RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 3 स्वराष्ट्र-गौरवम्

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Rajasthan Board RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 3 स्वराष्ट्र-गौरवम्

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 3 स्वराष्ट्र-गौरवम् अभ्यास-प्रश्नाः

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 3 स्वराष्ट्र-गौरवम्व स्तुनिष्ठ- प्रश्नाः

स्वराष्ट्र गौरवम् 1.
भारतवर्षस्य उत्तरस्यां दिशि वर्तते
(अ) हिमाद्रिः / हिमालयः
(आ) विन्ध्याचल:
(इ) समुद्रः / इन्दुसरोवरः
(ई) गंगासागरः

RBSE Class 10 Sanskrit Chapter 3 Hindi Translation 2.
गायन्ति देवाः किल गीतकानि – इत्ययं श्लोकः कस्माद् ग्रन्थाद् उद्धृतः
(अ) विष्णुपुराणात्
(आ) ऋग्वेदात्
(इ) रामायणात्
(ई) वृहन्नारदीयपुराणात्

RBSE Solutions For Class 10 Sanskrit 3.
“अपि स्वर्णमयी लंका” इत्यादौ केः के प्रति बूते
(अ) लक्ष्मणः रामं प्रति
(आ) रामः लक्ष्मणं प्रति
(इ) रामः हनुमन्तं प्रति
(ई) राम-लक्ष्मणौ सीतां प्रति

RBSE Solutions For Class 10 Sanskrit Chapter 3 4.
समानसंस्कृतिमतां जनानां पितृपुण्यभूः किं निगद्यते
(अ) एकं राष्ट्रम्
(आ) एकं राज्यम्
(इ) एको भूखण्डः
(ई) पितृभू: पुण्यभूः च

भारतवर्षस्य उत्तरस्यां दिशि वर्तते 5.
राष्ट्रस्य उत्थान-पतनयोः अवलम्बः कः वर्तते
(अ) राष्ट्रस्य शत्रवः
(आ) राष्ट्रियाः
(इ) अराष्ट्रियाः
(ई) राष्ट्रस्य मित्राणि

उत्तरम्:

1. (अ)
2. (अ)
3. (आ)
4. (अ)
5. (आ)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 3 स्वराष्ट्र-गौरवम्व लघूत्तरात्मक – प्रश्नाः

RBSE Class 10 Sanskrit Chapter 3 प्रश्न 1.
अधोलिखित-प्रश्नानाम् उत्तराणि दीयन्ताम्।
(निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-)

(क) भारते जन्म लब्ध्वा अपि यो जनः सत्कर्म-पराङ्मुखः भवति, सः किं त्यक्त्वा किं प्राप्तुम् इच्छति?
(भारत में जन्म लेकर भी जो मनुष्य सत्कर्मों से विमुख रहता है वह क्या त्याग कर क्या प्राप्त करना चाहता है?)
उत्तरम्:
भारते जन्म लब्ध्वा अपि यो जनः सत्कर्म-पराङ्मुखः भवति सः पीयूष-कलशं त्यक्त्वा विषकलशं प्राप्तुम् इच्छति।
(भारत में जन्म लेकर जो व्यक्ति सत्कर्म विमुख होता है वह अमृत-घट को त्यागकर विष कुम्भ प्राप्त करना चाहता है।)

(ख) विद्यायाः प्रकारद्वयं किमस्ति?
(विद्या के दो प्रकार कौन-से हैं?)
उत्तरम्:
विद्यायाः प्रकारद्वयमस्ति-शस्त्रविद्या शास्त्र विद्या च।
(विद्या के दो प्रकार हैं-शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या।)

(ग) पृथिव्यां सर्वमानवाः स्वं स्वं चरित्रं कस्य सकाशात् शिक्षरेन्?
(पृथ्वी पर सभी मानव अपने-अपने चरित्र की शिक्षा किससे ग्रहण करते हैं?)
उत्तरम्:
पृथिव्यां सर्वमानवाः स्वं स्वं चरितं एतद्देश प्रसूतस्य सकाशात् शिक्षरेन्।
(पृथ्वी पर सभी मानव अपने-अपने चरित्र की शिक्षा इस देश में जन्मे लोगों से लेते थे।)

(घ) स्वर्गादपि का गरीयसी?
(स्वर्ग से भी बढ़कर क्या है?)
उत्तरम्:
जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी भवति।
(माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।)

(ङ) कया विना स्वनिकटस्थमपि राष्टुं जनाः न पश्यन्ति?
(किसके बिना अपने समीपस्थ राष्ट्र को भी लोग नहीं देखते हैं?)
उत्तरम्:
राष्ट्रदृष्ट्या विना स्वनिकटस्थमपि राष्ट्रं जनाः न पश्यन्ति।
(राष्ट्र-दृष्टि के बिना अपने समीप स्थित राष्ट्र को भी लोग नहीं देखते हैं।)

(च) राष्ट्रे कस्य स्वत्वं न भवितुं शक्नोति?
(राष्ट्र पर किसकी स्वामित्व नहीं हो सकता?)
उत्तरम्:
पितृभूत्वं पुण्यभूत्वं द्वयं यस्य न विद्यते तस्य राष्ट्रे स्वत्वं न भवितुं शक्नोति।
(पिता की भूमि और पुण्य भूमिका ये दो भाव जिसके नहीं होते राष्ट्र पर उसका स्वामित्व नहीं हो सकता है।)

(छ) शास्त्रचर्चा कदा प्रवर्तते?
(शास्त्रचर्चा कब प्रवृत्त होती है?)
उत्तरम्:
यदा राष्ट्र शस्त्रेण सुरक्षितं भवति तदा शास्त्रचर्चा प्रवर्तते।
(जब राष्ट्र शस्त्र से सुरक्षित होता है तब शास्त्र चर्चा प्रवृत्त होती है।)

Class 10 Sanskrit RBSE Solution प्रश्न 2.
‘क’ खण्डं ‘ख’ खण्डेन सह योजयन्तु – (‘क’ खण्ड को ‘ख’ खण्ड के साथ जोड़े-)
RBSE Class 10 Sanskrit Chapter 3 Hindi Translation
उत्तरम्:
RBSE Solutions For Class 10 Sanskrit

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 3 प्रश्न 3.
अधस्तनपदानां विलोमपदानि पाठात् चित्वा लिखन्तु – (नीचे के पदों के विलोम पद पाठ से चुनकर लिखें-)
(i) उत्तरम् ………….
(ii) लघीयसी ………….
(iii) अप्राप्य ………….
(iv) उत्थानम् ………….
(v) मरणम् ………….
(vi) अनवलम्ब्य ………….
(vii) अनावृत्य ………….

उत्तरम्:

(i) दक्षिणम्
(ii) गरीयसी
(iii) सम्प्राप्य
(iv) पतनम्
(v) जन्म
(vi) लब्ध्वा
(vii) आवृत्त्य

स्वराष्ट्र गौरवम प्रश्न 4.
अधस्तनवाक्येषु स्थूलपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुर्वन्तु – (निम्न वाक्यों में मोटे पदों के आधार पर प्रश्न निर्माण करें)

1. हिमालयाद् समारभ्य इन्दुसरोवरं यावत्। (हिमालय से हिन्द महासागर तक)
उत्तरम्:
कस्माद् समारभ्य इन्दुसरोवरं यावत्। (किससे लेकर हिन्द महासागर तक।)

2. धन्यास्तु ते सन्ति। (वे तो धन्य हैं।)।
उत्तरम्:
धन्याः के सन्ति? (धन्य कौन हैं?)

3. मे न रोचते। (मुझे अच्छा नहीं लगता।)
उत्तरम्:
कस्मै न रोचते? (किसे अच्छा नहीं लगता?)

4. शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्र शास्त्रचर्चा प्रवर्तते। (शस्त्र से रक्षित राष्ट्र में शास्त्र चर्चा होती है।)
उत्तरम्:
केन रक्षिते राष्ट्रे का प्रवर्तते? (किससे रक्षित राष्ट्र में क्या होती है?)

5. जन्मभूमिः स्वर्गादपि गरीयसी। (जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।)
उत्तरम्:
का स्वर्गादपि गरीयसी? (स्वर्ग से भी बढ़कर क्या है?)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 3 स्वराष्ट्र-गौरवम्व निबन्धात्मक प्रश्नाः

RBSE Solutions For Class 10 Sanskrit 2021 प्रश्न 1.
भारतवर्षस्य भौगोलिक स्थितिं पठित-श्लोकाधारेण वर्णयन्तु।
(भारतवर्ष की भौगोलिक स्थिति को पढ़े हुए श्लोक के आधार पर वर्णन कीजिए।)
उत्तरम्:
भारतवर्ष नाम सष्टुं समुद्रस्य उत्तरस्यां हिमालयस्य च दक्षिणस्यां दिशि स्थितः। अर्थात् हिमालयात् इन्दुसरोवरं पर्यन्तं हिन्दुस्थानं नाम राष्ट्रम् अस्ति।
(भारतवर्ष नाम का राष्ट्र समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में स्थित है। अर्थात् हिमालय से हिन्द महासागर तक हिन्दुस्थान नाम का राष्ट्र स्थित है।)

Class 10 Sanskrit Chapter 3 RBSE प्रश्न 2.
पठितश्लोकमाधृत्य राष्ट्रस्य परिभाषां लिखन्तु।
(पठित श्लोक के आधार पर राष्ट्र की परिभाषा लिखें।)
उत्तरम्:
समान संस्कृतिमितां यावती पितृ-पुण्यभूः भवति तावती भुवमावृत्य राष्ट्रमेकं कथ्यते।
(समान संस्कृति वालों की जितनी पैतृक भूमि होती है उतनी भूमि राष्ट्र कहलाती है।)

RBSE Class 10 Sanskrit Solutions प्रश्न 3.
“एतद्देशप्रसूतस्य ….. “सर्वमानवाः” इति पद्यं हिन्दीभाषया अनूद्यताम्।
(“एतद्देश-प्रसूतस्य ….सर्वमानवाः” पद का हिन्दी भाषा में अनुवाद करो।)
उत्तरम्:
श्लोक सं.-5 का हिन्दी अनुवाद देखें।

कक्षा 10 संस्कृत पाठ्यक्रम RBSE 2021 प्रश्न 4.
भारतवर्षस्य प्रशंसायाम् एकं पद्यं लिख्यताम्।
उत्तरम्:
श्लोक सं.- 3, 4, 5 तथा 6 में से कोई एक स्मरण करें तथा लिखें।

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 3 स्वराष्ट्र-गौरवम्व व्याकरणात्मक प्रश्नाः

RBSE Solutions For Class 10 Sanskrit Chapter 3 प्रश्न 1.
अधोलिखितपदेषु सन्धिविच्छेदं कृत्वा सन्धेः नामोल्लेखः करणीयः।
(निम्नलिखित पदों में संन्धि विच्छेद करके सन्धि का नामोल्लेख कीजिए)
उत्तरम्:
RBSE Solutions For Class 10 Sanskrit Chapter 3

RBSE Solution Class 10 Sanskrit प्रश्न 2.
निम्नलिखितेषु पदेषु प्रत्यय-निर्देशः करणीय-
(निम्नलिखित पदों में प्रत्यय-निर्देश कीजिए-)
उत्तरम्:
भारतवर्षस्य उत्तरस्यां दिशि वर्तते

RBSE Sanskrit Solution Class 10 प्रश्न 3.
अधोलिखितानां समस्तपदानां समास-विग्रहः करणीय-
(निम्नलिखित समस्त पदों का समास विग्रह कीजिए-)
उत्तरम्:
RBSE Class 10 Sanskrit Chapter 3
Class 10 Sanskrit RBSE Solution

Saurashtra Gouravam प्रश्न 4.
अधोलिखितेषु पदेषु मूलशब्दः – विभक्ति-वचनानां निर्देशः करणीयः।
(निम्नलिखित पदों में मूल शब्द, विभक्ति, वचनों का निर्देश कीजिए।)
उत्तरम्:
कक्षा 10 संस्कृत पाठ 3

Sanjiv Pass Book Class 10 Sanskrit Pdf Download प्रश्न 5.
निम्नलिखितेषु पदेषु धातु-लकार-पुरुष-वचनानां निर्देशं कुर्वन्तु –
(निम्नलिखित पदों में धातु-लकार-पुरुष और वचनों का निर्देश कीजिए-)
उत्तरम्:
स्वराष्ट्र गौरवम RBSE

