UP Board Class 10 Home Science Model Paper 1

UP Board Class 10 Model Paper 1 Home Science

समय : 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 70

निर्देश :
प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
सामान्य निर्देश :

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • प्रश्न-पत्र में बहुविकल्पीय, अतिलघु उत्तरीय, लघु उत्तरीय और दीर्घ उत्तरीय चार प्रकार के प्रश्न हैं। उनके उत्तर हेतु निर्देश प्रत्येक प्रकार के प्रश्न के पहले दिए गए हैं।

निर्देश :
प्रश्न संख्या 1 तथा 2 बहुविकल्पीय हैं। निम्नलिखित प्रश्नों में प्रत्येक के चार-चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। उनमें से सही विकल्प चुनकर उन्हें
क्रमवार अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए।

प्रश्न 1.
(क) बी सी जी का टीका किस रोग की रोकथाम के लिए लगाया जाता है?  [ 1 ]
1. कर्णफेर
2. तपेदिक
3. मलेरिया
4. पोलियो

(ख) गोंद के कलफ का प्रयोग किन कपड़ों पर किया जाता है? [ 1 ]
1. ऊनी वस्त्रों पर
2. रेशमी वस्त्रों पर
3. सूती वस्त्रों पर
4. रंगीन वस्त्रों पर

(ग) रिंग कुशन का प्रयोग कब किया जाता है?  [ 1 ]
1. सर्दी लगने पर
2. हैजा होने पर
3. मोच आने पर
4. शैय्या घाव होने पर

(घ) दूध मापने की इकाई क्या है?  [ 1 ]
1. मिलीलीटर, लीटर
2. किलोग्राम, ग्राम
3. सेण्टीमीटर, मीटर
4. इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 2.
(क) ‘वरिष्ठ नागरिक जमा योजना’ खाता खोला जाता है। [ 1 ]
1. 60 वर्ष के उपरान्त
2. 69 वर्ष के पूर्व
3. 50 वर्ष से पूर्व
4. 21 वर्ष के बाद

(ख) अचल जोड़ कहाँ पाया जाता है? [ 1 ]
1. कोहनी
2. खोपड़ी
3. घुटने
4. कलाई

(ग) गर्म पानी की बोतल का प्रयोग किया जाता है। [ 1 ]
1. पेट दर्द में
2. मोच आने पर
3. घाव में
4. इनमें से कोई नहीं

(घ) लौह-तत्त्व की कमी से कौन-सा रोग हो जाता है? [ 1 ]
1. बेरी-बेरी
2. मरास्मस
3. एनीमिया
4. तपेदिक

निर्देश :
प्रश्न संख्या 3 तथा 4 अतिलघु उत्तरीय हैं। प्रत्येक खण्ड का उत्तर अधिकतम 25 शब्दों में लिखिए।

प्रश्न 3.
(क) हैजा रोग किस जीवाणु से फैलता है। इसके बचाव के कोई दो उपाय लिखिए। [ 2 ]
(ख) राम ने एक दर्जन केला ₹ 10 में खरीदा तथा ₹ 12 में बेचा। बताइए। क उसे कितने प्रतिशत लाभ हुआ? [ 2 ]
(ग) बजट सम्बन्धी एंजिल का सिद्धान्त क्या है? [ 2 ]
(घ) शुद्ध जल का क्या आवश्यक गुण है? [ 2 ]
(ङ) कब्ज के रोगी के आहार में मुख्यतया किन भोज्य पदार्थों का समावेश होना चाहिए? [ 2 ]

प्रश्न 4.
(क) ओवन क्या है? इसकी देखभाल आप कैसे करेंगी। [ 2 ]
(ख) कपड़े पर निशान लगाने के लिए किस चॉक का प्रयोग करते हैं और क्यों? [ 2 ]
(ग) वस्त्र की ड्राफ्टिंग करने से क्या लाभ होता है? [ 2 ]
(घ) पाक क्रिया के मुख्य उद्देश्य क्या हैं? [ 2 ]
(ङ) कंकाल तन्त्र की क्या उपयोगिता है? [ 2 ]

निर्देश :
प्रश्न संख्या 5 से 7 तक लघु उत्तरीय हैं, इसके प्रत्येक खण्ड का उत्तर 50 शब्दों के अन्तर्गत लिखिए।

प्रश्न 5.
(क) बैंक के बचत खाते तथा चालू खाते में क्या अन्तर है? [ 2 + 2 ]
अथवा
पारिवारिक बजट बनाने के लाभों का उल्लेख कीजिए। [ 4 ]

(ख) अधिक धन के खर्च के बिना घर की सजावट कैसे कर सकते हैं? उल्लेख कीजिए। [ 2 + 2 ]
अथवा
गृह सज्जा में लकड़ी के फर्नीचर की देखभाल एवं सफाई के बारे में लिखिए। [ 4 ]

प्रश्न 6.
(क) गृह-गणित का ज्ञान होना गृहिणी के लिए क्यों आवश्यक है? [ 2 + 2 ]
अथवा
शुद्ध एवं अशुद्ध जल में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [ 2 + 2 ]

(ख) पेचिश तथा अतिसार में क्या अन्तर है? [ 2 + 2 ]
अथवा
पर्यावरण संरक्षण के लिए जनता को कैसे जागरूक किया जा सकता है? [ 2 + 2 ]

प्रश्न 7.
(क) पर्यावरण प्रदूषण जनजीवन को कैसे प्रभावित करता है? [ 2 + 2 ]
अथवा
रोग-प्रतिरोधक क्षमता से क्या तात्पर्य है? रोग-प्रतिरक्षा के प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [ 2 + 2 ]

(ख) ऊनी एवं रेशमी वस्त्रों का रख-रखाव एवं सुरक्षा आप किस प्रकार करेगी। [ 2 + 2 ]
अथवा
“प्रत्येक गृहिणी के लिए सिलाई कला का ज्ञान आवश्यक है।” स्पष्ट कीजिए। [ 2 + 2 ]

निर्देश :
प्रश्न संख्या 8 से 10 दीर्घ उतरीय हैं। प्रश्न संख्या 8 एवं 9 में विकल्प दिए गए हैं। प्रत्येक प्रश्न के एक ही विकल्प का उत्तर लिखना है। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर 100 शब्दों के अन्तर्गत लिखिए।

प्रश्न 8.
घर में रसोईघर का क्या महत्त्व है? रसोईघर की व्यवस्था का वर्णन कीजिए। [ 2 + 2 + 2 ]
अथवा
सेक से क्या तात्पर्य हैं? यह कितने प्रकार की होती है? किसी एक विधि का विवरण दीजिए। [ 2 + 2 + 2 ]

प्रश्न 9.
सामान्य स्वस्थ व्यक्ति और रोगी के भोजन में क्या अन्तर होते हैं? रोगी को भोजन देते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? [ 2 + 4 ]
अथवा
सन्धि किसे कहते है? सन्धि कितने प्रकार की होती है? चल सन्धि को उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए। [ 2 + 4 ]

