RBSE Solutions for Class 12 Political Science Chapter 1 न्याय

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Rajasthan Board RBSE Class 12 Political Science Chapter 1 न्याय

RBSE Class 12 Political Science Chapter 1 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न

RBSE Class 12 Political Science Chapter 1 बहुंचयनात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन में न्याय की व्याख्या सर्वप्रथम किस विचारक ने की थी?
(अ) संत ऑगस्टाइन
(ब) अरस्तू
(स) प्लेटो
(द) एक्वीनास।

प्रश्न 2.
वितरणात्मक न्याय की अवधारणा के प्रतिपादक हैं
(अ) प्लेटो
(ब) अरस्तू
(द) जॉन रॉल्स।

प्रश्न 3.
‘जिन राज्यों में न्याय विद्यमान नहीं है वे केवल चोर उच्चक्कों की खरीद फरोख्त है’ यह कथन है
(अ) संत ऑगस्टाइन का
(ब) कौटिल्य का
(स) अरस्तू का
(द) एक्वीनास का।

प्रश्न 4.
न्याय की निष्पक्षता को राजव्यवस्था की आधारभूत प्रवृत्ति इनमें से कौन विचारक मानते हैं?
(अ) वृहस्पति
(ब) मनु एवं कौटिल्य
(स) प्लेटो
(द) आचार्य नरेन्द्र देव

प्रश्न 5.
कानून के उल्लंघन पर दिया जाने वाला दण्ड न्याय के किस रूप को परिलक्षित करता है?
(अ) नैतिक न्याय
(ब) राजनीतिक न्याय
(स) आर्थिक न्याय
(द) कानूनी न्याय

उत्तर:
1. (स), 2. (ब), 3. (अ), 4. (ब), 5. (द)

RBSE Class 12 Political Science Chapter 1 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्याय के भारतीय प्रतिपादक कौन-कौन हैं?
उत्तर:
न्याय के भारतीय प्रतिपादकों में मनु, कौटिल्य, वृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, विदुर और सोमदेव आदि के नाम महत्वपूर्ण हैं।

प्रश्न 2.
प्लेटो ने अपने किस ग्रन्थ में न्याय सम्बन्धी विचार प्रस्तुत किये हैं?
उत्तर:
प्लेटो ने अपने ग्रन्थ रिपब्लिक में न्याय सम्बन्धी विचार प्रस्तुत किये हैं।

प्रश्न 3.
प्लेटो ने अपने न्याय सिद्धान्त में समाज की कितनी श्रेणियाँ बताई हैं?
उत्तर:
प्लेटो ने अपने न्याय सिद्धान्त में समाज की निम्नलिखित तीन श्रेणियाँ बताई हैं

  1. शासक या अभिभावक वर्ग,
  2. सैनिक वर्ग या रक्षक वर्ग,
  3. उत्पादक या सहायक वर्ग

प्रश्न 4.
‘रिपब्लिक’ पुस्तक के रचयिता कौन हैं?
उत्तर:
रिपब्लिक पुस्तक के रचयिता प्लेटो हैं।

प्रश्न 5.
अरस्तू ने न्याय के कितने प्रकार बताये हैं?
उत्तर:
अरस्तू ने न्याय के निम्नलिखित दो प्रकार बताये हैं-

  1. वितरणात्मक व राजनीतिक न्याय,
  2. सुधारात्मक न्याय।।

प्रश्न 6.
अरस्तू का वितरणात्मक न्याय सिद्धान्त किस बात पर बल देता है?
उत्तर:
अरस्तू का वितरणात्मक न्याय सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि शक्ति और संरक्षण का वितरण व्यक्ति की योग्यता व योगदान के अनुरूप होना चाहिए।

प्रश्न 7.
अरस्तू के सुधारात्मक न्याय का क्या उद्देश्य है?
उत्तर:
अरस्तू के सुधारात्मक न्याय का उद्देश्य है- अन्य व्यक्तियों द्वारा किये जा रहे हस्तक्षेप से नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना।

प्रश्न 8.
मध्यकाल में न्याय के दो प्रतिपादक कौन थे?
उत्तर:

  1. सन्त ऑगस्टाइन तथा
  2. थॉमस एक्वीनास।

प्रश्न 9.
आर्थिक विषमता की बात किस विचारक ने कही है?
उत्तर:
आर्थिक विषमता की बात समाजवादी विचारक कार्ल मार्क्स ने कही है।

प्रश्न 10.
अज्ञानता के पर्दे’ सिद्धान्त के प्रतिपादक कौन हैं?
उत्तर:
अज्ञानता के पर्दे’ सिद्धान्त के प्रतिपादक जॉन रॉल्स हैं।

प्रश्न 11.
जॉन रॉल्स ने सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए किस सिद्धान्त की स्थापना की है?
उत्तर:
जॉन रॉल्स ने सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए निम्नलिखित दो मौलिक नैतिक सिद्धान्तों की स्थापना की है

  1. अधिकतम स्वतन्त्रता स्वयं की स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।
  2.  व्यक्ति व राज्य द्वारा ऐसी सामाजिक व आर्थिक स्थितियाँ स्थापित की जाती हों जो सबके लिए कल्याणकारी हों। सबकी प्रगति के लिए इन्होंने ‘अज्ञानता के पर्दे’ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

RBSE Class 12 Political Science Chapter 1  लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्लेटो के न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्राचीन यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो के चिंतन का मुख्य आधार न्याय की संकल्पना थी। उन्होंने न्याय की जो तस्वीर खींची है, वह परम्परागत दृष्टिकोण का उपयुक्त सदाहरण है। प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘रिपब्लिक’ में न्याय सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट किया है। प्लेटो के अनुसार न्याय से आशय प्रत्येक व्यक्ति को अपने निर्दिष्ट कार्य करने एवं दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप न करने से है। प्लेटो ने न्याय के दो रूप बताये हैं

  1. व्यक्तिगत तथा
  2. सामाजिक या राज्य से सम्बन्धित ।।

प्लेटो ने न्याय को आत्मा का गुण माना है। प्लेटो के अनुसार व्यक्ति की आत्मा में निहित न्याय राज्य में निहित न्याय के समान है। आत्मा का न्याय व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों में सन्तुलन स्थापित करता है, इसी प्रकार राज्य में व्याप्त न्याय समाज के तीनों वर्गों-शासक, सैनिक व उत्पादक के मध्य सामन्जस्य स्थापित करता है। प्लेटो ने न्याय को नैतिक सिद्धान्त के रूप में स्पष्ट किया है।

प्रश्न 2.
अरस्तू के न्याय सम्बन्धी विचारों पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
अरस्तु की मान्यता है कि न्याय का सम्बन्ध मानवीय सम्बन्धों के नियमन से है। उसके अनुसार न्याय में वह सब शामिल है जो उचित और विधिक है, जो समान एवं औचित्यपूर्ण वितरण में आस्था रखता है, जो इस बात पर बल देता है कि जो कुछ अन्यायपूर्ण है, उसमें वांछित सुधार की सम्भावना है। अरस्तू ने न्याय के दो रूप बताए-

  1. वितरणात्मक व राजनीतिक न्याय
  2. सुधारात्मक न्याय।

अरस्तू ने सोदाहरण स्पष्ट किया है कि वितरण व्यवस्था के अन्तर्गत पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, धन-सम्पत्ति आदि का वितरण योग्यता के आधार पर होना चाहिए। लाभ और उत्तरदायित्व व्यक्ति की क्षमता और सामर्थ्य के अनुपात में वितरित किया जाना चाहिये।

प्रश्न 3.
न्याय के परम्परागत एवं आधुनिक दृष्टिकोण की तुलना कीजिए।
उत्तर:
न्याय के परम्परागत एवं आधुनिक दृष्टिकोणों की तुलना निम्न आधारों पर की जा सकती है