10 वीं कक्षा संस्कृत पुस्तक Pdf Download प्रश्न 6.
अधोलिखितपदेषु यथानिर्देशं रूपपरिवर्तनं कृत्वा लिखन्तु-
(निम्नलिखित पदों में निर्देशानुसार रूप परिवर्तन करके लिखिये-)
उत्तरम्:
RBSE Solutions For Class 10 Sanskrit 2021
Class 10 Sanskrit Chapter 3 RBSE

RBSE Solutions Class 10 Sanskrit प्रश्न 7.
निम्नोतेषु एकैकं पदमाश्रित्य वाक्यनिर्माणं कुर्वन्तु-
(नीचे कहे गये एक-एक पद के आधार पर वाक्य निर्माण कीजिए-)
उत्तरम्:
RBSE Class 10 Sanskrit Solutions

Class 10 Sanskrit Chapter 3 Hindi Translation RBSE प्रश्न 8.
उदाहरण-वाक्यमनुसृत्य वाच्यपरिवर्तनं कुर्वन्तु-
(उदाहरण वाक्य का अनुसरण करके वाच्य-परिवर्तन कीजिए-)
उदाहरण:
कक्षा 10 संस्कृत पाठ्यक्रम RBSE 2021
उत्तरम्:

  1. देवैः भारतस्य गीतानि गीयन्ते। – देवाः भारतस्य गीतानि गायन्ति।
  2. अस्माभिः देशः प्रणम्यते। – वयं देशं प्रणमामः।
  3. पुण्यात्मना भारते जन्म लभ्यते। – पुण्यात्मा भारते जन्म लभते।
  4. राष्ट्रभक्तेन राष्ट्रं पूज्यते स्वकर्मणा। – राष्ट्रभक्तः राष्ट्रं पूजते स्वकर्मणा।
  5. मया माता वन्द्यते। – अहं मातरं वन्दे।

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 3 स्वराष्ट्र-गौरवम्व अन्यमहत्वपूर्ण प्रश्नोत्तराणि

अधोलिखित प्रश्नान् संस्कृतभाषया पूर्णवाक्येन उत्तरत – (निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में पूरे वाक्य में दीजिए-)

स्वराष्ट्र-गौरवम् प्रश्न 1.
भारतस्य उत्तरस्यां दिशि किं स्थितम् अस्ति?
(भारत की उत्तर दिशा में क्या स्थित है?)
उत्तरम्:
भारतस्य उत्तरस्यां दिशि हिमालयः (हिमाद्रिः) स्थितः अस्ति।
(भारत की उत्तर दिशा में हिमालय स्थित है।)

10 वीं कक्षा संस्कृत पुस्तक Pdf प्रश्न 2.
भारतस्य दक्षिणस्यां दिशि किं स्थितम् अस्ति?
(भारत की दक्षिण दिशा में क्या स्थित है?)
उत्तरम्:
भारतस्य दक्षिणस्यां दिशि इन्दुमहासागरः स्थितः।
(भारत की दक्षिण दिशा में इन्दु महासागर स्थित है।)

Sanskrit Class 10 RBSE प्रश्न 3.
भारतस्य सन्ततिः किमुच्यते?
(भारत की सन्तान क्या कहलाती है?)
उत्तरम्:
भारतस्य सन्ततिः भारती इति कथ्यते।
(भारत की संतान भारती कहलाती है।)

RBSE Solution Class 10th Sanskrit प्रश्न 4.
‘उत्तरं यत्समुद्रस्य …..’ इति श्लोकः कस्मात् ग्रन्थात् संकलितः?
(‘उत्तरं यत्समुद्रस्य …..’ यह श्लोक किस ग्रन्थ से संकलित है?)
उत्तरम्:
‘उत्तरं यत्समुद्रस्य …..’ इति श्लोकः विष्णुपुराणात् संकलितः।
(‘उत्तरं यत्समुद्रस्य …..’ यह श्लोक विष्णुपुराण से संकलित है।)

Sanskrit 10 RBSE प्रश्न 5.
हिन्दुस्थानं राष्टुं कैः, निर्मितम्?
(हिन्दुस्थान राष्ट्र किन्होंने बनाया है?)
उत्तरम्:
हिन्दुस्थानं राष्ट्र देवैः निर्मितम्।
(हिन्दुस्थान राष्ट्र देवताओं ने बनाया है।)

RBSE Class 10 Sanskrit प्रश्न 6.
भारतं देशः कुतः आरभते?
(भारत देश कहाँ से आरम्भ होता है?)
उत्तरम्:
भारतं देशः हिमालयात् आरभते।
(भारत देश हिमालय से आरंभ होता है।)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ्यक्रम RBSE 2021 प्रश्न 7.
भारतं हिमालयात् आरभ्य कुत्र पर्यन्तम् अस्ति?
(भारत हिमालय से लेकर कहाँ तक है?)
उत्तरम्:
भारतं हिमालयात् आरभ्य इन्दुसागरपर्यन्तम् अस्ति।
(भारत हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक का है।)

RBSE 10th Class Sanskrit Solution प्रश्न 8.
किं देशं हिन्दुस्थानं कथ्यते?
(कौन-सा देश हिन्दुस्थान कहलाता है?)
उत्तरम्:
हिमालयात् आरभ्य इन्दुसागर पर्यन्त देशं हिन्दुस्थानं कथ्यते।
(हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक देश हिन्दुस्थान कहलाता है।)

RBSE 10 Class Sanskrit Solution प्रश्न 9.
‘हिमालयात् समारभ्य …….’ इति श्लोकः कुतः संकलितः?
(‘हिमालयात् समारभ्य …….’ श्लोक कहाँ से संकलित है?)
उत्तरम्:
‘हिमालयात् समारभ्य …….’ इति श्लोकः वृहस्पत्यागमात् संकलितः।
(‘हिमालयात् समारभ्य …….’ श्लोक वृहस्पत्यागम से संकलित है।)

Class 10 Sanskrit Book RBSE प्रश्न 10.
देवाः कं देशं निर्मितवन्तः?
(देवताओं ने किस देश का निर्माण किया है?)
उत्तरम्:
देवाः हिन्दुस्थानं देशं निर्मितवन्तः।
(देवताओं ने हिन्दुस्थान देश का निर्माण किया।)

Sanskrit Class 10 RBSE Solutions प्रश्न 11.
भारत भूमेः गीतानि के गायन्ति?
(भारत भूमि के गीत कौन गाते हैं?)
उत्तरम्:
भारत भूमेः गीतानि देवाः गायन्ति।
(भारत भूमि के गीत देवता गाते हैं।)

RBSE 10th Sanskrit Solution प्रश्न 12.
के जनाः धन्याः सन्ति? (कौन से लोग धन्य हैं?)
उत्तरम्:
ये जनाः भारतवर्षे जन्म लभन्ते ते धन्याः सन्ति।
(जो लोग भारतवर्ष में जन्म लेते हैं वे धन्य हैं।)

RBSE Class 10 Sanskrit Book Pdf Download प्रश्न 13.
के जना अधन्याः सन्ति?
(कौन से लोग अधन्य हैं?)
उत्तरम्:
ये जना: भारते जन्म लब्ध्वापि सत्कर्म-पराङ्मुखाः भवन्ति ते अधन्याः।
(जो लोग भारत में जन्म लेकर भी सत्कर्म के विरुद्ध रहते हैं वे अधन्य होते हैं।)

Class 10th RBSE Sanskrit Solution प्रश्न 14.
कः देशः स्वर्गापवर्गमार्गभूतः?
(स्वर्ग और मोक्ष का मार्गस्वरूप देश कौन-सा है?)
उत्तरम्:
भारत देश: स्वर्गापवर्गस्य मार्गभूतः।
(भारत स्वर्ग और अपवर्ग का मार्ग है।)

Spandana Sanskrit Book Class 10 प्रश्न 15.
पुरुषाः भारते भूयः कस्मात् भवन्ति?
(पुरुष भारत भूमि में बहुत अधिक किस कारण होते हैं?)
उत्तरम्:
पुरुषाः भारते भूयः सुखात् भवन्ति।
(पुरुष भारत में बार-बार सुख के कारण होते हैं।)

Spandana Sanskrit Book Class 10 Pdf Download प्रश्न 16.
भारते जातः सत्कर्मषु पराङ्मुखः मनुष्यः किं त्यक्त्वा किं स्वीकरोति?
(भारत में जन्मा हुआ सत्कर्मों से विमुख हुआ मनुष्य क्या त्यागकर क्या स्वीकार करता है?)
उत्तरम्:
भारते जातः सत्कर्मसु पराङ्मुखः मनुष्यः पीयूष-कलशं त्यक्त्वा विष कुम्भं स्वीकरोति।
(भारत में जन्मा सत्कर्मों से विमुख व्यक्ति अमृत-कलश को त्यागकर विष कुंभ को स्वीकार करता है।)

RBSE Solution Of Class 10 Sanskrit प्रश्न 17.
‘सम्प्राप्य भारते जन्म ……..’ इति श्लोकः कुतः संकलितः?
(‘सम्प्राप्य भारते जन्म ……..’ यह श्लोक कहाँ से संकलित है?)
उत्तरम्:
‘सम्प्राप्य भारते जन्म …….’ इति श्लोकः वृहन्नारदीयपुराणात् संकलितः।
(‘सम्प्राप्य भारते जन्म ……..’ यह श्लोक वृहन्नारदीयपुराण से लिया गया है।)

RBSE 10 Sanskrit Book प्रश्न 18.
पीयूष-कलशं हित्वा विषभाण्डं कः उपाश्रितः?
(अमृत कलश को त्यागकर जहर का पान कौन स्वीकार करता है?)
उत्तरम्:
य: भारते जन्म लब्ध्वापि सत्कर्मषु पराङ्मुखोऽस्ति।
(जो भारत में जन्म प्राप्त कर भी सत्कर्मों से विमुख रहता है।)

RBSE Sanskrit प्रश्न 19.
भारतस्य अग्रजन्मनः के स्वं-स्वं चरित्रं शिक्षितं कुर्वन्ति?
(भारत के महापुरुषों में अपने-अपने चरित्र की शिक्षा कौन पाते हैं?)
उत्तरम्:
भारतस्य अग्रजन्मनः सर्वेमानवाः स्वं स्वं चरितं शिक्षितुम् इच्छन्ति।
(भारत के विद्वानों में सभी मानव अपने-अपने चरित्र की शिक्षा देना चाहते हैं।)

Class 10 RBSE Solutions Sanskrit प्रश्न 20.
‘एतद्देश प्रसूतस्य …..’ इति श्लोक कस्मात् ग्रन्थात् संकलितः?
(‘एतद्देश प्रसूतस्य …..’ श्लोक किस ग्रन्थ से संकलित है?)
उत्तरम्:
एषः श्लोकः ‘मनुस्मृति’ इति ग्रन्थात् संकलितः।
(यह श्लोक मनुस्मृति ग्रन्थ से संकलित है।)

Sanskrit RBSE Class 10 Solutions प्रश्न 21.
स्वर्णमयी अपि लकां रामाय कस्मात् न रोचते?
(सोने की भी लंका राम को क्यों अच्छी नहीं लगती?)
उत्तरम्:
यत: रामाय स्वस्य जननी जन्मभूमिश्चैव रोचते।
(क्योंकि राम को अपनी माँ और जन्मभूमि ही अच्छी लगती हैं।)

Class 10 Sanskrit Chapter 3 Hindi Translation प्रश्न 22.
स्वर्गादपि गरीयसी का भवति?
(स्वर्ग से भी बढ़कर क्या होती है?)
उत्तरम्:
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी भवति।
(जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती हैं।)

Class 10 Sanskrit Lesson 3 प्रश्न 23.
राष्ट्रस्य कल्याणकारिणी का उक्ता?
(राष्ट्र का कल्याण करने वाली किसे कहा गया है?)
उत्तरम्:
राष्ट्रस्य कल्याणकारिणी राष्ट्रदृष्टिः भवति।
(राष्ट्र का कल्याण करने वाली राष्ट्रदृष्टि होती है।)

Sanskrit Class 10 Chapter 3 प्रश्न 24.
कः समीपस्थमपि राष्टुं न द्रष्टुं शक्नोति?
(कौन समीपस्थ राष्ट्र को भी नहीं देख सकता।)
उत्तरम्:
यस्य राष्ट्रदृष्टिः न भवति स: समीपस्थमपि राष्ट्रं न द्रष्टुं शक्नोति।
(जिसकी राष्ट्र-दृष्टि नहीं होती वह समीपस्थ राष्ट्र को भी नहीं देख सकता।)

Class 10 RBSE Sanskrit Solutions प्रश्न 25.
राष्ट्रे कस्य स्वत्वं न भवति?
(राष्ट्र पर किसको स्वामित्व नहीं होता है?)
उत्तरम्:
यस्य पितृभूत्वं पुण्यभूत्वं च द्वयं न भवति तस्य राष्ट्रे अपि स्वत्वं न भवति।
(जिसके पैत्रिक भूमि और पावनभूमि का भाव नहीं होता उसका राष्ट्र पर स्वामित्व भी नहीं होता।)

स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत। (मोटे पदों के आधार पर प्रश्न निर्माण कीजिए।)

RBSE 10th Class Sanskrit Book Solution प्रश्न 1.
शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रचर्चा प्रवर्तते।
(शस्त्र-रक्षित राष्ट्र में शास्त्र चर्चा होती है।)
उत्तरम्:
केन रक्षिते राष्ट्र शास्त्रचर्चा प्रवर्तते।
(किससे सुरक्षित राष्ट्र में शास्त्र चर्चा होती है)

Class 10 Sanskrit RBSE प्रश्न 2.
प्रतिपत्तये द्वे विद्ये भवतः।
(ज्ञानप्राप्ति के लिए दो विद्याएँ होती हैं?)
उत्तरम्:
कस्मै द्वे विद्ये भवतः?
(किसके लिए दो विद्याएँ होती हैं?)

