RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 4 सामाजिक संस्थाएँ

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Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 सामाजिक संस्थाएँ

RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर  

RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
“विवाह एक सामाजिक संस्था है।” यह कथन है
(अ) रिवर्स
(ब) लोबो
(स) गिलिन एवं गिलिन
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 2.
निम्न में से हिन्दू विवाह का कौन सा उद्देश्य प्रमुख है?
(अ) भावनात्मक सुरक्षा
(ब) धार्मिक कर्तव्य
(स) पुत्र प्राप्ति
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(ब) धार्मिक कर्तव्य

प्रश्न 3.
किस प्रकार के परिवार विश्व के सभी समाजों में पाये जाते हैं?
(अ) एकाकी परिवार
(ब) संयुक्त परिवार
(स) विस्तृत परिवार
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(अ) एकाकी परिवार

प्रश्न  4.
जिस परिवार में वंश परम्परा माँ के नाम पर चलती है, उसे कहते हैं
(अ) मातृवंशीय परिवार
(ब) पितृवंशीय परिवार
(स) मातृसत्तात्मक परिवार
(द) पितृसत्तात्मक परिवार।
उत्तर:
(अ) मातृवंशीय परिवार

प्रश्न 5.
नातेदारी या स्वजनता में परिहास रीति किससे संबंधित है।
(अ) हँसी-मजाक
(ब) घृणा
(ग) अपमान
(द) क्रोध।
उत्तर:
(अ) हँसी-मजाक

प्रश्न 6.
प्राथमिक संबंधी नातेदारी या स्वजनता की श्रेणी में कुल कितने संबंध बनते हैं
(अ) सात
(ब) आठ
(स) दस
(द) बीस।
उत्तर:
(ब) आठ

प्रश्न 7.
राज्य के आवश्यक तत्व हैं
(अ) निश्चित भू-भाग
(ब) जनसंख्या
(स) सरकार
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 8.
संपत्ति के प्रमुख प्रकार हैं
(अ) भौतिक
(ब) चल एवं अचल
(स) निजी
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 9.
धर्म विश्वास है
(अ) समाज में
(ब) समुदाय में
(स) संस्था में
(द) अलौकिक सत्ता में।
उत्तर:
(द) अलौकिक सत्ता में।

प्रश्न 10.
शिक्षा का मूल उद्देश्य है
(अ) राजनीतिज्ञ बनना
(ब) उद्योगपति बनना
(स) नौकरी दिलाना
(द) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना।
उत्तर:
(द) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना।

RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विवाह के उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
विवाह का मुख्य उद्देश्य संरक्षण और समाज का नवीन निर्माण करना है।

प्रश्न 2.
विवाह के कितने प्रकार होते हैं?
उत्तर:
हिन्दू विवाह के मुख्यतः दो प्रकार हैं-परंपरागत प्रकार और आधुनिक प्रकार।

प्रश्न 3.
बहुपति विवाह के प्रकार बताइए।
उत्तर:
बहुपति विवाह के दो प्रकार हैं :

  1. भ्रातृ बहुपति विवाह
  2. अभ्रातृ बहुपति विवाह।

प्रश्न 4.
परिवार का क्या महत्व है?
उत्तर:
समाज के अस्तित्व को बनाए रखने में परिवार का बहुत बड़ा महत्व है। यह समाज की प्रथम पाठशाला है।

प्रश्न 5.
वंश एवं सत्ता के आधार पर परिवार के प्रकार बताइए।
उत्तर:
वंश एवं सत्ता के आधार पर परिवार के दो प्रकार हैं :

  1. पितृवंशीय अथवा पितृसत्तात्मक परिवार
  2. मातृ वंशीय अथवा मातृसत्तात्मक परिवार।

प्रश्न 6.
पारिवारिक विघटन के कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर:

  1. अधिक स्वतंत्रता की चाह
  2. आजीविका या रोजगार
  3. सदस्यों की संख्या वृद्धि
  4. परिवार में मनोवैज्ञानिक द्वंद्व।

प्रश्न 7.
नातेदारी या स्वजनता का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नातेदारी सामाजिक उद्देश्यों के लिए स्वीकृत वंश संबंधी एक सामाजिक तथ्य है, जो कि सामाजिक संबंधों के परस्परात्मक संबंधों का आधार है।

प्रश्न 8.
वर्गात्मक संज्ञाओं और व्यक्तिकारक संज्ञाओं से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
वर्गात्मक संज्ञाओं को एक से अधिक संबंधियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जबकि व्यक्तिकारक संज्ञा से एकल व्यक्ति को संबोधित किया जाता है।

प्रश्न 9.
सहप्रसविता या सहकष्ट क्या है?
उत्तर:
खासी तथा टोडा आदिम जनजाति में प्रचलित एक प्रथा, जिसमें प्रसवा स्त्री के पति को भी उन सभी कष्टों की सांकेतिक पुनरावृत्ति करनी होती है, जिन कष्टों से प्रसव के दौरान उसकी पत्नी गुजरती है।

प्रश्न 10.
आधुनिक राज्य के कार्य बताइए
उत्तर:

  1. बाहरी आक्रमणों से रक्षा व आंतरिक शान्ति व्यवस्था बनाए रखना।
  2. जनहित व जन कल्याण के कार्य करना।

प्रश्न 11.
राज्य की उत्पत्ति के किन्हीं तीन सिद्धान्तों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त
  2. शक्ति का सिद्धांत
  3. सामाजिक संविदा का सिद्धांत।

प्रश्न 12.
राज्य के आवश्यक तत्व बताइए।
उत्तर:
राज्य के आवश्यक तत्व :

  1. निश्चित भू-भाग
  2. जनसंख्या
  3. संगठित सरकार
  4. प्रभुसत्ता।

प्रश्न 13.
आर्थिक संस्था से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आर्थिक संस्थाएँ मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करती हैं।

प्रश्न 14.
किन्हीं दो आर्थिक संस्थाओं के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. वैयक्तिक संपत्ति या निजी संपत्ति
  2. वृहद् आर्थिक समितियाँ या निगम एवं प्रमंडल।

प्रश्न 15.
धर्म की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
धर्म की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं :

  1. अलौकिक सत्ता, वस्तु, व्यक्ति एवं शक्ति में विश्वास।
  2. शुद्ध रूप से सामाजिक एवं सांस्कृतिक होना।

प्रश्न 16.
सामाजिक नियंत्रण में धर्म की भूमिका बताइए।
उत्तर:
धर्म सामाजिक व्यवस्था व नियंत्रण में सबसे व्यापक, सबसे संगठित एवं सबसे प्रभावशाली माध्यम है।

प्रश्न 17.
समाज पर धर्म के चार प्रभाव बताइए।
उत्तर:

  1. धर्म व्यक्ति का समूह में एकीकरण करता है।
  2. अनिश्चितता की दशा में दिशा प्रदान करता है।
  3. पवित्रता और आत्मबल में वृद्धि करता है।
  4. एक दूसरे के समीप आने की भावना को प्रोत्साहन देता है।

प्रश्न 18.
शिक्षा का अर्थ क्या है?
उत्तर:
शिक्षा का अर्थ व्यक्ति में उन शारीरिक, बौद्धिक तथा नैतिक अवस्थाओं को जागृत और विकसित करना है, जिसकी अपेक्षा उससे समग्र समाज एवं तात्कालिक सामाजिक वातावरण दोनों करते हैं।

प्रश्न 19.
शिक्षा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
शिक्षा दो प्रकार की होती है :

  1. अनौपचारिक शिक्षा
  2. औपचारिक शिक्षा।

प्रश्न 20.
भारत में शिक्षा प्रणाली का महत्वपूर्ण क्षेत्र क्या है?
उत्तर:
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को परंपरा, संस्कृति, कौशल और ज्ञान को औपचारिक या अनौपचारिक ढंग से हस्तांतरित करना शिक्षा प्रणाली का महत्वपूर्ण क्षेत्र है।

RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विवाह क्या है?
उत्तर:
विवाह समाज द्वारा मान्यता प्राप्त सामाजिक संस्था है जिसका उद्देश्य समाज में अनैतिकता का लोप करना है तथा परिवार के संरक्षण एवं समाज का नवीन निर्माण है। मूलतः हम विवाह को एक ऐसी सामाजिक स्वीकृति के रूप में मानते हैं, जहाँ स्त्री और पुरुष अपने धर्मानुसार कुछ रीति-रिवाजों को पूर्ण कर एक साथ रहने का वचन लेते हैं, सुख-दुख की सहभागिता के साथ सन्तानोत्पत्ति, विवाह की सार्थकता का प्रमाण बनती है।

प्रश्न 2.
विवाह की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
विवाह की विशेषताएँ :
विवाह की अनेक विशेषताएँ हैं, उनमें दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

  1. विवाह एक सामाजिक संस्था है जिसके द्वारा स्त्री और पुरुष में संबंध स्थापित होते हैं। इसे कानून द्वारा मान्यता प्राप्त है।
  2. विवाह द्वारा एक परिवार का निर्माण होता है तथा संतान को वैध स्थिति तथा माता-पिता के समान अधिकार मिलते हैं।

प्रश्न 3.
एक विवाह के दो लाभ बताइए।
उत्तर:
एक विवाह के दो लाभ निम्नलिखित हैं :

  1. समाज की संस्कृति एवं मूल्यों की शिक्षा बच्चों को देने का माता-पिता पर उत्तरदायित्व एक विवाह के द्वारा ही निश्चित होता है।
  2. वंशावली की स्थापना या पति-पत्नी जिस समूह में रहते हैं, उनके सामाजिक संबंधों को विशिष्ट रूप से नियमितता प्रदान करना।

प्रश्न 4.
परिवार की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
परिवार की दो विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं :

  • सन्तान की उत्पत्ति, पालन-पोषण और आर्थिक सहायता :
    प्रत्येक परिवार अपनी वंश परंपरा को बनाए रखने के लिए संतानोत्पत्ति करता है, सन्तान का पोषण करता है और कुछ-न-कुछ ऐसी आर्थिक व्यवस्था करता है, जिससे परिवार के सदस्यों की आवश्यकताएँ पूरी होती रहें।
  • सामान्य निवास :
    परिवार के सदस्य एक साथ एक छत के नीचे रहते हैं और उनका खाना एक ही रसोई में बनता है।

प्रश्न 5.
भारत का परिवार किन अंशों तक संयुक्त है?
उत्तर :
भारतीय परिवार की प्रवृत्ति आदर्श संयुक्त परिवार की रही है, परंतु वर्तमान में संयुक्त परिवार के परंपरागत लक्षणों में परिवर्तन हो रहे हैं, किंतु अलग रहकर भी परिवार के सदस्य उत्तरदायित्वों की दृष्टि से एक सूत्र में बँधे रहते हैं। आशय यह है कि हिन्दू मनोवृत्तियाँ आज भी संयुक्त परिवार के पक्ष में हैं, तथापि बदली हुई परिस्थितियों में नगरीय · क्षेत्रों में संयुक्त परिवार को अपने परंपरागत रूप में बनाए रखना संभव नहीं है।

प्रश्न 6.
परिवार के आर्थिक कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
परिवार के आर्थिक कार्यों के निम्नलिखित तीन कार्य सम्मिलित हैं :

  • श्रम विभाजन :
    आयु और लिंग के आधार पर परिवार में प्रत्येक सदस्य की एक निश्चित स्थिति और कार्य होता है।
  • आर्थिक क्रियाओं का केंद्र :
    उपभोग से लेकर उत्पादन, विनिमय एवं वितरण तक की सारी क्रियाएँ परिवार द्वारा संपन्न की जाती हैं।
  • संपत्ति का वितरण :
    पारिवारिक संपत्ति का उचित वितरण परिवार के सदस्यों में किया जाता है।

प्रश्न 7.
दो या दो से अधिक प्रारंभिक संज्ञाओं को मिलाकर बनाए गए नातेदार या स्वजन सूचक को क्या कहते हैं?
उत्तर:
दो या दो से अधिक प्रारंभिक संज्ञाओं को मिलाकर बनाए गए नातेदार या स्वजनसूचक को रक्त संबंधी नातेदारी कहते हैं। इस नातेदारी में व्यक्ति जिस परिवार में जन्म लेता है, उस परिवार के सभी सदस्य उसके रक्त के स्वजन होते हैं। माता-पिता, भाई-बहिन, दादा-दादी, मामा-मौसी, नानी-नानी, चाचा, बुआ आदि रक्त संबंधी नातेदारी में आते हैं।

प्रश्न 8.
विभिन्न स्वजनों के बीच परस्पर हँसी-मजाक के संबंध को क्या कहते हैं?
उत्तर:
विभिन्न स्वजनों के बीच परस्पर हँसी-मजाक के संबंध को परिहास कहते हैं। परिहास प्रथा नातेदारों की को एक-दूसरे के नजदीक लाती है। इस प्रथा के अनुसार, कुछ नातेदारों के बीच घनिष्ठता तथा हँसी-मजाक अपेक्षित है। देवर-भाभी, जीजा-साला, साली के बीच हँसी-मजाक करने की प्रथाएँ और व्यवहार कई समाजों में प्रचलित हैं। परस्पर गाली देना, खिल्ली उड़ाना, मजाक करने के माध्यम के विभिन्न अवसरों पर इन संबंधों की अभिव्यक्ति होती है।

प्रश्न 9.
मातुलेय किस प्रकार के समाजों में पाया जाता है?
उत्तर:
मातुलेय :
यह सम्बन्ध मातृ-सत्तात्मक समाजों में पाया जाता है। विवाह के बाद दम्पत्ति पति की माँ के भाई के घर जाकर रहने लगते हैं। नव दंपत्ति पर अधिकार और नियन्त्रण मामा का रहता है। माँ तथा मामा की स्थिति महत्वपूर्ण होती है तथा पिता की स्थिति गौण हो जाती है। दंपति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने पिता से भी अधिक सम्मान अपने मामा का करे। यह प्रथा खासी और टोडा जनजाति में पायी जाती है।

प्रश्न 10.
राज्य का अर्थ बताइए।
उत्तर:
राज्य की धारणा बहुत प्राचीन है। समय-समय पर राज्य के स्वरूपों में भिन्नता रही है। राज्य ऐसे व्यक्तियों का समूह है, जिनकी एक संगठित सरकार है, जो किसी निश्चित भू-भाग में रहते हैं तथा जो विदेशी नियंत्रण से सर्वथा मुक्त रहते हैं। राज्य में एक निश्चित भू-भाग एवं अपने सदस्यों पर अधिकार एवं आज्ञा देकर कार्य करा सकने वाली एक सर्वोच्च सत्ता की धारणा निहित है।

प्रश्न 11.
सरकार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
राज्य के चार आवश्यक तत्व हैं। इनमें से एक तत्व संगठित सरकार भी है। यह राज्य का तीसरा आवश्यक अंग है। एक संगठित सरकार राज्य के कार्यों का संचालन करती है। जनता द्वारा चुने गए विधिसम्मत सदस्य सरकार चलाते हैं। यह अपने कार्यों द्वारा जनता के प्रति उत्तरदायी होती है, विधिपूर्वक सरकार का संचालन न कर पाने की स्थिति में जनता अपने मत के अधिकार का प्रयोग करके नई सरकार निर्वाचित भी कर सकती है।

प्रश्न 12.
कल्याणकारी राज्य क्या है?
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य से आशय है कि एक ऐसा आधुनिक राज्य जो जनहित व जन-कल्याण के लिए आवश्यक सभी कार्यों को करे। इसके अंतर्गत कल्याणकारी राज्य न केवल बाहरी आक्रमणों से रक्षा व आंतरिक शांति व्यवस्था करने के लिए उत्तरदायी है, बल्कि यदि राज्य के निवासी भूखे हैं, अशिक्षित हैं तो एक आधुनिक राज्य आँख मूंदकर नहीं बैठ सकता। निवासियों के लिए अन्न, वस्त्र, शिक्षा, सफाई, प्रकाश, दवाई, मकान आदि की व्यवस्था करना भी कल्याणकारी राज्य के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 13.
संपत्ति के प्रमुख प्रकार बताइए।
उत्तर :
साधारण शब्दों में भौतिक वस्तुओं को संपत्ति कहा जाता है। संपत्ति प्रमुख रूप से दो प्रकार की होती है। सार्वजनिक संपत्ति व व्यक्तिगत संपत्ति समाजवादी अर्थव्यवस्था में संपत्ति पर जनता का अर्थात. सरकार का अधिकार रहता है, वहाँ पर सम्पत्ति पर निजी अधिकारों को मान्यता नहीं दी जाती। परन्तु पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था में संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकारों को मान्यता दी जाती है।

प्रश्न 14.
संपत्ति की किन्हीं तीन विशेषताओं के नाम बताइए।
उत्तर:
संपत्ति की तीन महत्वपूर्ण विशेषताएँ :

  1. उत्पादन, वितरण, नियंत्रण एवं समुदाय में स्वामित्व का आधार।
  2. मानव समाज की भौतिक आवश्यकता-पूर्ति का माध्यम
  3. सार्वजनिक एवं निजी संपत्ति के रूप में प्रभावकारी।

प्रश्न 15.
धर्म क्या है?
उत्तर:
धर्म शब्द की उत्पत्ति ‘धृ’ धातु से हुई। जिसका अर्थ है-धारण करना अर्थात सात्विक गुणों को धारण करना धर्म है। धर्म अलौकिक वस्तुओं, सत्ता, शक्ति अथवा अन्य अलौकिक तत्वों से जुड़े विश्वासों एवं व्यवहारों की एक अन्तर्सम्बन्धित व्यवस्था है। यह ऐसी व्यवस्था है जिससे उस धर्म को मानने वालों के व्यवहार एवं हित जुड़े रहते हैं। यह सम्बन्ध ऐसा है जिसे धर्म के मानने वाले अपने सार्वजनिक और निजी जीवन में गम्भीरता से स्वीकार करते हैं। धर्म का सबसे महत्वपूर्ण तत्व अलौकिक वस्तु, शक्ति अथवा सत्ता में विश्वास है।

प्रश्न 16.
धर्म की तीन विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
धर्म की विशेषताएँ

  • पवित्रता की धारणा :
    धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों और आचरणों की समग्र व्यवस्था है जो इस पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में संयुक्त करती है। धर्म से सम्बन्धित सभी वस्तुओं को पवित्र माना जाता है।
  • संवेगात्मक भावनाओं से सम्बन्ध :
    धर्म में संवेगात्मक भावना प्रधान होती है, तर्क प्रधान भावना प्रधान नहीं होती। धर्म में तर्क के लिये कोई स्थान नहीं होता है।
  • अनुज्ञा और निषेध :
    प्रत्येक धर्म में कुछ कर्मों को करने के लिये कहा जाता है, जिन्हें अनुज्ञा कहते हैं। जैसे दान देना। कुछ कार्यों को करने से मना किया जाता है, उन्हें निषेध कहते हैं। जैसे-झूठ नहीं बोलना चाहिए, दुराचार व्यभिचार, बेईमानी आदि नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न 17.
धर्म के चार कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
धर्म के प्रमुख चार कार्य निम्नलिखित हैं :