क्र.संआधारपरम्परागतआधुनिक
1.क्षेत्रनैतिकता न्याय को आधार है।कानून न्याय का आधार है।
2.प्रमुख विचारकप्लेटो, अरस्तू, सन्त ऑगस्टाइन, थॉमस एक्वीनास आदिडेविड ह्यूम, डेविड ह्यूम, हॉब्स, कार्ल मार्क्स, बेन्थम, जे. एस.मिल, जॉन रॉल्स आदि
3.प्रकृति या स्वरूपप्रकृति या स्वरूप न्याय आत्मा का गुण है।य का आशय नियमों का पालन करने से है क्योंकि नियम सर्वहित के आधार हैं।
4.उपयोगितान्याय एक नैतिक सिद्धान्त है जो व्यक्ति  के जीवन को व्यवस्थित व सन्तुलित करता है। वस्तुओं का वितरण योग्यता के आधार पर करने पर बल देता है।न्याय विधिक है जिसमें उपयोगिता को मूल मन्त्र माना गया है। यह वस्तुओं व सेवाओं है। का वितरण उपयोगिता के आधार पर करने पर बल देता है।

प्रश्न 4.
न्याय के सार्वभौमिक मूल्यों की वर्तमान समय में क्या प्रांसगिकता है? बताइए।
उत्तर:
परम्परागत पाश्चात्य एवं भारतीय विचारधारा नैतिकता को न्याय का आधार मानती है। सद्चरित्र व्यक्ति के आचरण को न्याय की कसौटी के रूप में माना जाता है। भारतीय दर्शन में धर्म को न्याय का आधार माना गया था अर्थात् जो कार्य धर्मानुकूल है, वही न्यायपरक है। इसीलिए प्लेटो ने न्याय को आत्मा का गुण माना है। प्लेटो की मान्यता है कि न्याय व्यक्ति का निजी चारित्रिक सद्गुण एवं राजनीतिक समाज को वांछनीय गुण है। न्याय नैतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक निर्णयन को प्रभावित करने वाला तत्व भी है।

वर्तमान समय में उपर्युक्त विचारों की प्रासंगिकता आधार रूप में है। मानव एक विवेकशील सामाजिक प्राणी है। वह कानूनों व नियमों से बँधा हुआ है अतएव वह कानूनी न्याय के अधीन है किन्तु आध्यात्मिकता, सद्चरित्रता, आत्मचिन्तन आदि ऐसी चीजें हैं जो सार्वभौमिक हैं और इनका पालन करने वाला व्यक्ति निश्चित ही न्याय का अनुसरण करेगा।

प्रश्न 5.
उपयोगितावादियों द्वारा दी गयी न्याय की अवधारणा परम्परागत दृष्टिकोण से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर:
उपयोगितावादियों द्वारा दी गयी न्याय की अवधारणा परम्परागत दृष्टिकोण से निम्नलिखित प्रकार से भिन्न है

क्र.संपरम्परागत दृष्टिकोणउपयोगितावादी दृष्टिकोण
1.न्याय नैतिक एवं विधिक है।न्याय का आशय नियमों का पालन करने से है।
2.सद्चरित्रता, सद्गुण, औचित्यपूर्णता आदि न्याय के स्रोत हैं।सार्वजनिक उपयोगिता एकमात्र न्याय का स्रोत है।
3.सार्वजनिक वस्तुओं व सेवाओं का वितरण योग्यता आधार पर आनुपातिक रूप में होना चाहिए।सार्वजनिक वस्तुओं व सेवाओं का वितरण उपयोगिता के के आधार पर होना चाहिए। अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख, न्याय का मूल है।
4.परम्परागत दृष्टिकोण के समर्थक प्लेटो, अरस्तू आदि हैं।उपयोगितावादी दृष्टिकोण के समर्थक डेविड ह्यूम, बेन्थम,जे.एस. मिल आदि हैं।

प्रश्न 6.
जॉन रॉल्स के न्याय सम्बन्धी विचार संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
जॉन रॉल्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ है। इसमें इन्होंने आधुनिक सन्दर्भ में सामाजिक न्याय का विश्लेषण किया है। इन्होंने न्याय सम्बन्धी परम्परागत विचारों का विरोध किया। रॉल्स के न्याय सम्बन्धी विचार दो मान्यताओं पर आधारित हैं

  1. सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाए कि इन दोनों से
    • न्यूनतम लाभान्वित व्यक्तियों अर्थात् सबसे अधिक पिछड़ों को अधिकतम लाभ हो तथा
    • प्रत्येक को उचित अवसर की समानता की स्थिति में पद और प्रतिष्ठा की प्राप्ति सुलभ हो।

रॉल्स ने न्याय के सिद्धान्त को प्राथमिकता के आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसीलिए इनका कहना है कि स्वतन्त्रता पर स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए ही प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। रॉल्स समाज के लिए सबसे औचित्यपूर्ण न्याय उस सिद्धान्त को मानता है जिसमें लोग स्वतः ही अज्ञानता के पर्दे को स्वीकार कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति मूलभूत नैतिक शक्तियों से सम्पन्न नैतिक व्यक्ति होता है।

प्रश्न 7.
न्याय के सार्वलौकिक एवं स्थिर तत्त्वों पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पाश्चात्य एवं भारतीय दोनों विचारधाराओं में न्याय के सार्वलौकिक एवं स्थिर तत्त्व के रूप में सद्चरित्रता को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यह ऐसा तत्त्व है जो सार्वलौकिक एवं स्थिर है। सद्चरित्र व्यक्ति के आचरण, उसकी दैनिक क्रिया, उसका आदर्श सदैव समाज के लिए अनुकरणीय रहा है और रहेगा। भारतीय परम्परा में धर्म को आदर्श माना गया है। धर्म का अभिप्राय कर्त्तव्य से है जो व्यक्ति अपना निर्दिष्ट कार्य करता है, दूसरों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करता है, वह न्याय का कार्य कर रहा है-ऐसा माना जाता है।

अरस्तू की धारणा कि जो उचित एवं विधिक है, जो समान एवं औचित्यपूर्ण वितरण का पक्ष लेता हो-वह न्याय संगत है-सार्वलौकिक धारणा है। आधुनिक विचारक डेविड ह्यूम की मान्यता सार्वजनिक उपयोगिता’ की है। उनके अनुसार वही न्यायपरक है जिसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों का ज्यादा से ज्यादा हित हो। जॉन स्टुअर्ट मिल ने भी उपयोगिता को ही न्याय का मूलमन्त्र माना है। ये धारणाएँ सार्वलौकिक एवं स्थिर हैं जिनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

प्रश्न 8.
“आर्थिक न्याय के अभाव में सामाजिक एवं राजनीतिक न्याय अर्थहीन है।” -स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक न्याय समाज में ऐसी व्यवस्था करने पर बल देता है जिसमें सामाजिक स्थिति के आधार पर व्यक्तियों में भेदभाव न हो और प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समान एवं पूर्ण अवसर प्राप्त हो। राजनीतिक न्याय समानता पर आधारित होता है।

एक राजव्यवस्था में सभी नागरिकों को समान अधिकार व विकास के समान अवसर प्राप्त होने चाहिए। राजनीतिक न्याय भेदभाव व असमानता को समाप्त कर सबके कल्याण की भावना पर आधारित होता है। आर्थिक न्याय का उद्देश्य समाज में आर्थिक समानता स्थापित करना है। आर्थिक न्याय धन-सम्पत्ति के आधार पर व्यक्तियों के बीच पाई जाने वाली असमानता की आलोचना करता है।

वास्तविकता यह है कि सामाजिक न्याय और राजनीतिक न्याय तब तक पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सकता जब तक नागरिकों को आर्थिक न्याय नहीं प्राप्त हो अर्थात् धन सम्पत्ति ही सभी व्यवस्थाओं का मूल है। जब तक नागरिकों में आर्थिक दृष्टि से गहरी खाई बनी रहेगी, अन्य किसी भी प्रकार के न्याय की आशा कोरी संकल्पना ही सिद्ध होगी।

प्रश्न 9.
“न्याय मूल रूप से एक नैतिक सिद्धान्त है जिसकी अलग – अलग विचारकों ने अपने-अपने ढंग से व्याख्या की है” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
न्याय का सीधा सम्बन्ध नैतिकता से है। जिस व्यक्ति के विचार, व्यवहार, रहन-सहन व कार्य नैतिक नियमों के अनुकूल हैं, ऐसा माना जाता है कि वह व्यक्ति न्यायपूर्ण कार्य कर रहा है। इसीलिए प्रारम्भ में न्यायपरायण व्यक्ति अर्थात् सद्चरित्र मनुष्य के गुणों पर विचार किया जाता था।

