UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 7 रामनरेश त्रिपाठी (काव्य-खण्ड)

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कवि-परिचय

प्रश्न 1.
श्री रामनरेश त्रिपाठी का जीवन-परिचय देते हुए उनकी काव्य-कृतियों (रचनाओं) का उल्लेख कीजिए। [2009, 10, 16]
या
रामनरेश त्रिपाठी का जीवन-परिचय देते हुए उनकी किसी एक रचना का नामोल्लेख कीजिए। [2012, 13, 14]
उत्तर
पं० रामनरेश त्रिपाठी स्वदेश-प्रेम, मानव-सेवा और पवित्र प्रेम के गायक कवि हैं। इनकी रचनाओं में छायावाद का सूक्ष्म सौन्दर्य एवं आदर्शवाद का मानवीय दृष्टिकोण एक साथ घुल-मिल गये हैं। आप बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार हैं। राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित इनके काव्य अत्यन्त हृदयस्पर्शी हैं।

जीवन-परिचय-हिन्दी-साहित्य के विख्यात कवि रामनरेश त्रिपाठी का जन्म सन् 1889 ई० में उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के कोइरीपुर ग्राम के एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता पं० रामदत्त त्रिपाठी एक आस्तिक ब्राह्मण थे। इन्होंने नवीं कक्षा तक स्कूल में पढ़ाई की तथा बाद में स्वतन्त्र अध्ययन और देशाटन से असाधारण ज्ञान प्राप्त किया और साहित्य-साधना को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। इन्हें केवल हिन्दी ही नहीं वरन् अंग्रेजी, संस्कृत, बंगला और गुजराती भाषाओं को भी अच्छा ज्ञान था। इन्होंने दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा के प्रचार और प्रसार का सराहनीय कार्य कर हिन्दी की अपूर्व सेवा की। ये हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन की इतिहास परिषद् के सभापति होने के साथ-साथ स्वतन्त्रतासेनानी एवं देश-सेवी भी थे। साहित्य की सेवा करते-करते सरस्वती का यह वरद पुत्र सन् 1962 ई० में स्वर्गवासी हो गया। |

रचनाएँ–त्रिपाठी जी श्रेष्ठ कवि होने के साथ-साथ बाल-साहित्य और संस्मरण साहित्य के लेखक भी थे। नाटक, निबन्ध, कहानी, काव्य, आलोचना और लोक-साहित्य पर इनका पूर्ण अधिकार था। इनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ निम्नलिखित हैं|

(1) खण्डकाव्य-पथिक’, ‘मिलन’ और ‘स्वप्न’। ये तीन प्रबन्धात्मक खण्डकाव्य हैं। इनकी विषयवस्तु ऐतिहासिक और पौराणिक है, जो देशप्रेम और राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत है।
(2) मुक्तक काव्य-मानसी’ फुटकर काव्य-रचना है। इस काव्य में त्याग, देश-प्रेम, मानव-सेवा और उत्सर्ग का सन्देश देने वाली प्रेरणाप्रद कविताएँ संगृहीत हैं।
(3) लोकगीत-‘ग्राम्य गीत’ लोकगीतों का संग्रह है। इसमें ग्राम्य-जीवन के सज़ीव और प्रभावपूर्ण गीत हैं। इनके अतिरिक्त त्रिपाठी जी द्वारा रचित प्रमुख कृतियाँ हैं|

वीरांगना’ और ‘लक्ष्मी’ (उपन्यास), ‘सुभद्रा’, ‘जयन्त’ और ‘प्रेमलोक’ (नाटक), ‘स्वप्नों के चित्र (कहानी-संग्रह), ‘तुलसीदास और उनकी कविता’ (आलोचना), ‘कविता कौमुदी’ और ‘शिवा बावनी (सम्पादित), ‘तीस दिन मालवीय जी के साथ’ (संस्मरण), ‘श्रीरामचरितमानस की टीका (टीका), ‘आकोश की बातें’; ‘बालकथा कहानी’; ‘गुपचुप कहानी’; ‘फूलरानी’ और ‘बुद्धि विनोद’ (बाल-साहित्य), ‘महात्मा बुद्ध’ तथा ‘अशोक’ (जीवन-चरित) आदि।

साहित्य में स्थान–खड़ी बोली के कवियों में आपका प्रमुख स्थान है। अपनी सेवाओं द्वारा हिन्दी साहित्य के सच्चे सेवक के रूप में त्रिपाठी जी प्रशंसा के पात्र हैं। राष्ट्रीय भावों के उन्नायक के रूप में आप हिन्दी-साहित्य में अपना विशेष स्थान रखते हैं।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