  1. धर्म समाज और संस्कृति का पथ-प्रदर्शक है।
  2. पवित्रता और आत्मबल में वृद्धि करता है।
  3. एक दूसरे के समीप आने की भावना को प्रोत्साहन देता है।
  4. धर्म व्यक्ति का समूह में एकीकरण करता है, अनिश्चितता की स्थिति में दिशा प्रदान करता है।

प्रश्न 18.
शिक्षा को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
परिभाषा शिक्षा ऐसा प्रभाव है जो वयस्क पीढ़ी द्वारा उन पर छोड़ा जाता है जो अभी वयस्क जीवन के लिए तैयार नहीं हैं। इसका लक्ष्य बच्चे में वे भौतिक, बौद्धिक और नैतिक स्थितियाँ जागृत और विकसित करना है, जिनकी जरूरत आके संपूर्ण समाज और उसके तात्कालिक सामाजिक कातावरण, दोनों के द्वारा महसूस की जाती है।

प्रश्न 19.
शिक्षा का महत्वपूर्ण प्रकार्य क्या है?
उत्तर:
शिक्षा के अनेक प्रकार्य हैं, महत्वपूर्ण प्रकार्य निम्नलिखित हैं :

  1. व्यक्ति को सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप सामाजिक बनाना, ढालना तथा विकसित करना।
  2. आधुनिक अर्थव्यवस्था के अनुसार उद्योग और प्रौद्योगिकी में विशिष्ट कौशलों, मानव-संसाधनों से संबंधित प्रशिक्षण आदि सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना।
  3. परंपराओं, संस्कृति, ज्ञान और कौशल को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपना।

प्रश्न 20.
भारतीय शिक्षा प्रणाली के दोषों पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
उत्तर:
आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली की रूपरेखा अंग्रेजी शासन काल में मैकाले के नेतृत्व में बनी। यह प्रणाली आज के संदर्भ में बहुत अंशों में निरुपयोगी सिद्ध होती जा रही है। शिक्षा प्रणाली का पहला दोष यह है कि तकनीकी शिक्षा के अभाव में छात्र आजीविका उपार्जन में सक्षम नहीं हो पाते। दूसरा दोष यह है कि इसका भारतीय संस्कृति के अनुसार छात्र का चरित्र निर्माण करने में विशेष योगदान नहीं होता। किताबी ज्ञान पर अधिक जोर व व्यावहारिक शिक्षा का अभाव इस प्रणाली का दोष है।

RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विवाह की परिभाषा दीजिए तथा हिन्दू विवाह के परम्परागत और आधुनिक प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विवाह :
विवाह समाज द्वारा मान्यता प्राप्त सामाजिक संस्था है। मूलतः हम विवाह को एक ऐसी सामाजिक स्वीकृति के रूप में मानते हैं, जहाँ स्त्री और पुरुष अपने धर्मानुसार कुछ रीति-रिवाजों को पूर्ण कर एक दूसरे के साथ रहने का वचन लेते हैं।
हिन्दू विवाह के प्रकार :

  • ब्रह्म विवाह :
    इस विवाह में पिता ज्ञानी और सच्चरित्र वर को आमंत्रित करके अपनी सामर्थ्य के अनुसार अलंकारों से सुसज्जित कन्या का दान करता है।
  • दैव विवाह :
    यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठानों तथा पवित्र धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करवाने वाले पुरोहितों से जब वस्त्र और आभूषणों से अलंकृत कन्या का विवाह करवा दिया जाता था तो उसे दैव विवाह कहते थे।
  • आर्ष विवाह :
    इस प्रकार के विवाह में एक ऋषि गाय और बैल का जोड़ा कन्या से विवाह की इच्छा से कन्या के पिता को भेंट करता था, ऐसी स्थिति में कन्या का पिता विधिवत तरीके से अपनी लड़की का विवाह उस ऋषि से कर देता था।
  • प्राजापत्य विवाह :
    इस विवाह में कन्या का पिता अपनी पुत्री का कन्यादान वर को करते हुए यह कहता है- “तुम दोनों एक साथ रहकर आजीवन धर्म का आचरण करो।”
  • असुर विवाह :
    कन्या के माता-पिता अथवा अभिभावक को अपनी सामर्थ्य के अनुसार वधू मूल्य देकर वधू प्राप्त करना असुर विवाह है।
  • गान्धर्व विवाह :
    प्रेम द्वारा होने वाले विवाह को गान्धर्व विवाह कहते हैं। प्राचीन काल में इस प्रकार विवाह किये जाते थे, इसलिये इन्हें गान्धर्व विवाह कहा गया।
  • राक्षस विवाह :
    युद्ध में कन्या का अपहरण कर किया गया विवाह राक्षस विवाह है। आधुनिक समय में इस प्रकार के विवाह गैर कानूनी हैं।
  • पैशाच विवाह :
    नींद में सोई हुई या नशे में उन्मत्त अथवा राह में जाती हुई लड़की का शील भंग करके किया जाने वाला विवाह पैशाच विवाह है। वर्तमान समय में इस प्रकार का कृत्य अपराध की श्रेणी में आता है।

पति और पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के दो मुख्य प्रकार है :

  1. एक विवाह
  2. बहु विवाह

बहु विवाह के तीन प्रकार हैं :

  1. बहुपत्नी विवाह
  2. बहुपति विवाह और
  3. समूह विवाह।

बहुपति विवाह भी दो प्रकार का होता है

  1. भ्रातृ बहुपति विवाह और
  2. अभ्रातृ बहुपति विवाह

हिन्दू विवाह के आधुनिक प्रकार वर्तमान में हिन्दू पद्धति से होने वाले विवाहों में ब्रह्म विवाह व गान्धर्व विवाह प्रचलित हैं। कहीं-कहीं असुर विवाह भी देखने को मिलते हैं। हिन्दू समाज में ब्रह्म विवाह ही अधिकांशतः सम्पन्न होते हैं।

प्रश्न 2.
विवाह की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए
उत्तर:
विवाह की प्रमुख विशेषताएँ विवाह की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

  1. सामाजिक संस्था के रूप में स्वीकृति विवाह एक सामाजिक संस्था हैं जिसके द्वारा स्त्री और पुरुष में सम्बन्ध स्थापित होते हैं।
  2. विधिसम्मत-विवाह सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था है, जिसे कानून द्वारा मान्यता प्राप्त है।
  3. वंशवृद्धि विवाह द्वारा एक परिवार का निर्माण होता है तथा संतान को वैध स्थिति तथा माता-पिता के समान अधिकार मिलते हैं।
  4. श्रेष्ठ सामाजिक समझौता विवाह एक धार्मिक कृत्य अथवा सामाजिक समझौते के रूप में हो सकता
  5. विवाहों में अनेकरूपता-विवाह का एक ही रूप नहीं है अर्थात् सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नताओं के कारण विभिन्न समाजों में इसके रूप में अन्तर है।
  6. परिवार को स्थायित्व-विवाह परिवार को स्थायित्व प्रदान करता है।
  7. सार्वभौमिक संस्था के रूप में विवाह एक सार्वभौमिक सामाजिक संस्था है।

प्रश्न 3.
विवाह के प्रमुख उद्देश्यों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:
विवाह संस्था के उद्देश्य :
विवाह संस्था के निम्न उद्देश्य बताये गए हैं :

  • संस्कृति व मूल्यों की प्राथमिक पाठशाला :
    समाज की संस्कृति एवं मूल्यों की शिक्षा बच्चों को देने का माता-पिता पर उत्तरदायित्व विवाह के द्वारा ही निश्चित होता है।
  • आर्थिक सहयोग :
    विवाह का उद्देश्य है आर्थिक सहयोग। प्रत्येक स्थान पर विवाह के साथी कुछ श्रम-विभाजन पर सहमत होते हैं। विवाह में सम्पत्ति का प्रश्न भी सन्निहित होता है।
  • परस्पर सम्बन्धों की दृढ़ता :
    विवाह का एक उद्देश्य साथियों में भावनात्मक और अन्तरप्रेरणात्मक सम्बन्धों की स्थापना करना भी है।
  • वंशावली की स्थापना :
    वंशावली की स्थापना या पति-पत्नी जिस समूह में रहते हैं, उनके सामाजिक सम्बन्धों को विशिष्ट रूप से नियमितता प्रदान करना।

इसके अतिरिक्त विवाह के धार्मिक उद्देश्य भी हो सकते हैं। हिन्दू लोग विवाह को धार्मिक संस्कार मानते हैं एवं विवाह का उद्देश्य भी मुख्य रूप से धर्म को मानते हैं। धर्म के माध्यम से ही वे अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। कोई भी हिन्दू बिना पत्नी की सहायता के धार्मिक उत्सव नहीं मना सकता। अतः प्रत्येक हिन्दू विवाह को एक धार्मिक कर्तव्य मानता है। हिन्दूओं में विवाह अनिवार्य है।

प्रश्न 4.
परिवार को परिभाषित कीजिए। परिवार की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
परिवार :
परिवार वैवाहिक बंधन एवं रक्त सम्बन्धों पर आधारित एक उपयोगी एवं अनिवार्य समुदाय है, जिसमें पति-पत्नी और बच्चे नियमित जीवन व्यतीत करते हुए एक ही स्थान पर रहते हैं।

परिवार की विशेषताएँ :
परिवार की विशेषताओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है :
(अ) परिवार की सामान्य विशेषताएँ :