भारतीय परम्परा में ऐसा माना जाता था कि जो व्यक्ति धर्मपरायण है, वह कभी अनैतिक नहीं हो सकता। इसलिए राजनीतिक विचारकों ने न्याय सिद्धान्त में नैतिकता के पक्षों का समावेश अपने-अपने ढंग से किया है। प्लेटो ने न्याय को मनुष्य का आत्मीय गुण माना है। इन्होंने कहा है न्याय, व्यक्ति का एक निजी चारित्रिक सद्गुण है तथा समाज का वांछनीय गुण है।

अपना निर्दिष्ट कार्य करना और दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप न करना-यह एक नैतिक सिद्धान्त है, जिसे प्लेटो ने न्याय के रूप में स्वीकार किया है। अरस्तू ने संसाधनों के समान एवं औचित्यपूर्ण वितरण की बात कही है जो एक नैतिक सिद्धान्त है। प्रकृति ने सबको समान रूप से पैदा किया है अतएवं राज्य के संसाधनों में उसका समान अधिकार है।

सन्त ऑगस्टाइन ने तो न्याय को ईश्वरीय राज्य से सम्बद्ध किया है। इसी प्रकार एक्वीनास ने व्यवस्थित एवं अनुशासित जीवन और कर्तव्य पालन को न्याय माना है। डेविड ह्युम, जॉन स्टुअर्ट मिल आदि विचारकों ने जनसामान्य के अधिकतम सुख को ध्यान में रखकर सार्वजनिक वस्तुओं व सेवाओं के वितरण की व्यवस्था पर बल दिया है। ये सभी न्याय सम्बन्धी विचार इस बात की ओर संकेत करते हैं कि न्याय मूलतः एक नैतिक सिद्धान्त है जिसमें जनकल्याण को सर्वोपरि माना गया है।

RBSE Class 12 Political Science Chapter 1 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्याय से आप क्या समझते हैं? न्याय के परम्परागत सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
न्याय का अर्थ एवं परिभाषा-पाश्चात्य एवं भारतीय राजनीतिक दर्शनों में न्याय की अवधारणा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। न्याय न केवल राजनीतिक अपितु नैतिक चिन्तन का भी एक अनिवार्य अंग और महत्त्वपूर्ण आधार है। न्याय के अंग्रेजी रूपान्तरण शब्द justice’ की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Justitia’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है-‘जोड़ने का कार्य। इस प्रकार न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिनके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे से जुड़ा रहता है।

न्याय की अवधारणा यह है कि एक समाज में सभी व्यक्ति अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए अपने कर्तव्यों का भी पालन करें और इस प्रकार सम्पूर्ण समाज परस्पर जुड़ा रहे। सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति का अपना न्यायोचित स्थान है, उस स्थान को प्राप्त करना ही न्याय है।

विभिन्न राजनीतिक विचारकों ने न्याय की अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं प्लेटो के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति को अपना निर्दिष्ट कार्य करना और दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप न करना ही न्याय है।” अरस्तु के अनुसार, “न्याय वह सम्पूर्ण सद्गुण है जो हम एक-दूसरे के साथ व्यवहार में प्रदर्शित करते हैं।” डेविड ह्यूम के अनुसार, “न्याय के उदय का एकमात्र आधार सार्वजनिक उपयोगिता है।

सन्त ऑगस्टाइन के अनुसार, “न्याय एक व्यवस्थित व अनुशासित जीवन व्यतीत करने तथा उन कर्तव्यों का पालन करने में निहित है जिनकी व्यवस्था माँग करती है।” वर्तमान समय में न्याय के सम्बन्ध में केवल ऐसी संकल्पना को स्वीकार किया गया है जिसका निर्माण जीवन के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक यथार्थ को सामने रखकर किया गया है।

न्याय को परम्परागत सिद्धान्त:
न्याय के परम्परागत सिद्धान्त में सद्गुण, सद्चरित्र, सकार्य, आध्यात्मिकता, औचित्यपूर्णता को मानव का आत्मीय गुण मानकर न्याय की व्याख्या की गयी है। ऐसे कार्यों को जो उपर्युक्त तथ्यों पर खरे उतरते हों उन्हें न्यायपरक माना गया है। प्लेटो ने माना है कि न्याय आत्मा का मानवीय सद्गुण है। प्लेटो के अनुसार आत्मा में निहित न्याय का विचार वास्तव में राज्य में निहित न्याय का ही सादृश्य है। जिस प्रकार आत्मा में विद्यमान न्याय व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को सन्तुलित करता है, उसी प्रकार राज्य में व्याप्त न्याय समाज के तीनों वर्गों (शासक, सैनिक तथा उत्पादक) में सामन्जस्य स्थापित करता है।

अरस्तू ने माना है कि जो उचित और विधिक है, जो समान और औचित्यपूर्ण वितरण में आस्था रखता है, वही न्याय है। मध्यकालीन विचारक संत ऑगस्टाइन न्याय को राज्य का अपरिहार्य तत्व मानते हैं। थॉमस एक्वीनास ने कानून एवं न्याय को परस्पर सम्बद्ध मानते हुए लिखा है- “न्याय एक व्यवस्थित व अनुशासित जीवन व्यतीत करने तथा उन कर्तव्यों का पालन करने में निहित है जिनकी व्यवस्था माँग करती है।” प्रारम्भिक न्याय से सम्बन्धित न्याय विचार में मानव की नैतिकता, उसके सद्गुण तथा प्राकृतिक तथ्यों को प्रकृति प्रदत्त (ईश्वरीय) मानकर न्याय की अवधारणा को मान्यता दी गयी है।

परश्न 2.
प्लेटो व अरस्तू के न्याय पर विचारों की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
प्लेटो व अरस्तू के न्याय सम्बन्धी विचार-न्याय के सम्बन्ध में प्लेटो व अरस्तू के विचारों को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है प्लेटो के न्याय सम्बन्धी विचार-न्याय के सम्बन्ध में विचार सर्वप्रथम यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने रखे। इनके चिंतन का मुख्य आधार न्याय की संकल्पना थी। प्लेटो का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘रिपब्लिक’ है जिसमें इन्होंने न्याय की प्रकृति और उसके विषय क्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या की है। प्लेटो ने न्याय को मनुष्य का आत्मीय गुण माना है। प्लेटो के अनुसार, न्याय वह सद्गुण है जिससे प्रेरित होकर मनुष्य सबकी भलाई में अपना भला हूँढता है। प्लेटो की मान्यता है कि न्याय वह धारणा है। जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना निर्दिष्ट कार्य करता है और वह दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता। प्लेटो ने न्याय के दो रूप माने हैं-

  1. व्यक्तिगत न्याय तथा
  2. सामाजिक या राज्य से सम्बन्धित न्याय।

प्लेटो ने न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए नागरिकों के तीन वर्ग बनाए-शासकवर्ग, सैनिक वर्ग और उत्पादक वर्ग। उसने यह तर्क दिया कि जब ये तीनों की अपने-अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करेंगे, तब राज्य की व्यवस्था अपने आप न्यायपूर्ण होगी। दूसरों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप को प्लेटो ने व्यक्ति और राज्य दोनों के लिए अनिष्टकारी माना है। प्लेटो न्याय को आत्मा का मानवीय सद्गुण मानता है। प्लेटो के अनुसार आत्मा में निहित न्याय का विचार राज्य में निहित न्याय के समान है। आत्मा में निहित न्याय की धारणा व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को सन्तुलित करती है। राज्य में व्याप्त न्याय समाज के प्रत्येक वर्गों में सामन्जस्य स्थापित करता है। प्लेटो ने न्याय के सिद्धान्त को एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित किया।

अरस्तू के न्याय सम्बन्धी विचार:
प्लेटो की भाँति अरस्तू ने भी न्याय को राज्य के लिए एक आवश्यक तत्व माना है। अरस्तु के अनुसार न्याय का सरोकार मानवीय सविधानों के नियमन से है। अरस्तू का विश्वास था कि लोगों के मन में न्याय के बारे में एक जैसी धारणा के कारण ही राज्य अस्तित्व में आता है। अरस्तु के अनुसार न्याय में वह सब सम्मिलित है। जो उचित एवं विधिक है तथा जो समान और औचित्यपूर्ण वितरण में आस्था रखता हो। साथ ही जो इस बात पर बल देता हो कि जो अन्यायपूर्ण है उसमें वांछित सुधार की सम्भावना सदैव बनी रहती है। अरस्तू ने न्याय के दो भेद माने हैं