RBSE 10th Class Sanskrit Book Pdf प्रश्न 3.
तस्मात् शिक्षणीयाः राष्ट्रियाः
(इसलिए राष्ट्रवासियों को शिक्षित करना चाहिए।)
उत्तरम्:
तस्मात् के शिक्षणीया:?
(इसलिए कौन शिक्षित करने चाहिए?)

प्रश्न 4.
राष्ट्रीयान् अवलम्ब्य राष्ट्रस्य उत्थान-पतने भवतः।
(राष्ट्र के निवासियों का सहारा लेकर ही राष्ट्र का उत्थान- पतन होता है।
उत्तरम्:
कान् अवलम्ब्य राष्ट्रस्य उत्थान-पतने भवतः?
(किनका सहारा लेकर राष्ट्र का उत्थान-पतन करना चाहिए?)

प्रश्न 5.
तस्य स्वत्वं तत्र राष्ट्रे भवितुं न किलार्हति।
(उसका स्वत्व वहाँ राष्ट्र में नहीं होता।)
उत्तरम्:
कस्य स्वत्वं तत्र राष्ट्रे भवितुं न किलार्हति ?
(किसका स्वामित्व वहाँ राष्ट्र में निश्चित रूप से नहीं होता?)

प्रश्न 6.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
(माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं।)
उत्तरम्:
जननी जन्मभूमिश्च कस्माद् अपि गरीयसी।
(माँ और जन्मभूमि किससे अधिक बड़ी हैं?)

प्रश्न 7.
लंका स्वर्णमयी अस्ति।
(लंका सोने की बनी है।)
उत्तरम्;
लकां कीदृशी अस्ति?
(लंकी कैसी है?)

प्रश्न 8.
लङ्कां मे न रोचते।
(लंका मुझे अच्छी नहीं लगती।)
उत्तरम्:
लङ्का कस्मै न रोचते?
(लंका किसे अच्छी नहीं लगती ?)

प्रश्न 9.
पृथिव्यां सर्वमानवाः स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन्।
(पृथ्वी पर सभी मानवों ने अपने-अपने चरित्र को शिक्षित किया।)
उत्तरम्:
पृथिव्यां के स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन्।
(पृथ्वी पर किन्हों ने अपने-अपने चरित्र को शिक्षित किया।)

प्रश्न 10.
पीयूष-कलशं हित्वा विषभाण्डमुपाश्रितः।
(अमृत को छोड़कर विष का पान स्वीकार किया।)
उत्तरम्:
कम् हित्वा विषभाण्डमुपाश्रितः?
(किसे त्यागकर विष को पान स्वीकार किया?)

प्रश्न 11.
भारते जन्म सम्प्राप्य सत्कर्मषु पराङ्मुखः जनः मूर्खः भवति।
(भारत में जन्म लेकर अच्छे कर्मों से विमुख मनुष्य मूर्ख है।)
उत्तरम्:
भारते जन्म सम्प्राप्य केषु पराङ्मुखः जनः मूर्खः भवति?
(भारत में जन्म लेकर किनसे विमुख हुआ व्यक्ति मूर्ख है?)

प्रश्न 12.
उत्तरं समुद्रस्य भारतम्।
(समुद्र के उत्तर की ओर भारत है।)
उत्तरम्:
उत्तरं कस्य भारतम्?
(किसके उत्तर में भारत है?)

प्रश्न 13.
भारती यत्र सन्तति।
(जहाँ भारती सन्तान है।)
उत्तरम्:
का यत्र सन्तति।
जहाँ कौन सी सन्तान है?)

प्रश्न 14.
स्वर्गापवर्गास्यपदमार्गभूते पुरुषाः भूयः भवन्ति।
(स्वर्ग और मोक्ष के मार्गस्वरूप (भारत) में मनुष्य बार-बार होते हैं।)
उत्तरम्:
कुत्र पुरुषाः भूयः भवन्ति?
(पुरुष कहाँ बार-बार होते हैं?)

प्रश्न 15.
देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।
(देवनिर्मित देश को हिन्दुस्थान कहते हैं।)
उत्तरम्:
कम् देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।
(कौन-सा देश हिन्दुस्थान कहलाता है?)

प्रश्न 16.
देवा: गीतकानि गायन्ति।
(देवता गीत गाते हैं।)
उत्तरम्:
देवाः कानि गायन्ति?
(देवता किन्हें (क्या) गाते हैं?)

प्रश्न 17.
अस्मदीया राष्ट्र सम्बन्धिनी अवधारणा अर्वाचीना
(हमारी राष्ट्र सम्बन्धी अवधारणा पुरानी है।)
उत्तरम्:
अस्मदीया राष्ट्र सम्बन्धिनी अवधारणा कीदृशी?
(हमारी राष्ट्र सम्बन्धी अवधारणा कैसी है?)

प्रश्न 18.
पुत्रोऽहं पृथिव्याः
(मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ।)
उत्तरम्:
कस्याः अहं पुत्र:?
(मैं किसका पुत्र हूँ?)

प्रश्न 19.
‘वयं राष्ट्रे जागृयाम’।
(हम राष्ट्र में जागते रहें।)
उत्तरम्:
वयं कुत्र जागृयाम?
(हम कहाँ जागते रहें?)

प्रश्न 20.
भारतवर्ष चिरपुरातनं सनातनं च राष्ट्रं वर्तते।
(भारतवर्ष चिरपुरातन तथा सनातन राष्ट्र है।)
उत्तरम्:
भारतवर्ष कीदृशं राष्ट्रं वर्तते?
(भारतवर्ष कैसा राष्ट्र है?)

पाठ – परिचयः

हमारे चिन्तन में राष्ट्र की अवधारणा अतिप्राचीन है। वेदों में भी ‘आ राष्ट्र राजन्यः’ (राष्ट्र में क्षत्रीय) (यजुर्वेदः), ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम’-(हम राष्ट्र में जागृत रहें) (यजुर्वेद) ‘अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्’-(मैं वाग्देवी जगदीश्वरी और धन प्रदात्री हूँ।’) (ऋग्वेद) इत्यादि बहुत से मन्त्रों में राष्ट्र शब्द के प्रयोग से यह स्पष्ट होता है। हमारी राष्ट्र सम्बन्धी अवधारणा पश्चिम से आई है ऐसा जो मानते हैं वे तो वास्तव में भ्रान्त हैं। हमारा यह भारतवर्ष बहुत दिन से पुराना और सनातन राष्ट्र है किन्तु यहाँ ऋषियों, मुनियों, कवियों और तत्त्वज्ञों द्वारा केवल भौतिक भौगोलिक और राजनैतिक घटक को ही राष्ट्र नहीं माना है।

राष्ट्र जो कहलाता है वहाँ वह एक चेतन सांस्कृतिक घटक माना गया है। हम इसे राष्ट्र देव मानते हैं। यह भारत हमारी दृष्टि में कोई मिट्टी का पिण्ड अथवा भूखण्ड (मात्र) नहीं है अपितु मातृभूमि है। जैसा कि अथर्ववेद में कहा गया है- माता भूमि है, मैं पृथिवी का पुत्र हूँ। ऋग्वेद में भी कहा गया है-‘पृथिवी मेरी माता और द्युलोक पिता है।’ मातृभूमि, पितृभूमि, पुण्यभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि और देवभूमि-इस प्रकार विविध रूपों वाली है संसार के मन को मोहने वाली यह हमारी भारतमाता। राष्ट्र-सम्बन्धी, राष्ट्रीयता-सम्बन्धी, राष्ट्र-गौरव सम्बन्धी और राष्ट्रभक्ति सम्बन्धी कुछ श्लोक इस पाठ में संकलित हैं।

[ मूल पाठ, अन्वय, शब्दार्थः हिन्दी अनुवाद एवं सप्रसंग संस्कृतव्याख्या ]

1. उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ॥ 1 ॥ (विष्णुपुराणम्)

अन्वय:
यत् समुद्रस्य उत्तरं हिमाद्रेः च एव दक्षिणं, यत्र भारती (नाम) सन्ततिः तत् भारतवर्ष नाम।

शब्दार्था:
उत्तरम् = उत्तरस्याम् (उत्तर में)। यत्समुद्रस्य = यत् सागरस्य (जो समुद्र के)। दक्षिणम् = दक्षिण्यां दिशि (दक्षिण दिशा में)। हिमाद्रेः = हिमवतः (हिमालय के)। भारती = भारतीयः (भारत की)। सन्ततिः = प्रजाः (सन्तान)।

हिन्दी अनुवाद:
जो (भूखण्ड) समुद्र के उत्तर में और हिमालय से दक्षिण की ओर है, जहाँ भारतीय सन्तान (रहती) है, वह भारत नाम का देश है।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतोऽयं श्लोकः विष्णुमहापुराणात् संकलितः। अस्मिन् श्लोके कविः भारतस्य भौतिक परिचयं प्रस्तौति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह श्लोक विष्णुपुराण से संकलित है। इस श्लोक में कवि भारत की भौतिक स्थिति का परिचय प्रस्तुत करता है।)

व्याख्या:
य: देश इन्दु महासागरस्य उत्तरस्यां दिशि स्थितः, यत् च प्रदेश: हिमवत्: पर्वतात् दक्षिणस्यां दिशि स्थितः। यद् भारतीयाः प्रजाः वसति तद् एक भारतं नाम राष्ट्र अस्ति। अर्थात् भारतदेशस्य सीमा आहिमालयात् इन्दुसागर पर्यन्तमस्ति ।

(यह देश इन्दु (हिन्द) महासागर के उत्तर दिशा में स्थित है और यह देश हिमालय पर्वत से दक्षिण दिशा में स्थित है। जो भारतीय प्रजो रहती है, वह एक भारत नाम को राष्ट्र है। अर्थात् भारत देश की सीमा हिमालय से इन्दुसागर तक है।)

व्याकरणिक बिन्दव:
हिमाद्रे:-हिमस्य अद्रेः (षष्ठी तत्पुरुष)। तद् भारतम् – तत् + भारतम् (हल्सन्धि)। सन्तति: सम् + त + क्तिन्।

2. हिमालयात् समारभ्य यावदिन्दुसरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते ॥ 2 ॥ (बृहस्पत्यागमः)

अन्वय:
हिमालयात् समारभ्य इन्दुसरोवरं यावत् (य: देश: स्थितः) देवनिर्मितं तं देशं हिदुस्थानं प्रचक्षते।