प्रश्न 10.
कृत्रिम श्वसन से आप क्या समझती हैं? कृत्रिम श्वसन की किन्हीं दो विधियों का सामान्य परिचय दीजिए। (2 + 4)

उत्तरमाला

उत्तर 1 :
(क)  1. तपेदिक
(ख) : 2. रेशमी वस्त्रों पर
(ग) : 4. शैय्या घाव होने पर
(घ) : 1. मिलीलीटर, लीटर

उत्तर 2 :
(क) : 1. 60 वर्ष के उपरान्त
(ख) : 2. खोपड़ी
(ग)  : 1. पेट दर्द में
(घ) : 3. एनीमिया

उत्तर 3 :
(क) : हैजा रोग विब्रियो कॉलेरी नामक जीवाणु से फैलता है, इस रोग से बचा के दो प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं। [ 2 ]

  1. नियमित रूप से हैजा का टीका लगवाएँ।
  2. दूध एवं पानी को उबालकर पीना चाहिए।

(ख) : ₹ 10 में खरीदकर ₹ 12 में बेचा
अर्थात् लाभ = 12 -10 = ₹ 2
प्रतिशत लाभ = 2/10 x 100= 20%
20% लाभ हुआ।
(ग) : आय-व्यय से सम्बन्धित इस सिद्धान्त के अनुसार, “पारिवारिक आय बढ़ने के साथ-साथ किसी परिवार के भोजन एवं खाद्य सामग्री पर किए जाने वाले व्ययों में प्रतिशत कमी तथा विलासिता की मदों (शिक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य) पर होने वाले व्ययों में प्रतिशत वृद्धि अंकित की जाती है।”
(घ) : शुद्ध जल रंगहीन, गन्धहीन, पारदर्शी तथा एक प्रकार की प्राकृतिक चमक से युक्त होता है। इस जल में रोगों के रोगाणुओं का नितान्त अभाव होता है।
(ङ) : कब्ज के रोगी को रेशेदार भोज्य पदार्थों की अधिकता वाले भोजन के साथ हरी सब्जियों, फल, सम्पूर्ण दालें तथा चोकरयुक्त आटे की रोटियाँ आदि पदार्थों का अपने भोजन में समावेश करना चाहिए।

उत्तर 4 :
(क) : ओवन रसोईघर में प्रयुक्त होने वाला विद्युत चालित उपकरण है। इसमें भोजन सेंकने की विधि से पकाया जाता है। ओवन की सुरक्षा हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।

  1. ओवन को सावधानीपूर्वक इस्तेमाल करना चाहिए तथा इसके स्विच, सकिट तथा तार की समय-समय पर जांच करते रहना चाहिए।
  2. इसकी आन्तरिक सफाई करते रहना चाहिए।
  3. इसकी आन्तरिक सतह को कभी खुरचकर साफ नहीं करना चाहिए।

(ख) : मिल्टन चॉक टिकियों के रूप में विभिन्न रंगों व आकारों में बाजार में मिलते हैं। इससे कपड़ों को काटने के लिए चिह्न लगाते हैं, क्योंकि यह धोने पर सरलता से छूट जाता है। गहरे रंग पर भी इसके चिह्न अच्छी तरह चमकते हैं, जिससे वस्त्र को सरलता से काटा जा सकता है।
(ग) : ड्राफ्टिग कर लेने से वस्त्र सही नाप के अनुसार बनता है तथा पहनने वाले के शरीर पर अच्छा लगता है, क्योंकि इससे वस्त्र का खाका तैयार हो जाता है।
(घ) : पाक क्रिया का मुख्य उद्देश्य भोजन को स्वादिष्ट, सुपाच्य एवं रोगाणुमुक्त बनाना है।
(ङ) : कंकाल तन्त्र की उपयोगिता निम्नलिखित है।

  1. शरीर को आकृति प्रदान करता है।
  2. शरीर के कोमल अंगों को सुरक्षा प्रदान करता है।
  3. शरीर को गति प्रदान करता है।
  4. शरीर को दृढता प्रदान करता है।
  5. रक्तकणों के निर्माण में सहायता प्रदान करता है।
  6. कैल्सियम को संचित करने में सहायता प्रदान करता है।

उत्तर 5 :
(क) : उत्तर बचत खाते एवं चालू खाते में अन्तर बचत खाता

UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 11


बचत व चालू खाते की उपयोगिता

1. बचत खाता :
व्यक्तिगत एवं पारिवारिक बचतों के लाभकारी विनियोग की सुविधा प्रदान करता है। इस खाते में जमा धनराशि पर निपरित दर से ब्याज प्राप्त होता है। अतः अतिरिक्त आय की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त इस खाते में जमा धनराशि का अन्यत्र महत्त्वपूर्ण योजनाओं में भी विनियोग किया जाता है।

2. चालू खाता :
व्यापारिक लेन-देन की सुविधा उपलब्य कराता है। उल्लेखनीय है कि बैंक इस खाते में जमा धन का कहीं अन्यत्र विनियोग नहीं कर सकता। अतः खाताधारी आवश्यकता पड़ने पर, चाहे जितनी बार खाते में जमा घन निकाल सकता है।
अथवा
उत्तर :
पारिवारिक बजट एक प्रकार का व्यवस्थित प्रलेख अथवा प्रपत्र होता है, जिसमें सम्बन्धित परिवार के निश्चित अवधि में होने वाले आय-व्यय का विवरण प्रस्तुत किया जाता है। क्रेग एवं रश के अनुसार, “पारिवारिक बजट भूतकाल के व्यय, भविष्य के अनुमानित व्यय तथा वर्तमान समय की मदों पर निश्चित व्यय का लेखा-जोखा है।” बजट के अर्थ एवं उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए वेबर ने भी इसे अपने शब्दों में परिभाषित किया है।

वेबर के अनुसार, “पारिवारिक बजट पारिवारिक आय को व्यवस्थित रूप से इस प्रकार व्यय करने का तरीका है, जिससे कि अधिकतम सदस्यों के सुख व कल्याण में वृद्धि हो सके। पारिवारिक बजट असावधानीपूर्वक तथा अव्यवस्थित रूप से व्यय करने के स्थान पर योजनाबद्ध एवं विवेकपूर्ण व्यय को प्रतिस्थापित करने का ढंग या उपाय है।”

पारिवारिक बजट या बजट बनाने से गृहिणियों तथा परिवार को निम्न लाभ होते हैं।

  1. आय का उचित उपयोग बजट के माध्यम से गृहिणी परिवार की आय का सदुपयोग करती है।
  2. अनावश्यक पारिवारिक व्यय पर नियन्त्रण पारिवारिक बजट में सभी आवश्यकताओं एवं व्यय की मदों को चिह्नित किया जाता है, इससे अनावश्यक व्यय को ज्ञात करना सरल होता हैं

