UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 13 गुरुनानकदेवः (गद्य – भारती)

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परिचय

गुरु नानकदेव सभी धर्म-संस्थापकों में सबसे अधिक आधुनिक एवं व्यावहारिक सिद्ध होते हैं। इन्होंने लोगों की सेवा, उद्धार और समानता के लिए सिक्ख धर्म की स्थापना की। आज सिक्ख धर्म के अनुयायी सारे विश्व में फैले हुए हैं और अपने श्रम, ईमानदारी, लगन तथा साहस से सभी को चकित कर रहे हैं। इन्होंने धर्म-साधना हेतु गृह-त्याग के स्थान पर घर में रहकर ही धर्म-पालन का उपदेश दिया। इनके समय में हिन्दू धर्म में जाति-प्रथा और छुआ-छूत का बोलबाला था। नानकदेव को ये दोनों ही प्रथाएँ मानवता के प्रति अपराध लगती थीं, अतः उन्होंने इन्हें दूर करने लिए लंगर’ नाम से एक साथ बैठकर भोजन करने की प्रथा का सूत्रपात्र किया। यह प्रथा आज भी जारी है, जो लोगों में एकता और समानता की भावना जाग्रत करती है।

प्रस्तुत पाठ में गुरु नानकदेव के जीवन-वृत्त के साथ-साथ मानव-सेवा के लिए किये गिये उनके कार्यों का भी उल्लेख किया गया है।

पाठ-सारांश [2006,07,08,09, 12, 13, 14, 15]

जन्म एवं माता-पिता सिक्ख धर्म के आदि संस्थापक गुरु नानक का जन्म पंजाब के तलवण्डी नामक ग्राम में वैशाख शुक्ल तृतीया विक्रम संवत् 1526 में हुआ था। वर्तमान में यह स्थान ननकाना साहेब के नाम से प्रसिद्ध है और पाकिस्तान में है। इनकी माता का नाम तृप्तादेवी और पिता का नाम मेहता कल्याणदास (कालू मेहता) था।

संसार में अनासक्ति गुरु नानक अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे। इनका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार में हुआ था। ये बचपन से ही एकान्त में बैठकर कुछ ध्यान-सा करते दिखाई देते थे। एक बार इन्होंने अपनी पढ़ने की तख्ती पर पढ़ाये जाने वाले पाठ के स्थान पर परमात्मा के माहात्म्य का वर्णन लिख दिया था, जिसे देखकर शिक्षक को अत्यधिक आश्चर्य हुआ। इन्होंने यज्ञोपवीत को अनित्य जानकर धारण नहीं किया था। पिता के द्वारा व्यापार के लिए दिये गये बीस रुपयों को ये भूखे-प्यासे साधुओं को देकर घर लौट आये थे और दान से सन्तुष्ट होकर उसे अपने व्यापार की सबसे बड़ी उपलब्धि मान बैठे थे। इस घटना को सुनकर इनके पिता अत्यधिक चिन्तित हुए। पिता के क्रोध करने पर इनके बहनोई इन्हें अपने साथ सुलतानपुर ले गये। वहाँ के नवाब दौलत खाँ ने इनके स्वभाव और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इन्हें अन्न-भाण्डागार में नियुक्त कर दिया था। वहाँ ये बड़ी ईमानदारी और लगन से अपना कार्य सम्पादित करते थे। उनके यश को सहन न करके राज-कर्मचारी उनके विरुद्ध दौलत खाँ के कान भरते थे, परन्तु दौलत खाँ पर उनका कोई प्रभाव नहीं होता था।

विवाह, नानक सायं समय अपने साथी नवयुवकों के साथ परमात्मा का चिन्तन व कीर्तन करते थे। नानक की संसार से विरक्ति को रोकने के लिए इनके बहनोई जयराम ने इनको 19 वर्ष की आयु में सुलक्खिनी नाम की कन्या के साथ विवाह-बन्धन में बाँध दिया।

परमात्मा के दूत एक बार वे स्नान करने के लिए सेवक को अपने वस्त्र देकर नदी में उतर गये, किन्तु वहाँ से नहीं निकले। सेवक ने समझ लिया कि नानक को किसी जल-जन्तु ने खा लिया है। वापस लौटकर उसने सभी को यह बात बतायी और सभी ने उस पर विश्वास भी कर लिया। तीन दिन बाद जब नानक प्रकट हुए और अपने घर वापस पहुँचे तो इनके मुख पर विद्यमान अतुलनीय तेज को देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गये। नानकदेव ने गाँववासियों को बताया कि उन्हें परमात्मा के दूत पकड़कर परमात्मा के सामने ले गये थे। वहाँ परमात्मा ने उनसे कहा कि उन्हें दुःखियों के दुःखों को दूर करने और परमात्मतत्त्व का उपदेश देने के लिए संसार में भेजा गया है। इसके बाद उन्होंने समस्त परिजनों से विरक्त जीवन व्यतीत करने की अनुमति प्राप्त की और घर छोड़कर चले गये।

भ्रमण एवं पाखण्डोन्मूलन नानक दीनों का उद्धार करने, मानवों में व्याप्त भेदभाव को दूर करने और तीन तापों से सन्तप्त संसार को उपदेशरूपी अमृत से शीतल करने के लिए बीस वर्ष तक सम्पूर्ण देश में भ्रमण करते रहे। इन्होंने धर्म के बाह्याचारों और पाखण्डों का खण्डन किया और धर्म के सच्चे स्वरूप को बताया। इन्होंने दलितों, पतितों, दीनों और दु:खियों के पास जाकर उन्हें उपदेश देकर सान्त्वना दी। ये दीन-दुःखियों का ही आतिथ्य स्वीकार करते थे। भारत में भ्रमण करते हुए इन्होंने देश की दयनीय दशा देखी और देश की उन्नति के लिए श्रम की प्रतिष्ठा, दीनता का त्यागे, अपरिग्रह और सेवादि भावों का प्रसार किया। इन्होंने देश को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया और ‘भारत’ को ‘हिन्दुस्तान’ कहकर पुकारा।