स्वदेश-प्रेम

प्रश्न 1.
अतुलनीय जिसके प्रताप का
साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर ।
घूम-घूम-कर देख चुका है,
जिनकी निर्मल कीर्ति निशाकर।
देख चुके हैं जिनका वैभव,
ये नभ के अनन्त तारागण।
अगणित बार सुन चुका है नभ,
जिनका विजय-घोष रण-गर्जन ।। [2015]
उत्तर
[ अतुलनीय = जिसकी तुलना न की जा सके। साक्षी = प्रत्यक्ष द्रष्टा। दिवाकर = सूर्य। निशाकर = चन्द्रमा। रण-गर्जन = युद्ध की गर्जना। ]

सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड में संकलित श्री रामनरेश त्रिपाठी द्वारा रचित ‘स्वदेश-प्रेम’ शीर्षक कविता से अवतरित है। यह कविता त्रिपाठी जी के काव्य-संग्रह ‘स्वप्न’ से ली गयी है।

[ विशेष—इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाले समस्त पद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग-कवि ने इन पंक्तियों में भारत के गौरवपूर्ण अतीत की झाँकी प्रस्तुत की है।

व्याख्या–त्रिपाठी जी कहते हैं कि तुम अपने उन पूर्वजों का स्मरण करो, जिनके अतुलनीय प्रताप की साक्षी सूर्य आज भी दे रहा है। ये ही तो हमारे पूर्वपुरुष थे, जिनकी धवल और स्वच्छ कीर्ति को चन्द्रमा भी यत्र-तत्र-सर्वत्र धूम-घूमकर देख चुका है। वे हमारे पूर्वज ऐसे थे, जिनके ऐश्वर्य को तारों का अनन्त समूह बहुत पहले देख चुका था। हमारे पूर्वजों की विजय-घोषों और युद्ध-गर्जनाओं को भी आकाश अनगिनत बार सुन चुका है। तात्पर्य यह है कि हमारे पूर्वजों के पवित्र चरित्र, प्रताप, यश, वैभव, युद्ध-कौशल आदि सभी कुछ अद्भुत और अभूतपूर्व था।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. कवि ने अपने पूर्वजों के गुणों का गरिमामय गान किया है।
  2. भाषासंस्कृत शब्दों से युक्त साहित्यिक खड़ी बोली
  3. शैली-भावात्मक।
  4. रस-वीर।
  5. गुण-ओज।
  6. छन्द-प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्दः
  7. अलंकार-अनुप्रास, रूपक और पुनरुक्तिप्रकाश।

प्रश्न 2.
शोभित है सर्वोच्च मुकुट से,
जिनके दिव्य देश का मस्तक।
पूँज रही हैं सकल दिशाएँ।
जिनके जय-गीतों से अब तक ॥
जिनकी महिमा का है अविरल,
साक्षी सत्य-रूप हिम-गिरिवर।
उतरा करते थे विमान-दल
जिसके विस्तृत वक्षस्थल पर ।।[2014]
उत्तर
[ दिव्य = अलौकिक। सकल = सम्पूर्ण अविरल = लगातार, निरन्तर। साक्षी = गवाह। सत्य-रूप हिम-गिरिवर = सत्य स्वरूप वाला श्रेष्ठ हिमालय। वक्षस्थल = सीना।]

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में भारत के गौरवपूर्ण अतीत की झाँकी प्रस्तुत की गयी है।

व्याख्या—कवि त्रिपाठी जी आगे कहते हैं कि यह ‘भारत’ हमारे चिरस्मरणीय पूर्वजों का देश है। इसका मस्तक हिमालयरूपी सर्वोच्च मुकुट से सुशोभित हो रहा है। हमारे पूर्वजों के विजय-गीतों से आज . तक भी सम्पूर्ण दिशाएँ पूँज रही हैं। ये ही तो वे पूर्वज थे, जिनकी महिमा की गवाही आज भी सत्य स्वरूप वाला श्रेष्ठ हिमालय दे रहा है अथवा जिनकी महिमा की गवाही आज भी हिमालय के रूप में प्रत्यक्ष है। इस भारत-भूमि के अति विस्तृत अथवा विशाल वक्षस्थल पर विभिन्न देशों के विमान समूह बना-बनाकर उतरा करते थे।