  • पति और पत्नी का सम्बन्ध :
    पति और पत्नी का सम्बन्ध समाज की स्वीकृति से विवाह के पश्चात् स्थापित होता है और आजीवन इसे निभाने की अपेक्षा की जाती है।
  • विवाह का निश्चित स्वरूप :
    प्रत्येक समाज में, परिवार में कुछ निश्चित नियमों के अन्तर्गत पति और पत्नी के सम्बन्ध बनाए जाते हैं।
  • वंश परम्परा या नामकरण :
    सन्तानों का नामकरण माता के वंश के आधार पर या पिता के वंश के आधार पर या स्थान के आधार पर भी किया जाता है।
  • बच्चे का जन्म व भरण-पोषण :
    प्रत्येक परिवार अपनी वंश परम्परा को बनाये रखने के लिये संतानोत्पत्ति करता है। उनका पोषण करता है और ऐसी व्यवस्था करता है, जिससे परिवार के सदस्यों की आर्थिक आवश्यकताएँ पूरी होती हों।
  • निवास परिवार के सदस्य :
    एक साथ एक ही छत के नीचे रहते हैं और उनका खाना एक ही रसोई में बनता है।

(ब) परिवार की विशिष्ट विशेषताएँ :

  • सार्वभौमिकता :
    परिवार का संगठन अतीत काल में भी था, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी रहेगा।
  • भावात्मक आधार :
    परिवार के सदस्य भावनात्मक रूप से एक दूसरे से गहराई और तीव्रता के साथ जुड़े रहते हैं; जैसे-पति-पत्नी का पारस्परिक प्यार, त्याग और समर्पण, माता-पिता और अन्य बुजुर्गों का अपनी सन्तान के प्रति वात्सल्य, माता का अपने बच्चों के प्रति वात्सल्य भावना आदि।
  • सीमित आकार :
    परिवार का सदस्य वही हो सकता है जिसने या तो परिवार में जन्म लिया है या परिवार में विवाह किया है। आधुनिक युग में परिवार में केवल पति-पत्नी और बच्चे होते हैं।
  • रचनात्मक प्रभाव :
    परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाला है और माता-पिता बच्चे की प्रथम दो पुस्तकें है इसलिए व्यक्ति पर बचपन में जो संस्कार पड़ जाते हैं, वे अमिट रहते हैं।
  • सामाजिक संरचना में केन्द्रीय स्थिति :
    परिवार सामाजिक संगठन की प्रारम्भिक और केन्द्रीय इकाई है और सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचा परिवार पर आधारित है।
  • सदस्यों का असीमित उत्तरदायित्व :
    परिवार का प्रत्येक सदस्य परिवार के किसी भी छोटे अथवा बड़े कार्य को निजी हित के रूप में नहीं वरन् अपना कर्त्तव्य समझकर अपनी क्षमता से भी अधिक प्रयत्नों द्वारा पूरा करने का प्रयास करता है।
  • सामाजिक नियमन :
    परिवार पारस्परिक सम्बन्धों, शिष्टाचार, रीतियों, प्रथाओं, कर्तव्यबोध आदि द्वारा व्यक्ति पर नियन्त्रण रखकर सामाजिक जीवन को नियमित बनाता है।
  • स्थायी एवं अस्थायी प्रकृति :
    परिवार एक समिति और संस्था भी है। समिति के रूप में परिवार अस्थायी है। संस्था के रूप में परिवार स्थायी है। वह आदिकाल से चला आ रहा है।

प्रश्न 5.
एक संस्था के रूप में परिवार के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
परिवार के कार्यों को प्रमुख रूप से निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है :

  1. मौलिक एवं सार्वभौमिक कार्य तथा
  2. परम्परागत कार्य

1. मौलिक एवं सार्वभौमिक कार्य :
परिवार के मौलिक और सार्वभौमिक कार्यों के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्य आते हैं :
जैविकीय कार्य :
जैविकीय कार्यों के अन्तर्गत निम्नांकित कार्यों को सम्मिलित किया जाता है :

  • सन्तानोत्पत्ति :
    परिवार सन्तानोत्पत्ति के माध्यम से संतान उत्पति की मूल प्रवृत्ति को सन्तुष्ट कर व्यक्ति के व्यक्तित्व का समुचित विकास करता है।
  • शारीरिक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा :
    परिवार अपने सदस्यों को दुर्घटना, बीमारी तथा आजीविका विहीनता की स्थिति में सहयोग देकर शारीरिक सुरक्षा प्रदान करता है। अन्य व्यक्ति या समूह से उसके हितों की सुरक्षा की मनोवैज्ञानिक सुरक्षा की भावना परिवार बिना किसी शर्त के व्यक्ति को प्रदान करता है।

2. परम्परागत कार्य :
परिवार के परम्परागत कार्य इस प्रकार हैं :
(i) सामाजिक कार्य :

  1. सामाजिक कार्यों के अन्तर्गत परिवार समाज में व्यक्ति की प्रस्थिति और दायित्व निश्चित करता है।
  2. बच्चा परिवार में जन्म लेता है, परिवार उसे समाज के अनुरूप बना देता है।
  3. समाज की संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाता है।
  4. परिवार उन सब बातों पर प्रतिबन्ध लगाता है जो समाज में बुरी अथवा समाज विरोधी समझी जाती हैं और उन बातों को सीखने के लिये प्रेरित करता है जो समाज में अच्छी समझी जाती हैं।

(ii) सांस्कृतिक कार्य :
समाज के रीति-रिवाज, प्रथाएँ, परम्पराएँ, धर्म, कानून एवं अन्य सांस्कृतिक तत परिवार के सदस्यों द्वारा बालकों को सिखाये जाते हैं, जिससे उनमें समान मनोवृत्ति का विकास होता है।
(iii) आर्थिक कार्य :
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कार्य आते हैं।

  • श्रम विभाजन :
    आयु और लिंग के आधार पर परिवार में कार्यों का विभाजन होता है। कठिन और बाह कार्य पुरुष करते हैं तथा अपेक्षाकृत आसान और घरेलू काम महिलाएँ करती हैं।
  • आर्थिक क्रियाओं का केन्द्र :
    उपभोग से लेकर उत्पादन, विनिमय एवं वितरण तक की सारी क्रियाएँ परिवार द्वारा सम्पन्न की जाती हैं।
  • सम्पत्ति का वितरण :
    पारिवारिक सम्पत्ति का उचित वितरण अपने सदस्यों में करके परिवार संघर्षों को कम करता है।

(iv) धार्मिक कार्य :
परिवार धर्म का प्रमुख केन्द्र है। हिन्दू शास्त्रकारों के अनुसार तो परिवार का निर्माण ही धार्मिक कृत्यों को पूरा करने के लिये होता है।
(v) शैक्षिक कार्य :
परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाला है। बच्चे भविष्य में जो कुछ भी बनते हैं उनमें परिवार की शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान होता है।
(vi) मनोरंजनात्मक कार्य :
परिवार अपने सदस्यों का वीर कथाओं, लोक गाथाओं, शिक्षाप्रद कहानियों, व्यक्तिगत अनुभवों आदि के माध्यम से मनोरंजन करता है।

प्रश्न 6.
परिवार के प्रमुख प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परिवार के प्रकार :
(अ) परिवार की प्रकृति के आधार पर :

  • एकाकी परिवार :
    इस प्रकार का परिवार पति-पत्नी और अविवाहित बच्चों द्वारा बनता है। वर्तमान में भारतीय समाज में इस प्रकार के परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है।
  • संयुक्त परिवार :
    जब कई मूल परिवार एक साथ रहते हों, एक ही स्थान पर भोजन करते हों और एक आर्थिक इकाई के रूप में कार्य करते हों तो उनके सम्मिलित रूप को संयुक्त परिवार कहा जाता है।

(ब) विवाह के आधार पर :

  • एक विवाही परिवार :
    जब कोई स्त्री अथवा पुरुष एक समय में एक पुरुष अथवा एक स्त्री से विवाह करते हैं। एक विवाही परिवार कहलाते हैं।
  • बहुविवाही परिवार :
    जब कोई पुरुष या स्त्री एक समय में एक से अधिक स्त्री या पुरुष से विवाह करते हैं तो उसे बहुविवाही परिवार कहते हैं। ये दो प्रकार का होता है-बहुपति विवाही परिवार और बहुपत्नी परिवार।
  • समूह विवाही परिवार :
    यह परिवार का वह स्वरूप है जिसमें पुरुषों का एक समूह, स्त्रियों के एक समूह से विवाह करता है और प्रत्येक पुरुष उस समूह की प्रत्येक स्त्री के साथ सम्बन्ध रख सकता है। वर्तमान में ऐसे परिवार दिखाई नहीं देते।

(स) निवास स्थान के आधार पर :

  • पितृ स्थानीय परिवार :
    विवाह के बाद जब स्त्री अपने पति के घर जाकर रहती है तो उसे पितृ स्थानीय परिवार कहते हैं।
  • मातृ स्थानीय परिवार :
    विवाह के बाद जब पति अपनी पत्नी के घर जाकर रहता है तो ऐसा परिवार मातृ स्थानीय परिवार कहलाता है।
  • मातुल स्थानीय परिवार :
    विवाह के बाद जब दम्पति पति की माँ के भाई अर्थात् पति के मामा यहाँ नाकर रहते हैं तो उसे मातुल स्थानीय परिवार कहते हैं।
  • नवस्थानीय परिवार :
    जब नवविवाहित दम्पत्ति न तो पति के यहाँ न पत्नी के घर जाकर रहे बल्कि नया ही निवास बनाकर रहें तो परिवार का यह प्रकार नवस्थानीय परिवार कहलाता है।

प्रश्न 7.
नातेदारी या स्वजनता की रीतियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नातेदारी या स्वजनता की रीतियाँ नातेदारी में दो नातेदारों के बीच कैसा सम्बन्ध या व्यवहार होगा, इसके कुछ निश्चित नियम हैं। इन्हीं नियमों को ही हम नातेदारी अथवा स्वजनता की रीतियाँ या व्यवहार कहते हैं। प्रमुख रीतियाँ निम्नलिखित हैं :

