RBSE Solutions for Class 12 Biology Chapter 40 मानव के प्रमुख एवं सामान्य रोग

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Rajasthan Board RBSE Class 12 Biology Chapter 40 मानव के प्रमुख एवं सामान्य रोग

RBSE Class 12 Biology Chapter 40 पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उत्तर

RBSE Class 12 Biology Chapter 40 बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से किस रोग में अंगुलियों में विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं-
(अ) टिटनेस
(ब) कुष्ठरोग
(स) क्षय रोग
(द) न्यूमोनिया।
उत्तर:
(ब) कुष्ठरोग

प्रश्न 2.
एड्स रोग निम्नलिखित में से किस प्रकार के विषाणुओं से उत्पन्न होता है।
(अ) पोलियो विषाणु
(ब) एच.आई.वी.
(स) रेबीज
(द) चेचक विषाणु
उत्तर:
(ब) एच.आई.वी.

प्रश्न 3.
काला-अजार रोग उत्पन्न होता है-
(अ) एण्टअमीबा हिस्टोलाइटिका से
(ब) लीशमैनिया से
(स) ट्रिपैनोसोमा
(द) प्लैज्मोडियम से।
उत्तर:
(ब) लीशमैनिया से

प्रश्न 4.
मलेरिया किस मच्छर के काटने से होता है-
(अ) नर ऐनेफेलीज
(ब) मादा ऐनेफेलीज,
(स) क्यूलेक्स
(द) सेट्सी मक्खी।
उत्तर:
(ब) मादा ऐनेफेलीज

प्रश्न 5.
गिनी वर्म रोग होता है-
(अ) ड्रेकुनकुलस द्वारा
(ब) ऐस्केरिस द्वारा
(स) एन्टोरोबियस द्वारा
(द) टीनिया द्वारा।
उत्तर:
(अ) ड्रेकुनकुलस द्वारा

प्रश्न 6.
किस रोग में प्रारम्भिक अवस्था में पता लगने पर इलाज सम्भव
(अ) कैंसर
(ब) श्वास
(स) वातस्फीति
(द) एलर्जी।
उत्तर:
(अ) कैंसर

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सा रोग आनुवंशिक है-
(अ) दाब कोशिका अरक्तता
(ब) हीमोफिलिया
(स) वर्णान्धता
(द) उपरोक्त सभी ।
उत्तर:
(द) उपरोक्त सभी ।

RBSE Class 12 Biology Chapter 40 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संक्रामक रोगों से आप क्या समझते हैं? दो रोगों के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
संक्रामक रोग (Infectious Diseases)–वे रोग जो छुआछूत अथवा संक्रमण से फैलते अथवा प्रसारित होते हैं, उन्हें संक्रामक रोग कहते हैं। कुष्ठ रोग एवं तपेदिक रोग इसके दो उदाहरण हैं।

प्रश्न 2.
उपार्जित प्रतिरक्षा अक्षमता सिन्ड्रोम पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
उपार्जित प्रतिरक्षा अक्षमता सिन्ड्रोम (Acquired Immuno Deficiency Syndrome)—इस रोग को एड्स (AIDS) के नाम से भी जाना जाता है। यह एच.आई.वी. (H.I.V.) नामक विषाणु से फैलता है। यह इस सदी का सबसे भयानक रोग है। इससे बचाव हेतु विश्वभर में युद्ध स्तर पर प्रयास जारी हैं किन्तु अभी तक अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है। भारत में पहला एच. आई. वी. संक्रमित व्यक्ति सन् 1986 में चेन्नई में मिला था। इस रोग को मृत्यु वारंट के नाम से जाना जाता है। लोगों में इस रोग के प्रति जागरूकता लाने हेतु प्रतिवर्ष 1 दिसम्बर को विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है। भारत सरकार ने जनजागरूकता के उद्देश्य से राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (NACO) की स्थापना की, जो एड्स की रोकथाम एवं नियंत्रण हेतु कार्य रहा है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए।
(i) अमीबिएसिस
(ii) मलेरिया
(iii) गिनी वर्म रोग
(iv) कैंसर
उत्तर:
(i) अमीबिएसिस (Amoebiasis)—इस रोग को अमीबीय पेचिस भी कहते हैं। इस रोग का संक्रमण एन्ट अमीबा हिस्टोलिटिका नामक प्रोटोजोआ द्वारा होता है। इस रोगजनक के ट्रोफोजोइट्स आन्त्र की भित्ति की कोशिकाओं को नष्ट करके उसमें घाव कर देते हैं। इसके कारण मनुष्य को पेचिस पड़ने लगती है। रोगग्रस्त व्यक्ति के पेट में ऐंठन या मरोड़ होती है तथा हल्का ज्वर भी बना रहता है।