उपदेश अपने विचारों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए ये कर्तारपुर ग्राम में रहने लगे। इन्होंने ज्ञानयोग और कर्मयोग का समन्वय स्थापित किया। निष्काम कर्म, सेवावृत्ति, करुणा, सदाचरण आदि चारित्रिक गुणों को परमात्मा की प्राप्ति का हेतु बताया। यहीं पर इन्होंने लंगर’ नाम की सहभोज प्रथा का प्रचलन किया, जिसमें जाति-पाँति और ऊँच-नीच के भाव को भुलाकर सभी लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यह प्रणाली गुरुद्वारों में आज भी यथापूर्व चल रही है।

मृत्यु गुरु नानक विक्रम संवत् 1596 में सत्तर वर्ष की आयु भोगकर परमात्मतत्त्व में विलीन हो गये। ये लगातार सेवाभाव, प्रेम, राष्ट्रभक्ति, देश की अखण्डता, परमात्मा और करुणा के गीते गाते रहे। इनका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा रहेगा।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
सिक्खधर्मस्याद्यसंस्थापकः गुरुनानकः पञ्जाबप्रदेशे तलवण्डीनाम्नि स्थाने षड्विशत्युत्तरपञ्चादशशततमे वैक्रमे वर्षे वैशाखमासस्य शुक्ले पक्षे तृतीयायान्तिथौ (वै० शु०-3, वि० 1526) क्षत्रियवंशस्य वेदीकुले जन्म लेभे। तस्य जन्मस्थानं ‘ननकानासाहेब’ इति नाम्ना ख्यातमद्यत्वे पाकिस्तानदेशेऽस्ति। अस्य मातुर्नाम तृप्तादेवी, पितुश्च मेहता कल्याणदासः कालूमेहतेति नाम्ना ख्यातः। शब्दार्थ आद्य = पहले। षड्विशत्युत्तरपञ्चदशशततमे = पन्द्रह सौ छब्बीस में। लेभे = प्राप्त किया। अद्यत्वे = आजकल। ख्यातः = प्रसिद्ध।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘गुरुनानक देवः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के जन्म, जन्म-स्थान व माता-पिता के विषय में बताया गया है।

अनुवाद सिक्ख धर्म के प्रथम संस्थापक गुरु नानक ने पंजाब प्रदेश में ‘तलवण्डी’ नामक स्थान पर विक्रम संवत् 1526 में वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को क्षत्रिय वंश के वेदी कुल में जन्में लिया था। उनका जन्म-स्थान ‘ननकाना साहेब’ के नाम से प्रसिद्ध है, जो आजकल पाकिस्तान देश में है। इनकी माता का नाम तृप्तादेवी और पिता का नाम मेहता कल्याणदास था, जो कालू मेहता के नाम से प्रसिद्ध थे।

(2)
गुरुनानकः स्वपित्रोरेक एव पुत्र आसीत्। अतस्तस्य जन्मनाऽऽह्लादातिशयं तावनुभवन्तौ स्नेहाशियेन तस्य लालन पालनं च कृतवन्तौ। बाल्यकालादेव तस्मिन् बालके लोकोत्तराः गुणाः प्रकटिता अभवन्। रहसि एकाकी एवोपविश्य नेत्रे अर्थोन्मील्य किञ्चिद् ध्यातुमिव दृश्यते स्म।।

शब्दार्थ आह्लादातिशयम् = अत्यन्त प्रसन्नता। अनुभवन्तौ = अनुभव करते हुए। रहसि = एकान्त में। उपविश्य = बैठकर अर्थोन्मील्य = आधे खोलकर

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानकदेव के बचपन के विषय में बताया गया है।

अनुवाद गुरु नानक अपने माता-पिता के इकलौते ही पुत्र थे। अत: उनके जन्म से उन दोनों ने अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव करते हुए अत्यन्त स्नेह से उनका लालन-पालन किया। बचपन से ही उस बालक में अलौकिक गुण प्रकट हो गये थे। एकान्त में अकेले ही बैठकर दोनों नेत्रों को आधे खोलकर (ये) कुछ ध्यान करते से दिखाई देते थे।

(3)
यथाकाले पित्रा विद्याध्ययनाय पाठशालायां स प्रेषितः। अन्यैः सहपाठिभिः सह विद्यालये पठन्नेकदा स्वलेखनपट्टिकायां किञ्चिदुल्लिख्य शिक्षकं प्रादर्शयत्। तल्लेखं दृष्ट्वा शिक्षको विस्मितो जातः। पट्टिकायां परमात्मनो माहात्म्यं तेन वर्णितमासीत्। तथैव यज्ञोपवीतसंस्कारावसरे आचार्येण प्रदत्तं कार्पासं यज्ञोपवीतमनित्यमिति प्रतिपादयन् न तज्जग्राह। तस्य पिता कालूमेहता जगत्प्रति तस्याप्रवृत्तिं दृष्ट्वा भूयसा चिन्तितोऽभवत्। वाणिज्यकर्मणि लिप्तस्तत्पिता कथमपि स जगत्कर्मणि प्रवृत्तो भवेदिति प्रायतत। किं च वहिं पत्रजालैर्पिधातुमाचकाङ्क्ष।