  • परिहार :
    कुछ सम्बन्धी जिनके सम्बन्ध कुछ विशिष्ट श्रेणियों में आते हैं, एक दूसरे से एक निश्चित दूरी बनाये रखते हुए परस्पर अन्तःक्रिया करते हैं। जैसे कई समाजों में सास अपने दामाद से घूघट निकालती है और बातें भी करती है तो यूंघट की आड़ में करती है, बहू अपने ससुर या बड़े भाई (ज्येष्ठ) अथवा किसी अन्य बुजुर्ग सम्बन्धी के सामने बिना परदे के नहीं जाती है।
  • परिहास :
    परिहास प्रथा नातेदारों को एक दूसरे के नजदीक लाती है और मानती है कि कुछ नातेदारों के बीच घनिष्ठता तथा हँसी-मजाक अपेक्षित है। देवर-भाभी, जीजा-साली-साला के बीच हँसी-मजाक करने की प्रथाएँ और व्यवहार-प्रणाली कई समाजों में प्रचलित है। परस्पर गाली देना, खिल्ली उड़ाना, मजाक करने के माध्यम से विभिन्न अवसरों पर इन सम्बन्धों की अभिव्यक्ति होती है।
  • अनुनामिता या माध्यमिक सम्बोधन :
    जब दो नातेदारों के बीच नाम से पुकारना वर्जित हो और सम्बोध न के लिए किसी माध्यम का उपयोग किया जाता है तो यह व्यवहार अमुनामिता की रीति में आता है। भारतीय समाज में स्त्री अपने पति को अधिकांशतः नाम लेकर नहीं पुकारती बल्कि अपने लड़के या लड़की के नाम के माध्यम से सम्बोधित करती है।
  • मातुलेय :
    यह सम्बन्ध खासी और टोडा जैसी जनजातियों में पाया जाता है। विवाह के बाद दंपत्ति पति की माँ के भाई के घर जाकर रहने लगते हैं, ऐसी स्थिति में अधिकार और नियन्त्रण मामा का रहता है।
  • पितृश्वश्रेय :
    पितृश्वश्रेय में पति की बहन को महत्व दिया जाता है, वही अपने भाई के बच्चों का पालन-पोषण, नियन्त्रण और विवाह आदि की जिम्मेदारी सँभालती है, मेलानेशिया की कुछ जनजातियों तथा भारत की टोडा जनजाति में यह प्रथा पायी जाती है।
  • सहप्रसविता या सहकष्टी :
    इस प्रथा का प्रचलन भारत में खासी तथा टोडा जनजाति में तथा भारत के बाहर कुछ आदिम जातियों में है। प्रथा के अनुसार बच्चे को जन्म देने वाली स्त्री के पति को भी उन सभी प्रकार के कष्टों की सांकेतिक पुनरावृत्ति करनी होती है जिन कष्टों से प्रसव के दौरान उसकी पत्नी गुजरती है और अनुभव करती है।

प्रश्न 8.
नातेदारी या स्वजनता शब्दावली अथवा संज्ञाएँ क्या हैं?
उत्तर:
स्वजनता शब्दावली हम दैनिक अन्त:क्रिया में अपने नातेदारों को कुछ अन्य शब्दों को उन्हें पहचानने और श्रेणियों में विभाजित करने के लिए प्रयुक्त करते हैं। इन सब शब्दों को, जो श्रेणियों में होते हैं, नातेदारी शब्दावली कहते हैं। नातेदारी शब्दावली में निम्न समाहित होते हैं-पिता, माता, पत्नी, पति, चाची, चाचा और अन्य लोग। नातेदारी के उपरोक्त पद परिवार के विभिन्न सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों को समझने में सहायता प्रदान करते हैं। नातेदारी पद विभिन्न प्रकार के हैं। मानवशास्त्रियों ने इन पदों के वर्गीकरण में विभिन्न आधारों को अपनाया है।

(अ) भाषायी संरचना के आधार पर :

  • प्रारम्भिक पद :
    ये पद इतने प्रारम्भिक हैं कि इन्हें और अधिक छोटे शब्दों में नहीं बदला जा सकता। ऐसे आधारभूत पदों को अधिक सामान्य शब्दों में नहीं रखा जा सकता। इन पदों के उदाहरण हैं माता-पिता, भाई-बहिन चाचा-चाची इत्यादि।
  • कृत्रिम पद :
    इन्हें व्युत्पन्न पद भी कहते हैं। इनको सामान्य शब्दों से पृथक कर दिया जाता है। इस प्रकार के नातेदारी पदों के उदाहरण हैं-दादा, साली, परदादा और दत्तकपुत्र।
  • विवरणात्मक पद :
    इन्हें वर्णनात्मक पद भी कहते हैं। ये पद दो या अधिक प्रारम्भिक पदों द्वारा बनाये जाते हैं। उदाहरण के लिए पत्नी की बहिन (साली) भाई की पत्नी (भाभी), लड़के की पत्नी (बहू), लड़की का पति (दामाद), इत्यादि। चचेरी बहिन भी ऐसे पदों में है।

(ब) पदों के उपयोग में लाने के तरीके के आधार पर :

  • सम्बोधन के तरीके :
    ये वे शब्द हैं जिनका प्रयोग हम अपने स्वजनों को सम्बोधित करने के लिए करते हैं। इस प्रकार के पदों के उदाहरण हैं-पापा-डैडी, माँ-मम्मी, दीदी-भैया इत्यादि। तमिल भाषा में अन्ना (बड़ा भाई), लाम्बी (छोटा भाई), अक्का (बड़ी बहिन) इत्यादि।
  • संदर्भ सूचक पद :
    वे नातेदारी पद जिन्हें हम अपने स्वजनों से स्वयं का सम्बन्ध किसी अन्य व्यक्ति को बताते समय प्रयुक्त करते हैं, उन्हें संदर्भ सूचक पद कहते हैं इसके उदाहरण हैं-पिता, माँ, भाई-बहिन इत्यादि। तमिल में संदर्भ व्यक्ति मामा मागा (मातृ), चाचा की लड़की/लड़का अटाई/भागन/मागल (पिता की बहिन की लड़की/लड़का) आदि।

(स) व्यवहार में लागू करने की श्रेणी के आधार पर ;

  • पृथकात्मक/सूचक/विवरणात्मक पद :
    जो किसी एक विशेष नातेदारी की श्रेणी पर लागू होता है, उस पद को विवरणात्मक/सूचक/पृथकात्मक पद कहते हैं। उदाहरण के लिए, पिता और माता हमारे माता-पिता पर ही लागू होता है और किसी अन्य पर नहीं।
  • वर्णात्मक पद :
    इन पदों का प्रयोग दो या अधिक नातेदारी वर्गों के व्यक्तियों को सम्बोधित करने के लिए किया जा सकता है। उदाहरणार्थ कजिन शब्द का प्रयोग हम पिता के भाई के पुत्र, पिता की बहिन के पुत्र, माता के भाई के पुत्र तथा माता की बहन के पुत्र के लिए करते हैं। इस प्रकार अंकल (चाचा) शब्द पिता के भाई, माता के भाई, पिता की बहन के पति और माँ की बहन के पति के लिए प्रयुक्त करते हैं।

प्रश्न 9.
नातेदारी या स्वजनता के आप क्या समझते हैं? नातेदारी या स्वजनता के प्रकार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्वजनता या नातेदारी :
नातेदारी को समझने के लिए हम इसकी कुछ परिभाषाओं का अध्ययन करते हैं। :
“सभी समाजों में मनुष्य अनेक प्रकार के बन्धनों द्वारा आपस में समूहों में बँधे हुए होते हैं, इन बन्धनों में सबसे अधिक सार्वभौमिक तथा आधारभूत बन्धन वह है जो सन्तानोत्पत्ति पर आधारित होता है, संतानोत्पत्ति मानव की स्वाभाविक इच्छा है और नातेदारी कहलाती है। -मजूमदार और मदान

“नातेदारी केवल स्वजन अर्थात् वास्तविक अथवा कल्पित समरक्तता वाले व्यक्तियों के मध्य सम्बन्ध है जो किसी भी प्रकार पैदा हो सकता है। अर्थात् वह वास्तविक भी हो सकता है और कल्पित भी। -रॉबिन फॉक्स

“नातेदारी सामाजिक उद्देश्यों के लिए स्वीकृत वंश सम्बन्धी है जो कि सामाजिक सम्बन्धों के परम्परात्मक सम्बन्धों का आधार है।” -ब्राउन

ब्राउन के अनुसार :

  1. नातेदारी में उन व्यक्तियों को सम्मिलित करते हैं जिनका परस्पर सम्बन्ध विवाह अथवा रक्त के आधार पर होता है।
  2. वंशावली सम्बन्ध परिवार से होते हैं।
  3. ये वंशावली सम्बन्ध परिवार से उत्पन्न होते हैं और परिवार पर ही आश्रित रहते हैं, और
  4. इन वंशावली सम्बन्धों को समाज की स्वीकृति प्राप्त होती है।।

उक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि नातेदारी एक सामाजिक तथ्य है और इस कारण इसमें कभी-कभी वे लोग भी आ जाते हैं जो वंशावली के आधार पर रक्त सम्बन्धी नहीं होते हैं जैसे दत्तक पुत्र।