शब्दार्था:
समारभ्य = प्रारम्भ (से लेकर)। इन्दु सरोवरं = हिन्द महासागर। यावत् = पर्यन्तं (तक)। देवनिर्मितम् = सुरैः रचितम् (देवताओं द्वारा बनाया गया)। प्रचक्षते = कथ्यते (कहलाता है।)। वृहस्पत्यागमः = वृहस्पति आगम से।

हिन्दी अनुवाद:
हिमालय पर्वत से लेकर हिन्द महासागर तक जो देश स्थित है, देवताओं द्वारा रचे गये उस देश को हिन्दुस्थान कहते हैं।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकं पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः’ ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकोऽयं मूलतः बृहस्पत्यागमात् संकलितः अस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः हिन्दुस्थानस्य भौगोलिक स्थितिं दर्शयति।

(यह श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक स्पन्दना के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। यह श्लोक मूलतः बृहस्पत्यागम से संकलित है। इस श्लोक में कवि हिन्दुस्थान की भौगोलिक स्थिति प्रदर्शित करता है।)

व्याख्या:
हिमवतः पर्वतात् प्रारभ्य हिन्द महासागर पर्यन्तं यः देशः स्थितः अस्ति सः देशः हिन्दुस्थान इति नाम्ना ज्ञायते। देवनिर्मितं हिमालयात् इन्दुसागर पर्यन्तं भूखण्डं हिन्दुस्थान इति अभिधानेन ख्यातम् अस्ति।

(हिमालय पर्वत से लेकर हिन्द महासागर तक जो देश स्थित है वह देश हिन्दुस्तान के नाम से जाना जाता है। देवताओं द्वारा रचित हिमालय से हिन्द महासागर तक का भूखण्ड हिन्दुस्थान के नाम से प्रसिद्ध है।)

व्याकरणिक बिन्दव:
समारभ्य-सम् + आङ् + रभ् + ल्यप्। सरोवरम्-सरः + वरम् विसर्ग उत्व। सरस्सुवरम् (सप्तमी तत्पुरुष) देवनिर्मितम्-देवः निर्मितम् (तृतीया तत्पुरुष)। निर्मितम्-निर् + मा + क्तिन्।

3. गायन्ति देवाः किल गीतकानि
धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते।
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥ 3 ॥ (विष्णुपुराण)

अन्वय:
देवाः किल गीतकानि गायन्ति (यत्), धन्याः तु ते पुरुषाः सन्ति (ये) स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूतेभारतभूमिभागे। सुरत्वात् भूयः भवन्ति।

शब्दार्था:
किल = निःसन्देहम् (निश्चित ही)। गीतकानि = गीतानि (गीत)। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते = स्वर्गस्य मोक्षस्य च यत् स्थानं तस्य पथस्वरूपे (स्वर्ग और मोक्ष के स्थान का मार्गस्वरूप)। भूयः = पुनः (फिर से)। गायन्ति = गुणगानं कुर्वन्ति (गुणगान करते हैं)। धन्यास्तु ते = तेजनाः धन्यवारार्हाः (वे लोग धन्यवाद के पात्र हैं।) सुरत्वात = देवत्वात् (देवत्व के कारण)।

हिन्दी अनुवाद:
नि:सन्देह देवता गीत गाते (गुणगान करते हैं कि धन्य तो वे मनुष्य हैं जो स्वर्ग और मोक्षस्थल के मार्गस्वरूप भारत भूमि के भाग में देवत्व के कारण बार-बार होते हैं।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकम् पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकोऽयं मूलतः विष्णुपुराणात् संकलितः अस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः भारत भूमेः महत्तां वर्णयति।

(यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक स्पन्दना के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। यह श्लोक मूलतः विष्णुपुराण से संकलित है। इस श्लोक में कवि भारत भूमि के महत्व का वर्णन करता है।)

व्याख्या:
निश्चितमेव सुरा: गीतानि गायन्ति अर्थात् भारतस्य गुणगानं कुर्वन्ति यत्-श्रेष्ठाः सौभाग्यवन्त: तु ते मनुष्याः सन्ति ये स्वर्गस्य मोक्षस्य च मार्गस्वरूपे स्थले भारतदेशे देवत्वात् पुनः पुनः जन्म लभन्ते अर्थात् भारतं स्वर्ग मोक्षं च प्रदायकम्। अस्ति। अत्र धन्याः जनाः एव जन्म लभन्ते।

(निश्चित ही देवगण गीत गाते हैं अर्थात् भारत का गुणगान करते हैं कि श्रेष्ठ या धन्य सौभाग्यशाली तो वे लोग हैं जो स्वर्ग और मोक्ष के मार्गस्वरूप स्थल भारत देश में बार-बार अपने देवत्व (पुण्यों) के कारण जन्म ग्रहण करते हैं अर्थात् भारत स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। यहाँ धन्य (सौभाग्यशाली) लोग ही जन्म प्राप्त करते हैं।)

व्याकरणिक-बिन्दव:
धन्यास्तु-धन्याः + तु (विसर्ग सत्व सन्धि) सुरत्वात् = सुर + त्व (पंचमी विभक्ति ए.व.)

4. सम्प्राप्य भारते ज़न्म सत्कर्मसु पराङ्मुखः।
पीयूष-कलशं हित्वा विषभाण्डमुपाश्रितः ॥ 4 ॥ (वृहन्नारदीयपुराणम्)

अन्वय:
भारते जन्म सम्प्राप्य (अपि यो जनः) सत्कर्मसु पराङ्मुखः (भवति, सः) पीयूष-कलशं हित्वा विषभाण्डम्। उपाश्रितः।

शब्दार्था:
सम्प्राप्य = लब्ध्वा (पाकर)। सत्कर्मसु = सुकर्त्तव्यानां विषये (अच्छे कर्मों के विषय में)। पराङ्मुखः = विमुखः (प्रतिकूल)। पीयूष-कलशं = अमृतस्य कुम्भम् (अमृत से भरे घट को)। हित्वा = त्यक्त्वा (त्याग कर)। विषभाण्डम् = गरलकुम्भम् (जहर के पात्र को)। उपाश्रितः = स्वीकृतवान् (स्वीकार कर लिया है)।

हिन्दी अनुवाद:
भारत में जन्म प्राप्त करके (पाकर) भी जो मनुष्य अच्छे कर्मों से विमुखे रहते हैं वे तो मानो अमृत घटे को त्यागकर विष के पान को ही स्वीकार करते हैं।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकम् पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः’ ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतोऽयं श्लोकः वृहन्नारदीयपुराणात् संकलितः। श्लोकेऽस्मिन् कविः भारते जन्मोपलब्धिं सौभाग्यं मनुते कथयति च-

(यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘स्पन्दना’ के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह श्लोक वृहन्नारदीय पुराण से संकलित है। इस श्लोक में कवि भारत में जन्म लेने को सौभाग्य मानता है तथा कहता है-)।

व्याख्या:
भारतवर्षे देशेऽपि जन्म लब्ध्वा ये मनुष्याः सत्कर्मसु निरताः न भूत्वा विमुखाः प्रतिकूलाः वा भवन्ति ते तु अमृत घटम् अपि त्यक्त्वा गरलस्य घटं स्वीकुर्वन्ति अर्थात् अमूल्यम् अवसरं परित्यजन्ति।

(भारतवर्ष देश में भी जन्म प्राप्त कर जो मनुष्य अच्छे कामों में रत न होकर उनके प्रतिकूल होकर कार्य करते हैं, वे तो मानो अमृत के घड़े को त्याग कर जहर के घड़े को स्वीकार करते हैं अर्थात् अमूल्य अवसर को त्यागते हैं।)

व्याकरणिक बिन्दव:
पीयूष-कलशम्-पीयूषस्य कलशम् (षष्ठी तत्पुरुष समास)। हित्वा-धा + क्त्वा। सम्प्राप्य-सम् + प्र + आप् + ल्यप्।

5. एतद्देश – प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ 5 ॥ (मनुस्मृतिः)

अन्वय:
एतद्देशप्रसूतस्य अग्रजन्मनः सकाशात् पृथिव्यां सर्वमानवाः स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्।

शब्दार्था:
एतद्देश = अस्मिन् देशे (इस देश में)। प्रसूतस्य = जातस्य (जन्मे हुए का)। स्वं स्वं चरित्रम् = स्वस्य निमित्तं योग्यं चरित्रं (गुणव्यवहारादीन्) (अपने-अपने चरित्र को।)। अग्रजन्मनः = श्रेष्ठजनानाम् (श्रेष्ठ लोगों का)। सकाशात् = पाश्र्वात (पास से)। शिक्षरेन् = शिक्षा प्राप्नुयुः (सीख प्राप्त की)। पृथिव्याम् = धरायाम् (धरती पर)। सर्वमानवाः = सर्वे मनुष्याः (सभी मनुष्य)।

हिन्दी अनुवाद:
इस देश में जन्मे हुए महापुरुषों के पास से पृथ्वी के सभी मानव अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करते थे।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकं पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः’ ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकोऽयं मूलतः ‘मनुस्मृतिः’ इति नीतिग्रन्थात् संकलितः। श्लोकेऽस्मिन् नीतिकारः भारतस्य मनीषां वर्णयति।

(यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक स्पन्दना के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। यह श्लोक मूलतः मनुस्मृति नीति ग्रन्थ से संकलित है। इस श्लोक में नीतिकार भारत की मनीषा का वर्णन करते हैं-)

व्याख्या:
अस्मिन् देशे (भारत देशे) जनानां विदुषां श्रेष्ठजनानां पाश्र्वात् विश्वस्य सर्वे मानवाः आत्मन: गुणव्यवहारादीन्। शिक्षन्ते स्म। जनाः भारतवर्षस्य विद्वद्भ्यः श्रेष्ठजनेभ्यः वा एवं सद्गुणान् शिक्षन्ते स्म।

(इस देश (भारत) में जन्मे विद्वान तथी श्रेष्ठजनों के सम्पर्क से संसार के सभी मानव अपने गुण-व्यवहार आदि की शिक्षा प्राप्त करते थे। लोग भारतवर्ष के विद्वानों | या श्रेष्ठजनों से ही अपने गुण-व्यवहार आदि की शिक्षा ग्रहण करते थे।)

व्याकरणिक बिन्दव:
एतद्देशप्रसूतस्य-एतस्मिन् देशे प्रसूतस्य (सप्तमी तत्पुरुष) प्रसूतस्य-प्र + सु + क्त (ष.वि.ए.व.)।

6. अपि स्वर्णमयी लकां न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥ 6 ॥ (रामायणात्)

अन्वय:
(हे) लक्ष्मण: स्वर्णमयी अपि लकां में न रोचते। (यतः) जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गाद् अपि गरीयसी (भवति)।

शब्दार्था:
मे न रोचते = महयं नहि रोचते (रुचिकरः न भवति) (मुझे रुचिकर नहीं लगती)। गरीयसी = गुरुतरा अर्थात्। तपेक्षया महत्वपूर्णा (बड़ी)। अपि स्वर्णमयी = स्वर्णनिर्मिता अपि (सोने की बनी हुई भी)। जननी-जन्मभूमिश्च = माता, मातृभूमिश्च (माता और मातृभूमि)। स्वर्गादपि = स्वर्ग से भी।

हिन्दी अनुवाद:
हे लक्ष्मण! सोने से बनी हुई होते हुए भी यह लंका मुझे रुचिकर नहीं लगती क्योंकि माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी गुरुतर (बड़ी) होती है।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘स्पन्दनाया:’ ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृत। श्लोकोऽयं मूलतः वाल्मीकीय रामायणात् संकलितः श्लोकेऽस्मिन् कविः जनन्याः जन्मभूमिः च महत्तां दर्शयन् कथयति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। यह श्लोक मूलतः आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण से संकलित है। इस श्लोक में कवि जननी और जन्मभूमि की महत्ता को दर्शाता हुआ कहता है।

व्याख्या:
श्रीरामः लंकायाः रम्यताम् अवलोक्य अनुजाय लक्ष्मणाय कथयति-हे लक्ष्मण इयं लंकापुरी स्वर्णनिर्मिता अस्ति तथापि इयं मे (रामाय) न रोचते। यत: माता जन्मभूमिः च स्वर्गात् अपि गुरुतरा भवति। एते उभेऽत्र जनान् पालयन्ति, पोषयन्ति, रक्षन्ति प्रगतिपथं नयन्ति च अतः एते सम्माननीये।

