 13.
राज्य के उद्भव के शक्ति सिद्धान्त के महत्त्व को बताइए।
अथवा
शक्ति के सिद्धान्त की उपयोगिता को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राज्य के सन्दर्भ में समझाइए।
उत्तर:
शक्ति सिद्धान्त का महत्व / उपयोगिता – शक्ति सिद्धान्त के अनुसार, राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र कारण शक्ति या बल प्रयोग है। राज्य बलवानों द्वारा निर्बलों पर अधिकार एवं प्रभुत्व का परिणाम है। यद्यपि शक्ति सिद्धान्त की बहुत अधिक आलोचना की गई है, लेकिन इसकी अपनी उपयोगिता/महत्त्व है

  1. इस सिद्धान्त ने राज्य की उत्पत्ति एवं विकास में शक्ति के योगदान को विस्तृत रूप से प्रतिपादित किया है।
  2. इसने शक्ति के व्यापक रूप को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। राज्य का सम्पूर्ण स्थायित्व शक्ति के प्रयोग पर निर्भर है। इसके बिना राज्य स्थापित नहीं रह सकता।
  3. राज्य में आन्तरिक शान्ति बनाए रखने के लिए पुलिस आवश्यक है और बिना शक्तिशाली सशस्त्र सेनाओं के राज्य की बाहरी आक्रमणों में सुरक्षा नहीं की जा सकती।
  4.  इसने आर्थिक, राजनीतिक, सैनिक आदि शक्तियों के विभिन्न रूपों की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है।

प्रश्न 14.
राज्य उत्पत्ति के मातृ-प्रधान सिद्धान्त की प्रमुख मान्यताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
राज्य उद्भव के मातृ सत्तात्मक सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
मातृ प्रधान (सत्तात्मक) सिद्धान्त की प्रमुख मान्यताएँ/विशेषताएँ-राज्य उत्पत्ति के मातृ प्रधान (सत्तात्मक) सिद्धान्त की प्रमुख मान्यताएँ/विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. स्थायी वैवाहिक सम्बन्धों का अभाव था। इस कारण माता से ही वंशानुक्रम का आरम्भ होता था। अतः सम्बन्ध सूत्रे का माध्यम स्त्री थी।
  2. रक्त सम्बन्ध का पता केवल माता से ही चल सकता था।
  3. माता ही परिवार की मुखिया मानी जाती थी तथा वही घर की मालिक थी।
  4. सम्पत्ति और सत्ता पर स्त्रियों का ही एकाधिकार एवं उत्तराधिकार था। अत: परिवार का प्रधान पुरुष न होकर स्त्री होती थी।
  5. माता की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति का बँटवारा, पुत्रों में न होकर पुत्रियों में होता था।
  6. मातृ प्रधान परिवारों में माता शक्ति का केन्द्र थी। उसके द्वारा संचालित गृह शासन में राज्य के उद्भव के तत्व विद्यमान थे।

प्रश्न 15.
मातृ – प्रधान सिद्धान्त का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राज्य उत्पत्ति के मातृ-प्रधान सिद्धान्त की निम्नलिखित आलोचनाएँ की गई हैं

  1. यह सिद्धान्त केवल यह अनुमान लगाता है कि समाज का और विशेषकर परिवार का आरम्भ कैसे हुआ। इसे राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।
  2. यह कहना अत्यन्त कठिन है कि प्रारम्भ में मानव समाज में मातृ-प्रधान परिवार ही प्रचलन में थे। यह भी सम्भव है कि किसी स्थान पर परिवार मातृ-प्रधान तो किसी स्थान पर पितृ प्रधान रहे हों।
  3. यह सिद्धान्त राज्य के विकास क्रम को सरल रूप में बताता है जो उतना सरल नहीं हैं यह सिद्धान्त राज्य के विकास के लिए उत्तरदायी अन्य तत्वों की भी उपेक्षा करता है।
  4. यह सिद्धान्त राज्य के विकास के स्थान पर समाज के विकास की ही व्याख्या करता है। इस दृष्टि से यह सिद्धान्त सामाजिक अधिक है और राजनीतिक कम।

प्रश्न 16.
पितृ प्रधान सिद्धान्त के प्रमुख तत्वों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
राज्य उत्पत्ति के पितृ सत्तात्मक सिद्धान्त की मान्यताओं को बताइए।
अथवा
पितृ-सत्तात्मक सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राज्य उत्पत्ति के पितृ प्रधान सिद्धान्त की प्रमुख मान्यताएँ/तत्व/विशेषताएँ-राज्य उत्पत्ति के पितृ प्रधान सिद्धान्त की प्रमुख मान्यताएँ/तत्व/विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. प्राचीन समय में समाज की इकाई परिवार था।
  2. प्राचीनकाल में विवाह की प्रथा प्रचलित थी तथा वह पितृ प्रधान परिवारों के रीति-रिवाजों के अनुसार ही सम्पन्न होती था।
  3. परिवार में पुरुष (पिता या दादा) ही परिवार का मुखिया होता था एवं पितृ सत्तात्मक तत्वों की प्रधानती थी। पिता या दादा के आदेशों का पालन परिवार के प्रत्येक सदस्य को करना पड़ता था, वरना उसे कठोर दण्ड मिलता था।
  4. वंशावली केवल पुरुषों से खोजी जाती थी। स्त्री पक्ष को कोई भी उत्तराधिकार परिवार में प्राप्त नहीं था।
  5.  पितृ प्रधान परिवारों में मुखिया के व्यापक एवं असीमित अधिकार राजनीतिक सत्ता के मूल स्रोत थे।
  6.  पितृ प्रधान परिवारों से ही कुल, कुलों से कबीले एवं कबीलों के विस्तार से राज्य का विकास हुआ। परिवार, कुल और कबीलों के विस्तार में रक्त सम्बन्ध अथवा रिश्तेदारियों ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रश्न 17.
पितृ एवं मातृ प्रधान सिद्धान्तों का राज्य की उत्पत्ति में योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
पितृ एवं मातृ प्रधान सिद्धान्तों का राज्य की उत्पत्ति में प्रमुख योगदान अग्रलिखित है

  1. पितृ एवं मातृ प्रधान दोनों ही सिद्धान्त राज्य के विकास में रक्त सम्बन्धों के योगदान को उचित रूप में विश्लेषित करते हैं क्योंकि राज्य परिवारों को विकसित रूप माना जाता है।
  2. पितृ एवं मातृ प्रधान सिद्धान्तों के कारण राज्य में आज्ञा-पालन एवं अनुशासन की भावना का भी प्रभाव स्थापित हुआ है।
  3. प्राचीनकाल में रक्त सम्बन्ध ने राज्य के विकास में जो महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, उस पर प्रकाश डालकर इन सिद्धान्तों ने राजनीति विज्ञान के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