(ii) मलेरिया (Malaria)-यह रोग प्लाज्मोडियम प्रोटोजोआ द्वारा फैलता है। रोगजनक परजीवी मलेरिया रोगाणु का संवहन मादा एनाफिलीज मच्छर करती है। रोगाणु शरीर में लाल रुधिराणुओं, यकृत कोशिकाओं आदि में निवास करता है। रोगाणुओं द्वारा बड़ी मात्रा में RBCs के नष्ट होने के कारण हीमोजोइन (Haemozoin) नामक विषैले पदार्थ का निर्माण होता है। ऐसी स्थिति में मलेरिया बुखार उत्पन्न होता है।

(iii) गिनी वर्म रोग (Dracunculosis)—इस रोग को नारू नाम से भी जाना जाता है। इस रोग के कारक ड्रेकुनकुलस मनुष्य में अवत्वक ऊतकों (Subcutaneous Tissues) के परतों के नीचे पाये जाते हैं। इस रोगाणु की मादा जब मनुष्य की त्वचा से बाहर निकलने का प्रयास करती है, तो सम्बन्धित स्थान पर खुजली या जलन होने लगती है और त्वचा पर छोटा फफोला या छाला बन जाता है। सामान्यतः यह फोड़ा कुछ दिनों में ठीक हो जाता है। रोग के उपचार हेतु कृमि को शल्य क्रिया द्वारा शरीर से बहार निकाला जाता है।

(iv) कैंसर (Cancer)-यह रोग चिकित्सा जगत में घातक एवं जटिल रोग के नाम से कुख्यात है। उचित समय पर इसका निदान न हो तो उपचार असम्भव हो जाता है। इस रोग में सर्वप्रथम अर्बुद (Tumour) का निर्माण होता है। ये अर्बुद दो प्रकार के होते हैं-1. बिनाइन ट्यूमर 2. मेलीग्नेन्ट ट्यूमर। बिनाइन ट्यूमर सामान्यतः कम घातक होता है क्योंकि यह अपने उद्गम स्थल तक ही सीमित रहता है। मैलीग्नेन्ट ट्यूमर अधिक घातक होता है क्योंकि इसका प्रसार शरीर के अन्य हिस्सों में हो जाता है।
उचित समय पर निदान हो जाने पर इसका उपचार रेडियोथेरेपी एवं कीमोथेरेपी द्वारा सम्भव है।

RBSE Class 12 Biology Chapter 40 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
असंक्रामक रोग कौन-कौन से होते हैं? दो रोगों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
असंक्रामक रोगों के नाम कैंसर, एलर्जी, श्वास या दमा, अति रक्तदाब, हृदपेशी रोधगलन, वातस्फीति, मोतियाबिन्द, सबल बाय एवं भंगापन आदि असंक्रामक रोग हैं। दो रोगों का विस्तार से वर्णन इस हेतु-

असंक्रामक रोग (Noninfectious Diseases)
ये ऐसे रोग हैं जिनका संक्रमण नहीं होता। प्रमुख असंक्रामक रोगों का विवरण निम्नलिखित है-

(1) कैंसर (Cancer)-यह अत्यंत घातक एवं जटिल रोग है। कैंसर का उद्भव सर्वप्रथम अर्बुद (Tumour) अथवा गाँठों के रूप में होता है। अर्बुद विभिन्न प्रकृति के होते हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है-

(a) कार्सिनोमा (Carcinoma)–उपकला कोशिकाओं से उत्पन्न होने वाले अर्बुद कार्सिनोमा के नाम से जाने जाते हैं। ये सामान्यतया त्वचा और आन्तरिक अंगों के आस्तरण पर उत्पन्न होते हैं।
(b) सार्कोमा (Sarcoma)–संयोजी ऊतकं से उत्पन्न दुर्दम अर्बुद सार्कोमा कहलाते हैं। ये सामान्यत: मध्य जनन स्तरीय (Mesoderm) संरचनाओं में बनते हैं।
(c) ओस्टियोमा (Osteoma)–अस्थियों में बनने वाले अर्बुदों को ओस्टियोमा कहा जाता है।
(d) फाइब्रोमा (Fibroma)–तन्तुजन्य ऊतकों में उत्पन्न अर्बुद फाइब्रोमा प्रकार के होते हैं।
(e) ग्लायोमा (Glioma)-इस प्रकार के अर्बुद केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र और मस्तिष्क के संयोजी ऊतक में बनते हैं।
(f) मेलानोमा (Melanoma)-यह तीव्र गति से बढ़ने वाला रंजक युक्त अर्बुद होता है, जो त्वचा पर उपस्थित विशिष्ट प्रकार की रंजक अतिवृद्धि से उत्पन्न होता है। (g) लिम्फोमा (Lymphoma)-लसिका गाँठों एवं लसिका संस्थान के दूसरे ऊतकों पर उत्पन्न होने वाले अर्बुदों को लिम्फोमा के नाम से जाना जाता है।