(ख) : बहुत  :
से लोगों का मानना है कि गृह-सज्जा में बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती है और धन के अभाव में गृह-सज्जा सम्भव नहीं है। उनकी यह धारणा भ्रामक है। वास्तव में, गृह-सज्जा के लिए कीमती तथा अधिक संख्या में वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि उपलब्ध वस्तुओं की उत्तम व्यवस्था एवं कलात्मकता की आवश्यकता होती है।

यदि किसी घर में बहुत-सी बहुमूल्य वस्तुएँ एवं साधन उपलब्ध हों, परन्तु वे सब व्यवस्थित न हों तथा उनमें कलात्मकता का नितान्त अभाव हो, तो उसे घर को सुसज्जित नहीं कहा जा सकता। आय कम होने की स्थिति में बहुमूल्य वस्तुएँ में उपलब्ध होने पर हस्तनिर्मित वस्तुओं से भी गृह-सज्जा की जा सकती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि गृह सज्जा के लिए अधिक घन की आवश्यकता अनिवार्य शर्त नहीं हैं।
अथवा
उत्तर :
फर्नीचर की वस्तुएँ सामान्यतः लकड़ी, लोहे तथा प्लास्टिक की बनी होती हैं। इनकी सफाई और देखभाल निम्नलिखित प्रकार से की जाती है। लकड़ी के फर्नीचर की सफाई की विधियाँ अलग-अलग होती है।

1. सफेद लकड़ी :
गर्म पानी में सर्फ घोलें तथा मुलायम सूती कपड़े को घोल में भिगोकर वस्तुओं को धीरे-धीरे रगड़कर साफ करना चाहिए।

2. पेण्ट की हुई लकड़ी :
ऐसी वस्तुओं को नींबू द्वारा साफ किया जा सकता है।

3. पॉलिश की हुई लकड़ी :
आधा लीटर पानी में सिरको ड़ालकर कपड़ा भिगोकर रगड़े, फिर सूखे कपड़े से पोंछकर सरसों या मिट्टी के तेल से चमकाये।

4. लोहे का फर्नीचर :
लोहे के फर्नीचर को हल्के नर्म कपड़े से झाड़ा जाता है और साथ ही गीले कपड़े व साबुन से साफ किया जाता है। वर्ष में एक बार इस पर पेण्ट अवश्य किया जाना चाहिए।

5. प्लास्टिक की वस्तुओं एवं फर्नीचर की सफाई :
घर में प्लास्टिक की अनेक वस्तुओं; जैसे-कुर्सी, मेज, बाल्टी, मग इत्यादि को साफ करने के लिए गीले कपड़े में साबुन लगाकर पोंछना चाहिए। गुनगुने पानी का प्रयोग भी करना चाहिए। उसके पश्चात् सूखे कपड़े से पोंछना चाहिए। प्लास्टिक की वस्तुओं को तेज धूप में नहीं रखना चाहिए।

उत्तर 6 :
(क) :
गृह गणित का गृहिणियों के लिए महत्त्व गृह अर्थव्यवस्था के संचालन का कार्य मुख्यतः गृहिणियों पर ही होता है। घरेलू कार्यों में बजट बनाना, आय व्यय का हिसाब रखना, दूध, सब्जी, राशन आदि का हिसाब रखना तथा उनकी कीमत अथवा मूल्य के अनुसार भुगतान करना आदि कार्य आते हैं। इन सभी कार्यों हेतु गणितीय गणनाओं की आवश्यकता होती है। इन सभी कार्यों को सुचारु रूप से करने हेतु गृह गणित का ज्ञान होना प्रत्येक गृहिणी के लिए आवश्यक है।अथवा
उत्तर : शुद्ध एवं अशुद्ध जल में अन्तर

(ख) : पेचिश तथा अतिसार में अन्तर

अथवा
उत्तर :
पर्यावरण का मानव जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है, पर्यावरण संरक्षण के लिए। जनचेतना का होना बहुत आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण का लक्ष्य निम्नलिखित उपायों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

  1. पर्यावरण शिक्षा द्वारा जनता में पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाई जा सकती है। सामान्य जनता को पर्यावरण के महत्त्व, भूमिका तथा प्रभाव आदि से अवगत कराना आवश्यक है।
  2. वैश्विक स्तर पर पर्यावरण सरक्षण पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कराना चाहिए; जैसे-स्टॉकहोम सम्मेलन (1972), रियो डि जेनेरियो सम्मेलन (1992)
  3. गाँव, शहर, जिला, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों पर पर्यावरण संरक्षण में लोगों को शामिल करना चाहिए।
  4. पर्यावरण अध्ययन से सम्बन्धित विभिन्न सेमिनार पुनश्चर्या, कार्य-गोष्ठियाँ, दृश्य-श्रव्य प्रदर्शनी आदि का आयोजन कराया जा सकता है।
  5. विद्यालय, विश्वविद्यालय स्तर पर पर्यावरण अध्ययन विषय को लागू करना एवं प्रौढ़ शिक्षा में भी पर्यावरण-शिक्षा को स्थान देना महत्त्वपूर्ण उपाय है।

उत्तर 7 :
(क) : प्रदूषण का अर्थ प्राकृतिक पर्यावरण में उपस्थित विभिन्न घटकों अथवा तत्त्वों के सन्तुलन में वह बदलाव, जिसका मानव जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, प्रदूषण कहलाता है। पर्यावरण प्रदूषण वर्तमान समय में मानव के समक्ष उत्पन्न एक गम्भीर समस्या है। पर्यावरण प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर पड़ता है। पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव को हम निम्नलिखित रूपों में स्पष्ट कर सकते हैं।

जन स्वास्थ्य पर प्रभाव
जन स्वास्थ्य पर प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1. प्रदूषण से विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य सम्बन्धी बीमारियाँ; जैसे-हैजा, कॉलरा, टायफाइड आदि होती हैं।
  2. ध्वनि प्रदूषण से सर दर्द, चिड़चिड़ापन, रक्तचाप बढ़ना, उत्तेजना, हृदय की घड़कने बढ़ना आदि समस्याएँ होती हैं।
  3. जल प्रदूषण से टायफाइड, पेचिश, ब्लू बेबी सिण्ड्रोम, पाचन सम्बन्धी विकार (कब्ज) आदि समस्याएँ होती हैं।
  4. वायु प्रदूषण से फेफड़े एवं श्वास सम्बन्धी, श्वसन-तन्त्र की बीमारियाँ होती हैं।

व्यक्तिगत कार्यक्षमता पर प्रभाव
व्यक्तिगत कार्यक्षमता पर प्रभाव निम्नलिखित है।

  1. पर्यावरण प्रदूषण व्यक्ति की कार्यक्षमता को प्रभावित करता है।
  2. इससे व्यक्ति की कार्यक्षमता अनिवार्य रूप से घटती है।
  3. प्रदूषित वातावरण में व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं रह पाता।
  4. प्रदूषित वातावरण में व्यक्ति की चुस्ती, स्फूर्ति, चेतना आदि भी घट जाती