शब्दार्थ यथाकाले = ठीक समय पर। पठन्नेकदा = पढ़ते हुए एक बार। स्वलेखनपट्टिकायां = अपने लिखने की तख्ती पर| प्रादर्शयत् = दिखाया। यज्ञोपवीतसंस्कारावसरे = जनेऊ धारण करने के संस्कार के समय कार्पासम् = कपास का। तज्जग्राह = उसे ग्रहण किया। अप्रवृत्तिम् = उदासीनता को। भूयसा = अत्यन्त प्रायतत् = प्रयत्न किया। पिधातुम् = ढकने के लिए। आचकाङ्क्ष = इच्छा की।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक की अलौकिक प्रतिभा के विषय में बताया गया है।

अनुवाद समयानुसार पिता ने विद्या अध्ययन के लिए उन्हें पाठशाला में भेजा। दूसरे साथियों के साथ विद्यालय में पढ़ते हुए (उन्होंने) एक दिन अपनी तख्ती पर कुछ लिखकर शिक्षक को दिखाया। उस लेख को देखकर शिक्षक आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने तख्ती पर परमात्मा के माहात्म्य का वर्णन किया था। उसी प्रकार यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर आचार्य के द्वारा दिया गया कपास का यज्ञोपवीत तो अनित्य है, ऐसा बताते हुए उसे ग्रहण नहीं किया। उनके पिता कालू मेहता संसार के प्रति उनकी अंनासक्ति को देखकर अत्यधिक चिन्तित हुए। व्यापार के कार्य में लगे हुए उनके पिता ने किसी प्रकार भी वह (नानक) संसार के कार्यों में लग जाये, इस प्रकार के प्रयास किये और आग को पत्तों के समूह से ढकने की इच्छा की।

(4)
एकदा तस्य जनकः विंशतिरूप्यकाणि तस्मैं दत्वा वाणिज्यार्थं तं प्रेषितवान्। पथि क्षुत्पिपासादिभिः क्लिश्यमानान् दुर्बलान् क्षीणकायान् साधून् सोऽपश्यत्। तेषां क्लेशातिशयतापसन्तप्तां दशामवलोक्य तस्य हृदयं नवनीतमिव द्रवीभूतं जातम्। ताभिः मुद्राभिरत्नं क्रीत्वा तेभ्यः समर्थ्य परां शान्तिमनुभूयमानः गृहं प्रत्याजगाम। पित्रा लाभाय रूप्यकाणि प्रदत्तानि। मया तु पूर्णलाभः लब्धः। तस्यादेशस्यानुपालनमेव मया कृतामिति सोऽचिन्तयत्।।

शब्दार्थ क्षुत्पिपासादिभि: क्लिश्यमानान् = भूख-प्यास आदि से क्लेश पाये हुए। क्षीणकायान् = दुर्बल शरीर वालों को। क्लेशातिशयतापसन्तप्तां = क्लेश की अधिकता के दुःख से व्याकुल। नवनीतमिव = मक्खन की भाँति। अनुभूयमानः = अनुभव करते हुए प्रत्याजगाम = वापस आ गये। लब्धः = प्राप्त किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नानकदेव की दोनों की सहायता करने की प्रवृत्ति को दर्शाया गया है।

अनुवाद एक दिन उनके पिता ने उन्हें बीस रुपये देकर व्यापार करने के लिए भेजा। उन्होंने मार्ग में भूख-प्यास आदि से दुःखी, दुर्बल शरीर वाले साधुओं को देखा। उनके कष्ट (दु:ख) की अधिकता से दुःखी दशा को देखकर उनका हृदय मक्खन के समान पिघल गया। उन रुपयों से अन्न खरीदकर उन्हें देकर अत्यधिक शान्ति का अनुभव करते हुए (वे) घर लौट आये। पिता ने लाभ के लिए रुपये दिये। मैंने तो पूर्ण लाभ प्राप्त कर लिया। मैंने उनके आदेश का पालन ही किया है, ऐसा उन्होंने सोचा।

(5)
पिता तस्य तद्वृत्तं संश्रुत्य खिद्यमानः भृशं चुकोप। तदानीमेव नानकस्य भगिनीपतिः जयराम आगतः। तदखिलमुदन्तं ज्ञात्वा तं स्वनगरं सुलतानपुरमनयत्। तत्रत्यः शासकः नवाबदौलतखाँ युवकनानकस्य व्यवहारकौशलेन शीलेन मधुरया वाचा सन्तुष्टः सन् तं स्वान्नभाण्डागारे नियुक्तवान्। स्वनिस्पृहवृत्या, श्रमेण, कर्मणा च नानकः स्वस्वामिनं दौलतखाँमहाशयं तुतोष।

पिता तस्य तद्वृत्तं ……………………………………… भाण्डागारे नियुक्तवान्।

शब्दार्थ तद्वृत्तं = उस बात को। संश्रुत्य = सुनकर। खिद्यमानः = खिन्न होते हुए। भृशम् = अत्यधिक चुकोप = कुपित हुए। भगिनीपतिः = बहनोई। उदन्तम् = समाचार को। तत्रत्यः = वहाँ का। स्वान्नभाण्डागारे = अपने अनाज के भण्डार में। निस्पृहवृत्या = निर्लोभ स्वभाव से। तुतोष = सन्तुष्ट किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नानक को सुलतानपुर के नवाब द्वारा अपने अन्न भाण्डागार में नियुक्त किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद उनके पिता उस समाचार को सुनकर दुःखी होते हुए बहुत क्रुद्ध हुए। उसी समय नानक के बहनोई जयराम आ गये। उस समस्त समाचार को जानकर उसे (नानक को) अपने नगर सुलतानपुर ले गये। वहाँ के शासक नवाब दौलत खाँ ने युवक नानक के व्यवहार की कुशलता, शील और मधुर वाणी से सन्तुष्ट होते हुए उन्हें अपने अन्न के भाण्डागार पर नियुक्त कर दिया। अपने नि:स्वार्थ व्यवहार से, परिश्रम से और कार्य से नानक ने अपने स्वामी दौलत खाँ को सन्तुष्ट कर दिया।