प्रश्न 18.
थॉमस हॉब्स के अनुसार, मानव स्वभाव एवं प्राकृतिक अवस्था का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मानव स्वभाव-थॉमस हॉब्स के अनुसार, “मनुष्य मूल रूप से एक असामाजिक प्राणी, स्वभावत: एकाकी, स्वार्थी एवं झगड़ालू था। वह अपने सुखों एवं स्वार्थों की पूर्ति के लिए निरन्तर संघर्षरत रहता था। वह संघर्ष में सफलता प्राप्त करने के लिए झूठ, कपट, हिंसा आदि का सहारा लेता था।” प्राकृतिक व्यवस्था – थॉमस हॉब्स के अनुसार, मनुष्य स्वभाव में दानवी प्रवृत्तियों के कारण उसकी प्राकृतिक अवस्था अत्यन्त कष्टमय व संघर्षपूर्ण थी। यह अवस्था निरन्तर युद्ध एवं संघर्ष की अवस्था थी जिसमें प्रत्येक व्यक्ति दूसरे के विरुद्ध अघोषित संघर्ष की स्थिति में था। अत: प्राकृतिक अवस्था में मानव जीवन एकाकी, दरिद्र एवं बर्बर था।

प्रश्न 19.
थॉमस हॉब्स के संविदा सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
अथवा
थॉमस हॉब्स के अनुसार राज्य संस्था का प्रादुर्भाव किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
थॉमस हॉब्स के संविदा सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. मनुष्यों में यह स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वे अपनी रक्षा करें व अपनी रक्षा के उपायों पर विचार करें, इसके परिणामस्वरूप उनमें अराजक दशा का अन्त करने के लिए समझौता हुआ।
  2. सभी लोगों ने आपस में एक सहमति बनायी कि एक ऐसी शक्ति को उत्पन्न करें जो सभी को अपने आदेश द्वारा क्रियान्वित करे तथा सभी से अपनी आज्ञा का पालन करवाये। इसे महामानव (राजा) नाम प्रदान किया गया।
  3. सभी लोगों ने महामानव के साथ यह संविदा की कि वे अपनी समस्त शक्ति, अपने जान व माल की स्वयं रक्षा करने की शक्ति उसे प्रदान करते हैं। इस प्रकार व्यक्तियों ने अपने समस्त अधिकारों का समझौते के द्वारा परित्याग कर दिया।
  4. हॉब्स के अनुसार, महामानव (राजा) को ‘लेवियाथन’ नाम दिया गया जो इस समझौते का पक्षकार न होकर परिणाम है।
  5. सभी मनुष्यों ने एक-दूसरे के साथ संविदा की कि अपना शासन स्वयं कर सकने का अधिकार व शक्ति मैं इस एक मनुष्य को यो इस समूह को प्रदान करता हूँ, बशर्ते कि तुम भी अपने इस अधिकार को मेरी तरह इसी एक मनुष्य को या इसी एक समूह को प्रदान करने के लिए तैयार हो ।” जब सब लोग इस संविदा से सहमत हो गए तो राज्य संस्था की उत्पत्ति हुई।
  6. राजा के किसी भी निर्णय से यदि आत्मरक्षा को खतरा हो तो व्यक्ति राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर सकता है। इस विद्रोह के अधिकार को मान्यता देने के कारण थॉमस हॉब्स को व्यक्तिवादी माना जा सकता है।

प्रश्न 20.
लॉक के अनुसार राज्य संस्था के प्रादुर्भाव से पूर्व की अराजक दशा का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लॉक मनुष्य को स्वभावत: विचारवान एवं बुद्धिमान प्राणी मानता है। उसके अनुसार मानव में प्रेम सहानुभूति, दया, सहयोग, परमार्थ आदि मानवीय गुण स्वाभाविक रूप से विद्यमाने होते हैं। लॉक के अनुसार, मनुष्य के परोपकारी व विवेकपूर्ण होने के कारण अराजक दशा शान्तिपूर्ण व आदर्श थी। अराजक दशी या प्राकृतिक अवस्था में सभी मनुष्य समान तथा स्वतन्त्र थे।

वह अपनी जान माल की स्वयं रक्षा करते थे तथा अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करते थे। उस समय न तो कोई राजा था, न कोई प्रजा, न कोई शासक था, न कोई शासित। यह स्वतन्त्रता को अवस्था थी, लेकिन इसमें अराजकता या स्वच्छन्दता बिल्कुल नहीं थी क्योंकि लोग प्राकृतिक कानूनों एवं नैतिकता के नियमों को मानते थे, लेकिन प्राकृतिक कानूनों की व्याख्या लोग अपने विवेकानुसार करते थे।

प्रश्न 21.
लॉक की दोनों संविदाओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
राज्य – उत्पत्ति के सम्बन्ध में लॉक के दोनों समझौतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
लॉक के अनुसार, अराजक दशा की असुविधाओं को दूर करने के लिए मनुष्यों ने परस्पर संविदा (समझौता) किया। लॉक दो संविदाओं (समझौतों) का उल्लेख करता है, यथा

  1. आपस में (सामाजिक समझौता)
  2. शासक वर्ग के साथ (सरकारी समझौता)

1. आपस में (सामाजिक समझौता) – प्रथम समझौते को लॉक सामाजिक समझौता कहता है। यह समझौता मनुष्यों के बीच किया गया था। इस समझौते के तहत मनुष्यों ने यह तय किया कि वे कानून बनाने व अपने सम्बन्ध में व्यवस्था करने का अधिकार समाज को प्रदान करते हैं। अब से समाज ही मनुष्यों के वैयक्तिक व सामूहिक हित के लिए उपयोगी कानूनों का निर्माण करेगा।

2. शासक वर्ग के साथ (सरकारी समझौता) – यह समझौता राजा या शासक वर्ग अर्थात् सरकार और जनता के मध्य हुआ। इसके अन्तर्गत जनता सरकार के हाथ राजशक्ति का प्रयोग सुपुर्द करती है। इसमें चूँकि सरकार एक पक्ष है अतः सरकार पर समाज द्वारा कुछ शर्ते लगा दी गईं, जिनका पालन यदि सरकार नहीं कर पाती तो उसे हटाकर नयी सरकार का निर्माण किया जा सकता है। इस हेतु समाज अपनी शक्ति सरकार को प्रदान करता है।

प्रश्न 22.
लॉक के सामाजिक संविदा (समझौता) सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
लॉक के सामाजिक संविदा (समझौता) सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ-लॉक के सामाजिक संविदा समझौता सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. लॉक अराजक दशा का अन्त करने के लिए मनुष्यों से दो समझौते कराता है-
    • एक आपस में (सामाजिक समझौता) और
    • दूसरे शासक वर्ग के साथ (सरकारी समझौता)। प्रथम समझौता लोगों के मध्य होता है और इससे राज्य की स्थापना होती है।
  2. द्वितीय समझौते में राजा या शासक वर्ग या सरकार का पक्षकार होने के कारण वह समझौते की शर्तों से बंधी है। और इनको पूरा न करने पर शासक को अपदस्थ किया जा सकता है।
  3. लॉक के समझौते के अनुसार, राज्य के अस्तित्व का आधार व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करना है।
  4. लॉक के अनुसार, राज्य जन सहमति पर आधारित है।
  5. राजा या शासक वर्ग यो सरकार द्वारा जनता पर अत्याचार करने, निरंकुशता व स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति रखने पर जनता को यह अधिकार है कि वे राजा या शासक वर्ग या सरकार को अपने पद से हटा सकते हैं तथा किसी अन्य राजा या शासक वर्ग के साथ नये सिरे से संविदा कर सकते हैं।
  6. लॉक इसे संविदा द्वारा सीमित राजतन्त्र की स्थापना करता है।