आर्थिक जीवन पर प्रभाव
आर्थिक जीवन पर प्रभाव निम्नलिखित हैं।

  1. पर्यावरण-प्रदूषण का गम्भीर प्रभाव जन सामान्य की आर्थिक गतिविधियों एवं आर्थिक जीवन पर पड़ता है।
  2. कार्यक्षमता घटने से उत्पादन दर घटती है।
  3. साधारण एवं गम्भीर रोगों के उपचार में अधिक व्यय करना पड़ता है।
  4. आय दर घटने तथा व्यय बढ़ने पर आर्थिक संकट उत्पन्न होता है।

इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण मानव जीवन पर बहुपक्षीय, गम्भीर तथा प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न करता है। अतः इसके समाधान हेतु व्यक्ति एवं राष्ट्र दोनों को मिलकर कार्य करना चाहिए।
अथवा
उत्तर :
विभिन्न रोगाणुओं से संघर्ष करने वाली शरीर की इस क्षमता को ही रोग प्रतिरक्षा’ या रोग-प्रतिरोधक क्षमता अथवा रोग-प्रतिबन्धक शक्ति (Immunity Power) कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में यह क्षमता या शक्ति भिन्नभिन्न स्तरों में पाई जाती है। यही नहीं एक ही व्यक्ति में भी यह क्षमता भिन्न-भिन्न समय में कम या अधिक हो सकती है। रोग प्रतिरक्षा दो प्रकार की होती हैं।

1. प्राकृतिक रोग-प्रतिरोधक क्षमता :
प्राकृतिक रूप से ही प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में विभिन्न रोगों का मुकाबला करने की क्षमता होती है, जो जन्मजात होती है। मनुष्य की इस क्षमता को ही प्राकृतिक रोग-प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं।

2. कृत्रिम अथवा अर्जित रोग-प्रतिरोधक क्षमता :
रोगग्रस्त होने से बचने एवं स्वस्थ बने रहने के लिए प्राकृतिक रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ अतिरिक्त रोग-प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है। यह अतिरिक्त क्षमता विभिन्न उपायों द्वारा प्राप्त की जा सकती है। इस अतिरिक्त रोग प्रतिरोधक क्षमता को ही स्वास्थ्य विज्ञान की भाषा में कृत्रिम अथवा अर्जित रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं।

रोग प्रतिरक्षा की प्राप्ति के स्रोत नियमित और सन्तुलित जीवनशैली तथा स्वच्छ खानपान के अतिरिक्त टीके या इंजेक्शन पद्धति द्वारा भी अतिरिक्त रोग-प्रतिरोधक क्षमता का विकास किया जाता है।

(ख) : ऊनी एवं रेशमी वस्त्रों का रख-रखाव
ऊनी एवं रेशमी वस्त्रों के रख-रखाव हेतु अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता होती है, जिसे निम्नलिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है।

  1. ऊनी वस्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए सम्बन्धित बॉक्स में फिनाइल अथवा नेफ्थेलीन की गोलियाँ अवश्य ही रखी जानी चाहिए।
  2. जरी एवं तिल्ले-गोटे वाले वस्त्रों को अन्य वस्त्रों से अलग स्थानों पर मलमल या अन्य किसी महीन सूती वस्त्र से लपेटकर ही रखना चाहिए।
  3. यदि वस्त्रों को अधिक समय तक बन्द रखना हो, तो समय-समय पर धूप एवं हवा लगा देनी चाहिए।
  4. यदि फिनाइल की गोलियाँ समाप्त हो गई हों, तो अतिरिक्त गोलियाँ रख देनी चाहिए।

अथवा
उत्तर :
गृहिणियों द्वारा घर पर ही अपनी आवश्यकता एवं सुविधा के अनुसार वस्त्रों की सिलाई व मरम्मत की जा सकती है। यह कार्य पर्याप्त सुविधाजनक तथा लाभदायक भी होता है। अतः प्रत्येक गृहिणी को सिलाई कला का ज्ञान होना आवश्यक है। घर पर वस्त्रों की सिलाई के निम्नलिखित लाभ होते हैं।

  1. घर पर स्वयं वस्त्रों की सिलाई करने से धन की पर्याप्त बचत होती है।
  2. घर पर स्वयं सिलाई करने से वस्त्र शीघ्र ही सिलकर तैयार हो जाते हैं। अतः समय की भी बचत होती है।
  3. कपड़े की बचत होती है और साथ ही कपड़े का सदुपयोग किया जा सकता है। सिलाई कार्य में बचे हुए कपड़े को अनेक प्रकार से उपयोग में लाया जा सकता है; जैसे-हमाल, थैले-थैलियाँ बनाना आदि।
  4. अपनी रुचि एवं पसन्द का डिजाइन बनाया जा सकता है।
  5. घर पर वस्त्रों की सिलाई से विशेष प्रकार के सन्तोष एवं आनन्द की प्राप्ति होती है।

उत्तर 8 :
घर में रसोईघर का महत्व
प्रत्येक घर में अनिवार्य रूप से भोजन पकाने हेतु एक रसोईघर होता है। रसोईघर में ही विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री, भोजन पकाने के साधन एवं उपकरण तथा तैयार यो पकाया हुआ भोजन रखा जाता है। अतः घर में रसोईघर का बहुत अधिक महत्त्व है। रसोईघर का महत्त्व इससे भी स्पष्ट होता है कि रसोईघर में गृहिणी प्रतिदिन अपना पर्याप्त समय व्यतीत करती है तथा यहाँ पाक क्रिया जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। इस दृष्टिकोण से रसोईघर गृणी की सुविधाओं के अनुकूल होनी चाहिए। रसोईघर की उत्तम व्यवस्था का गृहिणी एवं परिवार के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत अव्यवस्थित रसोईघर होने पर गृहिणी तथा परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

रसोईघर की व्यवस्था
रसोईघर की सुव्यवस्था अतिआवश्यक तत्त्व है। मुख्यवस्थित रसोईघर जहाँ एक ओर गृहिणी की कुशलता, इक्षता तथा सुरुचिपूर्णता का प्रमाण है, वहीं दूसरी ओर सुव्यवस्थित रसोईघर में कार्य करना अधिक सरल एवं सुविधाजनक होता है। रसोईघर की सुव्यवस्था हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

1. रसोईघर की समस्त वस्तुएँ यथास्थान ही रखी जाएँ :
प्रत्येक वस्तु का स्थान निर्धारित करके उसे अपने यथास्थान पर रखना चाहिए। स्थान चयन करते समय कार्यों की सुविधा एवं सरलता को भी ध्यान में रखना चाहिए। किसी वस्तु या उपकरण का प्रयोग करने के उपरान्त उसे पुनः निर्धारित स्थान पर रख देना चाहिए। नित्य प्रयोग के सभी बर्तनों को आगे तथा कभी-कभी प्रयोग में आने वाले बर्तनों को पीछे रखा जा सकता है। रसोईघर के कूड़े को भी टोकरी अथवा ढक्कन युक्त हिने में ही डालना चाहिए, इससे रसोईघर में सफाई अनी रहती है तथा कार्य सरलता से पूर्ण होता जाता है।