(6) नानकः तेन समादृतो जातः। तद्यशोऽसहमानैः बहुभिः दोषादिक्षुभिः राजपुरुषैः कर्णेजपैः बोधितोऽपि दौलतखाँमहाशयः नानके दोषं नाऽपश्यत्। महत्सु दोषदर्शनं राजकुलस्य सहजा रीतिः। आदिवस स्वकार्य सम्पादयन्नसौ सन्ध्याकालेऽन्यैः युवकैः सह एकत्रोपविश्य परमात्मचिन्तनं तन्नामकीर्तनञ्च करोति स्म। दानादिकं च तस्य कर्म तत्रापि सातत्येन चलति स्म।

शब्दार्थ तद्यशोऽसहमानैः = उनका यश सहन करने वालों ने। दोषादिदृक्षुभिः = दोषों को देखने वालों की इच्छा रखने वालों से। कर्णेजपैः = चुगलखोरों से, कान भरने वालों से। आदिवसैः = सारे दिन। एकत्र उपविश्य = एक स्थान पर बैठकर। सातत्येन = नियमित रूप से, निरन्तर

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के द्वारा दौलत खाँ के यहाँ सेवा-वृत्ति किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद नानक ने उनसे (अपने स्वामी से) अत्यधिक आदर प्राप्त किया। उनके यश को सहन न करने वाले, दोषों को देखने की इच्छा रखने वाले बहुत-से चुगलखोर राजकर्मचारियों के द्वारा बहकाये जाने पर भी दौलत खाँ ने नानक में दोष नहीं देखा।-महान् पुरुषों में दोष निकालना राजकुल का स्वाभाविक रिवाज है। दिनभर अपने कार्य को पूरा करते हुए वे शाम के समय दूसरे युवकों के साथ एक जगह बैठकर परमात्मा का चिन्तन और उसके नाम का कीर्तन करते थे। उनका दान आदि का काम वहाँ भी लगातार चलता रहता था।

(7)
युवकस्य नानकस्य तथाविधां प्रवृत्तिमवेक्ष्य तस्य भगिनीपतिः जयरामः चिन्तितः सन् विवाहबन्धनेन तस्य तां प्रवृत्तिं नियन्तुमियेष। ऊनविंशवर्षे वयसि गुरुदासपुरमण्डलान्तर्गतबहालाग्रामनिवासिनः बाबामूलामहोदयस्य सुलक्षणया ‘सुलक्खिनी’ नाम्न्या कन्यया सह तस्योद्धाहो जातः।।

शब्दार्थ अवेक्ष्य = देखकर। नियन्तुमियेष = रोकने की इच्छा की। ऊनविंश = उन्नीस। तस्य = उनका। उद्वाहः = विवाह। जातः = हो गया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नानक के विवाहित होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद युवक नानक की उस प्रकार की प्रवृत्ति को देखकर उनके बहनोई जयराम ने चिन्तित होते हुए विवाह के बन्धन से उनकी उस प्रवृत्ति को रोकने की इच्छा की। उन्नीस वर्ष की आयु में गुरुदासपुर जिले के “बहाला’ ग्राम के रहने वाले बाबामूला की गुणवती ‘सुलक्खिनी’ नाम की कन्या के साथ उनका विवाह हो गया।

(8)
एकदा सः स्नानाय नदीं प्रति सेवकेनैकेन सह प्रस्थितः। स्ववस्त्रादीनि सेवकाय समर्थ्य सः नद्यामवतीर्णः। बहुकाले व्यतीते स न निष्क्रान्तस्तदा तस्य सेवकः तं नद्यां निमग्नमित्यनुमाय गृहं प्रतिनिवृत्य वृत्तमिदं सर्वानश्रावयत्। सर्वे विस्मिताः तद्विरहतापसन्तप्ताः परं का गतिरिति चिन्तयन्तो सर्वथा स्तब्धाः जाताः। तस्य भगिनी ‘नानकी’ तुन विश्वसिति स्म। संसारसागराज्जनानुद्धर्तुं जगति यस्य जनिः कथं वा नदीजले निमग्नो भवेदिति तस्याः दृढो विश्वासः आसीत्।। [2015]

एकदा सः स्नानाय ……………………………………… विश्वसिति स्म। [2010]

शब्दार्थ सेवकेनैकेन सह = एक सेवक के साथ प्रस्थितः = गया| अवतीर्णः = उतर गया। निमग्नमित्यनुमाय = डूब गये, ऐसा अनुमान करके प्रतिनिवृत्य = लौटकर वृत्तमिदं = यह समाचार। सर्वानावयत् = सभी को सुनाया। स्तब्धाः = अवाक् विश्वसिति स्म = विश्वास किया। उद्धर्तुं = उद्धार करने के लिए। जनिः = जन्म)

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के जीवन से सम्बन्धित उस घटना का वर्णन किया गया है, जिसमें वे नदी में विलुप्त हो गये थे।