प्रश्न 23.
रूसो द्वारा वर्णित राज्य संस्था की उत्पत्ति से पूर्व की अराजक दशा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रूसो द्वारा वर्णित राज्य संस्था की उत्पत्ति से पूर्व की अराजक दशा में मनुष्य सादगी एवं स्वतन्त्रता के साथ निवास करता था। उसमें स्वार्थ की भावना नहीं थी, उसका जीवन नोबेल सेवेज जैसा था, वह सुखी और सन्तुष्ट था। लेकिन अराजक दशा की यह स्वर्ग जैसी स्थिति लम्बे समय तक नहीं रह सकी। मनुष्य में परिवार और सम्पत्ति बनाने की इच्छा उत्पन्न हुई।

सम्पत्ति के प्रादुर्भाव से नौबेल सेवेज की स्वाभाविक समानता और स्वतन्त्रता समाप्त हो गयी। इस दशा में यह सम्भव नहीं रहा कि मनुष्य आपस में मिलकर रह सके। उनमें ईष्र्या, द्वेष और झगड़ों का उदभव हुआ और अराजक दशा के समस्त सुखों व शान्ति की समाप्ति हो गयी। इस स्थिति का यह परिणाम हुआ कि मनुष्य ने स्वयं को एक राज्य संस्था में संगठित कर लेने की आवश्यकता अनुभव की।

प्रश्न 24.
रूसो के अनुसार संविदा के स्वरूप का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अराजक दशा में जब झगड़े व द्वेष प्रारम्भ हो गये ये तो उससे छुटकारा पाने के लिए मनुष्यों ने प्राकृतिक अर्थात् अराजक दशा का अन्त कर अपने आपको एक राज्य संस्था के रूप में संगठित कर लेने की आवश्यकता अनुभव की। इसके लिए उन्होंने परस्पर मिलकर संविदा की कि प्रत्येक मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता, अधिकार व शक्ति को समाज को समर्पित कर दे क्योंकि समाज व्यक्तियों के समुदाय का ही नाम है और समाज का निर्माण व्यक्तियों द्वारा ही होता है।

अतः मनुष्य अपनी जिस स्वतन्त्रता, अधिकार व शक्ति को अपने से अलग करके समाज को समर्पित करता है, उसे वह समाज के अंग के रूप में पुनः प्राप्त कर लेता है। रूसो के अनुसार, अराजक दशा को समाप्त करने के लिए, जो संविदा करते हैं, वह दो पक्षों के मध्य में की जाती है। एक पक्ष में मनुष्य अपने वैयक्तिक रूप में होते हैं वहीं दूसरे पक्ष में मनुष्य अपने सामूहिक रूप में होते हैं।

रूसो के अनुसार संविदा के फलस्वरूप राज्य संस्था के रूप में संगठित हो जाने पर मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता, अधिकार व शक्ति को अपने से अलग नहीं होने देते। वे इन्हें अपने पास रखते हैं पर व्यक्तिगत रूप से नहीं, अपितु सामूहिक रूप से, समाज के अंग होने के कारण इस संविदा से समाज में व्याप्त अराजकता और असुरक्षा समाप्त हो जाती है और राज्य की उत्पत्ति होती है, जोकि सामान्य इच्छा का प्रतिनिधि होता है।

प्रश्न 25.
राज्य की उत्पत्ति के विकासवादी सिद्धान्त की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति का विकासवादी सिद्धान्त – राज्य किसी समय विशेष में निर्मित संस्था नहीं है वरन् यह शताब्दियों के विकास का परिणाम है, यह धीरे – धीरे अस्तित्व में आया। राज्य के विकास का क्रम एक जैसा नहीं रहा। भिन्न – भिन्न कालों, अवस्थाओं और स्थानों में राज्य के विकास का क्रम भिन्न – भिन्न रहा है।

गार्नर के अनुसार, “राज्य न तो ईश्वर की सृष्टि है, न उच्चकोटि के शारीरिक बल का परिणाम है, न किसी प्रस्ताव अथवा समझौते की कृति है और न परिवार का विस्तृत रूप है। राज्य मात्र कृत्रिम रचना नहीं अपितु एक ऐसी संस्था है। जिसका स्वाभाविक रूप से शनैः-शनैः विकास हुआ है।”

लीकॉक के अनुसार, “राज्य ऐसे क्रमिक विकास का परिणाम है जो मनुष्य के सम्पूर्ण ज्ञात इतिहास तथा अज्ञात भूतकाल तक फैला हुआ है।” बर्गेस ने ठीक ही लिखा है कि राज्य इतिहास का फल है। इस प्रकार ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त राज्य को एक प्राकृतिक एवं स्वाभाविक संस्था मानता है।

समाज, संस्कृति, सभ्यता एवं विज्ञान के विकास के साथ राज्य वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर पाया है। राज्य के विकास में अनेक तत्वों का योगदान रहा है जिनमें रक्त सम्बन्ध, मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्तियाँ, धर्म, शक्ति, आर्थिक गतिविधियाँ एवं राजनीतिक चेतना आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 26.
प्रो. गैटेल के अनुसार राज्य के विकासक्रम की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
राज्य के विकासक्रम की प्रमुख विशेषताएँ – प्रो. गैटेल के अनुसार, राज्य के विकासक्रम की प्रमुख बिशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. राज्य का विकास सरलता से जटिलता की ओर हुआ है। प्रारम्भ में राज्य का संगठन अत्यन्त सरल था जो मानव जीवन के विकास के साथ – साथ राज्य के कार्य बढ़ने पर जटिल होता गया।
  2. प्रारम्भ में राज्यों की जनसंख्या कम थी और क्षेत्र छोटा था परन्तु समय के साथ-साथ राज्यों की जनसंख्या और क्षेत्र विस्तृत होते चले गए।
  3. राज्य के विकास के साथ – साथ नागरिकों में राजनीतिक चेतना के विकास से प्रतिनिधि प्रजातन्त्र एवं संघात्मक राज्य जैसी व्यवस्थाओं का जन्म हुआ।
  4. राज्य के विकास के प्रारम्भिक स्तरों पर निरंकुश शासन व्यवस्थाएँ थीं, जिनमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को स्थान प्राप्त नहीं था। धीरे-धीरे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का महत्व समझा जाने लगा तथा राज्य की प्रभुसत्ता और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के मध्य समन्वय का मार्ग अपनाया जाने लगा।
  5. राज्य के विकास के प्रारम्भिक समय में राज्य और धर्म एक – दूसरे से जुड़े हुए थे परन्तु वर्तमान समय में धर्म और राज्य एक-दूसरे से अलग – अलग हो गए हैं। आज धर्म निरपेक्ष राज्य के विचार को स्वीकृति प्राप्त है।

प्रश्न 27.
प्रभुसत्ता का अर्थ, महत्व एवं उसके प्रकारों को बताइए।
उत्तर:
प्रभुसत्ता का अर्थ – प्रभुसत्ता के बिना राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रभुसत्ता को अंग्रेजी में सॉवरेन्टी (Sovereignty) कहते हैं जो कि लैटिन भाषा के सुप्रेनस (Suprenus) शब्द से निकला है। जिसका अर्थ – सर्वोच्च शक्ति होता है। इससे स्पष्ट है कि सॉवरेन्टी का अर्थ – राज्य की सर्वोच्च सत्ता है। प्रभुसत्ता का महत्त्व – प्रभुसत्ता ही राज्य का ऐसा लक्षण है।