2. खाद्य सामग्री का उचित संग्रह :
रसोईघर में विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्रियों; जैसे-आटा, दाल, चावल, चीनी आदि को भिन्न-भिन्न ढंग से संभालकर रखना आवश्यक होता है। आटा, दाल, चीनी तथा चावल आदि को बन्द डिब्बों अथवा कनस्तर आदि में रखना चाहिए, जिससे चीटी, कॉकरोच आदि कीट इन्हें दूषित न कर सकें। ताजा तैयार की गई खाद्य सामग्री आदि को भी ढककर रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त ताजे फलों तथा सब्जियों को फ्रिज में ही रखना चाहिए। सूखी खाद्य सामग्रियों के सभी डिब्बों पर समुचित लेबल लगाए जाने चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्था होने पर, आवश्यकता पड़ने पर परिवार का कोई भी सदस्य किसी भी वस्तु को ढूँढ सकता है।

3. रसोईघर के बर्तनों की सफाई :
रसोईघर की व्यवस्था के अन्तर्गत यह आवश्यक है। कि रसोईघर के बर्तनों की नियमित सफाई होनी चाहिए। रसोईघर में प्रयुक्त भिन्न-भिन्न प्रकार के बर्तनों की सफाई उपयुक्त विधि द्वारा ही की जानी चाहिए, अन्यथा या तो बर्तनों की समुचित सफाई नहीं हो पाएगी अयया बना में कुछ दाय आ जाने की आशंका रहेगी। उदाहरण के लिए, स्टील के बर्तनों को याद राख या बालू से साफ किया जाए, तो उनकी चमक घट जाती है तथा खरोंच पड़ने की भी आशंका बनी रहती है। बर्तनों को भली-भाँति साफ करके तया सुखाकर यथास्थान रखा जाना चाहिए। बर्तनों की सफाई के साथ साथ रसोईघर को नियमित सफाई भी आवश्यक है। पूरी तरह से साफ सुथरे रसोईघर को ही सुव्यवस्थित रसोईघर कहा जा सकता है।
अथवा
शरीर के किसी अंग में दर्द होने अथवा सूजन आने पर प्रभावित व्यक्ति को सैंक पहुँचाई जाती है।
सैंक दो प्रकार की होती हैं

  1. गर्म सैंक
  2. ठण्ड़ी सेंक

गर्म सेक
शरीर के किसी रोगग्रस्त भाग या अंग को अतिरिक्त ताप या ऊष्मा पहुंचाने की क्रिया को गर्म सेक कहते हैं। श्वसन तन्त्र से बलगम को निकालने, दर्द कम करने, फोड़े-फुसी को पकाने तथा उनसे मवाद निकालने के लिए गर्म सेक की आवश्यकता पड़ती है। गर्म सेंक प्रदान करने के प्रयोजन भिन्न-भिन्न होते हैं। इस भिन्नता के अनुरूप गर्म सेक प्रदान करने के साधन एवं विधियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। गर्म सेंक देने के तीन मुख्य साधन निम्नलिखित हैं

1. गर्म-शुष्क सेंक :
इसके लिए कपड़ा रूई आदि को किसी तवे इत्यादि पर सीधे गर्म करते हैं और बाद में सीधे उस अंग पर रखते हैं, जिसकी सिकाई करनी हो। यह सेंक गर्म-शुष्क कहलाती हैं। कभी-कभी कुछ विशेष अंगों को इस प्रकार सिकाई की जाती है। जैसे- गर्म पानी की बोतल द्वारा सेंक, गर्म सेक प्रदान करने की एक विधि हैं। इस प्रकार की सेंक देने के लिए एक रबड़ की बनी हुई बोतल इस्तेमाल की जाती है। इस बोतल में गर्म पानी को डालकर यथास्थान गर्म सेक दी जाती है। इस प्रकार की सेक को दर्द कम करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 35

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विधि इसके प्रयोग की विधि निम्नलिखित है

  1. सर्वप्रथम अनुमान से पानी की कुछ मात्रा को गर्म कर दिया जाता हैं।
  2. इसके उपरान्त बोतल के खाली भाग को हाथ से दबाकर अन्दर की वायु को बाहर निकाल देना चाहिए।
  3. इसके बाद बोतल का 2/3 भाग पानी से भरकर, बोतल के हुक्कन को कसकर बन्द कर देना चाहिए।
  4. इसके उपरान्त बोतल को किस तौलिए अथवा मोटे सूती कपड़े में लपेटकर सेक प्रदान करने के लिए शरीर के सम्बन्धित अंग पर रखना चाहिए।
  5. कुछ-कुछ समय उपरान्त बोतल को उस अंग से हटाते रहना चाहिए।
  6. कभी भी बोतल को बिना कपड़े में लपेटे शरीर के सम्पर्क में नहीं लाना चाहिए। बोतल का शरीर से सीधा सम्पर्क कराने से शरीर की त्वचा के झुलस जाने का भय रहता है।

2. गर्म-तर सेंक
गर्म पानी में कपड़ा भिगोकर की जाने वाली सेक गर्म-तर सेक कहलाती हैं। यह कुछ विशेष अंगा पर की जाती है। जैसे-आँख व किसी पात्र इत्यादि पर। विधि गर्म-तर सेंक के प्रयोग की विधि निम्न प्रकार है।

  1. इसके लिए एक मलमल के कपड़े का टुकड़ा लिया जाता है, जिसे तौलिए में लपेट दिया जाता है।
  2. अब इस तौनिए को चिलमची या गर्म पानी की केतली आदि में भिगोते हैं।
  3. अब कपड़े को निकाल लेना चाहिए तथा ध्यान रहे कपड़ा बहुत अधिक गर्म न हो।
  4. तत्पश्चात् तौलिए को दोनों सिरों से पकड़कर निचोड़ दिया जाता हैं।

3. गर्म-गीली सेंक
पैरों में दर्द इत्यादि की स्थिति में इस विधि से पैरों की सिकाई की जाती है। इस विधि में गर्म पानी की बाल्टी या टब में पैर डालकर सिकाई की जाती है। इस विधि मेपैरों को सिकाई हेतु नमक व वोरिङ पाउडर डाला जा सकता है।

ठण्डी सेंक के लिए बर्फ की टोपी का प्रयोग

  1. बर्फ की टोपी या थैली का प्रयोग हुण्डी सेक पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता है। कभी-कभी ज्वर की दशा में रोगी के शरीर का तापमान अत्यन्त ऊँचा हो जाता है, उस समय तापमान को सामान्य स्तर तक लाने के लिए उण्डी पट्ट्टी या बर्फ की टोपी का प्रयोग किया जाता है। बर्फ की टोपी का प्रयोग शरीर के किसी विशेष स्थान पर हुण्डी सैक पहुँचाने के लिए भी किया जाता हैं।
  2. तेज ज्वर को कम करने के लिए, शरीर से होने वाले रक्तस्राव को रोकने के लिए तथा सूजन एवं दर्द को कम करने के लिए उड़ी सेक की आवश्यकता पड़ती है।