अनुवाद एक बार वे (नानक) स्नान करने के लिए एक सेवक के साथ नदी की ओर गये। अपने वस्त्र
आदि सेवक को देकर वे नदी में उतर पड़े। बहुत समय बीतने पर जब वे नहीं लौटे, तब उनके सेवक ने उन्हें ‘नदी में डूब गये ऐसा अनुमान करके, घर लौटकर, सबको यह समाचार सुनाया। सब विस्मित होकर उनके विरह के दु:ख से दुःखी हुए, परन्तु क्या किया जाए, ऐसा सोचते हुए सभी तरह से अवाक् रह गये। उनकी बहन नानकी ने तो विश्वास नहीं किया। संसार-सागर से लोगों का उद्धार करने के लिए संसार में जिसका जन्म हुआ, वह कैसे नदी के जल में डूब जाएगा, ऐसा उसका दृढ़ विश्वास था।

(9)
दिनत्रयानन्तरं नानकः प्रकटितोऽभूत्। परमाह्लादिताः जनाः ज्योतिषा देदीप्यमानं तस्य मुखमण्डलं दर्श दर्श विस्मिता अभूवन्। मनसो बुद्धेरगोचरं किञ्चिद् दिव्यत्वं तस्मिन् प्रतिष्ठितमिति सर्वेऽन्वभवन्। तस्य मुखादेव दिनत्रयानुपस्थितिरहस्यं जना अशृण्वन्। नदीजले निमग्नं तं परमात्मनो दूताः परमात्मनः समीपमनयन्। जगतः विधाता तस्मैऽमृतोपदेशं प्रादात्। दुःखदैन्यतप्तानां क्लेशान् अपहर्तुं सदुपदेशेन परमात्मतत्त्वं सत्स्वरूपं च व्याख्यातुं जगति पुनः तस्यादेशात् आगतः इति तेनोक्तम्। भक्तः नानकः गुरुः जातः।

शब्दार्थ ज्योतिषा= प्रकाश से। देदीप्यमानं = चमकते हुए। दर्श-दर्शी = देख-देखकर। सर्वेऽन्वभवन् = सभी ने अनुभव किया। अशृण्वन् = सुना। अमृतोऽपदेशं = अमरता का उपदेश। अपहर्तुम् = दूर करने के लिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नानक के नदी में विलुप्त होकर वापस लौट आने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद तीन दिन के बाद नानक प्रकट हुए। अत्यन्त प्रसन्न होकर लोग अत्यधिक तेज से प्रकाशमान् उनके मुखमण्डल को देख-देखकर आश्चर्यचकित हो गये। मन और बुद्धि से न जाना जा सकने वाला कुछ दिव्यत्व उनमें स्थित है, ऐसा सभी ने अनुभव किया। उनके मुख से ही तीन दिन तक की अनुपस्थिति का रहस्य लोगों ने सुना। नदी के जल में डूबे हुए उन्हें परमात्मा के दूत परमात्मा के पास ले गये थे। संसार के विधाता ने उन्हें अमरता का उपदेश दिया। दु:ख और दीनता से दु:खी लोगों के कष्टों को दूर करने के लिए, सुन्दर उपदेश द्वारा परमात्म तत्त्व और सत् स्वरूप की व्याख्या करने के लिए संसार में पुनः उनके आदेश से आया हूँ, ऐसा उन्होंने कहा। भक्त नानक गुरु हो गये।

(10)
लोकरक्षायै दीनानामुद्धाराय मानवजातिषु जातान् वर्णजातिधर्मरूपान् भेदान् अपनेतुं सर्वेषु साम्यं प्रतिष्ठापयितुं त्रिविधतापसन्तप्तं लोकममृतोपदेशेन शीतलयितुं गुरुर्नानकः भारतभ्रमणाय मतिं चकार। स्वमातापितरौ स्वपत्नीं स्वसुतौ स्वभगिनीं नानकीं स्वमित्राणि चे साधु समाश्वास्य स सुलतानपुरनगरान्निर्जगाम। नगरान्नगरं ग्रामोद् ग्राममटन धर्मस्य बाह्याचारानाडम्बरभूतान् व्यापारान् विखण्डयन् धर्मस्य सत्स्वरूपं स्थापयन् सर्वस्मिन् तदेकमिति प्रतिपादितवान्।

शब्दार्थ अपनेतुम् = दूर करने के लिए, मिटाने के लिए। प्रतिष्ठापयितुं = स्थापित करने के लिए। सन्तप्तं = पीड़िता अमृतोपदेशेन = अमृत के समान उपदेश से। शीतलयितुं = शीतल करने के लिए। मतिं चकार = विचार किया। समाश्वास्य = आश्वासन देकर। निर्जगाम = निकल पड़े। अटन् = घूमते हुए। व्यापारान् = गतिविधियों को। विखण्डयन् = खण्डित करते हुए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक द्वारा देश का भ्रमण करने एवं पाखण्ड के उन्मूलन के लिए किये गये अथक प्रयासों का वर्णन है।

अनुवाद लोकरक्षा के लिए, दोनों का उद्धार करने के लिए, मानव-जातियों में उत्पन्न वर्ण, जाति, धर्म के भेदों को दूर करने के लिए, सबमें स्थापित करने के लिए, तीन प्रकार के (दैहिक, दैविक, भौतिक) तापों से पीड़ित संसार को अमृत के समान उपदेश से शीतल करने के लिए गुरु नानक ने भारत में भ्रमण करने हेतु विचार किया। अपने माता-पिता, अपनी पत्नी, अपने दोनों पुत्रों, अपनी बहन नानकी और अपने मित्रों को अच्छी तरह धैर्य देकर सुलतानपुर नगर से निकल पड़े। नगर से नगर में, एक गाँव से दूसरे गाँव में भ्रमण करते हुए धर्म के बाहरी आचरणों, आडम्बरस्वरूप कार्यों को खण्डन करते हुए, धर्म के सच्चे स्वरूप की स्थापना करते हुए ‘सबमें वह एक (ईश्वर) है ऐसा बताया।