काव्यगत विशेषताएँ–

  1. हिमालय के महत्त्व और सौन्दर्य की झाँकी प्रस्तुत की गयी है।
  2. भाषा-साहित्यिक और बोधगम्य खड़ीबोली।
  3. शैली-भावात्मक और वर्णनात्मक।
  4. रसवीर।
  5. गुण-ओज।
  6. छन्द-प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्द।
  7. अलंकार , अनुप्रास और रूपक।

प्रश्न 3.
सागर निज छाती पर जिनके,
अगणित अर्णव-पोत उठाकरे ।
पहुँचाया करता था प्रमुदित,
भूमंडल के सकल तटों पर ।
नदियाँ जिसकी यश-धारा-सी ।
बहती हैं अब भी निशि-वासर।
हूँढो, उनके चरण-चिह्न भी पाओगे तुम इनके तट पर । [2017]
उत्तर
[ अगणित = अनगिनत। अर्णव-पोत = समुद्री जहाज। प्रमुदित = प्रसन्नचित्त। भूमंडल = पृथ्वीमण्डल। निशि-वासर = रात-दिन।]

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में भारत के अतीत की गरिमापूर्ण झाँकी प्रस्तुत की गयी है।

व्याख्या-हमारे पूर्वज ऐसे थे कि स्वयं समुद्र भी उनकी सेवा में तत्पर रहता था। वह अपनी छाती पर उनके असंख्य जहाजों को उठाकर प्रसन्नता के साथ पृथ्वी के एक कोने से दूसरे कोने पर स्थित समस्त बन्दरगाहों पर पहुँचाया करता था। इस देश में रात-दिन बहती हुई नदियों की धारा मानो हमारे उन पूर्वजों का यशोगान गाती जाती है। धन्य थे वे हमारे ऐसे पूर्वज! जिनका समर्पण, उत्साह और शौर्य अद्भुत था। कवि को विश्वास है कि उनके चंरण-चिह्न आज भी हमारी नदियों और समुद्रों के तटों पर मिल जाएँगे। तात्पर्य यह है कि यदि आप अपने पूर्वजों का अनुसरण करेंगे तो आपको उनका मार्गदर्शन अवश्य मिलता रहेगा।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. पूर्वजों की गौरव-गाथा का सजीव और आलंकारिक वर्णन किया गया है।
  2. भाषा-सरल, सुबोध तथा साहित्यिक खड़ीबोली।
  3. शैली-भावात्मक।
  4. रस-वीर।
  5. छन्द-प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्द।
  6. गुण–ओज।
  7. अलंकार— अनुप्रास, ‘नदियाँ जिसकी यश-धारा-सी’ में उपमा तथा रूपक हैं।

प्रश्न 4.
विषुवत्-रेखा का वासी जो,
जीता है नित हाँफ-हाँफ कर।
रखता है अनुराग अलौकिक,
वह भी अपनी मातृ-भूमि पर ॥
धुववासी, जो हिम में, तम में,
जी लेता है काँप-काँप कर। वह भी अपनी मातृ-भूमि पर, |
कर देता है प्राण निछावर ॥ [2011]
उत्तर
[ विषुवत्-रेखा = भूमध्य रेखा, वह कल्पित रेखा जो पृथ्वी तल के मानचित्र पर ठीक बीचो-बीच (गणना के लिए) पूर्व-पश्चिम है। वासी = निवासी, रहनेवाला। अनुराग = प्रेम। अलौकिक = दिव्य, लोक से परे। धुववासी = ध्रुव प्रदेश का रहने वाला। तम = अन्धकार।]

प्रसंग-कवि ने इन पंक्तियों में बताया है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृभूमि से प्रेम होता है। वह उसे छोड़कर कहीं जाना पसन्द नहीं करता। |