कैंसर का उपचार (Treatment of Cancer) कैन्सर के उपचार का विवरण निम्नलिखित है-

(a) रेडियोथेरेपी इस चिकित्सा में कैन्सर कोशिकाओं को विकिरण द्वारा नष्ट किया जाता है।
(b) कीमोथेरेपी (रसायन चिकित्सा)—इस चिकित्सा में कैन्सर
का उपचार एन्टीकैन्सर दवाइयों से किया जाता है। बालों का झड़ना (Alopecia) व अरक्तता इस चिकित्सा के दुष्प्रभाव हैं।
आजकल अधिकांश कैन्सर का उपचार शल्यक्रिया (Surgery), विकिरण चिकित्सा (Radiotherepy) व रसायन चिकित्सा के संयोजन से किया जाता है। कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने में -इन्टरफेरोन का भी उपयोग किया जाता है। जो शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय कर उसके द्वारा कैन्सर कोशिकाओं को नष्ट करता है।

(2) एलर्जी (Allergy)-यह संयोजी ऊतक में उपस्थित मास्ट कोशिकाओं से हिस्टेमीन व सीरोटोनिन के निकलने से उत्पन्न होती है। वर्तमान में एलर्जी रोग मानव में सामान्य रोग हो गया है। इस रोग में शरीर कुछ रासायनिक एवं भौतिक कारकों के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाता है। कुछ खाद्य पदार्थों, दवाइयों, धूल, पुष्प-सुगन्ध, परागकण, रसायन, सूर्य का प्रकाश, विशेष प्रकार के कपड़े, सर्दी, गर्मी आदि शरीर में संवेदनशीलता उत्पन्न करते हैं। ऐसे कारणों को एलर्जन तथा इससे उत्पन्न होने वाले रोग को एलर्जी कहते हैं। एलर्जन के प्रति बनने वाली एन्टीबॉडी IgE प्रकार की होती है। एलर्जी के लक्षणों में बहती नाक, छींकना व साँस लेने में कठिनाई शामिल है। यह रोग सामान्यतः उन लोगों में अधिक होता है जिनमें प्रतिरक्षा की क्षमता कम होती है। यह रोग वंशागत भी हो सकता है।

(3) श्वास या दमा (Asthma)–दमा फुफ्फुसीय अवरोधी रोगों का एक उदाहरण है। यह रोग श्वास ब्रोन्किओल्स के संकुचन के कारण उत्पन्न होता है। रोगी को श्वसन में अत्यधिक कठिनाई होती है। श्वास के कारण कष्ट-श्वास, खाँसी तथा Wheezing हो जाती हैं। 30 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को श्वास एलर्जी अतिसुग्राहिता के कारण होता है। यह अधिकतर पौधों के परागण द्वारा उत्पन्न होती है। अधिक आयु के व्यक्तियों में श्वास वायु में उपस्थित नॉन एलर्जी उत्तेजकों धूल, धूएँ आदि के कारण होता है।

लक्षण-रोगी की त्वचा पर लाल चकत्ते बन जाते हैं। रोगी को श्वास लेने में कठिनाई होती है। त्वचा पर खुजली होने लगती है। रोगी को जुकाम हो जाता है तथा उसे बार-बार छींकें आती हैं। रोग से बचाव के लिए  व्यक्ति को उन सभी वस्तुओं से बचने का प्रयास करना चाहिये, जिनसे उसे एलर्जी होने का खतरा होता है। एलर्जी के इलाज से पूर्व यह निर्धारित करना आवश्यक होता है कि किन-किन पदार्थों से ऐसा होता है। प्रतिहिस्टेमीन, एडीनेलिन व स्टीराइड के उपयोग से एलर्जी के लक्षणों को कम किया जा सकता है।

प्रश्न 2.
प्रोटोजोआ जनित रोगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संकेत–प्रोटोजोआ जनित रोग—इस हेतु-