  1. वितरणात्मक या राजनीतिक न्याय तथा
  2. सुधारात्मक न्याय।

वितरणात्मक न्याय का सिद्धान्त यह है कि राजनीतिक पदों की पूर्ति नागरिक की योग्यता और उनके द्वारा राज्य के प्रति की गयी सेवा के अनुसार हो समानता की इस अवधारणा के अनुसार लाभ व उत्तरदायित्व व्यक्ति की क्षमता व सामर्थ्य के अनुपात में ही होना चाहिए। सुधारात्मक न्याय में राज्य का उत्तरदायित्व है कि वह व्यक्ति के जीवन, सम्पत्ति, सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा करे। अरस्तू वितरणात्मक न्याय से प्राप्त मनुष्यों के अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य द्वारा दी गयी व्यवस्था को सुधारात्मक न्याय की संज्ञा देता है।

प्रश्न 3.
आपकी राय में न्याय की भारतीय व पाश्चात्य अवधारणा में क्या भिन्नता/साम्यता है? विवेचन कीजिए।
उत्तर:
न्याय की भारतीय व पाश्चात्य अवधारणा में भिन्नता/साम्यता-पाश्चात्य एवं भारतीय राजनीतिक चिन्तन में न्याय की अवधारणा के सम्बन्ध में भिन्नता व साम्यता का अध्ययन निम्न प्रकार से किया जा सकता है
समानता:

  1. पाश्चात्य एवं भारतीय दोनों विचारकों ने न्याय की निष्पक्षता को राजनीतिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण माना है।
  2.  दोनों ही मान्यताओं में मनुष्य के कर्तव्य पालन पर बल दिया गया है।
  3.  दोनों मान्यताओं के अनुसार, मानव द्वारा अपना निर्दिष्ट कार्य करना और दूसरे के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करना न्याय माना गया है।
  4. प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तकों-मनु एवं कौटिल्य ने पाश्चात्य विचारकों के समान न्याय की निष्पक्षता एवं सत्यता पर अधिक बल दिया था।
  5. प्रजा की सम्पत्ति व जीवन की रक्षा करना तथा असामाजिक तत्वों एवं अव्यवस्था उत्पन्न करने वालों को दण्डित करना आदि दोनों विचारकों के समान मत हैं।
  6. प्राचीन भारतीय राजनीतिक व सामाजिक चिन्तन में विद्यमान धर्म की अवधारणा प्लेटो के न्याय सिद्धान्त से बहुत कुछ मिलती – जुलती है।

असमानता:

  1. पाश्चात्य परम्परा में न्याय के स्वरूप की व्याख्या सद्चरित्र मनुष्य के गुणों के आधार पर की जाती थी जबकि भारतीय चिन्तन में धर्म को ही न्याय के रूप में मान्यता दी गयी थी।
  2. जहाँ प्लेटो की न्याय की अवधारणा मूलत: राजनीतिक व सामाजिक थी, वहीं भारतीय चिन्तन में पहले ही न्याय के कानूनी रूप को स्वीकार कर लिया गया था।

प्रश्न 4.
न्याय के विविध रूपों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
न्याय के विविध रूप-परम्परागत रूप में न्याय की दो ही अवधारणाएँ प्रचलित रही हैं-नैतिक और कानूनी। किन्तु आज न्याय को व्यापक रूपों में ग्रहण किया जाने लगा है। आज कानूनी न्याय की अपेक्षा सामाजिक और आर्थिक न्याय को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है। न्याय के विविध रूप निम्नलिखित हैं

1. नैतिक न्याय-नैतिक न्याय नैतिकता पर आधारित होता है। यह न्याय कुछ प्राकृतिक नियमों और प्राकृतिक अधिकारों द्वारा निर्दिष्ट होता है। जब व्यक्ति का आचरण सदाचारी व समाजोनुकूल हो तो वह नैतिक न्याय की अवस्था है। जब व्यक्ति का आचरण और व्यवहार नैतिकता के परे होता है तो वह नैतिक न्याय के विरुद्ध माना जाता है। प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान काल तक समस्त चिंतक सत्य, अहिंसा, करुणा, वचनबद्धता व उदारता आदि गुणों को नैतिक सिद्धांत मानते आ रहे हैं।

2. कानूनी न्याय-कानूनी न्याय में वे सभी नियम व कानूनी व्यवहार सम्मिलित हैं जिनका अनुसरण किया जाना अपेक्षित होता है। इसके अन्तर्गत दो बातें आती हैं

  • कानूनों का न्यायोचित होना तथा
  • कानूनों को न्यायोचित ढंग से लागू होना। इसके साथ ही जो व्यक्ति कानून का उल्लंघन करता है, उसे पक्षपात रहित होकर दण्डित किया जाना चाहिए।

3. राजनीतिक न्याय-राजनीतिक न्याय का अर्थ है राज्य के मामलों में जनता की भागीदारी। सभी व्यक्तियों को व्यवस्था के आधार पर मताधिकार देना एवं सरकारी पदों पर सबको समान अधिकार तथा चुनाव लड़ने का अधिकार प्रदान कराना आदि राजनीतिक न्याय के अन्तर्गत सम्मिलित हैं। राजनीतिक न्याय में समानता महत्वपूर्ण है।

यह भेदभाव व असमानता को अस्वीकार करता है। यह सभी व्यक्तियों के कल्याण पर आधारित होना चाहिए। इस प्रकार का न्याय प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में ही सम्भव है। राजनीतिक न्याय की प्राप्ति संविधान एवं संवैधानिक शासन से ही हो सकती है। किसी विशेष वर्ग व व्यक्ति को विशेष अधिकार प्रदान न करना राजनीतिक न्याय का एक अन्य प्रमुख गुण है।

4. सामाजिक न्याय-सामाजिक स्थिति के आधार पर व्यक्तियों में भेदभाव न करना और प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तित्व के विकास का पूर्ण अवसर प्रदान करना सामाजिक न्याय का आधार है। राज्य को प्रत्येक व्यक्ति को अच्छा जीवन जीने के लिए सुविधाएँ उपलब्ध कराना चाहिए। सामाजिक न्याय के अभाव में समानता व स्वतंत्रता जैसे मूल्यों का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। जॉन राल्स नामक राजनीतिक विचारक ने सामाजिक न्याय को विशेष महत्व प्रदान किया है।

5. आर्थिक न्याय-आर्थिक न्याय का उद्देश्य समाज में आर्थिक समानता लाना है। आर्थिक न्याय का सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि आर्थिक संसाधनों का वितरण करते समय राज्य व्यवस्था को व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का ध्यान रखना चाहिए। आर्थिक न्याय गरीबों और अमीरों के बीच की खाई को कम करने पर बल देता है।

 RBSE Class 12 Political Science Chapter 1 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Political Science Chapter 1 बहुंचयनात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘रिपब्लिक’ निम्न में से किसके द्वारा लिखित ग्रन्थ है?
(अ) अरस्तू
(ब) प्लेटो
(स) संत ऑगस्टाइन
(द) हॉब्स।

प्रश्न 2.
प्लेटो ने मानवीय आत्मा में विद्यमान तत्वों में किसे नहीं शामिल किया है?
(अ) तृष्णा
(ब) शौर्य
(स) सत्य
(द) बुद्धि।

प्रश्न 3.
‘न्याय मानवीय सम्बन्धों का नियमन है’- यह कथन किससे सम्बद्ध है?
(अ) प्लेटो
(ब) अरस्तू
(स) हॉब्स
(द) जे.एस.मिल।

प्रश्न 4.
‘ईश्वरीय राज्य का सिद्धान्त’ निम्न विचारकों में से किससे सम्बन्धित है?
(अ) अरस्तू
(ब) कार्ल मार्क्स
(स) डेविड ह्यूम
(द) संत ऑगस्टाइन

प्रश्न 5.
निम्न में से किसे उपयोगितावाद का प्रवर्तक माना जाता है?
(अ) थॉमस एक्वीनास
(ब) हॉब्स
(स) जे.एस.मिल
(द) जैरेमी बेन्थम्।