  • रक्त सम्बन्धी नातेदारी :
    जिस परिवार में व्यक्ति जन्म लेता है उस परिवार के सभी सदस्य उसके रक्त के स्वजन होते हैं। माता-पिता, भाई-बहिन, दादा-दादी, मामा-मौसी, नाना-नानी, चाचा, बुआ आदि रक्त सम्बन्धी नातेदारी में आते हैं।
  • विवाह सम्बन्धी नातेदारी :
    पति-पत्नी के बीच आपसी एवं एक-दूसरे के पक्ष के साथ बनने वाले सम्बन्धों के आधार पर बनने वाले सम्बन्धी इस प्रकार की नातेदारी के अन्तर्गत आते हैं। सास, श्वसुर, ननद, भाभी, देवरानी, जेठानी, जीजा, साली, साढू, फूफा आदि विवाह सम्बन्धी नातेदार हैं।
  • काल्पनिक नातेदारी :
    रक्त सम्बन्धी स्वजनता सदैव जैविकीय ही हो, आवश्यक नहीं है। पिता और पुत्र का सम्बन्ध रक्त पर आधारित सम्बन्ध है लेकिन ऐसा हो सकता है कि पुत्र वास्तविक न होकर गोद लिया हुआ हो। इस प्रकार की नातेदारी को काल्पनिक नातेदारी कहते हैं।

प्रश्न 10.
राज्य की परिभाषा दीजिए व राज्य के आवश्यक तत्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राज्य को समझने के लिए इसकी निम्नलिखित परिभाषाओं का अध्ययन करेंगे
“राज्य एक ऐसी समिति है, जो कानून द्वारा शासनतंत्र से क्रियान्वित होती है और जिसे एक निश्चित भू-भाग में सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होते हैं। -मैकाइवर

“राज्य परिवारों और ग्रामों के उस समुदाय का नाम है, जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण तथा आत्मनिर्भर जीवन की प्राप्ति है।” -अरस्तू

“राज्य व्यक्तियों का ऐसा समूह है, जो न्यूनाधिक एक निश्चित भू-भाग में रहता है। बाह्य नियंत्रण से लगभग या पूर्णतः मुक्त होता है तथा जिसकी एक संगठित सरकार होती है तथा जिसकी आज्ञा का पालन करना निवासियों की स्वाभाविक आदत बन जाती है।” -गार्नर

उपर्युक्त विभिन्न परिभाषाओं से स्पष्ट है कि राज्य ऐसे व्यक्तियों का समूह है, जिनकी एक संगठित सरकार है, जो किसी एक निश्चित भू-भाग में रहते हैं तथा जो विदेशी नियंत्रण से सर्वथा मुक्त रहते हैं। राज्य के अन्तर्गत जाति, धर्म, भाषा अथवा संस्कृति की धारणा प्रमुख रूप से निहित नहीं है। राज्य में एक निश्चित भू-भाग एवं अपने सदस्यों पर अधिकार एवं आज्ञा देकर कार्य करा सकने वाली एक सर्वोच्च सत्ता की धारणा निहित है।

राज्य के आवश्यक तत्व
राज्य के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं :

  • निश्चित भू-भाग :
    प्रत्येक राज्य की अपनी सीमाएँ निश्चित रहती हैं। इन्हीं सीमाओं से घिरा हुआ भू-प्रदेश राज्य का निश्चित भू-भाग होता है।
  • जनसंख्या :
    राज्य का दूसरा आवश्यक अंग है जनसंख्या। एक निश्चित भू-भाग पर रहने वाले निवासी राज्य की जनसंख्या का हिस्सा होते हैं।
  • सरकार :
    तीसरा आवश्यक अंग है, सरकार। एक संगठित सरकार राज्य के कार्यों का संचालन करती है।
  •  प्रभुसत्ता :
    यह राज्य का अत्यन्त आवश्यक अंग है। राज्य वही है, जो प्रभुसत्तासम्पन्न हो। स्वतंत्रता से पहले भारत का निश्चित भू-भाग था, जनसंख्या थी, सरकार भी थी, परन्तु प्रभुसत्ता नहीं थी। अतः वह वास्तव में राज्य नहीं था। स्वतंत्रता के बाद पूर्ण प्रभुसत्ता प्राप्त होने पर ही भारत को एक राज्य का दर्जा मिला।

ऊपर दिए गए चारों ही तत्व राज्य के लिये आवश्यक हैं। किसी एक की भी कमी से किसी राज्य का निर्माण नहीं हो सकता।

प्रश्न 11.
एक आधुनिक राज्य के कार्य बताइए।
उत्तर:
एक आधुनिक राज्य के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं :

  • बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना :
    राज्य का प्रमुख कार्य यह है कि यदि देश पर बाहरी आक्रमण होता है तो उसकी प्रभुसत्ता व भू-भाग की रक्षा करे।
  • आन्तरिक शान्ति और सुरक्षा करना :
    राज्य का दूसरा प्रमुख कार्य है, देश में आन्तरिक शांति की व्यवस्था करना। चोर, डाकुओं, उठाईगीरों से निवासियों की जानमाल की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है।
  • न्याय-व्यवस्था :
    राज्य के निवासियों को समान सामाजिक न्याय की व्यवस्था प्रदान करना। निवासियों में होने वाले पारस्परिक संघर्षों और झगड़ों को न्यायपूर्ण रीति से निपटाना एक आधुनिक राज्य का महत्वपूर्ण कार्य है।
  • शिक्षा व्यवस्था :
    निवासियों को शिक्षित बनाने का कार्य भी एक आधुनिक राज्य का अनिवार्य कार्य है। जो प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर व महाविद्यालयों का संचालन करता है। विभिन्न उद्योगों, व्यवसायों की व्यावहारिक शिक्षा का प्रबंध भी एक आधुनिक राज्य ही करता है।
  • स्वास्थ्य और सफाई का प्रबंध :
    निवासियों के स्वास्थ्य की व्यवस्था में भी राज्य महत्वपूर्ण कार्य करता है। सड़कों, शौचालयों आदि की सफाई, सड़कों पर प्रकाश की व्यवस्था भी राज्य करता है।
  • यातायात और सन्देशवाहन की व्यवस्था :
    जनता को सन्देशवाहन या यातायात की सुविधा राज्य प्रदान करता है। यातायात के साधनों जैसे शहर में बस की व्यवस्था, एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने व माल ढोने के लिये परिवहन की व्यवस्था, रेलवे, जहाज, वायुयान आदि की सेवाएँ राज्य प्रदान करता है। सन्देशवाहन के साधनों पर भी राज्य का नियंत्रण रहता है। डाक, तार, टेलीफोन आदि की व्यवस्था राज्य करता है।
  • व्यापार व उद्योगों में प्रोत्साहन व सहभागिता :
    राज्य न केवल व्यापार व उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहित करता है वरन् स्वयं भी व्यापार व व्यवसाय के क्षेत्र में सहभागिता करता है।
  • कृषि की उन्नति :
    राज्य कृषि की उन्नति के विभिन्न साधनों को जुटाता है। वह यह सुनिश्चित करता है कि उसके निवासियों को उचित मात्रा में अन्न मिलता रहे।
  • बेकारी व गरीबी निवारण :
    राज्य विभिन्न उद्योगों में रोजगार दिलाने की व्यवस्था करता है। विभिन्न योजनाओं द्वारा गरीबी हटाकर देश को समृद्ध बनाने का प्रयत्न करता है।
  • सामाजिक सुधार व शिक्षा :
    एक आधुनिक राज्य अपनी जनता में फैली हुई विभिन्न सामाजिक कुरीतियों को भी दूर करता है।
  • वैदेशिक सम्बन्ध :
    एक आधुनिक राज्य अपने पड़ोसी देशों व विदेशों में अपने राजूदत नियुक्त करता है तथा उनसे अच्छे सम्बन्ध बनाये रखता है।
  • मुद्रा प्रबन्ध :
    मुद्रा-प्रचलन की नीतियाँ राज्य को समाज हित को ध्यान में रखकर बड़ी सावधानी से बनानी पड़ती हैं। राज्य न केवल देशी वरन् विदेशी मुद्रा की व्यवस्था भी करता है।
  • नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा :
    अपने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना एक आधुनिक राज्य का परम कर्त्तव्य है।
  • सामाजिक सुरक्षा :
    बेकारी, बीमारी, दुर्घटना, वृद्धावस्था आदि के विरुद्ध राज्य अपने नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करता है। इस प्रकार एक आधुनिक राज्य वे सब कार्य करता है जो जनहित व जनकल्याण के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 12.
राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्तों को समझाइए।
उत्तर:
राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त :
राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक मत हैं। प्रमुख मतों (सिद्धान्त) का उल्लेख निम्नलिखित हैं :

i. दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त :
इस सिद्धान्त के अनुसार-राजा दैवी अधिकार के अनुसार राज्य का संचालन करते हैं और इसी कारण ये संसार में किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होते। राजा की आज्ञा का उल्लंघन बड़ा पाप था। इस प्रकार इस सिद्धान्त के समर्थकों का विश्वास था कि राज्य एक दैवी संस्था थी, न कि मानवीय। इस कारण से संस्था में भी कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता था, न ही एक राजा के अधिकारों में कोई परिवर्तन हो सकता था। इस सिद्धान्त के अनुसार चाहे राजा अच्छा हो या बुरा, उसकी आज्ञा का पालन अनिवार्य था।

आलोचना :
यह सिद्धान्त राज्य के निर्माण एवं विकास में मनुष्य के महत्वपूर्ण योगदान को महत्व नहीं देता। राज्य दैवी नहीं वरन् मानवीय संस्था है।

ii. शक्ति का सिद्धान्त :
इस सिद्धान्त के समर्थक राज्य की उत्पत्ति को आक्रमण तथा विजय के द्वारा बताते हैं। इस सिद्धान्त के समर्थकों में विशेष रूप से डेविड एम, कार्ल मार्क्स, एंजिल आदि उल्लेखनीय हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य शक्ति द्वारा उत्पन्न हुआ है। शक्तिशाली व्यक्तियों ने निर्बल व्यक्तियों या कबीलों पर विजय प्राप्त करके उन्हें अपने अधीन बना लिया। इस प्रकार विजयी शक्ति ने इस प्रकार की संस्था को जन्म दिया जो राज्य बन गया। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य आन्तरिक शान्ति तथा आक्रमणों से रक्षा करने के लिए उत्पन्न हुआ है।