(C) प्रोटोजोआ जनित रोग
(Disease Caused by Protozoans) प्रोटोजोआ जनित रोगों का विवरण निम्नलिखित है-
(1) अमीबी पेचिस/अमीबिएसिस (Amoebic Dysentry/ Amoebiasis)—यह रोग एण्ट अमीबा हिस्टोलाइटिका (Entamoeba histolytica) नामक प्रोटोजोआ द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग में जन्तु की ट्रोफोजॉइट अवस्था आन्त्र की भित्ति में प्रवेश कर ऊतक-अपघटक एन्जाइम का स्राव करती है जो कोशिकाओं का अपघटन प्रारम्भ कर देता है। इससे उन स्थानों पर छोटे छालों के समान उभार बन जाते हैं। इनमें श्लेष्मा भरा होता है। ये उभार आन्त्र में फटकर श्लेष्मा का स्राव करते हैं। जो मल के साथ बाहर आता है। इस समय रोगी को बुखार तो नहीं आता लेकिन दिनभर पेट में मरोड़ देकर दस्त होने लगते हैं। दस्त में आँव के साथ रक्त भी निकलता है। रोगी बेहुत कमजोर हो जाता है।

रोग का प्रसार मक्खियों, वायु, जल द्वारा होता है। रोग से बचाव के लिए पानी उबालकर पीने के काम में लेना चाहिये। खुला भोजन एवं अन्य खाद्य सामग्री का सेवन नहीं करना चाहिये। घरेलू मक्खियाँ इस रोग । के यांत्रिक वाहक का कार्य करती हैं।

रोग के इलाज के लिए एमेटिन, फ्यूसैजिलिन, मेट्रेनिडेजोल आदि औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।

(2) प्रवाहिका/अतिसार (Diarrhoea/Giardiasis)—यह रोग जिआर्डिआ (Giardia) नामक कशाभिकीय प्रोटोजोआ से उत्पन्न होता है। यह जन्तु जल, भोजन आदि से शरीर की आँत में पहुँच जाता है। इसके कारण आन्त्रीय अनियमितताएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

प्रवाहिका/अतिसार रोग के कारण पतली दस्त होने लगती है। रोगी के पेट में पीड़ा होती है और उसे भूख नहीं लगती। सिर में दर्द एवं बेचैनी रहती है।

इस रोग के इलाज हेतु क्लोरोकुनिन, कैमोकुइन एटेब्रिन आदि औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।

(3) ट्रिपैनोसोमिएसिस (Trypanosomiasis)—इस रोग को निद्रा रोग (Sleeping Sickness) भी कहा जाता है। यह रोग ट्रिपैनोसोमा गैम्बिएँस द्वारा उत्पन्न होता है। इसका संचरण सेट्सी (Tsetse) मक्खी गलोसाइना पाल्यैलिस के माध्यम से होता है। यह प्रोटोजोआ मानव शरीर के लसीका तन्त्र में प्रवेश कर विषैले पदार्थों का स्राव करता है, जिसके कारण सूजन उत्पन्न हो जाती है। ट्रिपैनोसोमा लसीका से मस्तिष्क के प्रमस्तिष्क के मेरुद्रव्य में प्रविष्ट होकर मस्तिष्क को क्षति पहुँचाते हैं। ट्रिपैनोसोमिएसिस रोग में व्यक्ति सदैव निद्रा अवस्था में बना रहता है।

इस रोग के उपचार हेतु प्राइमाकुइन, प्यूरोमाइसिन आदि औषधियों का उपयोग किया जा सकता है।

(4) मलेरिया (Malaria)-मलेरिया नामक बीमारी प्लेज्मोडियम नामक प्रोटोजोआ की विभिन्न जातियों द्वारा उत्पन्न होती है। इस रोग का प्रसार मादा एनोफेलिज मच्छरों के काटने से होता है।

प्लेज्मोडियम का जीवन-चक्र (Life cycle of Plasmodium)-मनुष्य को मादा एनोफिलीज मच्छर के काटने पर स्पोरोज्वाइट के रूप में प्लेज्मोडियम मानव शरीर के अन्दर प्रविष्ट होता है। यह परजीवी मानव शरीर की यकृत कोशिकाओं व लाल रक्त कणिकाओं में गुणन करता है। ऐसी दशा में हीमोज्वाइन बनता है जो कँपकँपी, ठिठुरन एवं ज्वर का कारण है।