प्रश्न 7.
‘अज्ञानता के पर्दे’ सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं
(अ) जॉन रॉल्स
(ब) कौटिल्य
(स) जेरेमी बेन्थम
(द) काण्ट।

प्रश्न 8.
‘अर्थशास्त्र’ निम्न में से किसके द्वारा लिखित ग्रन्थ है?
(अ) मनु
(ब) कौटिल्य
(स) शुक्र
(द) बृहस्पति

प्रश्न 9.
सत्य, करुणा, उदारता, अहिंसा आदि गुण किस प्रकार के न्याय से सम्बद्ध हैं?
(अ) कानूनी न्याय
(ब) राजनीतिक न्याय
(स) नैतिक न्याय
(द) सामाजिक न्याय।

प्रश्न 10.
किस प्रणाली में सम्पूर्ण वितरण के मानदण्ड पूर्व निर्धारित होते हैं?
(अ) शुद्ध प्रतिस्पर्धात्मक प्रणाली
(ब) शुद्ध सत्तावादी प्रणाली
(स) काल्पनिक साम्यवादी समाज
(द) लोकतन्त्रात्मक प्रणाली।

उत्तर:
1. (ब), 2. (स), 3. (ब), 4. (द), 5. (द), 6. (ब), 7. (अ), 8. (ब), 9. (स), 10. (ब)।

RBSE Class 12 Political Science Chapter 1 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्लेटो के अनुसार न्याय से क्या तात्पर्य है? अथवा प्लेटो के अनुसार न्याय को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
प्लेटो के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपना निर्दिष्ट कार्य करना और दूसरों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करना ही न्याय है।”

प्रश्न 2.
किस राजनीतिक चिंतक ने अपने दर्शन में न्याय को मनुष्य को आत्मीय गुण माना है?
उत्तर:
प्लेटो ने।

प्रश्न 3.
अपने चिंतन में न्याय को प्रमुख स्थान देने वाले किन्हीं चार पाश्चात्य पश्चिमी राजनीतिक विचारकों को नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. प्लेटो
  2. अरस्तू,
  3. ऑगस्टाइन
  4. हॉब्स।

प्रश्न 4.
प्लेटो की भाँति न्याय को एक मौलिक सद्गुण किस राजनीतिक चिंतक ने माना है?
उत्तर:
ऑगस्टाइन ने।

प्रश्न 5.
इबेन्स्टीन ने प्लेटो के न्याय-दर्शन के विषय में क्या कहा है?
उत्तर:
इबेन्स्टीन ने प्लेटो के न्याय दर्शन के विषय में लिखा है – ‘न्याय के विचार – विमर्श में प्लेटो के राजनीतिक दर्शन के सभी तत्व निहित हैं।”

प्रश्न 6.
प्लेटो ने न्याय के किन दो रूपों का उल्लेख किया है।
उत्तर:

  1. व्यक्तिगत न्याय,
  2. सामाजिक या राज्य से सम्बन्धित न्याय ।

प्रश्न 7.
प्लेटो ने न्याय सिद्धान्त में मानवीय आत्मा में निहित किन तीन तत्त्वों का उल्लेख किया है ?
उत्तर:
प्लेटो ने अपने न्याय सिद्धान्त में मानवीय आत्मा में निम्नलिखित तीन तत्त्वों का उल्लेख किया है-तृष्णा, शौर्य और बुद्धि।

प्रश्न 8.
शासक वर्ग में किस आत्मिक मानवीय तत्त्व की प्रधानता मिलती हैं?
उत्तर:
शासक वर्ग में बुद्धि रूपी मानवीय आत्मिक तत्त्व की प्रधानता पाई जाती है।

प्रश्न 9.
प्लेटो ने उत्पादक या सहायक वर्ग में किस मानवीय आत्मा के तत्त्व की प्रधानता बताई है?
उत्तर:
प्लेटो ने उत्पादक या सहायक वर्ग में इन्द्रिय तृष्णा व इच्छा तत्त्व की प्रधानता बताई है।

प्रश्न 10.
किस पाश्चात्य विचारक ने न्याय को एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित किया है न कि एक कानूनी सिद्धान्त के रूप में?
उत्तर:
प्लेटो ने।

प्रश्न 11.
अरस्तू के अनुसार न्याय का सरोकार किससे है?
उत्तर:
अरस्तु के अनुसार न्याय का सरोकार मानवीय सम्बन्धों के नियमन से है।

प्रश्न 12.
अरस्तू का वितरणात्मक न्याय क्या है?
उत्तर:
अरस्तू के वितरणात्मक न्याय के अनुसार राजनीतिक पदों की पूर्ति नागरिकों की योग्यता और उनके द्वारा राज्य के प्रति की गयी सेवा के अनुसार होनी चाहिए।

प्रश्न 13.
सुधारात्मक न्याय से अरस्तू का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
अरस्तू के सुधारात्मक न्याय से अभिप्राय ऐसे न्याय से है जो नागरिकों के अधिकारों की अन्य व्यक्तियों के द्वारा हनन की रोकथाम पर बल देता हो।

प्रश्न 14.
अरस्तू के सुधारात्मक न्याय में राज्य का क्या उत्तरदायित्व है?
उत्तर:
अरस्तू के सुधारात्मक न्याय में राज्य का उत्तरदायित्व है कि वह व्यक्ति के जीवन, सम्पत्ति, स्वतंत्रता एवं सम्मान की रक्षा करे।

प्रश्न 15.
मध्यकालीन दो ईसाई विचारकों के नाम बताइये जिन्होंने न्याय की अवधारणाएँ प्रस्तुत की हैं।
उत्तर:
न्याय के सम्बन्ध में अवधारणाएँ प्रस्तुत करने वाले दो मध्यकालीन ईसाई विचारक हैं

  1. संत ऑगस्टाइन
  2. थॉमस एक्वीनास

प्रश्न 16.
ईश्वरीय राज्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया?
उत्तर:
संत ऑगस्टाइन ने।

प्रश्न 17.
संत ऑगस्टाइन द्वारा लिखित पुस्तक का नाम बताइए।
उत्तर:
‘द सिटी ऑफ गॉड’।

प्रश्न 18.
संत ऑगस्टाइन किस सन्दर्भ में न्याय की विवेचना करते हैं?
उत्तर:
संत आगस्टाइने परिवार, लौकिक राज्य और ईश्वरीय राज्य के सन्दर्भ में न्याय की विवेचना करते हैं।

प्रश्न 19.
संत ऑगस्टाइन के अनुसार न्याय क्या है?
उत्तर:
संत ऑगस्टाइन के अनुसार व्यक्ति द्वारा ईश्वरीय राज्य के प्रति कत्तव्य पालन ही न्याय है।

प्रश्न 20.
मध्यकाल में किस राजनीतिक चिंतक ने ईश्वरीय राज्य में न्याय को एक अपरिहार्य तत्व माना?
उत्तर:
संत ऑगस्टाइन ने।

प्रश्न 21.
थॉमस एक्वीनास ने न्याय की क्या परिभाषा दी है?
उत्तर:
थॉमस एक्वीनास के अनुसार, “न्याय एक व्यवस्थित एवं अनुशासित जीवन व्यतीत करने तथा उन कर्तव्यों का पालन करने में निहित है जिसकी व्यवस्था माँग करती है।

प्रश्न 22.
समानता को न्याय का मौलिक तत्व किस राजनीतिक चिंतक ने माना?
उत्तर:
थॉमस एक्विनास ने।

प्रश्न 23.
आधुनिक काल में न्याय सम्बन्धी धारणा के कोई दो प्रतिपादक बताइए।
उत्तर:

  1. डेविड ह्यूम
  2. जेरेमी बेंथम।

प्रश्न 24.
उपयोगितावाद के प्रवर्तक कौन थे?
उत्तर:
जैरेमी बेथम।

प्रश्न 25.
किस राजनीतिक चिंतक ने अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख को ही न्याय का मूल मंत्र माना है?
उत्तर:
जैरेमी बेंथम ने।

प्रश्न 26.
न्याय में उपयोगितावाद की विचारधारा के समर्थक किन्हीं दो राजनीतिक विचारकों के नाम बताइए।
उत्तर:
न्याय में उपयोगितावाद के समर्थक दो प्रमुख राजनीतिक विचारक हैं-