जो अन्य समुदायों से उसकी अलग पहचान बनाता है। राज्य अपना अस्तित्व तभी तक स्थापित रख सकता है जब तक वह प्रभुसत्ता से सम्पन्न रहता है। यदि आन्तरिक विद्रोह या बाह्य आक्रमण के कारण राज्य अपनी प्रभुसत्ता खो देता है तो उस राज्य का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

प्रभुसत्ता के प्रकार / पहलू – प्रभुसत्ता दो प्रकार की होती है – बाह्य और आन्तरिक:

  1. बाह्य प्रभुसत्ता – बाह्य प्रभुसत्ता का अर्थ है कि-राज्य किसी बाहरी देश या संस्था के अधीन नहीं है। प्रत्येक राज्य को व्यापारिक संधियाँ व नैतिक समझौते करने का पूर्ण अधिकार होता है। वह स्वयं अपनी विदेश नीति का निर्माण कर सकता है।
  2. आन्तरिक प्रभुसत्ता – आन्तरिक प्रभुसत्ता का अर्थ है कि राज्य अपनी समस्त संस्थाओं और व्यक्तियों के ऊपर सर्वोच्च सत्ता रखता है। यदि व्यक्ति और संस्थाएँ राज्य की आज्ञा का पालन नहीं करते तो राज्य को उन्हें दण्ड देने को पूर्ण अधिकार होता है।

RBSE Class 11 Political Science Chapter 4 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य और सरकार में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राज्य और सरकार में अन्तर राज्य और सरकार के अन्तर को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है
(1) राज्य अमूर्त है, सरकार मूर्त है – राज्य अमूर्त है और उसका मूर्त स्वरूप सरकार है। राज्य आत्मा है और सरकार शरीरवत् है। आत्मा और शरीर में जो सम्बन्ध है, वही राज्य और सरकार में है।

(2) राज्य पूर्ण है, सरकार उसका एक अंग है – राज्य पूर्ण है, सरकार उसका एक अंग है। राज्य के चार आवश्यक तत्व हैं

  1. जनसंख्या
  2.  निश्चित भू – भाग
  3. सरकार
  4. राजसत्ता।

सरकार राज्य के इन चार आवश्यक तत्वों में से एक है। सरकार द्वारा राज्य के कार्यों व नीतियों को व्यवहारिक रूप में क्रियान्वित किया जाता है। इस तरह इनमें पूर्ण व अंश का भेद है।

(3) राज्य स्थायी है सरकार परिवर्तनशील है – राज्य स्थायी होता है, जबकि सरकार परिवर्तनशील होती है। राज्य का स्वरूप स्थायित्व एवं निरन्तरता का है। वहीं सरकारें बदलती रहती हैं। सरकारों में परिवर्तन अनेक कारणों में हो सकते हैं; जैसे – निर्वाचन, विद्रोह, आक्रमण, सैनिक क्रान्ति आदि।।

(4) राज्य का रूप सदैव एक है, जबकि सरकार के विभिन्न रूप हैं – राज्य में उसके चारों तत्वों यथा-जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार एवं प्रभुसत्ता का संयोग होता है और वह एकरूप रहता है, जबकि सरकार के अनेक रूप होते हैं यथा – लोकतन्त्र, अधिनायक तन्त्र, राजतन्त्र, संघात्मक, एकात्मक, संसदीय अथवा अध्यक्षात्मक आदि।

(5) राज्य के पास राजसत्ता है, सरकार के पास नहीं – राज्य के पास राजसत्ता होती है। यह राज्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जबकि सरकार के पास राजसत्ता नहीं रहती क्योंकि लोकतन्त्र में जनता सरकार की समस्त शक्तियों का स्रोत मानी जाती है।

(6) राज्य के सभी सदस्य होते हैं, लेकिन सरकार के सदस्य सीमित – राज्य की सदस्यता सभी के लिए अनिवार्य है। व्यक्ति जन्म से ही राज्य का अनिवार्य रूप से सदस्य बन जाता है, जबकि सरकार में सीमित सदस्य ही सहभागी होते हैं। कार्यपालिका, व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका के सदस्य ही सरकार के अंग होते हैं।

(7) राज्य हेतु निश्चित भू-भाग आवश्यक, सरकार हेतु नहीं – राज्य के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक है, बिना भू-भाग के राज्य अस्तित्व में नहीं आ सकता, जबकि सरकार कई बार दूसरे राज्य में भी स्थापित हो जाती है। उदाहरण के रूप में तिब्बत पर चीन द्वारा कब्जा कर लेने के पश्चात् वहाँ की निर्वासित सरकार भारत से संचालित होती हैं।

(8) राज्य का विरोध नहीं, सरकार का विरोध सम्भव – राज्य प्रभुसत्ता सम्पन्न होता है। राज्य के प्रति विद्रोह अत्यन्त गम्भीर राजद्रोह की श्रेणी में माना जाता है, अतः राज्य का विरोध सम्भव नहीं होता। परन्तु सरकार यदि कोई जन विरोधी कार्य करती है तो नागरिकों द्वारा ऐसी सरकार की आलोचना एवं विरोध किया जा सकता है। यहाँ तक कि सरकार को बदला भी जा सकता है।

(9) प्रधान एवं प्रतिनिधि का अन्तर – राज्य प्रधान है और सरकार उसकी प्रतिनिधि होती है। राज्य शक्तियों का एक ऐसा संगठित समूह होता है जिसका उद्देश्य अपनी सम्पूर्ण जनता की उन्नति होता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक संगठन की आवश्यकता होती है और उस संगठन को सरकार के नाम से जाना जाता है।

इस प्रकार सरकार राज्य का वह यन्त्र है जो राज्य के उद्देश्यों को कार्य रूप से परिणत करता है। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि राज्य और सरकार के मध्य व्यापक अन्तरे होते हुए भी एक-दूसरे के बिना इनका अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। इसी कारण राज्य के कार्यों की व्यावहारिक क्रियान्वयन के लिए सरकार को राज्य का एक अंग माना जाता है।

प्रश्न 2.
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन:
राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दैवीय सिद्धान्त प्राचीनतम सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा हुई है। इस सिद्धान्त के अनुसार राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है तथा राजा ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है, न कि जनता के प्रति। प्रजा का कर्तव्य सदैव राजा की आज्ञा का पालन करना होता है।

राजा की आज्ञा की अवहेलना करना, ईश्वर के प्रति अपराध माना ज़ाता है। इस प्रकार राज्य मानव निर्मित संस्था न होकर दैवीय संस्था है। 16वीं शताब्दी के पश्चात् जैसे – जैसे मानव का बौद्धिक विकास हुआ तो इस सिद्धान्त का पतन होने लगा। राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की गई है