मादा एनोफिलीज जब किसी संक्रमित व्यक्ति को काटती है तो मनुष्य में पल रहे परजीवी मच्छर में गेमिटोसाइट के रूप में प्रवेश कर जाते हैं। इस प्रकार शेष परिवर्धन मच्छर में होता है। गेमिटोसाइट से युग्मक जनन द्वारा युग्मक का निर्माण होता है एवं निषेचन द्वारा युग्मनज का निर्माण होता है। युग्मनज में विभाजन की क्रिया के परिणामस्वरूप पुन: स्पोरोज्वाइट का निर्माण होता है। स्पोरोज्वाइट मच्छर की लार ग्रन्थियों में प्रवेश कर जाते हैं। जब एनोफेलीज (मादा) किसी सामान्य व्यक्ति को काटती है तो स्पोरोज्वाइट उस व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है।
चित्र 40.3 : प्लेज्मोडियम का जीवन चक्र
RBSE Solutions for Class 12 Biology Chapter 40 मानव के प्रमुख एवं सामान्य रोग 1
मलेरिया रोग के लक्षण व सावधानियाँ (Symptoms and Precautions of Malaria)-मलेरिया रोग होने पर सिर में दर्द शुरू हो जाता है। रोगी का जी मिचलाने के साथ-साथ उल्टियाँ होने लगती हैं। सर्दी लगने के साथ तेज बुखार चढ़ता है। रोग से बचाव हेतु मलेरिया फैलने के मौसम में 300 मि.ग्रा. कुनैन प्रतिदिन सेवन करते रहना चाहिए । पानी को उबालकर पीना चाहिए। सब्जियों एवं फलों को भली-भाँति धोकर ही खाना चाहिए। आस-पास एवं घर में ठहरे हुए जल के निकास की अच्छी व्यवस्था करनी चाहिए। मच्छरों को नष्ट करने के लिए डी.डी.टी. गैमेक्सिन और मिट्टी के तेल का छिड़काव करना चाहिए।
मलेरिया के उपचार के लिए एन्टिमनी यौगिक युक्त औषधियों का प्रभाव विशेष लाभ पहुँचाता है।

(5) लीशमैनिएसिस (Leishmaniasis/Kala-Azar)—इस रोग की उत्पत्ति लीशमैनिया की विभिन्न जातियों द्वारा होती है। कशेरुकियों के रुधिर में पाया जाने वाला यह जन्तु कशाभीय परजीवी है। काला आजार (Kala-Azar) लीशमैनिया डोनोवनी द्वारा उत्पन्न होता है। रोगग्रस्त व्यक्ति के शरीर में ये परजीवी जालिका अन्तः स्तर तंत्र (Reticulo Endothelial System) को अवरुद्ध कर देते हैं। ऐसी स्थिति में प्लीहा अत्यधिक बढ़ जाता है। इस रोग में शरीर के विभिन्न हिस्सों में फोड़े के समान उभार बन जाते हैं। इस उभार से नासावेश्म, मुख और ग्रसनी भाग विशेषतया कुप्रभावित होते हैं।

(6) ट्राइकोमोनिएसस (Trrichomoniasis)- इस रोग की उत्पत्ति कशाभीय प्रोटोजोआ टोक्सोप्लाज्मा (Toxoplasma) की विभिन्न जातियों द्वारा होती है। रोग का परजीवी स्त्रियों की योनि में रहकर योनिशोथ (Vaginitis) रोग उत्पन्न करता है। इस रोग के होने पर महिला की योनि से झागदार पदार्थ स्रावित होता है एवं अंग में खुजली तथा जलन होती है।

(7) टोक्सोप्लाज्मोसिस (Toxoplasmosis)—यह रोग स्पोरोजोअन प्रोटोजोआ टोक्सप्लाज्मा गोंडियाई से उत्पन्न होता है। यह परजीवी मनुष्य के जालिका, अन्त:स्तरीय तंत्र तथा केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र की कोशिकाओं में रहता है। क्लोरिओरेटिनाइटिस और जलशीर्ष इस रोग के लक्षण होते हैं।

प्रश्न 3.
संक्रामक रोग क्या हैं? किन्हीं दो संक्रामक रोगों का उदाहरण देकर वर्णन करें।
उत्तर:
संक्रामक रोग (Infectious Diseases)
मानव के शरीर में अनेक रोग भिन्न-भिन्न रोगाणुओं द्वारा उत्पन्न होते हैं। ये रोग एक व्यक्ति तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संसर्ग द्वारा पहुँचते हैं। इसीलिए इन्हें संक्रामक रोग कहते हैं। इन रोगों के लिए महत्वपूर्ण कारक जिम्मेदार होते हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है-
(A) जीवाणुजनित रोग (Diseases Causes by Bacteria) जीवाणुजनित रोगों का विवरण निम्नलिखित है-
(1) कुष्ठ रोग, कोढ़ रोग (Leprosy, Hansen’s disease)-यह दीर्घकालिक संक्रमित रोग है। यह रोग माइक्रो बैक्ट्रीरियम लैप्री (Mycrobacterium leprae) नामक जीवाणु द्वारा फैलता है। इस रोग में शरीर का तन्त्रिका तन्त्र, माँसपेशियाँ एवं त्वचा आदि कुप्रभावित हो
जाती हैं। अंगुलियों में विकृति उत्पन्न हो जाती है। इस रोग के लक्षण एक से सात वर्ष में दिखने लगते हैं। रोगी के घाव से निकलने वाले स्राव/तरल के माध्यम से रोग का प्रसार होता है। रोगी के साथ दीर्घकाल तक रहने से भी इस रोग का प्रसार हो जाता है। कुष्ठ रोग केवल मनुष्य में ही होता है।
अपनी प्रकृति के आधार पर कुष्ठ रोग निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है।

