Geeta Shlok in Sanskrit

भगवत गीता के प्रसिद्ध श्लोक भावार्थ सहित | Geeta Shlok in Sanskrit

भगवद् गीता, भारतीय धार्मिक साहित्य की महत्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है। यह पुस्तक महाभारत के युद्ध के समय आर्जुन और भगवान् कृष्ण के बीच हुए संवाद को संकलित करती है। यहाँ कुछ प्रसिद्ध गीता श्लोक संस्कृत में दिए गए हैं:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

अर्थ: हे भारत, जब-जब धर्म का अपने को नष्ट होने लगता है और अधर्म बढ़ने लगता है, तब-तब मैं अपने रूप को प्रकट करता हूँ, अधर्म को समाप्त करने के लिए।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थ: तेरा कर्म करने का ही अधिकार है, परन्तु फलों में कभी भी आसक्ति न कर। कर्मफल के कारण मत हो, न तू कर्म के निष्फल हो।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

अर्थ: जैसे कि मनुष्य बुढ़ा हुआ वस्त्र छोड़कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर को प्राप्त होता है।

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥

अर्थ: वे मेरे इस शिक्षा को न आचरण करते हुए, अन्यायी विचार रखने वाले हैं। उन बुद्धिमानों को नष्ट हो गया मानो तू जान ले।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥

अर्थ: इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि नहीं जला सकती, पानी नहीं गीला सकता और वायु नहीं सुखा सकती।

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

अर्थ: मनुष्य जब विषयों को चिन्तन करता है, तब उनके साथ संबंध बनता है। संबंध से काम उत्पन्न होता है, और काम से क्रोध उत्पन्न होता है॥

योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

अर्थ: हे धनंजय! योग में स्थित होकर कर्म कर, संग को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि में समान बनकर समत्व को योग कहते हैं॥

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥

अर्थ: सभी प्रकार से प्रकृति के द्वारा होने वाले कर्म को मूढ़ बुद्धिवाला अहंकारी मनुष्य कर्ता होने के रूप में मानता है॥

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥

अर्थ: जो मनुष्य द्वेष नहीं करता और कामना नहीं रखता है, वह सच्चे संन्यासी है, क्योंकि हे महाबाहो! द्वन्द्वरहित होने से बंधन से छूट जाता है॥

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥

अर्थ: ज्ञान और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण में, गौ में, हाथी में, कुत्ते में और चाण्डाल में भी ज्ञानी लोग समान देखते हैं॥

आपुर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥

अर्थ: जैसे कि समुद्र में बहने वाले जल को भी नष्ट नहीं कर सकते, वैसे ही कामनाओं में विचरणे वाले व्यक्ति को सबकुछ प्राप्त नहीं होता, परन्तु वह जो कुछ प्राप्त होता है, वही शान्ति प्राप्त करता है और नहीं कामनाओं का पालन करने वाला॥

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थ: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, परन्तु फलों में कभी नहीं। कर्मफल के लिए तू मत प्रयास कर, और अपने कर्म में असंगता मत कर॥

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥

अर्थ: अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना श्रेष्ठ है, यदि कोई दूसरे के धर्म का अनुसरण करता है, तो वह भय का कारण होता है॥

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अर्थ: हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उद्भव होता है, तब-तब मैं अपने रूप को प्रकट करता हूँ॥

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

अर्थ: हे पार्थ! यदि मैं कार्यों में आलसी नहीं होता, तो मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते॥

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥

अर्थ: जिस प्रकार इस देह में बालपन, यौवन और वृद्धावस्था आती है, वैसे ही धीर पुरुष को दूसरे देह में प्राप्त होने में भी मोह नहीं होता॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

अर्थ: जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र पहनता है, वैसे ही देही अन्य पुराने शरीरों को छोड़कर नए शरीरों को प्राप्त करता है॥

द्युतं छलयतामास्मि तेजस्तेजस्विनामहं।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्वं सत्ववतामहम्॥

अर्थ: मैं धनुर्विद्या में दिव्य चतुर्भुज रूप से प्रकट होता हूँ, मैं तेजस्वी लोगों की तेजस्विता हूँ, मैं जीत हूँ, मैं निश्चययुक्तता हूँ, और मैं सत्त्ववान लोगों का सत्त्व हूँ॥

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥

अर्थ: मैं बृहत्सामा और सामान्य सामों का गायत्री छन्द हूँ, मैं मासों में मार्गशीर्ष हूँ, और मैं ऋतुओं का ऋतुमय फूल हूँ॥

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥

अर्थ: मैं पुण्यका गंध हूँ और मैं पृथ्वी में स्थित हूँ, मैं तेज हूँ और मैं सभी जीवों में जीवन हूँ, मैं तप हूँ और मैं तपस्वियों में तपस्वी हूँ॥

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥
अर्थ: हे पार्थ! सब भूतों के बीज को मेरा सनातन जान। मेरी बुद्धि बुद्धिमान लोगों में है, मेरा तेज तेजस्वियों में है॥

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥

अर्थ: हे गुडाकेश! मैं आत्मा हूँ, सभी भूतों के आश्रय में स्थित हूँ, मैं आदियोग्य और अंत भी हूँ, और मैं सभी भूतों के मध्य में स्थित हूँ॥

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥

अर्थ: मैं पुण्यका गंध हूँ और मैं पृथ्वी में स्थित हूँ, मैं तेज हूँ और मैं सभी जीवों में जीवन हूँ, मैं तप हूँ और मैं तपस्वियों में तपस्वी हूँ॥

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥

अर्थ: मैं सभी प्राणियों के देह में स्थित होकर वैश्वानर रूप धारण करता हूँ, मैं प्राण और अपान के साथ संयुक्त होता हूँ और चार प्रकार का भोजन पचाता हूँ॥

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्॥

अर्थ: मैं सर्गों का आदिकारण हूँ, अन्त हूँ और मध्य हूँ, हे अर्जुन! मैं आध्यात्मिक विद्या हूँ और ज्ञानियों का वाद भी हूँ॥

आकाशं वायुः पृथिवी च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥

अर्थ: मैं आकाश हूँ, मैं वायु हूँ, मैं पृथ्वी हूँ, मैं तेज हूँ, मैं सभी जीवों में जीवन हूँ, मैं तप हूँ और मैं तपस्वियों में तपस्वी हूँ॥

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥

अर्थ: हे पार्थ! सब भूतों के बीज को मेरा सनातन जान। मेरी बुद्धि बुद्धिमान लोगों में है, मेरा तेज तेजस्वियों में है॥

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥

अर्थ: हे गुडाकेश! मैं आत्मा हूँ, सभी भूतों के आश्रय में स्थित हूँ, मैं आदि और मध्य हूँ, और मैं सभी भूतों के अन्त में भी हूँ॥

ये श्लोक भगवद् गीता के महत्वपूर्ण भाग हैं और जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझाते हैं। इन श्लोकों के माध्यम से, हमें सच्ची ज्ञान की प्राप्ति, कर्म योग, समत्व, भावनाओं का नियंत्रण, और समस्त मानव भाईचारे की महत्ता के बारे में शिक्षा मिलती है।

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