(i) लोकतान्त्रिक भावनाओं के विपरीत – यह सिद्धान्त लोकतन्त्र की भावना के विपरीत है तथा निरंकुशता का समर्थन करता है। इस सिद्धान्त के द्वारा राजाओं ने अपनी शक्ति को मनमाने ढंग से बढ़ा लिया तथा जनता पर अत्याचार करने लगे। इस सिद्धान्त ने जनता को बिल्कुल असमर्थ बना दिया तथा उसे राजा की दया पर छोड़ दिया गया।

(ii) अवैज्ञानिक सिद्धान्त – वस्तुतः राज्य एक मानवीय संस्था है, ईश्वर ने इसका निर्माण नहीं किया है। राज्य और उसके कानूनों को बनाना तथा उन्हें लागू करना मानव का कार्य है। इतिहास में इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि राज्य ईश्वर कृत है। इस सिद्धान्त की मान्यताओं को केवल धार्मिक विश्वासों के आधार पर ही सही माना जा सकता है, तर्क के आधार पर नहीं। अतः यह एक अवैज्ञानिक सिद्धान्त प्रतीत होता है।

(iii) रूढ़िवादी सिद्धान्त – यह एक रूढ़िवादी सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त की मान्यताओं में कोई जनहितकारी परिवर्तन नहीं किये जा सकते हैं क्योंकि राजा के प्रति विरोध को ईश्वर के प्रति अपराध एवं पाप माना गया है।

(iv) धार्मिक सिद्धान्त – यह सिद्धान्त राजनीतिक न होकर धार्मिक है। आज के युग में जहाँ बहुत से लोग ईश्वर व धर्म में आस्था नहीं रखते, उनके लिए इसकी कोई उपयोगिता नहीं है। धर्म का क्षेत्र राजनीति के क्षेत्र से भिन्न होता है। धर्म से अलग मामलों में मानव अपनी बुद्धि व विवेक से कार्य करता है।

(v) अतिवादी दृष्टिकोण – इस सिद्धान्त में राजा को पूर्ण शक्ति सम्पन्न एवं दैवीय गुणों से सम्पन्न कहना, एक अतिवादी दृष्टिकोण प्रतीत होता है।

(vi) आधुनिक राज्यों पर लागू नहीं – आधुनिक राज्यों पर यह सिद्धान्त लागू नहीं होता है क्योंकि इनमें से अधिकांश राज्यों में राजतन्त्र नहीं है। जिन राज्यों में गणतन्त्र स्थापित हो गया है वहाँ पर राष्ट्रपति को ईश्वर नियुक्त नहीं करता बल्कि स्वयं जनता या उनके प्रतिनिधि चुनते हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वर्तमान में दैवीय सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या नहीं करता है।

प्रश्न 3.
राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
अथवा
“शक्ति ही राज्य का आधार है।” इस कथन को स्पष्ट करते हुए राज्य की उत्पत्ति में इसके योगदान को समझाइए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति का शक्ति सिद्धान्त शक्ति सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र कारण शक्ति है। राज्य बलवानों द्वारा निर्बलों पर अधिकार और प्रभुत्व का परिणाम है। जब सृष्टि का प्रारम्भ हुआ तो उस समय मनुष्यों के समूह भोजन की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते – फिरते रहते थे।

इन समूहों में कई बार लड़ाई – झगड़ा हो जाता था। इस संघर्ष में शक्तिशाली समूह ने निर्बल समूह पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया, इस प्रकार राज्य की उत्पत्ति हुई। शक्तिशाली समूह का नेता शासक या राजा बन गया और हारे हुए समूह को प्रजा बना लिया। इस प्रकार शक्ति राज्य का आधार है और युद्ध के माध्यम से राज्य का निर्माण हुआ है।

शक्ति सिद्धान्त का विकास – प्राचीन यूनान के सोफिस्ट विचारकों ने शक्ति सिद्धान्त का समर्थन किया। उनकी धारणा थी कि “न्याय शक्तिशाली व्यक्तियों के हित के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।” मध्य युग में यूरोप में वर्च और राज्य का संघर्ष भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि राज्य की उत्पत्ति पाश्विक शक्ति से हुई है। जबकि चर्च त्मिक शक्ति का श्रेष्ठतम केन्द्र है। व्यक्तिवादी राजनीतिक विचारकों के अनुसार भी राज्य का आधारे शक्ति है। अराजकतावादी, राज्य को अनावश्यक बुराई मानते हुए राज्य का आधार शक्ति बताते हैं। कार्ल मार्क्स के अनुसार, राज्य शक्ति पर आधारित है।

जैक्स नामक विद्वान ने माना कि युद्ध से राज्य का जन्म होता है। ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ में देवताओं और असुरों के संघर्ष के दौरान युद्ध से ही राजा की उत्पत्ति हुई। सिकन्दर ने अपना राज्य केवल शक्ति द्वारा ही विस्तारित किया। वर्तमान में आर्थिक, भौतिक एवं परमाणु शक्तियों के आधार पर विश्व में शक्ति गुटों का बनना एवं संयुक्त राज्य अमेरिका का एकाधिकार, सभी शक्ति के ही उदाहरण हैं। वर्तमान समय में शक्ति सिद्धान्त के समर्थकों में प्लोविन, जैक्स, वार्ड, ओपन हाइम एवं रेटजल हाफर आदि प्रमुख हैं।

  1. शक्ति, राज्य निर्माण का सहायक तत्व है, एकमात्र निर्णायक तत्व नहीं है। राज्य की उत्पत्ति में शक्ति के अतिरिक्त रक्त सम्बन्ध, धर्म एवं राजनीतिक चेतना ने भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
  2. यह सिद्धान्त केवल शक्ति द्वारा ही राज्य का विस्तार मानता है। संसार के कई देशों में संघ की स्थापना से यह बात सिद्ध होती है कि राज्य का विस्तार जनसहयोग से भी हो सकता है।
  3. राज्य का आधार केवल पाश्विक शक्ति नहीं रही है। जहाँ-जहाँ यह शक्ति प्रमुख रही वहाँ पर राजा शीघ्र नष्ट हो गए। हिटलर और मुसोलिनी के राज्यों का आधार केवल पाश्विक शक्ति था, अत: वे राज्य शीघ्र ही नष्ट हो गए।
  4. राज्य का वास्तविक तथा स्थायी आधार नैतिक शक्ति है, पशुबल नहीं, क्योंकि राज्य लोगों के कल्याण के लिए अस्तित्व में आते हैं।
  5. यह सिद्धान्त युद्ध एवं क्रान्ति में विश्वास करता है। अत: यह लोकतन्त्र का विरोधी है।
  6. यह सिद्धान्त उग्र राष्ट्रवाद एवं साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है। शक्ति सिद्धान्त का महत्व

शक्ति सिद्धान्त में अनेक कमियाँ होने के बावजूद इसकी अपनी उपयोगिता है। इस सिद्धान्त ने राज्य के विकास में शक्ति के योगदान को विस्तृत रूप से प्रतिपादित किया है। आन्तरिक शांति बनाए रखने के लिए शक्ति के प्रतीक के रूप में पुलिस आवश्यक है। बिना शक्तिशाली सशस्त्र सेनाओं के राज्य की बाहरी आक्रमणों से रक्षा नहीं की जा सकती। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि शक्ति सिद्धान्त ने राज्य की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसने राज्य के विकास में शक्ति के व्यापक महत्व को प्रतिपादित किया है।