  • ट्यूबरकुलोइड (Tuberculoid)—इस रोग में रोगी की त्वचा पर चकत्ते बन जाते हैं। त्वचा पर घाव बन जाते हैं तथा हाथ-पाँव की अंगुलियाँ मुड़ जाती हैं।
  • लेप्रोमेटस (Lepromatous)-इस रोग में शरीर पर गाँठे उभर आती हैं, घाव हो जाते हैं। इन घावों की संख्या अत्यधिक होती है। कुष्ठ रोग का यह प्रकार अत्यंत संक्रामक होता है।
  • बॉर्डर लाइन (Border Line)-कुष्ठ रोग के इस प्रकार में ट्यूबरकुलोइड और लेप्रोटम-इन दोनों के लक्षण पाये जाते हैं। त्वचा पर चकत्ते बन जाते हैं, गाँठे उभर आती हैं और घाव भी हो जाते हैं।

उपचार–कुष्ठ रोगी को स्वस्थ लोगों से अलग रखना चाहिए। कुष्ठ रोगी द्वारा उपयोग किया जाने वाला वस्त्र और अन्य वस्तुएँ। दूसरे व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त नहीं की जानी चाहिए। रोकथाम के लिए बी. सी. जी. (BCG) का टीका लगाया जाना चाहिए। यदि पूरा अंग कुष्ठ रोग से ग्रस्त हो गया हो तो उसे शल्य क्रिया द्वारा अलग करवा देना चाहिए।

(2) क्षय रोग/यक्ष्मा/तपेदिक रोग (Tuberculosis)–भारत में प्रति हजार व्यक्तियों में लगभग 15 व्यक्ति इस रोग से पीड़ित हैं। इस रोग का कारक माइक्रो बैक्टीरियम ट्यूबर क्यूलोसिस (Mycrobactrium tuberculosis) जीवाणु है। रोग हो जाने की स्थिति में रोगी व्यक्ति को बुखार व खाँसी आती है। वजन घटने लगता है एवं थकान महसूस होती है। यदि रोग की निरन्तरता बनी रहती है तो व्यक्ति हड्डियों का ढाँचा । मात्र बनकर रह जाता है। रोगी की आँखें अन्दर धंस जाती हैं। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति के थूक, बलगम, छींक व खाँसी के कारण रोगाणु वायु के साथ मिल जाते हैं और साँस के माध्यम से दूसरे स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यदि शरीर में प्रतिरोधी क्षमता कम होती है तो रोगाणु संख्या में तीव्रता से वृद्धि होती है। ये पस या बलगम के साथ शरीर से बाहर निकलते हैं। रोगी के बलगम में कभी-कभार रक्त भी आता है।

क्षय रोग का प्रसार जल व वायु के माध्यम से होता है। रोगी द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाले कपड़े, बर्तन आदि के प्रयोग से अन्य व्यक्तियों को यह रोग लग जाता है। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि क्षय रोग से पीड़ित पशु के दूध में भी इस रोग के रोगाणु पाये जाते हैं। अत: इस प्रकार के दुग्धं के सेवन से भी क्षय रोग का संक्रमण हो सकता है।

उपचार–क्षय रोग से बचाव के लिए रोगग्रस्त व्यक्ति को अलग रखना चाहिए। रोगी व्यक्ति के कपड़े-बर्तन आदि को पानी उबालकर साफ करना चाहिए। रोगी व्यक्ति के बलगम, मल आदि को मिट्टी में दबा देना चाहिए। दूषित जल, भोजन आदि को ग्रहण नहीं। करना चाहिए। रोग से बचने हेतु बी.सी.जी. (BCG) का टीका लगवाना। चाहिए।

(3) डिफ्थेरिया/रोहिणी (Diphtheria)—यह रोग कोरिने बैक्टीरियम डिफ्थीरी (Corynebacterium diphtheriae) नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग में नाक, गला एवं टान्सिल कुप्रभावित होते हैं। डिफ्थेरिया का जीवाणु रोगग्रस्त व्यक्ति की अँगुलियों के स्पर्श से फैलता है। भोजन के बर्तन, खिलौने एवं पेन्सिल आदि वस्तुओं पर स्पर्श के माध्यम से जीवाणु का प्रसारण (Transmission) होता है। रोगग्रस्त व्यक्ति के छींकने-खाँसने के कारण भी रोग का प्रसारण होता है।