व्याख्या-जो मनुष्य भूमध्य-रेखा का निवासी है, जहाँ असहनीय गर्मी पड़ती है, वहाँ वह गर्मी के कारण हाँफ-हॉफकर अपना जीवन व्यतीत करता है, फिर भी उस स्थान से लगाव के कारण वहाँ की भीषण गर्मी को छोड़कर वह शीतल प्रदेश में नहीं जाता। वह कष्ट उठाता हुआ भी अपनी मातृभूमि पर असाधारण प्रेम और अपार श्रद्धा रखता है। जो मनुष्य ध्रुव प्रदेश का रहने वाला है, जहाँ सदा बर्फ जमी रहने के कारण भयंकर सर्दी पड़ती है, वहाँ वह भयंकर ठण्ड से काँप-कॉपकर अपना जीवन-निर्वाह कर लेता है, किन्तु ठण्ड से घबराकर गर्म प्रदेशों में जाकर जीवन नहीं बिताता। उसे भी अपनी मातृभूमि से बहुत प्रेम होता है और उसकी रक्षा के लिए वह भी अपने प्राण निछावर कर देता है।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. कवि ने स्पष्ट किया है कि मानव-मात्र को मातृभूमि से स्वाभाविक प्रेम होता है।
  2. इन पंक्तियों में स्वदेश-प्रेम की प्रेरणा दी गयी है।
  3. भाषा-सरल खड़ी बोली।
  4. रस–वीर।
  5. शैली-भावात्मक।
  6. छन्द-प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्द।
  7. गुण-ओज।
  8. शब्दशक्ति–व्यंजना।
  9. अलंकार-‘अनुराग अलौकिक’ तथा ‘हिम में, तम में में अनुप्रास, ‘हाँफ-हाँफ’ तथा ‘काँप-काँप’ में पुनरुक्तिप्रकाश।
  10. भावसाम्य-महर्षि वाल्मीकि ने जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर माना है-‘जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी।’

प्रश्न 5.
तुम तो, हे प्रिय बंधु, स्वर्ग-सी,
सुखद्, सकल विभवों की आकर।
धरा-शिरोमणि मातृ-भूमि में,
धन्य हुए हो जीवन पाकर॥
तुम जिसका जल अन्न ग्रहण कर,
बड़े हुए लेकर जिसकी रज।
तन रहते कैसे तज दोगे,
उसको, हे वीरों के वंशज ॥
उत्तर
[ आकर = खान, खजाना। धरा-शिरोमणि = पृथ्वी पर सबसे अच्छी व सर्वश्रेष्ठ।]

प्रसंग-इन पंक्तियों में कवि ने मातृभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर बताते हुए देशप्रेम की प्रेरणा प्रदान । की है।

व्याख्या–देशप्रेम की प्रेरणा देते हुए कवि भारतवासियों से कहता है कि विषुवत् और ध्रुव-प्रदेशों के निवासी भी अपने देश से प्रेम रखते हैं तो आपको अपनी भारत-भूमि से तो निश्चय ही अधिक प्रेम होना चाहिए; क्योंकि यहाँ की धरती सुख-समृद्धि से युक्त, समस्त वैभवों से परिपूर्ण तथा स्वर्ग से भी बढ़कर है। सभी देशों की धरती की अपेक्षा इस धरती पर जन्म पाना बड़े पुण्यों का फल होता है। तुम धन्य हो कि जो तुमने यहाँ जन्म पाया है और यहाँ का अन्न खाकर, पानी पीकर और इसी की धूल-मिट्टी में खेलकर बड़े हुए हो; तब शरीर के रहते हुए हे वीरों के वंशज! तुम इसको कैसे त्याग दोगे ? अर्थात् इसकी रक्षा करना तुम्हारा पहला कर्तव्य है।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. मातृभूमि की रक्षा करना प्रत्येक देशवासी का पहला कर्त्तव्य है।
  2. भाषा-प्रवाहमयी खड़ी बोली
  3. शैली-भावात्मक।
  4. रस-वीर।
  5. गुण-ओज।
  6. शब्द-शक्ति–व्यंजना।
  7. छन्द-प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्द।
  8. अलंकार-‘स्वर्ग-सी सुखद’ में उपमा तथा अनुप्रास।
  9. भावसाम्य-राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त तो स्वदेश-प्रेम की भावना से रहित हृदय को हृदय न मानकर पत्थर मानते हैं

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है,पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ॥

प्रश्न 6.
जब तक साथ एक भी दम हो,
हो अवशिष्ट एक भी धड़कन।
रखो आत्म-गौरव से ऊँची
पलकें, ऊँचा सिर, ऊँचा मन ॥
एक बूंद भी रक्त शेष हो,
जब तक मन में हे शत्रुजय !
दीन वचन मुख से न उचारो, मानो नहीं मृत्यु का भी भय ॥ [2017]
उत्तर
[दम = साँस। अवशिष्ट = बाकी, बची हुई। शत्रुजय = शत्रु को जीतने वाले। उचारो = बोलो।]

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में त्रिपाठी जी स्वाभिमान की भावना बनाये रखने पर बल दे रहे हैं।