उत्तर 9 :
स्वस्थ व्यक्ति एवं रोगी के भोजन में अन्तर
स्वस्थ व्यक्ति को सामान्य, पौष्टिक तथा सन्तुलित आहार प्रण करना चाहिए, परन्तु यदि व्यक्ति किसी साधारण अथवा गम्भीर रोग से पीड़ित है, तो रोग की प्रकृति के अनुसार रोगी के आहार में आवश्यक परिवर्तन करने चाहिए। इस प्रकार के आहार को आहार एवं पोषण विज्ञान की भाषा में उपचारार्थ आहार’ कहते हैं। कुछ रोग ऐसे होते हैं, जो किसी पोषक तत्व की कमी के कारण उत्पन्न होते हैं, जबकि कुछ रोग पाचन तन्त्र अथवा उत्सर्जन तन्त्र की अव्यवस्था के कारण उत्पन्न होते हैं। अतः रोग की प्रकृति को दृष्टिगत रखते हुए उपचारार्थ आहार के तत्वों के अनुपात एवं मात्रा आदि का निर्धारण किया जाता है।आहार के निर्धारण में यह ध्यान रखा जाता है कि रोगी को जिन पोषक तत्वों की आवश्यकता हो, उन सभी तत्वों का आहार में समुचित मात्रा में समावेश होना चाहिए। रोग की अवस्था में रोगी को दो प्रकार का आहार देना चाहिए–तरल आहार एवं अर्द्ध तरल आहार।

रोगी को भोजन कराना
रोग की अवस्था में व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तित हो जाता है। व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है तथा उसकी शारीरिक गतिविधियां कम हो जाती हैं। इससे व्यक्ति की भूख व पाचन क्रिया भी प्रभावित होती है। इससे कुछ रोगी अत्यधिक कमजोर हो जाते हैं। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए रोगी को भोजन कराते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है।

  1. रोग की अवस्था में रोगी के भोजन का विशेष ध्यान रखना चाहिए। रोगी को नियमित भोजन देना चाहिए, जिससे उसकी भूख नष्ट न हो।
  2. रोगी को भोजन डॉक्टर की सलाह से उचित रूप में तथा समयानुसार देना चाहिए।
  3. रात्रि की अपेक्षा दिन में भोजन देना अधिक उचित है।
  4. सोते हुए रोगी को जगाकर भोजन नहीं देना चाहिए।
  5. रोगी के पास न लाने से पूर्व उसे और उसके आस पास के स्थानको भोजन हेतु पूरी तरह तैयार कर लेना चाहिए; जैसे
    •  रोगी के मुँह-हाथ को स्पंज कर देना चाहिए।
    •  रोगी के आस-पास का स्थान पूर्णतः स्वछ कर लेना चाहिए।
    •  बिस्तर तथा वस्त्रों की रक्षा के लिए तौलिए का प्रयोग करना
    • यदि डॉक्टर ने उठने से मना किया है, तो तकिए के सहारे उसे पलंग पर ही बैठा देना चाहिए।
  6. भोजन अपेक्षित ठण्डा या गर्म होना चाहिए।
  7. भोजन लाने में स्वच्छता एवं आकर्षण हो, जिससे भोजन के प्रति रोगी की रुचि बढ़े। भोजन कराने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।
  8. रोगी के भोजन करने के पश्चात् जूठे बर्तन तुरन्त हटा देने चाहिए। |
  9. उठने में असमर्थ रोगी को केवल तरल पदार्थ ही भोजन के रूप में दिए जाने चाहिए। रोगी को भोजन कराते समय प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। भोजन की प्यालियाँ, कटोरियाँ तथा लहें अधिक भरी नहीं होनी चाहिए।

अथवा
सन्धि का अर्थ
सन्धि (जोड़) शरीर के उन स्थानों को कहते हैं, जहाँ दो अस्थियाँ एक-दूसरे से मिलती हैं; जैसे–कन्ये, कुहनी या कुल्हे की सन्धि।

अस्थि सन्धि
कंकाल तन्त्र में दो या दो से अधिक अस्थियों के परस्पर सम्बद्ध होने के स्थल को अस्थि सन्धि कहा जाता है। सन्धियां शरीर को गति प्रदान करने में सहायक होती हैं। अस्थि सन्धियाँ दो प्रकार की होती हैं

  1. अचल सन्धि
  2. चल सन्धि

अचल सन्धि
इस प्रकार की सन्धियों में दो या दो से अधिक हड्डियाँ आपस में इस प्रकार जुड़ी होती है कि वे बिल्कुल हिल न सकें अर्थात् लगभग स्थिर स्थिति में हों। इस प्रकार की अस्थियों की बनावट कंटीली अथवा आरी के समान नुकीली होती हैं। ये नुहोलापन एक अस्थि को दूसरी अस्थि से फंसाए रखने में मजबूती प्रदान करता है। इस प्रकार के जोड़ खोपड़ी में पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार की अचल सन्धि भी होती है, जिसमें एक हड्डी का सिरा दूसरी हड्डी पर बने एक उपयुक्त स्थान में स्थित हो जाता है तथा इन हड्डियों के सिरे संयोजी ऊतकों द्वारा जकड़कर इस तरह बंध जाते हैं कि सन्धि अचल हो जाती हैं। पसलियों एवं रीढ़ की हड्डी तथा पसलियों एवं छाती की हड्डी के बीच इसी प्रकार के जोड़ पाए जाते हैं।

चल सन्धि
चल सन्धियों की बनावट इस प्रकार होती है। कि इसे अपनी इच्छानुसार किसी निश्चित दिशा अथवा अन्य दिशाओं में हिलाया तथा की सहायता से शरीर के विभिन्न अंगों को मोड़ा, घुमाया या चलाया जा सकता है। शरीर में बनावट के आधार पर चल सन्धियां प्रमुखतः अपूर्ण तथा पुर्ण दो प्रकार की होती है।

1. अपूर्ण सन्धि :
ये केवल उपास्थियों द्वारा बनी हुई सन्धियाँ हैं तथा इनकी गति अत्यधिक सीमित होती है। कूल्हे की दोनों प्यूविस अस्थियों के मध्य अपूर्ण सन्धि होती है।

2. पूर्ण सन्धि :
इसमें जुड़ने वाली अस्थियों के मध्य स्थित रिक्त स्थान में एक द्रव भरा रहता है,जिससे इनमें पर्याप्त गति होती है। पूर्ण सन्धि के प्रमुख उपप्रकार निम्न हैं।

(i) कब्जेदार सन्धि :
इस प्रकार की सन्धि में शरीर के अंगों को एक दिशा में घुमाया जा सकता है। इस प्रकार की सन्धि में कोई एक हड्डी या उसका कोई प्रवर्ष इस प्रकार बढ़ा रहता है कि वह एक निश्चित दिशा के अतिरिक्त किसी अन्य दिशा में गति को पूर्णतः रोकता हैं। कोहनी, घुटना तथा अंगुलियों में इस प्रकार का जोड़ पाया जाता हैं।
UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 36