(श्रीराम लंका की रमणीयता को देखकर अपने अनुज लक्ष्मण से कहते हैं- हे लक्ष्मण यह लंका सोने से बनी हुई होते हुए भी मुझे आकर्षित नहीं कर रही है क्योंकि संसार में जननी (जन्मदात्री माता), तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। ये दोनों (जननी और जन्मभूमि) यहाँ जन्मे लोगों का पालन-पोषण और रक्षा करती हैं तथा प्रगति पथ पर ले जाती हैं। अतः ये दोनों सम्माननीय हैं।)

व्याकरणिक बिन्दव:
स्वर्णमयी-स्वर्ग + मयट् + ङीप्। गरीयसी -गुरु + ईय + सुन् + डीम्।

7. राष्ट्रदृष्टिं नमस्यामो राष्ट मंगलकारिणीम्।
यया विना न पश्यन्ति राष्ट्र स्वनिकटस्थितम् ॥  7 ॥ (अमृतवाग्भवाचार्यः)

अन्वय:
राष्ट्रमंगलकारिर्णी राष्ट्रदृष्टिं नमस्याम: यया विना स्वनिकटस्थितम् (अपि) राष्ट्रं न पश्यन्ति।

शब्दार्था:
राष्ट्रमंगलकारिणीं = देशस्यकल्याणकर्जी (राष्ट्र का कल्याण करने वाली)। राष्ट्रदृष्टिं = देशभक्तिभावनां (राष्ट्रीय सोच)। नमस्यामः = प्रणमामः (नमस्कार करते हैं)। निकटस्थितम् = समीपस्थमान् (समीप में स्थित को)। यथा-बिना = याम् अन्तरेण (जिसके बिना)। पश्यन्ति = अवलोकयन्ति (देखते हैं)।

हिन्दी अनुवाद:
राष्ट्र का कल्याण करने वाली राष्ट्रदृष्टि अर्थात् राष्ट्रीय सोच को हम नमस्कार करते हैं जिसके बिना समीप में स्थित भी राष्ट्र को लोग नहीं देख सकते हैं।

सप्रसंग संस्कत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकं स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतोऽयं श्लोकः श्रीमदमृतवाग्भवाचार्य कृत राष्ट्रवेदात् संकलितः। श्लोकेऽस्मिन् कविः राष्ट्रदृष्ट्या महत्वं प्रतिपादयति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पंदना’ नामक पाठ्य-पुस्तक के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। मूलत: यह श्लोक श्रीमदमृतवाग्भवाचार्य महोदय रचित राष्ट्रवेद से संकलित है। इस श्लोक में कवि राष्ट्रदृष्टि का महत्व प्रतिपादित करता है।)

व्याख्या:
राष्ट्रस्य कल्याणकारिणीं राष्ट्रभावनां देशभक्ति वा वयं प्रणमामः यतः अनया राष्ट्रीयदृष्टिं भावनां वा विना समीपस्थोऽपि राष्ट्र न दृश्यते। राष्ट्रं तु देशभक्ति भावात् एव समीपमायाति।

(राष्ट्र का कल्याण करने वाली राष्ट्रीय दृष्टि या राष्ट्रीय भावना को मैं प्रणाम करता हूँ जिसके कारण व्यक्ति अपने पास स्थित राष्ट्र को भी नहीं देख सकता। राष्ट्र तो देशभक्ति भाव के कारण समीप आता है।)

व्याकरणिक बिन्दव:
राष्ट्र-मंगल-राष्ट्रस्य मंगलम् (षष्ठी तत्पुरुष), स्थितम्–स्था + क्त।

8. समानसंस्कृतिमतां ग्रावती पितृ-पुण्यभूः।
तावतीं भुवमावृत्य राष्ट्रमेकं निगद्यते। (अमृतवाग्भवाचार्यः)

अन्वय:
समान संस्कृतिमतां (जनानां) यावती पितृपुण्यभूः तावर्ती भुवम् आवृत्य एक राष्ट्र निगद्यते।

शब्दार्था:
समानसंस्कृतिमताम् = संस्कृति सादृश्य युताम् (समान संस्कृति वाले)। पितृपुण्यभूः = पैतृक पावन धरा (पैतृक पवित्र धरती)। यावती = यावत्पर्यन्ता (जितनी)। तावतीम् = तावत्पर्यन्ताम् (उतनी)। भुवम् = धरित्रीम् (धरती को)। आवृत्य = आवरणं कृत्वा (ढंककर)। निगद्यते = कथ्यते (कहलाती)।

हिन्दी अनुवाद:
समान संस्कृति वाले लोगों को जहाँ तक पिता-पितामह आदि की पावन भूमि है, उस सबको हँककर अर्थात् उसका समग्र रूप राष्ट्र कहलाता है।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकं स्पंदना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतोऽयं श्लोकः श्रीमदमृतवाग्भवाचार्यः महोदय रचितात् राष्ट्रवेदात् संकलितोऽस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः राष्ट्र-पदं परिभाषते।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। मूलत: यह श्लोक श्रीमदमृतवाग्भवाचार्य-रचित राष्ट्रवेद से संकलित है। इस श्लोक में ‘राष्ट्र’ पद की परिभाषा की है।)

व्याख्या:
सदृश संस्कृतियुतानां जनानां यावत् पर्यन्त पितृ पावना भूः अस्ति तावत् एव धराम् अधिकृत्य यत् स्थानं भवति तद् एव एक राष्ट्रं भवति। एक एव विचारधाराया जनाः यत्र निवसन्ति तदैव राष्ट्र भवति।

(समान संस्कृतियुक्त लोगों की जहाँ तक पावन पितृ-भूमि है तब तक भूमि का वह स्थान एक राष्ट्र कहलाता है। एक ही विचारधारा के लोग जिस भूमि भाग पर निवास करते हैं वह एक राष्ट्र हो जाता है।)

व्याकरणिक बिन्दव:
आवृत्य-आ + वृ + ल्यप् ! पुण्य भूः-पुण्या च असौ भूः (कर्मधारय समास)

9. पितृभूत्वं पुण्यभूत्वं द्वयं यस्ये न विद्यते।
तस्य स्वत्वं तत्र राष्ट्रे भवितुं न किलार्हति ॥ 9 ॥ (अमृतवाग्भवाचार्यः)

अन्वय:
पितृभूत्वं पुण्यभूत्वं (इति) द्वयं यस्य न विद्यते, तस्य तत्र राष्ट्रे स्वत्वं भवितुं न अर्हति किल।

शब्दार्था:
पितृभूत्वम् = पितृ भूमेः भावः (पिता की भूमि का भाव)। मातृभूत्वम् = मातृभूमेः भावः (मातृभूमि होने को भाव)। स्वत्वम् = स्वामित्वम् (स्वामी होने का अधिकार)। पुण्यभूत्वम् = पावन भूमेः भावः (पवित्र भूमि की भाव)। न किलार्हति = वस्तुतः न योग्यम् (वास्तव में योग्य नहीं)।

हिन्दी अनुवाद:
जिस व्यक्ति की न पितृ-भूमि (पिता की भूमि का भाव) होती है और जिसकी मातृभूमि का भाव नहीं होता है उसका स्वामित्व होना भी योग्य नहीं है। अर्थात् उसका स्वामित्व भी सम्भव नहीं है।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्यपुस्तकस्य ‘स्वराष्ट्रगौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतोऽयं श्लोकः श्रीमदमृतवाग्भवाचार्य महोदयः कृत राष्ट्र-वेदात् संकलितोऽस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः कथयति यत् यस्य पितृभूत्वं मातृभृत्वं च भावं न भवति तस्य स्वत्वमपि न भवति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से संकलित है। इस श्लोक में कवि कहता है कि जिसे मनुष्य का पितृभूमि एवं मातृभूमि का भाव नहीं होता, उसका स्वामित्व भी नहीं होता है।

व्याख्या:
पितुः भूमेः भावः मातुः भूमेः च पावन भूमेः भावः यस्य हृदये न भवति तस्य राष्ट्र स्वामित्वम् आत्मीयता वा न भवति। राष्ट्रे तु अधिकारः तस्यैव भवति यस्य हृदये राष्ट्र प्रति पितुः मातुः च भावः विद्यते। सः एव देशभक्तः राष्ट्रवादी जनः राष्ट्रस्ये स्वामित्व प्राप्तुं शक्नोति।

(पिता की भूमि का भाव और माता की भूमि को पावन भाव जिस व्यक्ति के हृदय में न हो उसका राष्ट्र में अपनापन या स्वामित्व नहीं होता। राष्ट्र में तो अधिकार उसी का होता है जिसके हृदय में राष्ट्र के प्रति मातृ-पितृभाव विद्यमान है वही देशभक्त राष्ट्रवादी मनुष्य राष्ट्र के स्वामित्व को प्राप्त कर सकता है।)

व्याकरणिक बिन्दव:
पितृभूत्वम्-पितुः भू (षष्ठी पुरुष) पितृभूत्वम्-पितृभू + त्व। किलार्हति-किल + अर्हति।

10. राष्ट्रस्योत्थानपतने राष्ट्रियानवलम्ब्य हि।
भवतस्सर्वदा तस्माच्छिक्षणीयास्तु राष्ट्रियाः ॥ 10 ॥ (अमृतवाग्भवाचार्यः)

अन्वय:
राष्ट्रियान् अवलम्ब्य हि राष्ट्रस्य उत्थान-पतने भवतः, तस्मात् राष्ट्रियाः तु सर्वदा शिक्षणीयाः।

शब्दार्था:
उत्थानपतने = उन्नतिः अवनतिः च (उतार-चढ़ाव)। अवलम्ब्य = आश्रित्य (आश्रय लेकर)। राष्ट्रियान् = राष्ट्र निवासिनः वास्तव्यान् (राष्ट्र में रहने वाले)। शिक्षणीयाः = शिक्षयितुं योग्याः (सिखाने योग्य)। भवतः सर्वदा = भवतः सदैव (आपका हमेशा)। तस्मात् = अनेन कारणेन (इसलिए)।

हिन्दी अनुवादः:
राष्ट्र निवासियों का सहारा लेकर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनति होती है इसलिए राष्ट्रवादियों को सदा शिक्षित किया जाना चाहिए।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘स्पन्दना’ इति ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उधृत:। श्लोकोऽयं मूलतः श्रीमद् अमृतवाग्भवाचार्य रचितात् राष्ट्रवेदात् संकलितोऽस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः राष्ट्रस्योन्नत्यवनत्ययोः कारणं शिक्षा प्रतिपादयति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह श्लोक श्रीमद्मृतवांग्भवाचार्य कृत राष्ट्रवेद से संकलित है। इस श्लोक में कवि ने राष्ट्र की उन्नति-अवनति का कारण शिक्षा को प्रतिपादित किया है।)

व्याख्या:
राष्ट्रे वास्तव्यान् आश्रित्य एंव राष्ट्रस्य उन्नति अवनति वा सम्भवति। अतः राष्ट्रस्य निवासिनः सदैव शिक्षिताः भवेयुः। अशिक्षिताः राष्ट्रवासिनः राष्ट्रस्य उन्नतौ सहयोगं न प्रदातुं शक्नुवन्ति। अत: शिक्षितम् राष्ट्रम् एव सबलं भवति। (राष्ट्र में निवास करने वालों का आश्रय लेकर ही राष्ट्र की उन्नति अथवा अवनति सम्भव होती है। अतः राष्ट्र के निवासी सदैव शिक्षित होने चाहिए। अशिक्षित राष्ट्र के निवासी राष्ट्र की उन्नति में सहयोग नहीं कर सकते हैं। अत: शिक्षित राष्ट्र ही एक सबल राष्ट्र होता है।)।

व्याकरणिक बिन्दव:
राष्ट्रस्योत्थान-राष्ट्रस्य + उत्थान (गुण संधि) भवतस्सर्वदा-भवतः + सर्वदा (विसर्ग सत्व)। तस्माच्छिक्षणीया-तस्मात् + शिक्षणीया (हल् संधि)

11. विद्या शस्त्रं शास्त्रं च द्वे विधे प्रतिपत्तये।
शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्र शास्त्रचर्चा प्रवर्तते। ॥ 11 ॥ (चाणक्यः)