(11)
“नेह नानास्ति किञ्चन्” इति जनान् सम्यक् बोधयन् जातिवर्णधर्मजनितोच्चावचभेदानपनयन् देशस्योत्तरदक्षिण-पूर्व-पश्चिमभागानां भ्रमणमसौ कृतवान्। सर्वत्र दलितानां पतितानां अपहृताधिकाराणां दैन्यग्रस्तानां दुःखतप्तहृदयानां जनानामन्तिकं गत्वा स्वप्रेम्णा मधुरया वाचा अमृतोपदेशेन च तान् सान्त्वयामास। भ्रमणकाले दुःखदैन्यग्रस्तानामुपेक्षितानामेवातिथ्यं तेनाङ्गीकृतम्। परपरिश्रमेणार्जितधनेन जनाः धनिनो जायन्ते; अतः ऐश्वर्यवतो निमन्त्रणमपि तस्मै न रोचते स्म। स्वश्रमेणोपार्जिते वित्ते विद्यमाना पवित्रता परपरिश्रमार्जितवित्ते कुत्र इति श्रमं प्रति प्रशस्यभावः तेनोदाहृतः।

शब्दार्थ नेह नानास्ति किञ्चन = यहाँ कुछ भी अनेक नहीं है, अर्थात् एकमात्र परमात्मा ही सब कुछ है। सम्यक् = भली-भाँति बोधयन् = समझाते हुए उच्चावचभेदान् = ऊँचे-नीचे भेदों को। अपनयन् = दूर करते हुए। अपहृताधिकाराणां = अधिकार छीने हुए लोगों का। अन्तिकम् = पास| सान्त्वयामास = धीरज बँधाया। आतिथ्यम् = अतिथि-सत्कार। अङ्गीकृतम् = स्वीकार किया। उपार्जिते वित्ते = कमाये हुए धन में। कुत्र = कहाँ। इति = इस प्रकार प्रशस्यभावः = प्रशंसनीय भाव। उदाहृतः = प्रकट किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के उच्च विचारों तथा उनके द्वारा किये गये धर्म-प्रचार का वर्णन किया गया है।

अनुवाद “इस संसार में उसके (ईश्वर) के बिना कुछ नहीं है, ऐसा लोगों को भली-भाँति समझाते हुए, जाति-धर्म-वर्ण से उत्पन्न ऊँच-नीच के भेदों को दूर करते हुए उन्होंने देश के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम भागों का भ्रमण किया। सब जगह दलितों, पतितों, अधिकार छिने, दीनों, दुःख से पीड़ित हृदय वाले लोगों के पास जाकर, अपने प्रेम से, मधुर वाणी से और अमृत के समान मीठे उपदेशों से उन्हें सान्त्वना दी। भ्रमण के समय उन्होंने दु:खियों, दीनों और उपेक्षितों के ही आतिथ्य को स्वीकार किया। दूसरों के परिश्रम से कमाये गये धन से लोग धनवान हो जाते हैं; अतः वैभवशालियों का निमन्त्रण भी उन्हें अच्छा नहीं लगता था। “अपने श्रम से उपार्जित धन में विद्यमाने पवित्रता दूसरों के श्रम से अर्जित धन में कहाँ है। इस प्रकार श्रम के प्रति उन्होंने श्रेष्ठता को प्रकट किया।

(12)
विंशतिवर्षं यावद् तेन समग्रदेशस्य भ्रमणं कृतम्। भ्रमता तेन देशस्य चिन्तनीया दशा दृष्टा। देशचिन्ताचिन्तितः स देशस्योन्नत्यै श्रमस्य प्रतिष्ठां, दैन्यपरित्यागमपरिग्रहं, सेवाभावादि भावान् प्रसारयामास। समग्रदेशमेकसूत्रे आबद्धं प्रयतमानः स प्रथम भारतीयो महापुरुषः आसीत्। यवनशासकैः कृतानत्याचारान् वीक्ष्य भृशं खिद्यमानः परमात्मानमुपालम्भितवान्। तेनैव महात्मना भारतं ‘हिन्दुस्तान इति नाम्ना सम्बोधितवान्। [2007, 13]

शब्दार्थ समग्रदेशस्य = सम्पूर्ण देश का। चिन्तनीया = शोचनीया दृष्टा = देखी। प्रसारयामास = प्रसारित किया। आबद्धम् = बाँधने के लिए। प्रयतमानः = प्रयत्न करता हुआ। कृतानत्याचारान् = किये हुए अत्याचारों को। वीक्ष्य = देखकर। खिद्यमानः = दुःखी होते हुए। उपालम्भितवान् = उलाहना दिया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के देश-प्रेम सम्बन्धी विचारों तथा कार्यों का उल्लेख किया गया है।

अनुवाद बीस वर्ष तक उन्होंने सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया। भ्रमण करते हुए उन्होंने देश की चिन्ता के योग्य दशा देखी। देश की चिन्ता से चिन्तित उन्होंने देश की उन्नति के लिए श्रम की स्थापना, दीनता का त्याग, अपरिग्रह, सेवाभाव आदि भावों का प्रसार किया। सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में बाँधने के लिए प्रयत्न करने वाले वे भारत के प्रथम महापुरुष थे। यवन शासकों के द्वारा किये गिये अत्याचारों को देखकर अत्यन्त दु:खी होते हुए उन्होंने ईश्वर को उलाहना दिया। उसी महात्मा ने भारत को ‘हिन्दुस्तान’ नाम से सम्बोधित किया।