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(ii) कन्दुक-खल्लिका या गेंद और प्यालेदार सन्धियाँ :
इस सन्धि में एक हड्डी का सिरा गेंद के समान गोल होता है और दूसरी हड्डी का सिरा प्याले की तरह होता है। प्यालेनुमा आकार वाले सिरे में गेद याला सिरा स्थित रहता है, जिसे चारों ओर घुमाया जा सकता है। कुल्हें तथा जाँघ में इस प्रकार के जोड़ पाए जाते हैं। घूमते । समय अस्थियों को रगड़ से बचाने के लिए गाढा तरल पदार्थ प्यालेनुमा एवं गेंद वाले सिरे के मध्य भरा रहता है। यह तरल पदार्थ अत्यन्त लचीली झिल्ली के अन्दर बन्द रहता है। जोड़ पर रज्जु भी संलग्न होती हैं, जिससे अस्थियाँ एक-दूसरे से दूर न हों। इन दोनों सिरों पर उपास्थियों का आवरण भी चढ़ा रहता हैं.
UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 37

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(iii) खुटीदार सन्धि :
इसे कीलदार या धुराग्र सन्धि भी कहा जाता है, इसमें एक अस्थि प्रवर्ध धुरी की। तरह या बँटे की तरह सीधी होती है। इस धुरी पर दूसरी अस्थि इस प्रकार टिकी रहती है कि इनको इधर-उधर भी घुमाया जाए, इसमें घंटे वाली। हड्डी गति नहीं करती है, बल्कि उस पर टिकी हुई हड्डी ही गतिमान होती है। रीढ़ की हड्डी की पहली दूसरी कशेरुक, खोपड़ी के साथ इसी प्रकार का जोड़ बनाती हैं। रीढ़ की हड्डी के कशेरुक का एक प्रवर्घ निकला रहता है, जिस पर खोपड़ी रखी रहती है। इसी सन्धि की सहायता से हम खोपड़ी को इधर-उधर तथा ऊपर-नीचे हिला सकते हैं।
UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 38

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(iv) प्रसार अथवा फिसलनदार सन्धि :
इसे ‘विसपी सन्धि’ रेडियस अल्ना भी कहा जाता है। ये सन्धियाँ वास्तविक रूप में किसी जोड़ का निर्माण नहीं करतीं, बल्कि इनकी हड्डियाँ होती हैं, जो इन हड्डियों को गति करने के लिए। फिसलने में मदद करती हैं। इस प्रकार की सुधि में दोनों हड्डियों के बीच कार्टिलेज की गद्दी पाई जाती है। कशेरुकों के योजी प्रवर्षों के मध्य तथा प्रबाहु के रेडियस-अल्ना एवं कलाई के बीच इस प्रकार की सन्धि पाई जाती है।
UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 39

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(v) पर्याण सन्धि :
यह सन्धि कन्दुक-खल्लिका सन्धि के समान होती है, परन्तु इसमें कन्दुक-खल्लिका का विकास न्यून होता है।
उदाहरण :
अंगूठे के जोड़, जिन्हें अंगुलियों की अपेक्षा इधर-उधर अधिक घुमाया जा सकता है।
UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 40

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अस्थि-सन्धियों की उपयोगिता
अस्थि सन्धियों का मानव शरीर में निम्नलिखित महत्त्व हैं।

  1. मानव शरीर अस्थि-सन्धियों पर ही गतिमान रहता है। जैसे-मुड़ना, दौड़ना, वस्तु पकड़ना आदि। अतः सन्धियाँ शारीर को गति प्रदान करने में सहायक हैं।
  2. शरीर की विभिन्न क्रियाएँ; जैसे – शरीर में झुकाव, श्वास लेना आदि शरीर की हड्डियों के मध्य पाई जाने वाली सन्धियों पर निर्भर होती हैं। विभिन्न प्रकार की शारीरिक गतिविधियाँ सन्धियों के प्रकार पर निर्भर करती हैं। उदाहरण कोहनी का जोड़ (सन्धि) एक कब्जेदार सन्धि हैं, जो हाथों को पीछे मुड़ने से रोकती हैं, इसी प्रकार कन्दुक-खल्लिका ऐसी सन्धि है, जो सम्पूर्ण बाँह को किसी भी दिशा में आसानी से घूमने देती हैं।
  3. खोपड़ी के बीच में उपस्थित सन्धियाँ विशेष कार्य करती हैं। इन्हीं सन्धियों के कारण बाल्यावस्था में मस्तिष्क के विकसित होने में किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न नहीं होता। यहीं सन्धियाँ आगे चलकर अचल हो जाती हैं, जिससे मजबूत कपाल का निर्माण होता है।

उत्तर 10 :
प्राकृतिक श्वसन
वायुमण्डल से प्राप्त आवश्यक ऑक्सीजन को फेफड़ों से कोशिकाओं तक पहुंचाने तथा अशुद्ध वायु या कार्बन डाइऑक्साइड को फेफड़ों से वायुमण्डल में लाने की क्रिया प्राकृतिक श्वसन कहलाती हैं।

कृत्रिम श्वसन का अर्थ एवं आवश्यकता
जब किसी कारणवश फेफड़ों में स्वाभाविक तौर से स्वच्छ वायु का आना-जाना बाधित हो जाए, जिसके फलस्वरूप प्राणी की दम घुटने की स्थिति आ जाती है, तो इस स्थिति में प्राणी को मरने से बचाने के लिए कृत्रिम श्वसन की आवश्यकता पड़ती है। यह भी कहा जा सकता हैं कि कृत्रिम श्वसन का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को बचाना है, जोकि किसी अन्य व्यक्ति के प्रयास द्वारा सम्भव हैं। फेफड़ों में वायु का आना-जाना बाधित होने के कारण कोशिकाओं को ऑक्सीजन की आवश्यक पूर्ति नहीं हो पाती हैं।

इस ऑक्सीजन पूर्ति के अभाव में व्यक्ति की मृत्यु तक हो सकती है। इस स्थिति में कोशिकाओं में ऑक्सीजन की पूर्ति के लिए व्यक्ति वे फेफड़ों में किसी कृत्रिम-विधि द्वारा स्वच्छ तथा ताजी ऑक्सीजन युक्त वायु को भरा जाना ही कृत्रिम श्वसन कहलाता हैं।दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि किसी अन्य व्यक्ति के प्रयासों द्वारा दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की श्वसन क्रिया को चलाना ही कृत्रिम श्वसन क्रिया है। कृत्रिम श्वसन क्रिया का मुख्य उद्देश्य सम्बन्धित व्यक्ति के जीवन को बचाना होता है।

कृत्रिम श्वसन की विधियाँ
कृत्रिम श्वसन की तीन प्रमुख विधियाँ हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित हैं।