अन्वय:
शस्त्र च शास्त्रं च इति द्वे विधे प्रतिपत्तये (स्त:)। शस्त्रेण राष्ट्रे रक्षिते (सति) शास्त्रचर्चा प्रवर्तते।

शब्दार्था:
प्रतिपत्तये = ज्ञानाय (ज्ञान के लिए)। रक्षिते राष्ट्रे = राष्ट्रे सुरक्षिते (राष्ट्र के सुरक्षित रहने पर।) विद्याशस्त्रं = आयुधज्ञानम्। प्रवर्तते = प्रवलति (प्रवृत्त होता है)।

हिन्दी अनुवाद:
शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या ज्ञानप्राप्ति के लिए ये दो विद्याएँ होती हैं। शस्त्र (हथियार) के द्वारा सुरक्षित होने पर शास्त्र चर्चा होना प्रवृत्त होता है। अर्थात् सुरक्षित राष्ट्र में ही शास्त्रों का विमर्श करना सम्भव है।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
श्लोकोऽयम् अस्माकं पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः’ ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः अस्ति। मूलतोऽयं श्लोक चाणक्य महोदयेन विरचितात् चाणक्यनीत्या संकलितः अस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः नीतिकारः कथयति यत् शस्त्रेण सुरक्षित राष्ट्रः एव शास्त्रचर्चा कर्तुं समर्थाः भवति।

(यह श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पन्दना’ के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह श्लोक चाणक्य की नीति से संकलित है। इस श्लोक में कवि नीतिकार कहता है कि शस्त्र से सुरक्षित राष्ट्र में ही शास्त्रीय चर्चाएँ सम्भव हैं।)

व्याख्या:
ज्ञान प्राप्तये विद्यायाः द्वे विधे भवतः। एका शस्त्र विद्या भवति द्वितीया च शास्त्र विद्या भवति। शस्त्र विद्या मानवस्य देशस्य व रक्षणाय समर्था भवति। राष्ट्रस्य अस्मिता शस्त्रेण एव सुरक्षिता भवति। यत् राष्ट्र शस्त्रबलेन शत्रु भयात् सुरक्षितः भवति तथैव शास्त्रविद्या पठितुं पाठयितुं च शक्यते। तस्मिन् शस्त्रबलेन सुरक्षितं राष्ट्रे एव शास्त्राणां, विद्यानां विज्ञानादीनां विमर्श भवति। तत्रैव शास्त्रचर्चा प्रवर्तते। अतः राष्ट्र रक्षणाय शस्त्र विद्यायाः अति महत्वं वर्तते।

(ज्ञानप्राप्ति के लिए दो प्रकार की विद्याएँ होती हैं। एक तो शस्त्र विद्या होती है और दूसरी शास्त्र विद्या। शस्त्र विद्या मानव और देश की रक्षा करने में समर्थ होती है। राष्ट्र की अस्मिता शस्त्र से ही सुरक्षित होती है। जो राष्ट्र शस्त्र बल से शत्रु के भय से सुरक्षित है वहाँ ही शास्त्र विद्या पढ़ी और पढ़ाई जा सकती है। उस शस्त्र बल से सुरक्षित राष्ट्र में ही शास्त्रों, विद्याओं और विज्ञान आदि का विमर्श होता है। वहीं शास्त्र चर्चा होती है। अतः राष्ट्र की रक्षा के लिए शस्त्र विद्या का अति महत्व है।)

व्याकरणिक बिन्दव:
रक्षिते राष्ट्र-रक्षित राष्ट्रे (सप्तमी तत्पुरुष)। रक्षित च तत् राष्ट्र तस्मिन् च (कर्मधारय)। शास्त्रचर्चा-शास्त्राणाम् चर्चा (षष्ठी तत्पुरुष समास)

पाठ-परिचयः

हमारे चिन्तन में राष्ट्र की अवधारणा अतिप्राचीन है। वेदों में भी ‘आ राष्ट्र राजन्यः (राष्ट्र में क्षत्रीय) (यजुर्वेदः), ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम’-(हम राष्ट्र में जागृत रहें) (यजुर्वेद) ‘अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्’-(मैं वाग्देवी जगदीश्वरी और धन प्रदात्री हूँ।’) (ऋग्वेद) इत्यादि बहुत से मन्त्रों में राष्ट्र शब्द के प्रयोग से यह स्पष्ट होता है। हमारी राष्ट्र सम्बन्धी अवधारणा पश्चिम से आई है ऐसा जो मानते हैं वे तो वास्तव में भ्रान्त हैं।

हमारा यह भारतवर्ष बहुत दिन से पुराना और सनातन राष्ट्र है किन्तु यहाँ ऋषियों, मुनियों, कवियों और तत्त्वज्ञों द्वारा केवल भौतिक भौगोलिक और राजनैतिक घटक को ही राष्ट्र नहीं माना है। राष्ट्र जो कहलाता है वहाँ वह एक चेतन सांस्कृतिक घटक माना गया है। हमें इसे राष्ट्र देव मानते हैं। यह भारत हमारी दृष्टि में कोई मिट्टी का पिण्ड अथवा भूखण्ड (मात्र) नहीं है अपितु मातृभूमि है। जैसा कि अथर्ववेद में कहा गया है-माता भूमि है, मैं पृथिवी का पुत्र हूँ। ऋग्वेद में भी कहा गया है-‘पृथिवी मेरी माता और द्युलोक पिता है।’। मातृभूमि, पितृभूमि, पुण्यभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि और देवभूमि-इस प्रकार विविध रूपों वाली है संसार के मन को मोहने वाली यह हमारी भारतमाता।

राष्ट्र-सम्बन्धी, राष्ट्रीयता-सम्बन्धी, राष्ट्र-गौरव सम्बन्धी और राष्ट्रभक्ति सम्बन्धी कुछ श्लोक इस पाठ में संकलित हैं।

मूल पाठ, अन्वय, शब्दार्थः हिन्दी अनुवाद एवं सप्रसंग संस्कृतव्याख्या

1. उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तदभारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥1॥(विष्णुपुराणम्)

अन्वयः-यत् समुद्रस्य उत्तरं हिमाद्रेः च एव दक्षिणं, यत्र भारती (नाम) सन्ततिः तत् भारतवर्षं नाम।

शब्दार्थाः-उत्तरम् = उत्तरस्याम् (उत्तर में)। यत्समुद्रस्य = यत् सागरस्य (जो समुद्र के)। दक्षिणम् = दक्षिण्यां दिशि (दक्षिण दिशा में)। हिमाद्रेः = हिमवतः (हिमालय के)। भारती = भारतीयः (भारत की)। सन्ततिः = प्रजा: (सन्तान)।

हिन्दी अनुवादः-जो (भूखण्ड) समुद्र के उत्तर में और हिमालय से दक्षिण की ओर है, जहाँ भारतीय सन्तान (रहती) है, वह भारत नाम का देश है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतोऽयं श्लोकः विष्णुमहापुराणात् संकलितः। अस्मिन् श्लोके कविः भारतस्य भौतिक परिचयं प्रस्तौति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘स्वराष्ट्र गौरवम्’ पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह श्लोक विष्णुपुराण से संकलित है। इस श्लोक में कवि भारत की भौतिक स्थिति का परिचय प्रस्तुत करता है।)

व्याख्याः-यः देश इन्दु महासागरस्य उत्तरस्यां दिशि स्थितः, यत् च प्रदेशः हिमवत्ः पर्वतात् दक्षिणस्यां दिशि स्थितः। यद् भारतीया: प्रजाः वसति तद् एक भारतं नाम राष्ट्र अस्ति। अर्थात् भारतदेशस्य सीमा आहिमालयात् इन्दुसागर पर्यन्तमस्ति।

(यह देश इन्दु (हिन्द) महासागर के उत्तर दिशा में स्थित है और यह देश हिमालय पर्वत से दक्षिण दिशा में स्थित है। जो भारतीय प्रजी रहती है, वह एक भारत नाम को राष्ट्र है। अर्थात् भारत देश की सीमा हिमालय से इन्दुसागर तक है।)

व्याकरणिक बिन्दवः-हिमाद्रे:-हिमस्य अद्रे: (षष्ठी तत्पुरुष)। तद् भारतम्-तत्+भारतम् (हल्सन्धि)। सन्ततिः-सम्+त+क्तिन्।

2. हिमालयात् समारभ्य यावदिन्दुसरोवरम्।।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते ॥2॥ (बृहस्पत्यागमः)

अन्वयः-हिमालयात् समारभ्य इन्दुसरोवरं यावत् (यः देशः स्थित:) देवनिर्मितं तं देशं हिदुस्थानं प्रचक्षते।

शब्दार्थाः-समारभ्य = प्रारम्भ (से लेकर)। इन्दु सरोवरं = हिन्द महासागर। यावत् = पर्यन्तं (तक)। देवनिर्मितम् = सुरैः रचितम् (देवताओं द्वारा बनाया गया)। प्रचक्षते = कथ्यते (कहलाता है।)। वृहस्पत्यागमः = वृहस्पति आगम से।

हिन्दी अनुवादः-हिमालय पर्वत से लेकर हिन्द महासागर तक जो देश स्थित है, देवताओं द्वारा रचे गये उस देश को – हिन्दुस्थान कहते हैं।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकं पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः’ ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकोऽयं मूलतः बृहस्पत्यागमात् संकलितः अस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः हिन्दुस्थानस्य भौगोलिक स्थितिं दर्शयति।

(यह श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक स्पन्दना के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। यह श्लोक मूलतः बृहस्पत्यागम से संकलित है। इस श्लोक में कवि हिन्दुस्थान की भौगोलिक स्थिति प्रदर्शित करता है।)।

व्याख्याः-हिमवतः पर्वतात् प्रारभ्य हिन्द महासागर पर्यन्तं यः देशः स्थितः अस्ति सः देशः हिन्दुस्थान इति नाम्ना ज्ञायते। देवनिर्मितं हिमालयात् इन्दुसागर पर्यन्तं भूखण्डं हिन्दुस्थान इति अभिधानेन ख्यातम् अस्ति।

(हिमालय पर्वत से लेकर हिन्द महासागर तक जो देश स्थित है वह देश हिन्दुस्तान के नाम से जाना जाता है। देवताओं द्वारा रचित हिमालय से हिन्द महासागर तक का भूखण्ड हिन्दुस्थान के नाम से प्रसिद्ध है।)

व्याकरणिक बिन्दवः-समारभ्य-सम् + आङ् + रभ् + ल्यप्। सरोवरम्-सरः + वरम् विसर्ग उत्व। सरस्सुवरम् (सप्तमी तत्पुरुष) देवनिर्मितम्-देवः निर्मितम् (तृतीया तत्पुरुष)। निर्मितम्-निर् + मा + क्तिन्।

3. गायन्ति देवाः किल गीतकानि
धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते।
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥3॥ (विष्णुपुराण)

अन्वयः-देवाः किल गीतकानि गायन्ति (यत्), धन्याः तु ते पुरुषाः सन्ति (ये) स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूतेभारतभूमिभागे सुरत्वात् भूयः भवन्ति।

शब्दार्थाः-किल = नि:सन्देहम् (निश्चित ही)। गीतकानि = गीतानि (गीत)। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते = स्वर्गस्य मोक्षस्य च यत् स्थानं तस्य पथस्वरूपे (स्वर्ग और मोक्ष के स्थान का मार्गस्वरूप)। भूयः = पुनः (फिर से)। गायन्ति = गुणगानं कुर्वन्ति (गुणगान करते हैं)। धन्यास्तु ते = तेजनाः धन्यवारार्हाः (वे लोग धन्यवाद के पात्र हैं।) सुरत्वात = देवत्वात् (देवत्व के कारण)।

हिन्दी अनुवादः-नि:सन्देह देवता गीत गाते (गुणगान करते हैं कि धन्य तो वे मनुष्य हैं जो स्वर्ग और मोक्षस्थल के मार्गस्वरूप भारत भूमि के भाग में देवत्व के कारण बार-बार होते हैं।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकम् पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः’ ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकोऽयं मूलतः विष्णुपुराणात् संकलितः अस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः भारत भूमेः महत्तां वर्णयति।

(यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक स्पन्दना के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। यह श्लोक मूलतः विष्णुपुराण से संकलित है। इस श्लोक में कवि भारत भूमि के महत्व का वर्णन करता है।)

व्याख्याः-निश्चितमेव सुराः गीतानि गायन्ति अर्थात् भारतस्य गुणगानं कुर्वन्ति यत्-श्रेष्ठाः सौभाग्यवन्तः तु ते मनुष्याः सन्ति ये स्वर्गस्य मोक्षस्य च मार्गस्वरूपे स्थले भारतदेशे देवत्वात् पुनः पुनः जन्म लभन्ते अर्थात् भारतं स्वर्ग मोक्षं च प्रदायकम्। अस्ति। अत्र धन्याः जनाः एव जन्म लभन्ते।

(निश्चित ही देवगण गीत गाते हैं अर्थात् भारत का गुणगान करते हैं कि श्रेष्ठ या धन्य सौभाग्यशाली तो वे लोग हैं जो स्वर्ग और मोक्ष के मार्गस्वरूप स्थल भारत देश में बार-बार अपने देवत्व (पुण्यों) के कारण जन्म ग्रहण करते हैं अर्थात् भारत स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। यहाँ धन्य (सौभाग्यशाली) लोग ही जन्म प्राप्त करते हैं।

व्याकरणिक-बिन्दवः- धन्यास्तु- धन्याः + तु (विसर्ग सत्व सन्धि) सुरत्वात् = सुर + त्व (पंचमी विभक्ति ए.व.)