व्याख्या-कविवर त्रिपाठी जी का कथन है कि जब तक तुम्हारी साँसें चल रही हैं और तुम्हारा हृदय धड़क रहा है, तब तक तुम्हें अपना और अपने देश का गौरव ऊँचा रखना है। अपनी पलकें, अपना सिर तथा अपना मनोबल ऊँचा रखना है; अर्थात् तुम्हें कोई ऐसा कार्य नहीं करना है, जिससे तुम्हें किसी के सामने सिर झुकाना पड़े, आँखें नीची करनी पड़े और दीन-हीन बनना पड़े। जब तक तुम्हारे शरीर में एक बूंद भी रक्त शेष रहे, तब तक हे शत्रु को जीतने वाले भारतीयो! तुम दीन वचन नहीं बोलो और देश की रक्षा करते हुए यदि तुम्हारी मृत्यु भी हो जाए तो तुम्हें उसका भी डर नहीं होना चाहिए।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. स्वाभिमान की रक्षा पर बल दिया गया है।
  2. भाषा-सहज और सरल खड़ी बोली।
  3. शैली-भावात्मक।
  4. रस-वीर।
  5. छन्द–प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्दः
  6. गुण-ओज।
  7. शब्दशक्ति-व्यंजना।
  8. अलंकार-अनुप्रास।
  9. भावसाम्य-अन्यत्र भी कहा गया है

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं पशु है निरा और मृतक समान है॥

प्रश्न 7.
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का,
मृत्यु एक है विश्राम-स्थल।
जीव जहाँ से फिर चलता है,
धारण कर नव जीवन-संबल ॥
मृत्यु एक सरिता है, जिसमें,
श्रम से कातर जीव नहाकर ।।
फिर नूतन धारण करता है, |
काया-रूपी वस्त्र बहाकर ॥ [2011, 13, 18]
उत्तर
[ निर्भय = भयरहित होकर। विश्राम-स्थल = विश्राम करने का स्थान। संबल = सहारा। सरिता = नदी। कातर = दु:खी। नूतन = नये। काया = शरीर।]

प्रसंग-कवि ने प्रस्तुत पंक्तियों में मृत्यु से भयभीत न होने की प्रेरणा दी है।

व्याख्या–हे भारत के वीरो! तुम निर्भय होकर मृत्यु का स्वागत करो और मृत्यु से कभी मत डरो; क्योंकि मृत्यु वह स्थान है, जहाँ मनुष्य अपने जीवनभर की थकावट को दूर कर विश्राम प्राप्त करता है; अतः मानव को उससे भयभीत नहीं होना चाहिए। मृत्यु वह स्थान है, जहाँ मनुष्य पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करता है और पुन: नवीन जीवन की यात्रा पर अग्रसर होता है। कवि कहता है कि मृत्यु एक नदी है, जिसमें नहाकर मनुष्य जीवनभर की थकान को दूर करता है। वह उस मृत्युरूपी नदी में अपने शरीररूपी
पुराने वस्त्र को बहा देता है और पुन: दूसरे नये जीवनरूपी वस्त्र को धारण करता है। कवि का तात्पर्य यह है कि हमें निर्भीकता और उल्लास के साथ मृत्यु का स्वागत करना चाहिए।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. जीवनरूपी मार्ग के मध्य में पड़ने वाले विश्राम-गृह के रूप में मृत्यु की कल्पना, कवि की नितान्त मौलिक कल्पना है। यह त्रिपाठी जी की प्रगल्भ चिन्तनशक्ति की परिचायक है।
  2. कवि ने स्वदेश पर मर-मिटने की प्रेरणा दी है।
  3. भाषा-सरल खड़ी बोली।
  4. शैली–उद्बोधन।
  5. रस-वीर।
  6. छन्द-प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्द।
  7. गुण–प्रसाद।
  8. शब्दशक्ति–व्यंजना।
  9. अलंकार-‘मृत्यु एक है विश्राम-स्थल’ तथा ‘मृत्यु एक सरिता है’ में रूपक तथा अनुप्रास।
  10. भावसाम्य–
    1. अंग्रेजी के कवि मिल्टन ने मृत्यु का मूल्यांकन करते हुए कहा है कि ‘मृत्यु सोने की वह चाबी है, जो अमरता के महल को खोल देती है।
    2.  कवि के विचारों पर भारतीय दर्शन का, विशेषकर गीता का, प्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित होता है–