प्रश्न 4.
राज्य की उत्पत्ति के मातृ एवं पितृ प्रधान सिद्धान्तों की व्याख्या करते हुए यह समझाइए कि उनका राज्य की उत्पत्ति में क्या योगदान है?
उत्तर:
मातृ – प्रधान सिद्धान्त:
मातृ प्रधान सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक मेक्लीन जैक्स एवं मॉर्गन आदि विद्वानों का मत है कि राज्य की उत्पत्ति पितृमूलक समाज से न होकर मातृमूलक समाज से हुई है। आदिकाल में विवाह की संस्था सुस्थापित नहीं थी और स्वैच्छिक आधार पर पति-पत्नी सम्बन्ध स्थिर व विकसित होते थे और इसी आधार पर वे टूट भी जाते थे। इस क्रम में उत्पन्न सन्तान माता द्वारा पोषित थी। सन्तान माता की सत्ता को प्रधानता देती थी। माता से ही वंश माना जाता था, उनका पिता के कबीले से कोई सम्बन्ध नहीं होता था।

सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ / मान्यताएँ:
मातृ प्रधान सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ/मान्यताएँ निम्नलिखित हैं

  1. स्थायी वैवाहिक सम्बन्धों का अभाव था।
  2. रक्त सम्बन्ध को पता केवल माता से ही चल सकता था।
  3. माता ही परिवार की मुखिया मानी जाती थी।
  4. पारिवारिक सम्पत्ति पर स्त्रियों का ही अधिकार होता था अर्थात् माता की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति पुत्रियों में बँटती थी न कि पुत्रों में।।

सिद्धान्त की आलोचना:
मातृ प्रधान सिद्धान्त की निम्नलिखित आलोचनाएँ की गईं हैं

  1. यह कहना अत्यन्त कठिन है कि प्रारम्भ में मानव समाज में मातृ प्रधान परिवार ही प्रचलित थे।
  2. यह सिद्धान्त समाज के विकास पर तो प्रकाश डालता है, पर यह सिद्धान्त केवल यह अनुमान लगाता है कि समाज का और विशेषकर परिवार का प्रारम्भ केसे हुआ। इसे राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।
  3. राज्य के विकास का क्रम उतना सरल नहीं है जैसा कि मातृ प्रधान सिद्धान्त हमें बतलाता है।
  4. यह सिद्धान्त राज्य के विकास के लिए उत्तरदायी अन्य तत्वों की अनदेखी करता है।
  5. यह सिद्धान्त राज्य के विकास के स्थान पर समाज के विकास की ही व्याख्या करता है। इस दृष्टि से यह सिद्धान्त सामाजिक अधिक राजनीतिक कम है।

पितृ प्रधान सिद्धान्त:
पितृ प्रधान सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति ऐसे परिवारों से हुई है जो कुलपिता से सम्बद्ध थे। आदिकाल में समाज परिवारों का समूह था, परिवार के मुखिया पुरुष को पिता के रूप में असीमित शक्तियाँ प्राप्त र्थी । उसके आदेशों का पालन परिवार के प्रत्येक सदस्य को करना पड़ता था वरना उसे कड़ा दण्ड मिलता था। वह अपनी इच्छा से अपनी सम्पत्ति का विनिमय कर सकता था।

अपनी सन्तान को सम्पत्ति से बेदखल कर सकता था और उनका जहाँ चाहे विवाह कर सकता था। परिवारों के मिलने से कुल बने। कुल के सभी सदस्य रक्त सम्बन्ध के सूत्र में बँधे रहते थे और वृद्ध पुरुष के संरक्षण में रहते थे। कई कुलों के मिलने से कबीले बने और कबीलों से राज्य की उत्पत्ति हुई।

सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ मान्यताएँ
पितृ प्रधान सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ/मान्यताएँ निम्नलिखित हैं

  1. प्राचीन समय में समाज की इकाई परिवार था।
  2. परिवार का आधार स्थायी वैवाहिक सम्बन्ध थे।
  3. परिवार में पुरुष ही परिवार का मुखिया होता था तथा पितृ सत्तात्मक तत्वों की प्रधानता थी।
  4. वंशावली केवल पुरुषों से ही खोजी जाती थी। स्त्री पक्ष को कोई भी उत्तराधिकार परिवारों में प्राप्त नहीं था।
  5. पितृ प्रधान परिवार में पिता या दादा परिवार का मुखिया समझा जाता था, उसे व्यापक व असीमित अधिकार प्राप्त थे।
  6. पितृ प्रधान परिवारों से ही कुल, कुलों से कबीले और कबीलों से राज्य का विकास हुआ।

सिद्धान्त की आलोचना:
पितृ प्रधान सिद्धान्त की प्रमुख आलोचनाएँ मैक्लीनन, जैक्स व गिलक्राइस्ट आदि के अनुसार निम्नलिखित हैं

  1. प्राचीन काल में सभी परिवारों में माता की प्रधानता थी, पिता की नहीं।
  2. प्रारम्भिक समाज में कबीलों की स्थिरता, स्त्रियों द्वारा की गई। अतः राज्य का प्रमुख स्त्री या माता बनी, पिता नहीं।
  3. राज्य का विकास इतनी सरलता से नहीं हुआ है जितना कि यह सिद्धान्त व्यक्त करता है।

मातृ एवं पितृ – प्रधान सिद्धान्त का योगदान:
मातृ एवं पितृ प्रधान सिद्धान्तों का राज्य की उत्पत्ति में प्रमुख योगदान निम्नलिखित है

  1. मातृ एवं पितृ प्रधान दोनों ही सिद्धान्त राज्य के विकास में रक्त सम्बन्धों के योगदान को उचित रूप से विश्लेषित करते हैं क्योंकि राज्य, परिवारों का विकसित रूप माना जाता है।
  2. दोनों सिद्धान्तों के कारण राज्य में आज्ञापालन एवं अनुशासन की भावना का भी प्रभाव स्थापित हुआ है।

प्रश्न 5.
ज्ञान की वर्तमान आधुनिक अवस्था में राज्य की उत्पत्ति के दैवीय/शक्ति एवं मातृ/पितृ प्रधान सिद्धान्तों की व्याख्या को ठीक नहीं माना जाता है, फिर भी उनका राज्य के विकास में क्या योगदान है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ज्ञान की वर्तमान आधुनिक अवस्था में ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव, अतिवादित, प्रजातंत्र के सिद्धान्तों के विरोधी होने तथा राज्य के विकास की अधिक सरल व्याख्या किये जाने आदि अनेक कारणों से राज्य की उत्पत्ति के दैवीय, सिद्धान्त, मातृ एवं पितृ प्रधान सिद्धान्तों की व्याख्या को सही नहीं माना जाता है, तथापि राज्य में इनका योगदान रहा है। इनके योगदान का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है

(1) दैवीय सिद्धान्त का योगदान-वर्तमान में दैवीय सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या नहीं करता है, फिर भी इस सिद्धान्त की अपनी उपयोगिता है। इस सिद्धान्त की उपयोगिता निम्नवत् रूप में समझी जा सकती है