4. सम्प्राप्य भारते ज़न्म सत्कर्मसु पराङ्मुखः।
पीयूष-कलशं हित्वा विषभाण्डमुपाश्रितः॥4॥ (वृहन्नारदीयपुराणम्)

अन्वयः- भारते जन्म सम्प्राप्य (अपि यो जनः) सत्कर्मसु पराङ्मुखः (भवति, स:) पीयूष-कलशं हित्वा विषभाण्डम् उपाश्रितः।

शब्दार्थाः-सम्प्राप्य = लब्ध्वा (पाकर) सत्कर्मसु = सुकर्तव्यानां विषये (अच्छे कर्मों के विषय में)। पराङ्मुखः = विमुखः (प्रतिकूल)। पीयूष-कलशं = अमृतस्य कुम्भम् (अमृत से भरे घट को)। हित्वा = त्यक्त्वा (त्याग कर)। विषभाण्डम् = गरलकुम्भम् (जहर के पात्र को)। उपाश्रितः = स्वीकृतवान् (स्वीकार कर लिया है)।

हिन्दी अनुवादः- भारत में जन्म प्राप्त करके (पाकर) भी जो मनुष्य अच्छे कर्मों से विमुख रहते हैं वे तो मानो अमृत घटे को त्यागकर विष के पान को ही स्वीकार करते हैं।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकम् पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतोऽयं . श्लोकः वृहन्नारदीयपुराणात् संकलितः। श्लोकेऽस्मिन् कविः भारते जन्मोपलब्धिं सौभाग्यं मनुते कथयति च-

(यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘स्पन्दना’ के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। मूलत: यह श्लोक वृहन्नारदीय पुराण से संकलित है। इस श्लोक में कवि भारत में जन्म लेने को सौभाग्य मानता है तथा कहता है-)

व्याख्याः- भारतवर्षे देशेऽपि जन्म लब्ध्वा ये मनुष्याः सत्कर्मसु निरताः न भूत्वा विमुखाः प्रतिकूलाः वा भवन्ति ते तु अमृत घटम् अपि त्यक्त्वा गरलस्य घटं स्वीकुर्वन्ति अर्थात् अमूल्यम् अवसरं परित्यजन्ति।

(भारतवर्ष देश में भी जन्म प्राप्त कर जो मनुष्य अच्छे कामों में रत न होकर उनके प्रतिकूल होकर कार्य करते हैं, वे तो मानो अमृत के घड़े को त्याग कर जहर के घड़े को स्वीकार करते हैं अर्थात् अमूल्य अवसर को त्यागते हैं।)

व्याकरणिक बिन्दव-पीयूष-कलशम्-पीयूषस्य कलशम् (षष्ठी तत्पुरुष समास)। हित्वा-धा + क्त्वा। सम्प्राप्य-सम् + प्र + आप् + ल्यप्।।

5. एतद्देश – प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥5॥ (मनुस्मृतिः)

अन्वयः-एतद्देशप्रसूतस्य अग्रजन्मनः सकाशात् पृथिव्यां सर्वमानवा: स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्।

शब्दार्थाः-एतद्देश = अस्मिन् देशे (इस देश में)। प्रसूतस्य = जातस्य (जन्मे हुए का)। स्वं स्वं चरित्रम् = स्वस्ये निमित्तं योग्यं चरित्रं (गुणव्यवहारादीन्) (अपने-अपने चरित्र को।)। अग्रजन्मनः = श्रेष्ठजनानाम् (श्रेष्ठ लोगों का)। सकाशात् = पाश्र्वात (पास से)। शिक्षरेन् = शिक्षां प्राप्नुयुः (सीख प्राप्त की)। पृथिव्याम् = धरायाम् (धरती पर)। सर्वमानवाः = सर्वे मनुष्याः (सभी मनुष्य)।। हिन्दी अनुवादः-इस देश में जन्मे हुए महापुरुषों के पास से पृथ्वी के सभी मानव अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करते थे।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकं पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः’ ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकोऽयं मूलतः ‘मनुस्मृतिः’ इति नीतिग्रन्थात् संकलितः। श्लोकेऽस्मिन् नीतिकारः भारतस्य मनीषां वर्णयति।

(यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक स्पन्दना के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। यह श्लोक मूलतः मनुस्मृति नीति ग्रन्थ से संकलित है। इस श्लोक में नीतिकार भारत की मनीषा का वर्णन करते हैं-)

व्याख्याः-अस्मिन् देशे (भारत देशे) जनानां विदुषां श्रेष्ठजनानां पाश्र्वात् विश्वस्य सर्वे मानवाः आत्मनः गुणव्यवहारादीन्। शिक्षन्ते स्म। जनाः भारतवर्षस्य विद्वद्भ्यः श्रेष्ठजनेभ्यः वा एवं सद्गुणान् शिक्षन्ते स्म।

(इस देश (भारत) में जन्मे विद्वान तथा श्रेष्ठजनों के सम्पर्क से संसार के सभी मानव अपने गुण-व्यवहार आदि की शिक्षा प्राप्त करते थे। लोग भारतवर्ष के विद्वानों या श्रेष्ठजनों से ही अपने गुण-व्यवहार आदि की शिक्षा ग्रहण करते थे।)

व्याकरणिक बिन्दवः-एतद्देशप्रसूतस्य-एतस्मिन् देशे प्रसूतस्य (सप्तमी तत्पुरुष) प्रसूतस्य-प्र + सु + क्त (ष.वि.ए.व.)।।

6. ‘अपि स्वर्णमयी लकां न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥6॥ (रामायणात्)

अन्वयः-(हे) लक्ष्मण: स्वर्णमयी अपिलकों में न रोचते। (यतः) जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गाद् अपि गरीयसी (भवति)।

शब्दार्थाः-मे न रोचते = मयं नहि रोचते (रुचिकरः न भवति) (मुझे रुचिकर नहीं लगती)। गरीयसी = गुरुतरा अर्थात्। तपेक्षया महत्वपूर्णा (बड़ी)। अपि स्वर्णमयी = स्वर्णनिर्मिता अपि (सोने की बनी हुई भी)। जननी-जन्मभूमिश्च = माता, मातृभूमिश्च (माता और मातृभूमि)। स्वर्गादपि = स्वर्ग से भी। हिन्दी अनुवादः-हे लक्ष्मण ! सोने से बनी हुई होते हुए भी यह लंका मुझे रुचिकर नहीं लगती क्योंकि माता और जन्मभूमि -स्वर्ग से भी गुरुतर (बड़ी) होती है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः’ ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृत। श्लोकोऽयं मूलतः वाल्मीकीय रामायणात् संकलितः श्लोकेऽस्मिन् कविः जनन्याः जन्मभूमिः च महत्तां दर्शयन् कथयति।

(यह श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक स्पन्दना के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। यह श्लोक मूलतः आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण से संकलित है। इस श्लोक में कवि जननी और जन्मभूमि की महत्ता को दर्शाता हुआ कहता है।)

व्याख्याः- श्रीरामः लंकायाः रम्यताम् अवलोक्य अनुजाय लक्ष्मणाय कथयति-हे लक्ष्मण इयं लंकापुरी स्वर्णनिर्मिता अस्ति तथापि इयं मे (रामाय) न रोचते। यत: माता जन्मभूमिः च स्वर्गात् अपि गुरुतरा भवति। एते उभेऽत्र जनान् पालयन्ति, पोषयन्ति, रक्षन्ति प्रगतिपथं नयन्ति च अतः एते सम्माननीये।

(श्रीराम लंका की रमणीयता को देखकर अपने अनुज लक्ष्मण से कहते हैं-हे लक्ष्मण यह लंका सोने से बनी हुई होते हुए भी मुझे आकर्षित नहीं कर रही है क्योंकि संसार में जननी (जन्मदात्री माता), तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। ये दोनों (जननी और जन्मभूमि) यहाँ जन्मे लोगों का पालन-पोषण और रक्षा करती हैं तथा प्रगति पथ पर ले जाती हैं। अतः ये दोनों सम्माननीय हैं।)

व्याकरणिक बिन्दवः-स्वर्णमयी-स्वर्ग + मयट् + ङीप्। गरीयसी -गुरु + ईय + सुन् + ङीप्।।

7. राष्ट्रदृष्टिं नमस्यामो राष्ट मंगलकारिणीम्।।
यया विना न पश्यन्ति राष्टुं स्वनिकटस्थितम् ॥7॥ (अमृतवाग्भवाचार्यः)

अन्वयः-राष्ट्रमंगलकारिण राष्ट्रदृष्टिं नमस्यामः यया विना स्वनिकटस्थितम् (अपि) राष्ट्रं न पश्यन्ति।

शब्दार्थाः-राष्ट्रमंगलकारिणीं = देशस्यकल्याणकर्जी (राष्ट्र का कल्याण करने वाली)। राष्ट्रदृष्टिं = देशभक्तिभावनां (राष्ट्रीय सोच)। नमस्यामः = प्रणमामः (नमस्कार करते हैं)। निकटस्थितम् = समीपस्थमान् (समीप में स्थित को)। यथा-बिना = याम् अन्तरेण (जिसके बिना)। पश्यन्ति = अवलोकयन्ति (देखते हैं)।

हिन्दी अनुवादः-राष्ट्र का कल्याण करने वाली राष्ट्रदृष्टि अर्थात् राष्ट्रीय सोच को हम नमस्कार करते हैं जिसके बिना समीप में स्थित भी राष्ट्र को लोग नहीं देख सकते हैं।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतेः। मूलतोऽयं श्लोकः श्रीमदमृतवाग्भवाचार्य कृत राष्ट्रवेदात् संकलितः। श्लोकेऽस्मिन् कविः राष्ट्रदृष्टयाः महत्वं प्रतिपादयति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पंदना’ नामक पाठ्य-पुस्तक के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। मूलत: यह श्लोक श्रीमदमृतवाग्भवाचार्य महोदय रचित राष्ट्रवेद से संकलित है। इस श्लोक में कवि राष्ट्रदृष्टि का महत्व प्रतिपादित करता है।)

व्याख्याः-राष्ट्रस्य कल्याणकारिणीं राष्ट्रभावनां देशभक्ति वा वयं प्रणमामः येत: अनया राष्ट्रीयदृष्टिं भावनां वा विना समीपस्थोऽपि राष्ट्र न दृश्यते। राष्ट्रं तु देशभक्ति भावात् एव समीपमायाति।

(राष्ट्र का कल्याण करने वाली राष्ट्रीय दृष्टि या राष्ट्रीय भावना को मैं प्रणाम करता हूँ जिसके कारण व्यक्ति अपने पास स्थित राष्ट्र को भी नहीं देख सकता। राष्ट्र तो देशभक्ति भाव के कारण समीप आता है।)

व्याकरणिक बिन्दवः-राष्ट्र-मंगल-राष्ट्रस्य मंगलम् (षष्ठी तत्पुरुष), स्थितम्–स्था + क्त।

8. समानसंस्कृतिमतां यावती पितृ-पुण्यभूः।।
तावती भुवमावृत्य राष्ट्रमेकं निगद्यते। (अमृतवाग्भवाचार्यः)