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।

प्रश्न 8.
सच्चा प्रेम वही है जिसकी ।
तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर ।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है,
करो प्रेम पर प्राण निछावर ॥
देश-प्रेम वह पुण्य-क्षेत्र है,
अमल असीम, त्याग से विलसित ।
आत्मा के विकास से जिसमें,
मनुष्यता होती है विकसित ॥ [2009, 12, 14, 16]
उत्तर
[तृप्ति = सन्तुष्टि। आत्म-बलि = अपने प्राण न्योछावर कर देना। निष्प्राण = प्राणरहित, मृत। पुण्य-क्षेत्र = पवित्र स्थान। अमल = स्वच्छ। विलसित = सुशोभित। ]

प्रसंग–कवि ने त्याग और बलिदान को ही सच्चे देश-प्रेम के लिए आवश्यक माना है।

व्याख्या-कवि कहता है कि सच्चा प्रेम वही है, जिसमें आत्म-त्याग की भावना होती है; अर्थात् आत्म-त्याग पर ही सच्चा प्रेम निर्भर होता है। सच्चे प्रेम के लिए यदि हमें अपने प्राणों को भी न्योछावर करना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। बिना त्याग के प्रेम प्राणहीन या मृत है। त्याग से ही प्रेम में प्राणों का संचार होता है; अत: सच्चे प्रेम के लिए प्राणों का बलिदान करने को भी सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए। देशप्रेम वह पवित्र भावना है, जो निर्मल और सीमारहित त्याग से सुशोभित होती है। देशप्रेम की भावना से ही मनुष्य की आत्मा विकसित होती है। आत्मा के विकास से मनुष्य का विकास होता है; अत: देशप्रेम से आत्मा का विकास और आत्मा के विकास से मनुष्यता का विकास करना चाहिए।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रस्तुत पद में देशप्रेम की उत्पत्ति के मूल भावों पर प्रकाश डाला गया है।
  2. भाषा-सरल खड़ी बोली।
  3. शैली-उद्बोधन।
  4. रस–वीर।
  5. छन्द–प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्द।
  6. गुण-ओज।
  7. अलंकार-“करो प्रेम पर प्राण निछावर’ में अनुप्रास तथा रूपका
  8. भावसाम्य-रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने भी कहा है

स्वातन्त्र्य गर्व उनका जो नर फाकों में प्राण गॅवाते हैं ।
पर नहीं बेचमन का प्रकाशरोटी का मोल चुकाते हैं।

काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध

प्रश्न 1.
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त रस का नाम सलक्षण बताइए-
विषुवत्-रेखा का वासी जो,
जीता है नित हाँफ-हाँफ कर।
रखता है अनुराग अलौकिक,
वह भी अपनी मातृभूमि पर ॥
धुववासी जो हिम में तम में,
जी लेता है। काँप-काँप कर।
वह भी अपनी मातृ-भूमि पर,
कर देता है। प्राण निछावर ॥
उत्तर
वीर रस है। इसका लक्षण ‘काव्य-सौन्दर्य के तत्त्व’ के अन्तर्गत देखें।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा अलंकार है ? परिभाषा सहित लिखिए-
(क) निर्भय स्वागत करो मृत्यु का ,
मृत्यु एक है विश्राम-स्थल ।
जीव जहाँ से फिर चलता है ,
धारण कर नव जीवन-संबल ॥
मृत्यु एक सरिता है, जिसमें ,
श्रम से कातर जीव नहाकर ।
फिर नूतन : धारण करता है,
काया-रूपी वस्त्र बहाकर ॥

(ख) तुम तो, हे प्रिय बन्धु, स्वर्ग-सी, सुखद, सकल विभवों की आकर।
धरा-शिरोमणि मातृभूमि में, धन्य हुए हो जीवन पाकर ॥
उत्तर
(क) मृत्यु एक है विश्राम-स्थल तथा ‘मृत्यु एक सरिता है’ में रूपक अलंकार है। रूपक अलंकार में उपमेय में उपमान का निषेधरहित आरोप होता है।

(ख) ‘स्वर्ग-सी सुखद’ में उपमा अलंकार है। उपमा अलंकार में उपमेय और उपमान में स्पष्ट और सुन्दर समानता दिखाई जाती है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित पदों में सनाम समास-विग्रह कीजिए-
अचर, परीक्षा-स्थल, देश-जाति, गिरि-वर, चरण-चिह्न, शत्रुजय |
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 7 रामनरेश त्रिपाठी (काव्य-खण्ड) 1

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