  1. इस सिद्धान्त ने प्रारंभिक अराजकतापूर्ण समाज में शांति एवं व्यवस्था स्थापित करने में योगदान दिया।
  2. इस सिद्धान्त ने राज्य के विकास में धर्म के प्रभाव को प्रतिपादित किया।
  3. इस सिद्धान्त ने जनता के मन में आज्ञापालन एवं अनुशासन की भावना को विकसित किया।
  4. यह सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति की क्रमबद्ध व्याख्या करने का प्रथम प्रयास था जिस पर आगे चलकर राज्य की उत्पत्ति के नये-नये सिद्धान्त विकसित हुए।

(2) शक्ति – सिद्धान्त का योगदान-यद्यपि राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धान्त में अनेक कमियाँ हैं, जैसे-यह मानव स्वभाव की एकांगी व्याख्या करता है। शक्ति को ही राज्य के निर्माण या उसकी उत्पत्ति को एकमात्र निर्णायक तत्व बताता है। यह सिद्धान्त प्रजातंत्र विरोधी तथा साम्राज्यवाद का पोषक है। तथापि राज्य के विकास में इसका योगदान रहा। है, जो निम्नलिखित हैं

  1. इस सिद्धान्त ने राज्य के विकास में शक्ति के योगदान को विस्तृत रूप में प्रतिपादित किया है।
  2. इस सिद्धान्त ने शक्ति के व्यापक रूप को हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया है।
  3. इस सिद्धान्त ने आर्थिक, सैनिक, राजनीतिक आदि शक्ति के विभिन्न रूपों की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है।
  4. राज्यों में आन्तरिक शांति बनाए रखने के लिए पुलिस आवश्यक है और बिना शक्तिशाली सशस्त्र सेनाओं के राज्य की बाहरी आक्रमणों में सुरक्षा नहीं की जा सकती।

(3) मातृ तथा पितृ प्रधान सिद्धान्त का योगदान-राज्य के विकास में मातृ तथा पितृ प्रधान सिद्धान्त का अपना योगदान रहा है। इसे निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

  1. राज्य की उत्पत्ति के पितृ-प्रधान और मातृ प्रधान दोनों ही सिद्धान्त राज्य के विकास में रक्त सम्बन्धों के योगदान को उचित रूप में विश्लेषित करते हैं क्योंकि इनमें राज्य को, परिवारों का विकसित रूप माना जाता है।
  2. इन सिद्धान्तों के कारण राज्य में आज्ञापालन तथा अनुशासन की भावना का भी प्रभाव स्थापित हुआ है।
  3. प्राचीन काल में रक्त सम्बन्धों ने राज्य के विकास में जो महत्वपूर्ण योगदान दिया उस पर प्रकाश डालकर इन सिद्धान्तों ने राजनीति विज्ञान के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

प्रश्न 6.
थॉमस हॉब्स के राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक संविदा सिद्धांत की विस्तृत विवेचना कीजिए।
उत्तर:
थॉमस हॉब्स का सामाजिक संविदा सिद्धांत। थॉमस हॉब्स ने सर्वप्रथम राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धान्त को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया था। हॉब्स ने इस सिद्धान्त के माध्यम से निरंकुश राजतंत्र को न्याय संगत ठहराने का प्रयत्न किया है। इनका प्रमुख ग्रन्थ लेवियाथन है। हॉब्स के संविदा सिद्धान्त का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत है

(1) मानव स्वभाव – हॉब्स मनुष्य को मूल रूप से एक असामाजिक प्राणी मानता है। मनुष्य स्वभाव से ही स्वार्थी, उच्छृखल एवं झगड़ालू होता है। मनुष्य अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु अन्य लोगों से संघर्ष में लिप्त रहता है। संघर्ष में सफलता प्राप्त करने के लिए वह झूठ, हिंसा आदि का सहारा लेता है। सदगुणों का मनुष्य में अभाव पाया जाता है।

(2) अराजकता (प्राकृतिक दशा) – हॉब्स ने राज्य तथा समाज की स्थापना से पूर्व की अवस्था को अराजकता या प्राकृतिक दशा की संज्ञा दी है। मनुष्य के स्वभाव में आसुरी प्रवृत्तियों के कारण ही प्राकृतिक दशा अत्यन्त दुर्लभ थी। अराजक दशा का मनुष्य असभ्य व जंगली था। अराजकता की दशा युद्ध की दशा थी जिसमें प्रत्येक मनुष्य, दूसरे मनुष्य का शत्रु था। उचित – अनुचित, न्याय-अन्याय और धर्म-अधर्म आदि का विवेक उस समय उत्पन्न नहीं हुआ था।

(3) संविदा का उद्भव – अराजक दशा में जीवन की असुरक्षा एवं असामाजिक मृत्यु के भय ने व्यक्तियों को अराजक अवस्था को समाप्त कर व्यवस्थित राजनीतिक समाज का निर्माण करने हेतु प्रेरित किया। प्राकृतिक दशा में निरन्तर संघर्ष की स्थिति से परेशान लोगों ने बुद्धि एवं विवेक के द्वारा आत्मरक्षा हेतु राज्य का निर्माण किया। इस राजनीतिक समाज के निर्माण के लिए प्रत्येक व्यक्ति ने अन्य व्यक्तियों के साथ संविदा की, कि वे सभी की सहमति से एक ऐसी शक्ति को उत्पन्न करें, जो सभी को अपने आदेश में रखे और सभी को अपनी आज्ञा का पालन करने के लिए विवश करे।

प्राकृतिक दशा में रहने वाले मनुष्यों ने अपने समस्त अधिकारों का परित्याग कर दिया। इस प्रकार संविदा द्वारा एक महामानव जिसे लेवियाथन कहा गया है, की उत्पत्ति हुई। इससे पूर्व समाज और राज्य की कोई सत्ता नहीं थी, इसके जन्म से ही दोनों का प्रादुर्भाव हुआ। महामानव को सर्वोच्च अधिकार प्राप्त थे अत: इसे सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न शासक की संज्ञा दी गई।

इस प्रकार हॉब्स के संविदा सिद्धांत में जनता के बीच परस्पर हुए समझौते से एक ही साथ राज्य तथा सरकार का निर्माण हुआ। राजा समझौते का पक्षकार न होकर परिणाम व्यक्तियों ने समस्त अधिकारों का संविदा के द्वारा परित्याग कर दिया तथा शासक की सर्वोच्चता स्थापित की गई। हॉब्स के अनुसार, राजा के किसी भी आदेश अथवा निर्णय से यदि आत्मरक्षा को खतरा हो तो व्यक्ति राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर सकता है।

प्रश्न 7.
लॉक के सामाजिक संविदा सिद्धान्त का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लॉक का सामाजिक संविदा सिद्धान्त। लॉक ने अपनी पुस्तक ‘टू ट्रीटाइजेज ऑफ गवर्नमेंट’ में राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धान्त को प्रतिपादन किया है, जिसमें उसने सीमित राजतंत्र का समर्थन किया है। लॉक के सामाजिक सिद्धान्त का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है

(1) मानव स्वभाव की व्याख्या – लॉक मनुष्य को स्वभावतः विचारवान तथा बुद्धिमान प्राणी मानता है। उसके अनुसार मानव में प्रेम, सहानुभूति, दंया, सहयोग, परमार्थ आदि मानवीय गुण स्वाभाविक रूप से विद्यमान होते हैं।