अन्वयः-समान संस्कृतिमतां (जनानां) यावती पितृपुण्यभूः तावती भुवम् आवृत्य एक राष्ट्र निगद्यते।

शब्दार्थाः-समानसंस्कृतिमताम् = संस्कृति सादृश्य युताम् (समान संस्कृति वाले)। पितृपुण्यभूः = पैतृक पावन धरा। (पैतृक पवित्र धरती)। यावती = यावत्पर्यन्ता (जितनी)। तावतीम् = तावत्पर्यन्ताम् (उतनी)। भुवम् = धरित्रीम् (धरती को)। आवृत्य = आवरणं कृत्वा (तँककर)। निगद्यते = कथ्यते (कहलाती)।

हिन्दी अनुवादः-समान संस्कृति वाले लोगों की जहाँ तक पिता-पितामह आदि की पावन भूमि है, उस सबको ढंककर अर्थात् उसका समग्र रूप राष्ट्र कहलाता है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पंदना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतोऽयं श्लोकः श्रीमदमृतवाग्भवाचार्यः महोदय रचितात् राष्ट्रवेदात् संकलितोऽस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः राष्ट्र-पदं परिभाषते।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। मूलत: यह श्लोक श्रीमदमृतवाग्भवाचार्य-रचित राष्ट्रवेद से संकलित है। इस श्लोक में ‘राष्ट्र’ पद की परिभाषा की है।)

व्याख्याः-सदृश संस्कृतियुतानां जनानां यावत् पर्यन्त पितृ पावना भूः अस्ति तावत् एव धराम् अधिकृत्य यत् स्थानं भवति तद् एव एक राष्ट्रं भवति। एक एव विचारधाराया जनाः यत्र निवसन्ति तदैव राष्ट्रं भवति।

(समान संस्कृतियुक्त लोगों की जहाँ तक पावन पितृ-भूमि है तब तक भूमि का वह स्थान एक राष्ट्र कहलाता है। एक ही विचारधारा के लोग जिस भूमि भाग पर निवास करते हैं वह एक राष्ट्र हो जाता है।)

व्याकरणिक बिन्दवः-आवृत्य-आ + वृ + ल्यप् ! पुण्य भूः-पुण्या च असौ भूः (कर्मधारय समास)

9. पितृभूत्वं पुण्यभूत्वं द्वयं यस्य न विद्यते।। तस्य स्वत्वं तत्र राष्ट्रे भवितुं न किलार्हति॥9॥(अमृतवाग्भवाचार्यः) अन्वयः-पितृभूत्वं पुण्यभूत्वं (इति) द्वयं यस्य न विद्यते, तस्य तत्र राष्ट्रे स्वत्वं भवितुं न अर्हति किल।

शब्दार्थाः-पितृभूत्वम् = पितृ भूमेः भावः (पिता की भूमि का भाव)। मातृभूत्वम् = मातृभूमेः भावः (मातृभूमि होने को भाव)। स्वत्वम् = स्वामित्वम् (स्वामी होने का अधिकार)। पुण्यभूत्वम् = पावन भूमेः भावः (पवित्र भूमि का भाव)। न किलार्हति = वस्तुतः न योग्यम् (वास्तव में योग्य नहीं)।।

हिन्दी अनुवादः-जिस व्यक्ति की न पितृ-भूमि (पिता की भूमि का भाव) होती है और जिसकी मातृभूमि का भाव नहीं होता है उसका स्वामित्व होना भी योग्य नहीं है। अर्थात् उसका स्वामित्व भी सम्भव नहीं है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्यपुस्तकस्य ‘स्वराष्ट्रगौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतोऽयं श्लोकः श्रीमदमृतवाग्भवाचार्य महोदयः कृत राष्ट्र-वेदात् संकलितोऽस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः कथयति यत् यस्य पितृभूत्वं मातृभृत्वं च भावं न भवति तस्य स्वत्वमपि न भवति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से संकलित है। इस श्लोक में कवि कहता है कि जिसे मनुष्य का पितृभूमि एवं मातृभूमि का भाव नहीं होता, उसका स्वामित्व भी नहीं होता है।)

व्याख्याः-पितुः भूमेः भावः मातुः भूमेः च पावन भूमेः भावः यस्य हृदये न भवति तस्य राष्ट्र स्वामित्वम् आत्मीयता वा न भवति। राष्ट्रे तु अधिकारः तस्यैव भवति यस्य हृदये राष्ट्र प्रति पितुः मातुः च भाव: विद्यते। सः एव देशभक्तः राष्ट्रवादी जनः राष्ट्रस्य स्वामित्व प्राप्तुं शक्नोति।

(पिता की भूमि का भाव और माता की भूमि को पावन भाव जिस व्यक्ति के हृदय में न हो उसका राष्ट्र में अपनापन या स्वामित्व नहीं होता। राष्ट्र में तो अधिकार उसी का होता है जिसके हृदय में राष्ट्र के प्रति मातृ-पितृभाव विद्यमान है वही देशभक्त राष्ट्रवादी मनुष्य राष्ट्र के स्वामित्व को प्राप्त कर सकता है।)

व्याकरणिक बिन्दवः-पितृभूत्वम्-पितुः भू (षष्ठी पुरुष), पितृभूत्वम्-पितृभू + त्व। किलार्हति-किल + अर्हति।

10. राष्ट्रस्योत्थानपतने राष्ट्रियानवलम्ब्य हि।
भवतस्सर्वदा तस्माच्छिक्षणीयास्तु राष्ट्रियाः॥10॥ (अमृतवाग्भवाचार्यः)

अन्वयः-राष्ट्रियान् अवलम्ब्य हि राष्ट्रस्य उत्थान-पतने भवतः, तस्मात् राष्ट्रिया: तु सर्वदा शिक्षणीयाः।

शब्दार्थाः-उत्थानपतने = उन्नतिः अवनतिः च (उतार-चढ़ाव)। अवलम्ब्य = आश्रित्य (आश्रय लेकर)। राष्ट्रियान् = राष्ट्रे निवासिनः वास्तव्यान् (राष्ट्र में रहने वाले)। शिक्षणीयाः = शिक्षयितुं योग्या: (सिखाने योग्य)। भवतः सर्वदा = भवतः सदैव (आपका हमेशा)। तस्मात् = अनेन कारणेन (इसलिए)।

हिन्दी अनुवादः-राष्ट्र निवासियों का सहारा लेकर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनति होती है इसलिए राष्ट्रवादियों को सदा शिक्षित किया जाना चाहिए।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘स्पन्दना’ इति ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकोऽयं। मूलतः श्रीमद् अमृतवाग्भवाचार्य रचितात् राष्ट्रवेदात् संकलितोऽस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः राष्ट्रस्योन्नत्यवनत्ययोः कारणं शिक्षा प्रतिपादयति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह श्लोक श्रीमद्मृतवाग्भवाचार्य कृत राष्ट्रवेद से संकलित है। इस श्लोक में कवि ने राष्ट्र की उन्नति-अवनति का कारण शिक्षा को प्रतिपादित किया है।)

व्याख्याः-राष्ट्रे वास्तव्यान् आश्रित्य एंव राष्ट्रस्य उन्नति अवनति वा सम्भवति। अत: राष्ट्रस्य निवासिनः सदैव शिक्षिताः भवेयुः। अशिक्षिताः राष्ट्रवासिनः राष्ट्रस्य उन्नतौ सहयोगं न प्रदातुं शक्नुवन्ति। अत: शिक्षितम् राष्ट्रम् एव सबलं भवति।

(राष्ट्र में निवास करने वालों का आश्रय लेकर ही राष्ट्र की उन्नति अथवा अवनति सम्भव होती है। अतः राष्ट्र के निवासी सदैव शिक्षित होने चाहिए। अशिक्षित राष्ट्र के निवासी राष्ट्र की उन्नति में सहयोग नहीं कर सकते हैं। अतः शिक्षित राष्ट्र ही एक सबल राष्ट्र होता है।)

व्याकरणिक बिन्दवः-राष्ट्रस्योत्थान-राष्ट्रस्य + उत्थान (गुण संधि) भवतस्सर्वदा- भवतः + सर्वदा (विसर्ग सत्व)।। तस्माच्छिक्षणीया-तस्मात् + शिक्षणीया (हल् संधि)

11. विद्या शस्त्रं शास्त्रं च द्वे विधे प्रतिपत्तये।
शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्र शास्त्रचर्चा प्रवर्तते।॥11॥ (चाणक्यः)

अन्वयः-शस्त्र च शास्त्रं च इति द्वे विधे प्रतिपत्तये. (स्त:)। शस्त्रेण राष्ट्रे रक्षिते (सति) शास्त्रचर्चा प्रवर्तते।।

शब्दार्थाः-प्रतिपत्तये = ज्ञानाय (ज्ञान के लिए)। रक्षिते राष्ट्रे = राष्ट्रे सुरक्षिते (राष्ट्र के सुरक्षित रहने पर।) विद्याशस्त्रं = आयुधज्ञानम्। प्रवर्तते = प्रवलति (प्रवृत्त होता है)।

हिन्दी अनुवादः-शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या ज्ञानप्राप्ति के लिए ये दो विद्याएँ होती हैं। शस्त्र (हथियार) के द्वारा सुरक्षित होने पर शास्त्र चर्चा होना प्रवृत्त होता है। अर्थात् सुरक्षित राष्ट्र में ही शास्त्रों का विमर्श करना सम्भव है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकं पाठ्य-पुस्तकस्य ‘स्पन्दनायाः ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ इति पाठात् उद्धृतः अस्ति। मूलतोऽयं श्लोक चाणक्य महोदयेन विरचितात् चाणक्यनीत्या संकलितः अस्ति। श्लोकेऽस्मिन् कविः नीतिकारः कथयति यत् शस्त्रेण सुरक्षित राष्ट्रः एव शास्त्रचर्चा कर्तुं समर्थाः भवति।

(यह श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पन्दना’ के ‘स्वराष्ट्र-गौरवम्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह श्लोक चाणक्य की। नीति से संकलित है। इस श्लोक में कवि नीतिकार कहता है कि शस्त्र से सुरक्षित राष्ट्र में ही शास्त्रीय चर्चाएँ सम्भव हैं।)

व्याख्या:-ज्ञान प्राप्तये विद्यायाः द्वे विधे भवतः। एका शस्त्र विद्या भवति द्वितीया च शास्त्र विद्या भवति। शस्त्र विद्या मानवस्य देशस्य व रक्षणाय समर्था भवति। राष्ट्रस्य अस्मिता शस्त्रेण एव सुरक्षिता भवति। यत् राष्ट्र शस्त्रबलेन शत्रु भयात् सुरक्षितः भवति तथैव शास्त्रविद्या पठितुं पाठयितुं च शक्यते। तस्मिन् शस्त्रबलेन सुरक्षितं राष्ट्रे एव शास्त्राणां, विद्यानां विज्ञानादीनां विमर्श भवति। तत्रैव शास्त्रचर्चा प्रवर्तते। अतः राष्ट्र रक्षणाय शस्त्र विद्यायाः अति महत्वं वर्तते।

(ज्ञानप्राप्ति के लिए दो प्रकार की विद्याएँ होती हैं। एक तो शस्त्र विद्या होती है और दूसरी शास्त्र विद्या। शस्त्र विद्या मानव और देश की रक्षा करने में समर्थ होती है। राष्ट्र की अस्मिता शस्त्र से ही सुरक्षित होती है। जो राष्ट्र शस्त्र बल से शत्रु के भय से सुरक्षित है वहाँ ही शास्त्र विद्या पढ़ी और पढ़ाई जा सकती है। उस शस्त्र बल से सुरक्षित राष्ट्र में ही शास्त्रों, विद्याओं और विज्ञान आदि का विमर्श होता है। वहीं शास्त्र चर्चा होती है। अत: राष्ट्र की रक्षा के लिए शस्त्र विद्या का अति महत्व है।)

व्याकरणिक बिन्दवः-रक्षिते राष्ट्र-रक्षित राष्ट्रे (सप्तमी तत्पुरुष)। रक्षित च तत् राष्ट्र तस्मिन् च (कर्मधारय)। शास्त्रचर्चा-शास्त्राणाम् चर्चा (षष्ठी तत्पुरुष समास)

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