  1. जेरेमी बेन्थम,
  2. जॉन स्टूअर्ट मिल।

प्रश्न 27.
अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ अवधारणा का सम्बन्ध उपयोगितावाद से है। इसका तात्पर्य यह है कि सार्वजनिक वस्तुओं व सेवाओं आदि का वितरण उपयोगिता के आधार पर होना चाहिए।

प्रश्न 28.
किन्हीं पाँच भारतीय राजनीतिक विचारकों के नाम बताइए, जिन्होंने राज्य व्यवस्था में न्याय को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है?
उत्तर:
इस तरह के पाँच प्रमुख भारतीय राजनीतिक विचारकों के नाम हैं – मनु, कौटिल्य, बृहस्पति, शुक्र एवं विदुर ।

प्रश्न 29.
जॉन रॉल्स द्वारा लिखित पुस्तक का नाम बताइये।
उत्तर:
जॉन रॉल्स द्वारा लिखित पुस्तक ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ है।

प्रश्न 30. न्याय के सन्दर्भ में ‘स्वधर्म ‘ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
न्याय में ‘स्वधर्म’ से अभिप्राय व्यक्ति के कर्तव्य पालन से है।

प्रश्न 31.
प्लेटो एवं भारतीय विचारकों की न्याय की अवधारणा में क्या अंतर है?
उत्तर:
प्लेटो की न्याय की अवधारणा मूलतः राजनीतिक व सामाजिक थी जबकि भारतीय चिंतन में न्याय को कानूनी रूप में स्वीकार किया गया है।

प्रश्न 32.
किन्हीं दो प्राचीन भारतीय चिंतकों के नाम बताइए जिन्होंने न्याय की निष्पक्षता को राज्य व्यवस्था की आधारभूत पूर्णता माना है?
उत्तर:
मनु व कौटिल्य

प्रश्न 33.
परम्परागत रूप में न्याय की कौन-सी अवधारणाएँ प्रचलित हैं?
उत्तर:

  1. नैतिक न्याय,
  2. कानूनी न्याय।

प्रश्न 34.
न्याय के विविध रूपों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. नैतिक न्याय,
  2. कानूनी न्याय,
  3. राजनीतिक न्याय
  4. सामाजिक न्याये।

प्रश्न 35.
नैतिक सिद्धान्त के तत्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नैतिक सिद्धान्त के तत्व हैं – सत्य, करुणा, अहिंसा, वचनबद्धता एवं उदारता – आदि।

प्रश्न 36.
कानूनी न्याय के दो आधारभूत सिद्धान्त क्या हैं?
उत्तर:

  1. सरकार द्वारा निर्मित कानून न्यायोचित होने चाहिए तथा
  2. सरकार द्वारा कानूनों को न्यायपूर्ण ढंग से लागू किया जाना चाहिए और कानून उल्लंघन की स्थिति में निष्पक्ष दण्ड का प्रावधान होना चाहिए।

प्रश्न 37.
सामाजिक न्याय को प्रमुखता देने वाले दो राजनीतिक चिन्तकों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. कार्ल मार्क्स तथा
  2. जॉन रॉल्स

प्रश्न 38.
कार्ल मार्क्स के अनुसार समाज में वर्ग संघर्ष की स्थिति कब उत्पन्न होती है?
उत्तर:
कार्ल मार्क्स के अनुसार, समाज में जब गरीब और अमीर के बीच खाई अधिक गहरी हो जाती है, तो वर्गसंघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है।

प्रश्न 39.
परम्परागत न्याय के प्रमुख विचारक कौन थे?
उत्तर:

  1. प्लेटो
  2. अरस्तू।

प्रश्न 40.
न्याय के परम्परागत व आधुनिक दृष्टिकोण में एक अंतर बताइए।
उत्तर:
परम्परागत न्याय का सम्बन्ध व्यक्ति के चरित्र से था जबकि आधुनिक दृष्टिकोण का सम्बन्ध सामाजिक न्याय से है।

प्रश्न 41.
न्याय को सामाजिक उपयोगिता का सबसे महत्वपूर्ण तत्व किसने माना?
उत्तर:
जॉन स्टूअर्ट मिल ने।

प्रश्न 42.
उन प्रणालियों का उल्लेख कीजिए जिनमें न्याय की चर्चा निरर्थक है।
उत्तर:
निम्न प्रणालियों में न्याय की चर्चा निरर्थक है –

  1. शुद्ध सत्तावादी प्रणाली।
  2. शुद्ध प्रतिस्पर्धात्मक प्रणाली तथा
  3. काल्पनिक साम्यवादी समाज।

RBSE Class 12 Political Science Chapter 1 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्याय की किन्हीं पाँच विशेषताओं का वर्णन कीजिए अथवा प्लेटो के अनुसार न्याय के लक्षण बताइए।
उत्तर:
न्याय की विशेषताएँ / लक्षण – न्याय की व्याख्या अलग – अलग विचारकों ने अपने – अपने ढंग से की है। पाश्चात्य विचारक प्लेटो ने न्याय की निम्नलिखित पाँच विशेषताएँ बताई हैं

  1. न्याय मनुष्य का आत्मीय गुण है।
  2. न्याय वह सद्गुण है जिससे प्रेरित होकर मनुष्य सबकी भलाई में अपना भला हूँढ़ता है।
  3. प्लेटो ने न्याय को एक राजनीतिक एवं नैतिक प्रत्यय माना है।
  4. न्याय व्यक्ति का निजी चारित्रिक गुण होने के साथ समाज का वांछनीय गुण भी है।
  5. न्याय नैतिक, सामाजिक व राजनीतिक निर्णयन की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाला तत्व है।

प्रश्न 2.
वितरणात्मक न्याय के सम्बन्ध में अरस्तू के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वितरणात्मक न्याय के सम्बन्ध में अरस्तू के विचार – वितरणात्मक न्याय के सम्बन्ध में अरस्तू की धारणा यह है कि पद – प्रतिष्ठा व धन – सम्पदा का वितरण अंकगणितीय अनुपात से नहीं अपितु रेखागणितीय अनुपात में होना चाहिए, अर्थात् इनमें सबको बराबर हिस्सा नहीं मिलना चाहिए बल्कि प्रत्येक को अपनी – अपनी योग्यता के अनुसार हिस्सा मिलना चाहिए। इस सम्बन्ध में अरस्तू का मत है

  1.  शक्ति एवं संरक्षण का वितरण व्यक्ति की योग्यता एवं योगदान के अनुरूप हो।
  2. अरस्तू आनुपातिक समानता का पक्षधर है।
  3. अरस्तु के अनुसार शासन की बागडोर उन्हीं को सौंपी जानी चाहिए जिनमें शासन करने की योग्यता व क्षमता हो।
  4. लाभ एवं उत्तरदायित्व व्यक्ति की क्षमता व सामर्थ्य के अनुपात में ही होना चाहिए।

प्रश्न 3.
सुधारात्मक न्याय के सम्बन्ध में अरस्तू ने राज्य के क्या कर्त्तव्य बताये हैं?
उत्तर:
सुधारात्मक न्याय के सम्बन्ध में अरस्तु के अनुसार राज्य के कर्तव्य – सुधारात्मक न्याय नागरिकों के अधिकारों की अन्य व्यक्तियों के द्वारा हनन के रोकथाम की व्यवस्था करता है। इस सम्बन्ध में अरस्तू ने राज्य के निम्नलिखित दो कर्तव्य बताये हैं राज्य के कर्तव्य – अरस्तू प्लेटो के शिष्य थे। उन्होंने न्याय का सम्बन्ध मानवीय सम्बन्धों के नियमन से माना है। अरस्तू ने न्याय के दो रूप माने हैं जिसमें से सुधारात्मक न्याय एक प्रमुख रूप है

  1. राज्य व्यक्ति के जीवन, सम्मान, सम्पत्ति और स्वतन्त्रता की रक्षा करे। तथा
  2.  वितरणात्मक न्याय से प्राप्त मनुष्य के अधिकारों की रक्षा राज्य द्वारा की जानी चाहिए।