आलोचना :

  1. राज्य की उत्पत्ति का यह सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति के केवल एक तत्व को बहुत अधिक महत्व देता है।
  2. राज्य के उत्पन्न होने में शक्ति ने सहयोग दिया है किन्तु राज्य की उत्पत्ति केवल एक तत्व द्वारा नहीं हुई।

iii. सामाजिक संविदा सिद्धान्त :
इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति संविदा के कारण हुई। यह एक प्राचीन सिद्धान्त है परन्तु 17वीं तथा 18वीं शताब्दी में इसको वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादित करने का श्रेय इंग्लैण्ड के हाब्स, लॉक और फ्रान्स के रूसो को है। यद्यपि इन विचारकों में संविदा, सम्प्रभुता तथा प्राकृतिक दशा के विषय पर मतभेद मिलता है। इस समझौते के विचारक मानवीय समाज के इतिहास को दो भागों में विभाजित करते हैं। प्रथम भाग को जो कि राज्य के निर्माण के पहले था, उसे प्राकृतिक अवस्था कहते हैं तथा दूसरा भाग राज्य निर्माण के बाद का है।

iv. पितृसत्तात्मक सिद्धान्त :
यह सिद्धान्त समाज का आरम्भ ऐसे प्रथम परिवारों से मानता है जो सबसे अधिक आयु वाले पुरुष के वंशज के नियंत्रण व छत्रछाया में एक साथ रहते हैं। इसके अनुसार परिवारों के कबीलों और कबीलों से उपजातियों तथा अन्त में राज्य का निर्माण हुआ। पिता या सबसे अधिक आयु वाले पुरुष की श्रेष्ठता को सबने स्वीकार किया। अतः परिवार की वृद्धि के साथ-साथ पिता की शक्तियों में भी वृद्धि हुई। बाद में वह राजा बन गया।

v. मातृसत्तात्मक सिद्धान्त :
इस सिद्धान्त के अनुसार भी परिवार ही राज्य की प्रारम्भिक सामाजिक इकाई है। प्रारम्भिक परिवार पितृसत्तात्मक न होकर मातृसत्तात्मक थे। परिवार में पिता के स्थान पर माता का स्थान सर्वोच्च होता था। स्त्री के माध्यम से सम्बन्ध स्थापित होते थे। सम्पत्ति तथा बच्चों पर माता का अधिकार होता था। माता राज्य करती थी।

vi. ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त :
लौकॉक के अनुसार, राज्य का जन्म धीरे-धीरे मानव जाति के इतिहास की उस प्रक्रिया से हुआ जिसका कुछ अंश भूतकाल में छिपा है और कुछ हमें विदित है। राज्य का निर्माण बहुत से तत्वों के कारण एक लम्बे समय में हुआ है। गार्नर के अनुसार, “राज्य न तो ईश्वर की कृति है, न महान बल प्रयोग का प्रतिफल है, न व्यक्तियों द्वारा किसी प्रस्ताव या समझौते द्वारा निर्मित और न केवल मात्र परिवार का विस्तृत रूप है, बल्कि राज्य ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया द्वारा नैसर्गिक विकास से उत्पन्न संस्था है। उक्त परिभाषाओं से राज्य के विकासवादी सिद्धान्त का यह अर्थ है कि “राज्य निर्मित नहीं अपित विकसित है।” यह किसी निश्चित समय में एक यंत्र की तरह नहीं बनाया गया, अपितु मानव जीवन के दीर्घकालीन इतिहास के प्रारम्भ से आज तक यह प्राकृतिक विधि से विकसित होता आया है।

प्रश्न 13.
आर्थिक संस्थाओं का अर्थ बताइए एवं समाज में पाई जाने वाली आर्थिक संस्थाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अर्थ :
आर्थिक संस्थाएँ मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। आर्थिक संस्थाएँ उतनी ही प्राचीन हैं जितना कि मानव समाज। अपनी भौतिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने की प्रक्रिया में मनुष्य ने आर्थिक संस्थाओं को विकास किया।

प्रमुख आर्थिक संस्थाएँ :
वर्तमान में मानव समाज में प्रमुख रूप से निम्नलिखित आर्थिक संस्थाएँ विद्यमान हैं :

  • वैयक्तिक संपत्ति या निजी सम्पत्ति :
    यह प्रमुख रूप से पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था की संस्था है। पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था में सम्पत्ति पर निजी अर्थात् व्यक्तिगत अधिकारों को मान्यता दी जाती है।
  • बड़े-बड़े उद्योग-धन्धे :
    बड़े-बड़े उद्योग-धन्धे वर्तमान समाज की महत्वपूर्ण आर्थिक संस्था बन गए हैं। ये पूँजीवादी व समाजवादी सभी देशों में समान रूप से पाए जाते हैं। अन्तर केवल इतना है कि पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था में इन पर अधिकार निजी व्यक्तियों का रहता है, जबकि समाजवादी देशों में अधिकार राज्य का रहता है।
  • द्रव्य व साख :
    आज के युग की तीसरी आर्थिक संस्था है-द्रव्य व साख। आज लाखों-करोड़ों रुपयों का व्यापार-व्यवसाय साख पर होता है। द्रव्य और साख की व्यवस्थापक संस्था है-बैंक। सारे समाज में बैंकों का जाल बिछा हुआ है।
  • वृहद् आर्थिक समितियाँ निगम एवं प्रमण्डल :
    आर्थिक समितियों, वित्त निगमों या प्रमडलों का निर्माण करके पूँजी प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।
  • मजदूरी प्रणाली :
    विशाल कल-कारखाने चलाने के लिए मजदूरों की आवश्यकता होती है। इन मजदूरों को मजदूरी देने की प्रणालियाँ दो प्रकार की होती हैं :
    1. जितना काम उतना दाम के सिद्धांत पर आधारित प्रणाली तथा
    2. समय के आधार पर (समय पर आधारित मजदूरी) प्रणाली।
  • मजदूर संघ एवं मिल मालिक संघ :
    कई बार मजूदरों की अनुचित माँगों के मिल प्रबन्ध परेशानी में पड़ जाता है। अतः दोनों ने संगठित रूप से अपनी बात को रखने के लिए अपनी-अपनी यूनियनों का निर्माण किया। मिल मालिक और मजदूरों के सहयोग पर ही आज की उत्पादन क्रिया निर्भर करती हैं।
  • सहयोग :
    आर्थिक क्षेत्र में सहयोग भी अपना स्थान बनाता जा रहा है। व्यापारी व पूँजीपति परस्पर सहयोग कर बड़ी मात्रा में पूँजी एकत्रित करके बड़े-बड़े कल कारखानों की स्थापना करते है।
  • प्रतियोगिता :
    प्रतियोगिता आर्थिक जगत की मुख्य संस्था कही जा सकती है। आर्थिक जगत की प्रतियोगिता तो गलाकाट प्रतियोगिता के नाम से प्रसिद्ध है। समाजवादी देशों में जहाँ उत्पादन व विक्रय पर राज्य का एकाधिकार रहता है वहाँ प्रतियोगिता नहीं पाई जाती है।
  • एकाधिकार :
    पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में निजी व्यक्ति, संस्था या नियम किसी विशिष्ट वस्तु के उत्पादन पर अपना एकाधिकार स्थापित करके उस वस्तु के मनचाहे भाव निश्चित करते हैं। समाजवादी देशों में उत्पादन पर राज्य का नियन्त्रण पाया जाता है।
  • सहकारी समितियाँ :
    मध्यस्थों व दलालों से बचने के लिये उपभोक्ता मिलकर सहकारी समितियों का निर्माण कर लेते हैं। ये समितियाँ उचित दामों पर उपभोक्ताओं को माल बेचती हैं।
  • ठेका :
    कई कार्य ठेके के माध्यम से कराए जाते हैं। बड़े-बड़े पुलों, सड़कों, भवनों आदि का निर्माण ठेके से होता है। माल की बड़ी मात्रा में आपूर्ति ठेके से होती है।
  • वितरण प्रणाली :
    आज वितरण प्रणाली भी एक महत्वपूर्ण संस्था हो गई है। उत्पादन बड़ी मात्रा में एक स्थान पर होता है।
  • श्रम विभाजन :
    आज प्रत्येक कार्य श्रम विभाजन के आधार पर होता है। सबके अपने-अपने, अलग-अलग कार्य बँटे हैं और इस प्रकार एक कार्य कई अलग-अलग इकाइयों में होता है।
  • श्रम का विशिष्टीकरण :
    आज का युग विशिष्टीकरण का युग है। प्रत्येक कार्य के विशेषज्ञ होते हैं। यही नहीं बाजारों का भी विशिष्टीकरण होता है कपड़ें के लिए कपड़ा बाजार सब्जी के लिए सब्जीमण्डी।
  • बाजार व विनिमय :
    बाजार एवं विनिमय प्रणाली आज की प्रमुख आर्थिक संस्था है। बाजार ही वह स्थान है जहाँ से वस्तुओं का क्रय-विक्रय मुद्रा विनिमय के माध्यम से होता है। इस प्रकार उपर्युक्त विभिन्न आर्थिक संस्थाएँ . हमारे समाज में वर्तमान में पाई जाती हैं।