(13) अथ स स्वविचारान् यथातथ्ये परिणेतुं पजाबप्रदेशे कर्तारपुरे स्ववसतिं चकार। स्वानुयायिभिः सह कृषिक्षेत्रे कृषिकर्म कुर्वन् वृद्धपितेव तेषु स्थितः परमात्मतत्त्वं चिन्तयन् विदेह इव सुस्थिरं स्थितः। गुरुणा नानकेन ज्ञानयोगस्य कर्मयोगस्य चादभूतं सामञ्जस्यं स्थापितम्। निष्काम-कर्मणा सेवावृत्या करुणया सच्छीलेन च गुणैः सच्चारित्र्यस्य सृष्टिर्जायते। सच्चारित्र्यमेव परमात्मनो प्राप्तिहेतुरिति तेन प्रतिपादितम्। तत्रैवासौ लंगर’ इति नाम्नीं सहभोजप्रथां प्रारब्धवान्। तत्र स्वेन निर्मितं भोजनमाबालवृद्धं नराः नार्यः जातिधर्मवर्णनिर्विशेषाः सर्वेषु सहैवोपविश्य भुञ्जते स्म। एषा प्रथाऽधुनापि गुरुद्वारेषु प्रचलिता दृश्यते।

अर्थ स स्वविचारान ……………………………………… सामञ्जस्यं स्थापितम्। [2008]
अथ स स्वविचारान ……………………………………… भुजते स्म। [2012]

शब्दार्थ यथातथ्ये परिणेतुम् = वास्तविक रूप में परिणत करने के लिए। स्ववसतिम् = अपना निवास। कृषिक्षेत्रे = खेत में। वृद्धपितेव = बूढे पिता के समान विदेह इवे = राजा जनक के समान। सामञ्जस्यम् = तालमेल, समन्वय सेवावृत्या = सेवा-कार्य के द्वारा। सच्छीलेन (सत् + शीलेन) = उत्तम स्वभाव के द्वारा। सृष्टिर्जायते = निर्माण होता है। तत्रैवासौ (तत्र + एव + असौ) = वहीं पर इन्होंने। सहभोजप्रथाम् = एक साथ भोजन करने की प्रथा को। जातिधर्मवर्णनिर्विशेषाः = जाति, धर्म और वर्ण की विशेषता से रंहिता सह एव उपविश्य = साथ ही बैठकर

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानकदेव द्वारा किये गये व्यावहारिक कार्यों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इसके पश्चात् उन्होंने अपने विचारों को यथार्थ रूप में परिणत करने के लिए पंजाब प्रदेश में कर्तारपुर में अपना निवास बनाया। अपने अनुयायियों के साथ खेत में खेती करते हुए वृद्ध पिता के समान वे उनके मध्य बैठे हुए परमात्म-तत्त्व का चिन्तन करते हुए विदेह (राजा जनक) के समान स्थिर रहते थे। गुरु नानक के द्वारा ज्ञानयोग का और कर्मयोग का अद्भुत समन्वय स्थापित किया गया। निष्काम कर्म से, सेवा व्यवहार से, करुणा से, अच्छे आचरण से और गुणों से अच्छे चरित्र की सृष्टि हो जाती है। उत्तम चरित्र ही परमात्मा की प्राप्ति का साधन है, ऐसा उन्होंने बताया। वहीं पर इन्होंने ‘लंगर’ नाम से साथ भोजन करने की प्रथा को प्रारम्भ किया। उसमें स्वयं द्वारा निर्मित भोजन को बच्चों से लेकर बूढ़ों तक स्त्री-पुरुष, जाति-धर्म-वर्ण के भेदभाव के बिना सब एक साथ बैठकर खाते थे। यह प्रथा आज भी गुरुद्वारों में प्रचलित दिखाई देती है।

(14)
षण्णवत्युत्तरपञ्चदशशततमे वैक्रमे वर्षे आश्विनमासस्य कृष्णपक्षे दशम्यान्तिौ (आO कृ० 10, वि० 1516) गुरोरात्मतत्त्वं परमात्मतत्त्वे विलीनम्। गुरुः सप्ततिवर्षं यावद् धरामलङकुर्वाणः सेवाभावस्य, परस्परं प्रेम्णः, राष्ट्रभक्तेः, देशानुरागस्य, देशस्याखण्डतायाः परमात्मनः करुणायाश्च गीतं जिगाय। गुरुनानकोऽस्माकमितिहासपृष्ठेषु स्वर्णाक्षरैरङ्कितः सदा स्थास्यति।।

शब्दार्थ षण्णवति = छियानबे। गुरोरात्मतत्त्वम् = गुरु का आत्मतत्त्व। सप्ततिवर्ष = सत्तर वर्ष तका जिगाय = गाया। स्थास्यति = स्थायी रहेंगे।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के परलोकवास एवं उनकी अमरता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद विक्रम संवत् 1596 में आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को गुरु का आत्मतत्त्व परमात्मतत्त्व में विलीन हो गया। गुरु ने सत्तर वर्ष तक पृथ्वी को सुशोभित करते हुए, सेवा-भावना, परस्पर प्रेम, राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम, देश की अखण्डता और परमात्मा की करुणा के गीत गाये। गुरु नानक हमारे इतिहास के पृष्ठों में सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेंगे।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव का परिचय दीजिए। [2007]
या
गुरु नानक का जन्म कहाँ हुआ था और उनके माता-पिता का क्या नाम था? [2006,11,15]
या