प्रश्न 4.
मध्यकाल में न्याय सम्बन्धी विचारों को संक्षेप में बताइए। अथवा न्याय के सम्बन्ध में ऑगस्टाइन व थॉमस एक्विनास के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मध्यकाल में न्याय सम्बन्धी विचार – मध्यकाल में ईसाई विचारकों ने न्याय की व्याख्या अपने – अपने ढंग से की है। संत ऑगस्टाइन ने ‘ईश्वरीय राज्य’ की अवधारणा में न्याय को इसका आवश्यक तत्व माना है। इन्होंने लिखा है -“जिन राज्यों में न्याय विद्यमान नहीं है, वे केवल चोर उचक्कों की खरीद फरोख्त हैं।” मध्यकाल के द्वितीय प्रमुख विचारक थॉमस एक्वीनास ने समानता को न्याय का मौलिक आधार माना है। उन्होंने कानून और न्याय को परस्पर सम्बन्धित बताते हुए लिखा है-“न्याय एक व्यवस्थित और अनुशासित जीवन व्यतीत करने तथा उन कर्तव्यों का पालन करने में निहित है, जिनकी व्यवस्था माँग करती है।”

प्रश्न 5.
उपयोगितावादियों ने न्याय की व्याख्या किस प्रकार की है?
उत्तर:
उपयोगितावादियों के अनुसार न्याय की व्याख्या – उपयोगितावादी विचारकों में डेविड ह्यूम, जैरेमी बेन्थम तथा जॉन स्टूअर्ट मिल के विचारों का उल्लेख न्याय के सन्दर्भ में किया गया है। इस सम्बन्ध में इनकी मान्यताएँ निम्न हैं:

  1. डेविड ह्यूम के अनुसार-सार्वजनिक उपयोगिता को न्याय का एकमात्र स्रोत होना चाहिए।
  2. जैरेमी बेन्थम के अनुसार-सार्वजनिक वस्तुओं, सेवाओं आदि का वितरण उपयोगिता के आधार पर होना चाहिए। जिनका सूत्र अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख है।
  3. जॉन स्टूअर्ट मिल ने न्याय को सामाजिक उपयोगिता का महत्वपूर्ण तत्व माना है। इन्होंने उपयोगिता को ही न्याय का मूल मन्त्र माना है।

प्रश्न 6.
भारतीय राजनीतिक चिंतन में न्याय सम्बन्धी धारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय राजनीतिक चिंतन में न्याय सम्बन्धी धारणा – भारतीय राजनीतिक चिंतन में न्याय को विशेष महत्व प्रदान किया गया है। मनु, कौटिल्य, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, विदुर एवं सोमदेव आदि विचारकों ने न्याय को राज्य का प्राण माना है। मनु और कौटिल्य ने न्याय में निष्पक्षता और सत्यता पर बल दिया है तथा कहा है कि जो राजा पृथ्वी पर अपनी प्रजा के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं कर सकता वह जीवित रहने के योग्य नहीं है। न्याय का उद्देश्य प्रजा के लिए सुखी जीवन की व्यवस्था कर उसके दुखों का निवारण करना है।

शुक्र ने राज्य की न्यायपालिका को संगठित करने एवं न्यायिक व्यवस्था को ऐसा स्वरूप प्रदान करने की अपेक्षा की है कि न्याय-कार्य बिना किसी पक्षपात के निष्पक्ष रीति से सम्पन्न हो प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में धर्म का प्रयोग न्याय के सादृश्य ही हुआ है। कर्म की प्राचीन भारतीय अवस्था तथा व्यक्ति को समाज में उसके नियत स्थान एवं निर्दिष्ट कर्तव्य का ज्ञान कराती हैं। भारतीय चिंतन में न्याय को कानूनी रूप में स्वीकार कर लिया गया है।

प्रश्न 7.
नैतिक न्याय की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नैतिक न्याय की अवधारणा-न्याय की मूल धारणा नैतिकता पर आधारित है। न्याय और नैतिकता भी एक – दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। नैतिक न्याय कुछ प्राकृतिक नियमों एवं प्राकृतिक अधिकारों द्वारा निर्दिष्ट होता है। जब व्यक्ति का आचरण सदाचारी और समाज के अनुकूल होता है तो उसे नैतिक न्याय की अवसथा कहा जाता है। जब व्यक्ति का आचरण और व्यवहार नैतिकता से परे होता है तो वह नैतिक न्याय के विरूद्ध माना जाता है। प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक समस्त राजनीतिक चिंतक सत्य, अहिंसा, करुणा, वचनबद्धता एवं उदारता आदि गुणों को नैतिक सिद्धान्तों के अन्तर्गत मानते चले आ रहे हैं।

प्रश्न 8.
राजनीतिक न्याय प्राप्त करने के साधनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक न्याय प्राप्त करने के साधन-राजनीतिक न्याय की अवधारणा समानता व समता पर आधारित है। एक राजव्यवस्था में सभी व्यक्तियों को समान अधिकार व अवसर प्राप्त होने चाहिए। भेदभाव व असमानता न हो। सभी व्यक्तियों का कल्याण हो – ऐसी अवधारणा राजनीतिक न्याय से सम्बद्ध है। प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में राजनीतिक न्याय प्राप्त करने के निम्न साधनों का उल्लेख किया गया है

  1. वयस्क मताधिकार
  2. विचार, भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
  3. बिना किसी भेदभाव के सार्वजनिक पद पर आसीन होने का अधिकार व अवसर प्रदत्त होना।
  4. किसी विशेष वर्ग व व्यक्ति को विशेष अधिकार प्रदान न करना आदि।

प्रश्न 9.
आर्थिक न्याय की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आर्थिक न्याय की अवधारणा–आर्थिक न्याय की अवधारणा समाज में आर्थिक समानता स्थापित करने की पक्षधर है किन्तु व्यवहार में ऐसा सम्भव नहीं हो सका है। आर्थिक न्याय सिद्धान्त की मान्यता है कि

  1. आर्थिक संसाधनों का वितरण करते समय राज्य व्यवस्था को व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का ध्यान रखना चाहिए।
  2. आर्थिक न्याय गरीबी और अमीरी के बीच की असमानता को कम करने पर बल देता है।
  3. यह व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधिकार को सीमित करने पर बल देता है। समाजवादी विचारक कार्ल मार्क्स ने लिखा है कि जिस समाज में आर्थिक विषमता की स्थिति जितनी अधिक गहरी होगी वहाँ वर्ग संघर्ष की स्थिति उतनी ही जटिल बनी रहेगी।

RBSE Class 12 Political Science Chapter 1 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्लेटो ने राज्य और समाज का वर्गीकरण किन आधारों पर किया है? बताइए।
उत्तर:
प्लेटो के अनुसार समाज के वर्गीकरण के आधार:
प्राचीन यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो के चिंतन को मुख्य आधार न्याय की संकल्पना थी। उसने न्याय की जो तस्वीर खींची, वह परम्परागत दृष्टिकोण का एक उपयुक्त उदाहरण है। प्लेटो ने न्याय की स्थापना के उद्देश्य से नागरिकों के कर्तव्यों पर बल दिया। प्लेटो ने अपनी पुस्तक रिपब्लिक के भाग – I, I, III एवं IV में न्याय का बड़े ही रोचक तरीके से वर्णन किया है। प्लेटो ने न्याय सिद्धान्त को एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में मान्यता दी है। इन्होंने न्याय के दो रूप माने हैं-

  1. व्यक्तिगत न्याय व
  2. सामाजिक या राज्य से सम्बन्धित न्याय। प्लेटो ने मानवीय आत्मा के तीन तत्वों का उल्लेख किया है-
    •  बुद्धि,
    •  शौर्य तथा
    • तृष्णा

इन तत्वों की मात्रा के आधार पर इन्होंने राज्य और समाज को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा है

  1. शासक या अभिभावक वर्ग – यह समाज का सबसे प्रभावशाली वर्ग है। यह सम्पूर्ण राज्य अथवा समाज का प्रतिनिधित्व करता है। इस वर्ग में बुद्धि का अंश सर्वाधिक मात्रा में पाया जाता है।
  2. सैनिक वर्ग या रक्षक वर्ग-यह मध्यम स्तर का वर्ग है। इसका काम सम्पूर्ण समाज व राज्य की रक्षा करना होता है। इस वर्ग में शौर्य तत्व की प्रधानता होती है।
  3. उत्पादक या सहायक वर्ग-यह समाज का निचले स्तर का वर्ग है। इसे आधार वर्ग भी कहा जा सकता है। इस वर्ग में इन्द्रिय, तृष्णा व इच्छा तत्व की अधिकता पाई जाती है।