उपचार-डिफ्थेरिया रोग से बचने हेतु रोगग्रस्त व्यक्ति को अलग रखा जाना चाहिए। बच्चों में इस रोग का प्रतिरोधी टीका लगवाना चाहिए। बच्चों को पीने के लिए पाश्चुरीकृत दूध ही दिया जाना चाहिए।

(4) टिटनेस/धनुस्तम्भ (Tetanus) यह रोग क्लॉस्ट्रीडियम टिटेनी (Clostridiumtetani) नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग में सिरदर्द प्रारम्भ हो जाता है और व्यक्ति के जबड़े भिंच जाते हैं। रोगी भोजन भी नहीं निगल पाता। शरीर में ऐंठन होने लगती है। संक्रमण के 3-4 सप्ताह – की अवधि में ही रोग के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। रोग का प्रसारण घाव या त्वचा के कटे-फटे स्थान से रोगाणु के शरीर में प्रवेश करने से होता है। टिटनेस गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों/विकासशील देशों में अधिक होता है।

उपचार-इस रोग के निदान हेतु बच्चों में टिटनेस रोग के प्रतिरोधी टीके लगवा लेना चाहिए। टिटनेस एण्टीटॉक्सिन (Tetanus Antitoxin) इस रोग की प्रभावकारी औषधि है। टिटनेस टॉक्साइड (Tetanus Toxoid) उपयोग भी लाभ पहुँचाता है।

(5) न्यूमोनिया (Pneumonia)—यह रोग डिप्लोकोकस न्यूमोनियाई (Diplococus pneumoniae) जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। यद्यपि ये समूह में पाये जाते हैं किन्तु कभी-कभी एकाकी भी होते हैं। न्यूमोनिया पीड़ित व्यक्ति को ठण्ड अधिक लगती है और तेज बुखार आता है। यकृत तथा पित्ताशय में जलन होने लगती है। साथ ही साथ छाती में दर्द होने लगता है। रुधिर में श्वेत रुधिर कणिकाओं (WBC) की कमी होने के कारण प्रतिरक्षा (Immunity) प्रणाली कमजोर हो जाती है। रोगी व्यक्ति को साँस लेने में कठिनाई होती है। रोगी व्यक्ति में रोग के लक्षण एक से तीन दिन में प्रकट होने लगते हैं।

उपचार—इस रोग से बचने हेतु व्यक्तिगत स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देना चाहिए। भीड़ वाले स्थानों से दूर रहकर रोगाणु से सुरक्षा की जा सकती है। रोगी को अलग रखकर और उसके द्वारा उपयोग में लायी गई वस्तुओं के प्रयोग से बचने एवं त्यागे गए बलगम आदि को । मिट्टी के नीचे दबा देने से रोग से सुरक्षा रहती है।

(6) प्रवाहिका/अतिसार (Diarrhoea)—इस रोग का उद्भव शाइजेला (Shigella) समूह के जीवाणुओं के कारण होता है। इस रोग में शरीर से अधिक मात्रा में जल व विद्युत अपघट्य (Electrolytes) बाहर निकल जाते हैं। ऐसी स्थिति में शरीर में निर्जलीकरण (Dehydration) की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। रोगग्रस्त व्यक्ति को उल्टियाँ होने लगती – हैं। दस्त के साथ श्लेष्मा (Mucus) और रक्त (Blood) शरीर से बाहर निकलने लगते हैं।

उपचार-अतिसार से बचने के लिए पानी को छानकर एवं उबालकर पीना चाहिए। रोगी द्वारा विसर्जित मल एवं उल्टी को मिट्टी में दबा देना चाहिए। सड़े-गले फल एवं भोजन आदि का सेवन नहीं करना चाहिए।

(7) मस्तिष्कावरण शोथ (Meningitis)- इस रोग का कारण निस्सेरिया मेनिंजाइटीडीस (Neisseria meningitidis) जीवाणु है। ये जीवाणु मस्तिष्क (Brain), मेरुरज्जु (Spinalcord) एवं मेरुद्रव्य (Spinal Fluid) को संक्रमित करते हैं। इस रोग में अचानक तेज बुखार आने लगता है। सिर में दर्द, बेचैनी, उल्टियाँ और जलन होने लगती है। रोगी के खाँसने-छीकने एवं सम्पर्क से इस रोग का प्रसारण होता है। रोग के लक्षण 2 से 10 दिन में प्रदर्शित होने लगते हैं।