(2) अराजक दशा का चित्रण – लॉक के अनुसार मनुष्य के परोपकारी और विवेकपूर्ण होने के कारण प्राकृतिक अवस्था शांतिपूर्ण थी। प्राकृतिक अवस्था में सभी मनुष्य समान थे, यह स्वतंत्रता की अवस्था थी। लेकिन इसमें अराजकता या स्वच्छन्दता नहीं थी क्योंकि लोग प्राकृतिक कानूनों एवं नैतिकता के नियमों को मानते थे परन्तु प्राकृतिक कानूनों की व्याख्या लोंग विवेकानुसार करते थे।

मनुष्यों में उचित – अनुचित, पुण्य – पाप व धर्म-अधर्म की जो स्वाभाविक भावना होती है उसी के अनुसार वे एक – दूसरे के साथ व्यवहार करते थे। प्राकृतिक अर्थात् अराजक दशा में सभी व्यक्तियों को तीन प्रकार के अधिकार प्राप्त थे – जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार और सम्पत्ति का अधिकार । मनुष्य इन अधिकारों का उपयोग इस तरह करता था जिससे अन्य। व्यक्तियों के अधिकारों का हनन न हो।

(3) समझौते का कारण – लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य को तीन प्रकार की असुविधाएँ थीं

  1. प्राकृतिक कानून की व्याख्या करने वाली कोई संस्था नहीं थी।
  2. प्राकृतिक नियमों को क्रियान्वित करने वाली कोई अधिकृत संस्था नहीं थी।
  3. न्याय की कोई निष्पक्ष संस्था नहीं थी। इन असुविधाओं को दूर करने के लिए मनुष्यों ने परस्पर समझौता किया।

(4) संविदा का उद्भव एवं स्वरूप-अराजक दशा का अंत कर मनुष्यों ने जिस राज्य संस्था की उत्पत्ति की, वह
सामाजिक संविदा द्वारा उत्पन्न हुई। मनुष्यों ने दो संविदाएँ –

  1. एक आपस में
  2. दूसरे शासक वर्ग के साथ। –

प्राकृतिक दशा में सभी मनुष्यों के समान होने के कारण पहला समझौता समाज के समस्त व्यक्तियों ने आपस में किया, इस समझौते से राज्य और समाज का जन्म हुआ। इस समझौते के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने इस प्राकृतिक अधिकार को छोड़ने के लिए सहमत हुआ कि वह स्वमेव प्राकृतिक कानूनों की व्याख्या करके उन्हें लागू करने तथा उनके अनुसार न्याय करने वे दूसरों को दण्ड देने का कार्य नहीं करेगा। इस समझौते के द्वारा मनुष्य ने जीवन, स्वतंत्रता और सम्पत्ति का भार भी समाज को सौंपा, शेष अधिकार स्वयं के पास रखे।

जो कोई इन अधिकारों का उल्लंघन करेगा समाज उसको दण्ड देगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए दूसरा समझौता किया गया। दूसरा समझौता सरकार एवं समाज या लोगों के मध्य हुआ। इस समझौते में चूँकि सरकार भी एक पक्ष होती है अत: उस पर समाज द्वारा कुछ शर्ते लगा दी गईं जिनका पालन यदि सरकार नहीं करेगी तो उसे हटाकर नयी सरकार का निर्माण किया जा सकता है। इस प्रकार लोक विद्रोह या क्रान्ति के जन – अधिकार को मान्यता प्रदान कर सीमित राजतंत्र की अवधारणा को प्रतिपादित किया गया।

प्रश्न 8.
रूसो के सामाजिक संविदा सिद्धान्त का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रूसो का सामाजिक संविदा सिद्धान्त रूसो फ्रांसीसी विद्वान थे। रूसो ने राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में हॉब्स एवं लॉक की विचारधाराओं का मिश्रण करने का प्रयत्न किया। रूसो जनतंत्र के पक्षधर एवं राज्य के दैवीय अधिकारों के घोर विरोधी थे। रूसो के सामाजिक संविदा सिद्धांत का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत है।
(1) मानव स्वभाव – रूसो के अनुसार, मानव स्वभाव सादगी पूर्ण था। मनुष्य सादगी व स्वतंत्रता के साथ निवास करते हैं। वे न तो स्वार्थी, उच्छृखल एवं जंगली थे, जैसा कि हॉब्स ने प्रतिपादित किया है और न ही वे उस प्रकार धर्माचरण करने वाले थे जैसा कि लॉक ने माना है। वे असभ्य वे जंगली अवश्य थे, पर साथ ही अपनी प्रकृति में श्रेष्ठ भी थे। रूसो ने उन्हें नोबेल सेवेज नाम दिया है।

(2) अराजक दशो – रूसो के अनुसार, मनुष्य अराजक दशा अथवा प्राकृतिक दशा में स्वर्गिक आनंद का जीवन व्यतीत करता था, उसमें स्वार्थ की भावना नहीं थी। उसका जीवन नोबेल सेवेज जैसा था। वह सुखी और संतुष्ट था। लोग संतोष के साथ परस्पर मिलकर रहते थे। इस अराजक दशा में उन कारणों का सर्वथा अभाव था, जो मनुष्यों में ईष्र्या, द्वंद्व या लड़ाई उत्पन्न करते हैं।

(3) संविदा का कारण – अराजक दशा की यह स्वर्गिक स्थिति लम्बे समय तक नहीं रह सकी। धीरे-धीरे मनुष्यों की संख्या बढ़ने लगी, मनुष्यों में परिवार और सम्पत्ति बनाने की इच्छा उत्पन्न हुई। सम्पत्ति के प्रादुर्भाव से नोबेल सेवेज की स्वाभाविक समानता एवं स्वतंत्रता समाप्त हो गयी। उनमें ईष्र्या, द्वेष और झगड़ों की उत्पत्ति हुई और अराजक दशा से समस्त सुखों व शांति का अंत हो गया।

(4) संविदा का स्वरूप – अराजक दशो में जब ईष्र्या, द्वेष, झगड़े एवं युद्ध प्रारम्भ हो गया तो इससे छुटकारा पाने के लिए मनुष्यों ने अराजक दशा का अन्त कर नागरिक समाज की स्थापना करने का निश्चय किया और इसके लिए परस्पर मिलकर एक संविदा की, कि प्रत्येक मनुष्य अपनी स्वतंत्रता, अधिकार व शक्ति को समाज को समर्पित कर दे क्योंकि समाज व्यक्तियों के समुदाय का ही नाम है तथा समाज का निर्माण व्यक्तियों द्वारा ही होता है।

अतः मनुष्य अपनी स्वतंत्रता, अधिकार व शक्ति को अपने से अलग करके समाज को प्रदान करता है, उसे वह समाज के अंग के रूप में पुन: प्राप्त कर लेता है। रूसो के अनुसार, मनुष्य अराजक दशा को दूर करंने के लिए जो संविदा करते हैं, वह दो पक्षों के मध्य में की जाती है। एक पक्ष में मनुष्य वैयक्तिक रूप में होते हैं और दूसरे पक्ष में मनुष्य सामूहिक रूप में होते हैं।

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