प्लेटो की मान्यता है कि सभी मनुष्यों में तीनों तत्व न्यूनाधिक मात्रा में पाये जाते हैं। परन्तु जिस तत्व की मात्रा या अंश की प्रधानता जिस व्यक्ति में अधिक होती है, वही उसके सद्गुणों को प्रवृत्त कर देती है। प्लेटो ने तर्क दिया कि जब ये तीनों वर्ग अपने-अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करेंगे, तब राज्य की व्यवस्था अपने आप न्यायपूर्ण हो जाएगी। प्लेटो ने दूसरों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप को व्यक्ति और राज्य दोनों के लिए अनिष्टकारी माना है।

प्रश्न 2.
न्याय के ऐतिहासिक विकास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
न्याय को ऐतिहासिक विकास – न्याय की ऐतिहासिक विकास यात्रा का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत है
(i) प्लेटो का न्याय सिद्धान्त – न्याय के सम्बन्ध में सर्वप्रथम विचार यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने प्रस्तुत किए। प्लेटो का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘रिपब्लिक’ है जिसमें उन्होंने न्याय की प्रकृति और उसके विषय क्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या की है। प्लेटो ने न्याय को मनुष्य को आत्मीय गुण माना है। प्लेटो के अनुसार न्याय वह सद्गुण है जिससे प्रेरित होकर मनुष्य सबकी भलाई में अपना भला ढूढ़ता है।

प्लेटो की मान्यता है कि न्याय वह धारणा है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना निर्दिष्ट कार्य करता है और वह दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता। प्लेटो ने न्याय के दो रूप माने हैं – व्यक्तिगत न्याय एवं सामाजिक या राज्य से सम्बन्धित न्याय। प्लेटो न्याय को आत्मा का मानवीय सद्गुण मानते हैं। प्लेटो के अनुसार आत्मा में निहित न्याय का विचार राज्य में निहित न्याय के समान है। आत्मा में निहित न्याय की धारणा व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को संतुलित करती है।

उसी प्रकार राज्य में व्याप्त न्याय समाज के प्रत्येक वर्गों यथा शासक वर्ग, सैनिक वर्ग और उत्पादक वर्ग में सामंजस्य स्थापित करता है। प्लेटो ने न्याय के सिद्धान्त को एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित किया। अरस्तू का न्याय सिद्धान्त-प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने भी न्याय को राज्य के लिए एक आवश्यक तत्व माना है। अरस्तु के अनुसार न्याय का सरोकार मानवीय भावनाओं से नियमन से है। उनका विश्वास था कि लोगों के मन में न्याय के

बारे में एक जैसी धारणा के कारण ही राज्य अस्तित्व में आता है। अरस्तु के अनुसार न्याय में वह सभी कुछ सम्मिलित है जो उचित और विधिक है। जो समान और औचित्यपूर्ण वितरण में आस्था रखता हो, साथ ही जो इस बात पर बल देता हो कि जो अन्यायपूर्ण है उसमें वांछित सुधार की सम्भावना सदैव बनी रहती है। अरस्तु के अनुसार न्याय के दो प्रकार हैं–

  1. वितरणात्मक या राजनीतिक न्याय
  2. सुधारात्मक न्याय । वितरणात्मक न्याय का सिद्धान्त यह है कि राजनीतिक पदों की पूर्ति नागरिकों की योग्यता और उनके द्वारा राज्य के प्रति की गयी सेवा के अनुसार हो। समानता की इस अवधारणा के अनुसार लाभ व उत्तरदायित्व व्यक्ति की क्षमता व सामर्थ्य के अनुपात में ही होना चाहिए। सुधारात्मक न्याय में राज्य का उत्तरदायित्व है कि वह व्यक्ति के जीवन, सम्पत्ति, सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा करें।

मध्यकाल में न्याय सम्बन्धी विचार – मध्यकाल में ईसाई विचारकों ने न्याय की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की। संत ऑगस्टाइन ने ‘ईश्वरीय राज्य’ की अवधारणा प्रस्तुत की और उसमें न्याय को एक आवश्यक तत्व माना। उन्होंने लिखा है कि जिन राज्यों में न्याय विद्यमान नहीं है, वे केवल चोर उचक्कों की खरीद फरोख्त हैं।” थॉमस एक्विनास नामक चिंतक ने समानता को न्याय का मौलिक आधार माना है। उन्होंने कानून और न्याय को परस्पर सम्बन्धित करते हुए कहा है कि -“न्याय एक व्यवस्थित और अनुशासित जीवन व्यतीत करने एवं उन कर्तव्यों का पालन करने में निहित है, जिनकी व्यवस्था माँग करती है।

आधुनिक काल में न्याय सम्बन्धी धारणा – आधुनिक काल में न्याय सम्बन्धी धारणा के मुख्य प्रतिपादक डेविड ह्युमजैरेमी बेंथम एवं जॉन स्टुअर्ट मिल आदि हैं। डेविड ह्युम ने न्याय का अर्थ नियमों का पालन मात्र माना। सार्वजनिक उपयोगिता को न्याय का एकमात्र स्रोत होना चाहिए। उपयोगितावाद के प्रवर्तक जैरेमी बेंथम के अनुसार सार्वजनिक वस्तुओं, सेवाओं आदि का वितरण उपयोगिता के आधार पर होना चाहिए जिसका सूत्र अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख है। जॉन स्टूअर्ट मिल ने न्याय को सामाजिक उपयोगिता का महत्वपूर्ण तत्व माना। इन्होंने उपयोगिता को ही न्याय का मूल अंग माना है।

वर्तमान युग में प्राकृतिक कानून पर आधारित न्याय की संकल्पना में विश्वास नहीं किया जाता। आज न्याय के सम्बन्ध में केवल ऐसी संकल्पना को स्वीकार कर सकते हैं जिसका निर्माण जीवन के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक यथार्थ को सामने रखकर किया गया हो। जॉन राल्स के न्याय सम्बन्धी विचार-जॉन रॉल्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ में आधुनिक संदर्भ में सामाजिक न्याय का विश्लेषण किया है। उन्होंने न्याय सम्बन्धी परम्परागत विचारों का विरोध किया राल्स के न्याय सम्बन्धी विचार दो मान्यताओं पर आधारित हैं-

  1. प्रत्येक व्यक्ति को समान मूलभूत स्वतंत्रता की व्यापक व्यवस्था की प्राप्ति का समान अधिकार प्राप्त है जो कि सभी को समान रूप से मिले।
  2. सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाए कि इन दोनों से
    • न्यूनतम लाभान्वित व्यक्तियों अर्थात् सबसे अधिक पिछड़ों को अधिकतम लाभ हो
    • प्रत्येक को उचित अवसर की समानता की स्थिति में पद और प्रतिष्ठा की प्राप्ति सुलभ हो। रॉल्स समाज के लिए सबसे औचित्यपूर्ण न्याय उस सिद्धान्त को मानता है जिनमें लोग स्वत: ही ‘अज्ञानता के पर्दे’ को स्वीकार कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति मूलभूत नैतिक शक्तियों से सम्पन्न नैतिक व्यक्ति होता है।

भारतीय राजनीतिक चिंतन में न्याय सम्बन्धी धारणा:
भारतीय राजनीतिक चिंतन में न्याय को विशेष स्थान व महत्व प्रदान किया गया है। मनु, कौटिल्य, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, विदुर व सोमदेव आदि ने न्याय को राज्य का प्राण मानी। प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में धर्म का प्रयोग न्याय के सादृश्य ही हुआ है। धर्म की प्राचीन भारतीय अवधारणा व्यक्ति को समाज में उसके नियत स्थान एवं निर्दिष्ट कर्त्तव्य का ज्ञान कराती है। भारतीय चिंतन में न्याय को कानूनी रूप से स्वीकार कर लिया गया है। मनु और कौटिल्य ने न्याय में निष्पक्षता और सत्यता पर बल दिया तथा कहा है कि जो राजा पृथ्वी पर अपनी प्रजा के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं कर सकता, वह जीवित रहने के योग्य नहीं है।

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