उपचार—रोग से बचाव के लिए रोगग्रस्त व्यक्ति द्वारा उपयोग में लाए गए वस्त्र को पानी में उबालकर धोना चाहिए। रोगी के कफ, उल्टी और मल को मिट्टी में दबा देना चाहिए।

(8) सुजाक (Gonorrhea) यह जननांग सम्बन्धी रोग है। इस रोग का कारण नर्सेरिया गोनोरि आई (Nersseria gonorrhoeae) जीवाणु है। ये जीवाणु जननांग के उपकला स्तर पर आक्रमण करते हैं। इस कारण 3 से 9 दिन के बाद मूत्रमार्ग (Urethra) से पीले रंग का द्रव स्रावित होने लगता है। जननांगों में जलन होने लगती है। स्त्रियों में कुछ ही दिनों के उपरांत यूरेथ्रीटीस (Urethritis) उत्पन्न हो जाता है। साथ ही साथ मासिक चक्र (Menstrual cycle) भी कुप्रभावित हो जाता है। इस रोग के रोगाणु हृदय के कपाट को संक्रमित कर एण्डोकार्डिटीस (Endocarditis) नामक रोग उत्पन्न करते हैं।

सुजाक रोग के रोगाणुओं, जीवाणुओं का प्रसार रोगी व्यक्ति के साथ संभोग (Intercourse) करने से होता है। रोगी व्यक्ति के सम्पर्क/उपयोग में आने वाली वस्तुओं के माध्यम से भी रोग का प्रसारण होता है।

उपचार—रोग से बचने हेतु रोगी को अलग रखना चाहिए। रोगग्रस्त व्यक्ति के साथ यौन सम्पर्क नहीं रखना चाहिए।

(9) हैजा/विषूचिका (Cholera) यह रोग विब्रियो कॉलेरी (Vibrio cholerae) जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। रोगग्रस्त व्यक्ति को उल्टी व दस्त आने लगते हैं। परिणामस्वरूप शरीर का निर्जलीकरण हो जाता है। रोगी के शरीर में कमजोरी आने लगती है तथा यह ठण्डा पड़ने लगता है। पेशाब बन्द होने के साथ हाथ-पाँव में ऐंठन आने लगती है। इस रोग का प्रसार जल द्वारा होता है।

उपचार-रोग से बचने हेतु हैजे का टीका लगवाना चाहिए। सड़ी-गली खाद्य सामग्री और बासी भोजन का उपयोग नहीं करना चाहिए। घर एवं आस-पास का वातावरण साफ रखना चाहिए। नमक व चीनी युक्त जल के घोल (ORS) का सेवन प्रभावकारी होता है। रोगग्रस्त व्यक्ति को तरल भोजन एवं चावल का माण्ड दिया जाना चाहिए।

(10) मोतीझरा (Typhoid)—यह रोग साल्मोनेला टाइफी (Salmonella typhi) जीवाणु द्वारा होता है। रोगग्रस्त व्यक्ति सुस्त रहता है तथा उसके सिर में दर्द होता है। रोगी के पेट में दर्द होने के साथ उसे 103-105° तक बुखार हो जाता है। शरीर पर फुन्सियों के समान छोटे-छोटे दाने निकल आते हैं। रोगी व्यक्ति को पतली दस्त तो आती है। किन्तु पेशाब कम आता है। रोगी को होने वाला बुखार लगभग 15 दिन बाद कम होता है। इस रोग का प्रसार जल, भोजन एवं कीट आदि के माध्यम से होता है। परस्पर सम्पर्क से भी इस रोग का प्रसार होता है।

उपचार—मोतीझरा रोग से बचाव हेतु रोगग्रस्त व्यक्ति के मलमूत्र को मिट्टी में दबा देना चाहिए। भोजन में फलों का रस, अण्डा, दूध एवं चावल का मांड आदि लेना चाहिए। रोगी को अलग रखना चाहिए एवं टी.ए.बी. का टीका लगवाना चाहिए।

(11) काली खाँसी (Whooping Cough)—यह रोग हीमोफाइलस पटुंसिस (Haemophilus pertussis) नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। यह रोग लगभग छः सप्ताह तक रहता है। इस रोग के संक्रमण से व्यक्ति को तेज जुकाम हो जाता है और सूखी खाँसी भी आने लगती है। रोगी को हल्का बुखार भी रहता है। खाँसी की तीव्रता अत्यधिक होती है। खाँसते-खाँसते साँस फूल जाती है। खाँसते समय हूप-हूप-सी ध्वनि निकलती है।

उपचार- इस रोग से बचाव हेतु शिशु को डीपीटी (DPT) का टीका लगवाना चाहिए।

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