1. शेफर विधि
पानी में दुबे व्यक्ति को इस विधि द्वारा कृत्रिम श्वसन दिया जाता है,  इस विधि में जिस व्यक्ति को कृत्रिम श्वसन देना होता है, सर्वप्रथम उसके वस्त्र उतार दिए जाते हैं। यदि यह सम्भव न हो, तो कम-से-कम उसके वक्षस्थल के वस्त्र उतार देने चाहिए। यदि किसी कारणवश यह भी सम्भव न हो तो उन्हें इतना ढीला कर देना चाहिए कि वक्षीय कटहरे पर किसी प्रकार का दबाव न रहे।
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तत्पश्चात् निम्नलिखित प्रक्रिया अपनानी चाहिए

  1. दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को पेट की ओर से लिटाकर मुँह को एक ओर कर देना चाहिए। टांगों को फैला देना चाहिए।
  2. नाक, मुंह इत्यादि को अच्छी तरह साफ कर दें, ताकि श्वास भली-भाँति आ-जा सके। प्राथमिक उपचार करने वाले व्यक्ति को रोगी के एक ओर उसके पाश्र्व में, कमर के पास अपने घुटने भूमि पर टिकाकर, पैरों को थोड़ा-सा रोगी की टाँगों के साथ कोण बनाते हुए बैठ जाना चाहिए। इसके बाद रोग की पीठ पर अपने दोनों हाथों को फैलाकर इस प्रकार रखना चाहिए कि दोनों हाथों के अंगूठे रीढ़ की हड्डी के ऊपर समानान्तर रूप में सिर की ओर मिलाकर रखें। ध्यान रखना चाहिए कि इस समय अंगुलियाँ फैली हुई अर्थात् अंगूठे लगभग 90° के कोण पर रोगी की कमर पर रहे। चिकित्सक को अपने हाथ रोगी की पसलियों के पीछे रखने चाहिए।
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  3. अब दोनों हाथों को पूरी तरह जमाते हुए तथा बिना कोहनी को मोड़े चिकित्सक को आगे की ओर झुकना चाहिए। इस समय चिकित्सक का वजन घुटने तथा हाथ पर रहेगा। इससे रोगी के पेट पर दबाव पड़ेगा तथा इस क्रिया से बक्षीय गुहा फैल जाएगी और फेफड़ों में उपस्थित वायु दबाव के कारण बाहर निकल जाएगी। यदि रोगी के फेफड़ों में पानी भर गया है तो वह भी इस क्रिया से बाहर निकल जाएगा।
  4. चिकित्सक को अपना हाथ यथास्थान रखकर ही धीरे-धीरे झुकाव कम करनाचाहिए, यहाँ तक कि बिल्कुल दबाव न रहे। इस क्रिया से बक्षीय गुहा पूर्व स्थिति में आ जाएगी एवं फेफड़ों में वायु का दबाव कम होने से वायुमण्डल की वायु स्वतः ही अन्दर आ जाएगी।
  5. इस प्रकार दबाव डालने एवं हटाने की प्रक्रिया को एक मिनट में 12-13 बार शनैः-शनैः क्रमिक रूप से दोहराते रहना चाहिए।

शेफर विधि की सावधानियाँ

  1. वक्ष पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए; जैसे—कपड़ा, इत्यादि का कसाव।
  2. गर्दन पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए।
  3. नाक, मुँह आदि भली-भाँति साफ कर लेने चाहिए। दबाव डालने एवं कम करने की क्रिया लगातार एवं एक बराबर क़म से होनी चाहिए।
  4. प्राकृतिक श्वसन प्रारम्भ हो जाने पर भी कुछ समय तक रोगी को देखते रहना चाहिए।

2. सिल्वेस्टर विधि
इस विधि में रोगी को किसी समतल स्थान पर लिटाया जाता है, उसके वस्त्रों को ढीला करके गर्दन के पीछे कन्धों के बीच में कोई तकिया इत्यादि लगाया जाता है, जिससे सिर पीछे को नीचा हो जाए। इस विधि से रोगी को श्वसन कराने के लिए दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है। एक व्यक्ति सिर की और घुटने के सहारे बैठकर रोगी के दोनों हाथों को अपने दोनों हाथों के द्वारा अलग-अलग पकड़ लेता है

इस समय दूसरा व्यक्ति रूमाल या किसी अन्य साफ कपड़े से रोगी की जीभ को पकड़कर बाहर की तरफ खीचे रहता है। पहला व्यक्ति रोगी के दोनों हाथों को उसके वक्ष की ओर ले जाते हुए अपने घुटने पर सीधा होकर आगे की ओर झुकता हुआ रोगी को छाती पर दबाव डालता है। इस प्रकार उस रोगी की भुजाओं को उसके वक्ष की ओर ले जाया जाता हैं।और फिर पुर्व स्थिति में सिर की और खींच लेता है। क्रमिक रूप से 1 मिनट में लगभग 12 बार इस क्रिया को दुहराने से  प्रारम्भ हो जाती है।
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सिल्वेस्टर विधि की सावधानियाँ

  1. रोगी की जीभ को कसकर पकड़ना चाहिए।
  2. रोगी को किसी समतल स्थान पर लिटाना चाहिए तथा उसके वस्त्र इत्यादि ढीले कर देने चाहिए, जिससे वक्ष पर किसी प्रकार का भाव न रहे।
  3. जिस क्रम से चिकित्सक ऊपर उठे, उसी क्रम से नीचे बैठे अर्थात् दबाव डालने और दबाव कम करने की प्रक्रिया एक जैसी होनी

3. लाबाई विधि :
यदि शेफर्स और सिल्वैस्टर विधियों द्वारा श्वास देना सम्भव न हो तो इस विधि का प्रयोग किया जाता है, जैसे वक्ष स्थल की कोई हड्डी इत्यादि। टूटने पर डॉक्टर के आने तक इस विधि द्वारा रोगी को ऑक्सीजन उपलब्ध कराकर जीवित रखा जा सकता है। दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को एक करवट से लिटाकर उसके समीप एक ओर चिकित्सक को अपने घुटने के आधार पर बैठकर रोगी की नाक, मुंह इत्यादि को भलीभाँति साफ र लेना चाहिए।

किसी स्वच्छ रुमाल या कपड़े से रोगी की शुभ पकड़कर बाहर खींचनी चाहिए और 2 सेकण्ड के लिए छोड़ देनी चाहिए। इस समय रोगी का मुंह खुला रहना चाहिए तथा इसके लिए रोगी के मुँह में कोई चम्मच इत्यादि डाली जा सकती है। इस क्रिया को तब तक दोहराते । रहना चाहिए जब तक कि रोगी को प्राकृतिक श्वसन प्रारम्भ न हो जाए।

लाबार्ड विधि की सावधानियाँ
जीभ दांतों के बीच नहीं दबनी चाहिए, इसके लिए चम्मच अथवा लकड़ी इत्यादि कोई कड़ी यस्तु रोगी के मुंह में रखनी चाहिए।
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