सिक्ख धर्म के आदि संस्थापक का नाम लिखिए। [2013]
उत्तर :
सिक्ख धर्म के आदि संस्थापक गुरु नानक का जन्म पंजाब के तलवण्डी (ननकाना साहब, पाकिस्तान) नामक ग्राम में विक्रम संवत् 1526 में हुआ था। इनकी माता का नाम तृप्ता देवी और पिता का नाम मेहता कल्याणदास था। दोनों का उद्धार करने, मानवों में व्याप्त भेदभाव को दूर करने और तीनों तापों से सन्तप्त संसार को उपदेशरूपी अमृत से शीतल करने के लिए माता-पिता, पत्नी-पुत्र, बहन और मित्रों को छोड़कर ये भ्रमण के लिए घर से निकल पड़े। इन्होंने धर्म के बाह्याचारों और पाखण्डों का खण्डन किया और धर्म के सच्चे स्वरूप को बताया। इन्होंने दलितों, पतितों, दीनों और दु:खियों को उपदेश देकर सान्त्वना प्रदान की। इन्होंने ही भारत को ‘हिन्दुस्तान’ कहकर पुकारा और पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया।

प्रश्न 2.
लंगर-प्रणाली क्या है? इसका प्रारम्भ किसने किया?
उत्तर :
बीस वर्षों तक भ्रमण करने के उपरान्त गुरु नानक पंजाब के कर्तारपुर नामक स्थान पर स्थायी रूप से रहने लगे। यहीं पर इन्होंने लंगर’ नाम से एक साथ भोजन करने की प्रथा को प्रारम्भ किया। इस प्रथा में स्वयं द्वारा निर्मित भोजन को बच्चों से लेकर वृद्धों तक सभी स्त्री-पुरुष जाति-धर्म-वर्ण के भेदभाव के बिना साथ बैठकर ग्रहण करते हैं। गुरुद्वारों में यह प्रथा आज भी प्रचलित है।

प्रश्न 3.
गुरु नानकदेव का ईश्वर से साक्षात्कार किस प्रकार हुआ? विस्तार सहित लिखिए।
या
नानकदेव के नदी में डूबने और वापस आकर परमात्म-तत्त्व-प्राप्ति तक की घटना का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
एक बार गुरु नानकदेव नदी में स्नान करने के लिए एक सेवक के साथ गये। अपने वस्त्रों को सेवक को सौंपकर वे नदी में उतर गये। बहुत समय तक वे जल से बाहर नहीं आये। उनके सेवक ने उन्हें नदी में डूबा हुआ मान लिया और सभी को यह बात बतायी। तीन दिन बाद गुरु नानकदेव पुनः प्रकट हुए। लोगों ने गुरु नानक के मुख पर दिव्यत्व का ऐसा अद्भुत प्रकाश देखा, जो मन एवं बुद्धि से अगम्य एवं अगोचर था। नानक ने उन्हें तीन दिन तक अनुपस्थित रहने का रहस्य सुनाया। उन्होंने बताया कि परमात्मा का दूत उन्हें परमात्मा के पास ले गया था। परमात्मा ने उन्हें अमरत्व का उपदेश देने के साथ-साथ दुःखियों और दोनों के सन्ताप को दूर करने के लिए भी कहा। इसीलिए वे परमात्मा के आदेश से उसके सत्-स्वरूप की व्याख्या करने के लिए दुबारा संसार में आये हैं।

प्रश्न 4.
गुरु नानकदेव के मुख्य उपदेश बताइए। [2011]
या
गुरु नानक ने किन बातों में समन्वय स्थापित किया? [2009]
उत्तर :
गुरु नानकदेव के मुख्य उपदेश निम्नलिखित हैं

  • जाति-धर्म-वर्ण से उत्पन्न ऊँच-नीच के भेदभाव को दूर करना चाहिए।
  • भारत के पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भाग एक हैं। इनके निवासियों में कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए।
  • दलितों, पतितों, अधिकार छिने लोगों, दीनों, दु:ख से पीड़ित हृदय वालों और उपेक्षितों को सान्त्वना देनी चाहिए, उनको सम्मान प्रदान करना चाहिए और उनका आतिथ्य भी स्वीकार करना चाहिए।
  • ‘श्रम से उपार्जित धन पवित्र और श्रेष्ठ है, इस भावना की प्रतिष्ठा करनी चाहिए।

प्रश्न 5.
गुरु नानक का विवाह किसके साथ हुआ था? [2006,08,09]
उत्तर :
गुरु नानक का विवाह सुलक्खिनी नाम की कन्या के साथ हुआ था।

प्रश्न 6.
नानक ने बाल्यकाल में कौन-सा सौदा किया?
उत्तर :
एक बार नानक के पिता ने इनको बीस रुपये व्यापार करने के लिए दिये। इन्होंने उन रुपयों से अन्न खरीदकर मार्ग में मिले दीन-दुःखियों में बाँट दिये। इस दान के परिणामस्वरूप मिले सन्तोष को इन्होंने अपने व्यापार की सबसे बड़ी उपलब्धि मान लिया। नानक ने बाल्यकाल में यही सौदा (व्यापार) किया था।

प्रश्न 7.
 नानक देव की बहन का क्या नाम था? [2007, 14]
उत्तर :
नानक देव की बहन का नाम ‘नानकी’ था।

प्रश्न 8.
“दोषदर्शनं राजकुलस्य सहजा रीतिः” का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
राजकुल की यह सबसे साधारण परम्परा है कि वह हर किसी में दोष निकाल देता है, चाहे उसमें दोष हो अथवा नहीं। लेकिन गुरु नानक में मुगल दौलत खाँ ने कोई दोष नहीं देखा, जब कि उनकी सभा के अन्य लोगों ने गुरुनानक के विषय में अनेक शिकायतें की थीं। कहने का आशय यह है कि जब सभी में दोष निकालने वाले राजकुल के लोगों के द्वारा दिखाये जाने पर भी जब राजा को गुरुनानक में कोई दोष दिखाई नहीं दिया तो इससे यह बात स्वत: प्रमाणित हो जाती है कि गुरु नानक का चरित्र निष्कलंक और अत्यधिक पवित्र था।

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