प्रश्न 14.
आर्थिक संस्थाओं के विकास का वर्णन कीजिए व उनके सामाजिक प्रभावों की समझाइए।
उत्तर:
आर्थिक संस्थाओं का विकास आर्थिक संस्थाओं का विकास समाज के उद्विकास की विभिन्न अवस्थाओं के सन्दर्भ में देखा जा सकता है :

  • भोजन इकट्ठा करने एवं शिकार करने की अवस्था :
    इस अवस्था में मनुष्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर भोजन एवं शिकार की खोज में भटकता फिरता था। इस अवस्था में निजी सम्पत्ति की भावना का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था न ही सुदृढ़ पारिवारिक इकाई की स्थापना हुई थी। व्यवसाय या व्यापार की प्रक्रिया से मानव उस समय अनभिज्ञ था।
  • पशुपालन अवस्था :
    इस अवस्था में मानव ने पशुओं को पालना आरम्भ कर दिया था। पशुओं के रूप में निजी सम्पत्ति की भावना का विकास होने लगा।
  • कृषि युग :
    इस अवस्था में मानव ने अपने पशुओं की सहायता से कृषि करना प्रारम्भ कर लिया था। इस समय निजी संपत्ति की भावना का प्रादुर्भाव हुआ। जमीन एवं पशुओं पर अपना अधिकार एवं उन्हें अपनी संपत्ति मानने की भावना का जन्म हुआ। अब उसके निवास में स्थायित्व आया। परिवारों की स्थापना हुई। स्त्रियों एवं बच्चों को भी पुरुषों ने अपनी सम्पत्ति मानना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में जमींदारी, जागीरदारी प्रथा तथा सामन्तवाद का जन्म हुआ। प्रारम्भ में वस्तु विनिमय प्रारम्भ हुआ व बाद में मुद्रा विनिमय प्रारंभ हो गया।
  • औद्योगिक युग :
    नई तकनीकी एवं विज्ञान की सहायता से बड़े-बड़े विशाल कारखानों में विशाल पैमाने पर उत्पादन प्रारंभ हुआ। वितरण एवं विनिमय की प्रणालियों में परिवर्तन हो गया। पूँजीवादी, समाजवादी आदि वादों का जन्म हुआ। वृहद् प्रमण्डल एवं निगमों की स्थापना हुई। नगरों का विकास हुआ। श्रम का विशेषीकरण हो गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न अवस्थाओं में आर्थिक संस्थाओं का विकास हुआ।

सामाजिक प्रभाव :
आर्थिक संस्थाओं के विकास के प्रमुख सामाजिक प्रभाव निम्नलिखित हैं :

  • औद्योगीकरण :
    यंत्रीकरण का विस्तार हुआ। कृषि का भी औद्योगीकरण होने लगा। विशाल कारखानों की स्थापना हुई एवं विशाल पैमाने पर उत्पादन होने लगा। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का जन्म हुआ।
  • नगरीकरण :
    औद्योगीकरण के प्रभाव से नगरों का विकास हुआ। नगरों की ओर गाँवों के लोग पलायन करके आने लगे। नगरीय जीवन एवं रहन-सहन का विकास हुआ।
  • नये-नये वर्गों का निर्माण एवं वर्ग संघर्ष :
    अमीर, मध्यम एवं गरीब वर्ग तथा मालिक एवं मजदूरों के नये वर्गों का जन्म हुआ। वर्गों में हितों के आधर पर परस्पर संघर्ष होने लगे।
  • कई सामाजिक समस्याओं का जन्म :
    बेकारी, गन्दी बस्तियाँ, अपराध, बाल-अपराध आदि कई सामाजिक समस्याओं का जन्म इन आर्थिक संस्थाओं के विकास के कारण हुआ।
  • सामाजिक संस्थाओं में परिवर्तन :
    परिवारों के स्वरूपों, पति-पत्नी के संबंधों, विवाह के आधारों, परिवार के कार्यों, संस्तरण की व्यवस्थाओं एवं प्रणालियों में समय-समय पर आर्थिक संस्थाओं के विकास के साथ परिवर्तन होते रहते हैं।
  • सामाजिक विघटन :
    आर्थिक संस्थाओं के विकास का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव सामाजिक विघटन के रूप में सामने आया है।
  • नये वादों का जन्म :
    पूँजीवाद, साम्यवाद व समाजवाद का विकास हुआ। वादों में विश्व बँट गया। एक समाज समाजवादी है तो दूसरा पूँजीवादी व तीसरा अपने आपको साम्यवादी कहता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आर्थिक संस्थाओं के विकास के व्यापक सामाजिक प्रभाव परिलक्षित हुए हैं।

प्रश्न 15.
धर्म को परिभाषित कीजिए। इसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
धर्म :
धर्म एक सामाजिक संस्था है जिसका आधार अलौकिक तथा दैवीय शक्तियों और मानव के साथ उसके सम्बन्धों से है। धर्म किसी-न-किसी प्रकार की अतिमानवीय या अलौकिक शक्ति पर विश्वास है जिसका आधार भय, श्रद्धा, भक्ति और पवित्रता की धारणा है और जिसकी अभिव्यक्ति प्रार्थना, पूजा, आराधना व कर्मकाण्डों आदि के रूप में की जाती है।

धर्म के मौलिक लक्षण (विशेषताएँ) :

  1. अलौकिक सत्ता, वस्तु, व्यक्ति एवं शक्ति में विश्वास-धर्म में ऐसी शक्ति में विश्वास किया जाता है जो अलौकिक और दिव्य चरित्र की है, जो मानव से श्रेष्ठ है। यही शक्ति प्रकृति तथा मानव जीवन को निर्देशित, नियंत्रित एवं संचालित करती है।
  2. धार्मिक व्यवहार के स्वरूप :
    धार्मिक व्यवहार का यह पक्ष सामाजिक होता है। धर्म की व्यवस्था व्यवहार के इन पक्षों को धार्मिक ही कहती है। उदाहरण के लिये गरीबों को दान देना, कमजोर की मदद करना आदि। इससे भिन्न पूजा-पाठ, नमाज, चर्च में प्रार्थना है जो कर्मकाण्ड के उदाहारण हैं।
  3. पवित्रता की धारणा :
    धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों और आचरणों की समग्र व्यवस्था है। धर्म से सम्बन्धित सभी वस्तुओं को पवित्र माना जाता है।
  4. संवेगात्मक भावनाओं से सम्बंध :
    धर्म में संवेगात्मक भावना प्रधान होती है, तर्क प्रधान नहीं। धर्म में तर्क के लिये कोई स्थान नहीं होता है।
  5. अनुज्ञा और निषेध :
    प्रत्येक धर्म में कुछ कर्मों को करने के लिये कहा जाता है, जिन्हें अनुज्ञा कहते हैं। जैसे दान देना। निषेधों द्वारा कुछ कार्यों को करने से मना किया जाता है। जैसे—झूठ नहीं बोलना चाहिए दुराचार, व्यभिचार, बेईमानी आदि नहीं करनी चाहिए।
  6. शुद्ध रूप से सामाजिक एवं सांस्कृतिक होना :
    प्रत्येक धर्म में सामान्यतः आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन के सम्बन्ध में नियम और मान्यताएँ तय की जाती हैं। ये नियम और मान्यताएँ धर्म में ईश्वरीय आदेश एवं अनुज्ञाओं के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं।
  7. विशेष धार्मिक सामग्री और प्रतीक :
    धार्मिक क्रियाओं में अलग-अलग धर्म में अलग-अलग धार्मिक सामग्रियों, धार्मिक प्रतीकों और जादू-टोना, पौराणिक कथाओं आदि का समावेश होता है।
  8. धार्मिक संस्तरण :
    सामान्यतः प्रत्येक धर्म से सम्बंधित संस्तरण की एक व्यवस्था पायी जाती है। जिन लोगों को धार्मिक क्रियाएँ अथवा कर्मकाण्ड कराने का समाज द्वारा विशेष अधिकार प्राप्त होता है, उन्हें अन्य लोगों की तुलना में संस्कारात्मक दृष्टि से उच्च समझा जाता है। ऐसे लोगों में पण्डे, पुजारी, महन्त, सन्त, पादरी, मौलवी आदि, आते हैं।
  9. दार्शनिक पक्ष :
    प्रत्येक धर्म अपने ढंग से विश्व, समाज एवं समय की व्याख्या करता है। वह मानवीय जीवन के अर्थ एवं परिणाम की व्याख्या करता है।

प्रश्न 16.
धर्म की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांतों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
धर्म की उत्पत्ति के निम्नलिखित सिद्धांत हैं :

(i) आत्मवाद या जीववाद का सिद्धान्त :
सर्वप्रथम मानवशास्त्री टायलर ने जनजातीय समाज में धर्म को सिद्ध करने के प्रयास में धर्म की उत्पत्ति का सिद्धान्त दिया जिसे आत्मवाद या जीववाद कहा जाता है। टायलर के अनुसार, सभी धर्म एक ही विचार पर आधारित हैं और वह है आत्मा या जीव में विश्वास। आत्मा को आदिम मनुष्यों से लेकर सभ्य मनुष्यों तक ने धर्म का आधार माना। टायलर के अनुसार आदि मानव कुछ ऐसे रहस्यों से घिर गया था जिसकी गुत्थी को वह बार-बार सुलझाना चाहता था। इन गुत्थियों को सुलझाने के प्रयास में मानव ने आत्मा की कल्पना की कि यह आत्मा अमर है। ये आत्माएँ विचरती रहती हैं और इन्हीं के अभिशाप और वरदान से मनुष्य को समाज में दुःख या सुख की प्राप्ति होती है। अनेक आत्माओं में विश्वास ने बहुदेववाद को जन्म दिया और धीरे-धीरे वह एकदेववाद में – विकसित हुआ। यह धारणा बनी कि सारी दुनिया एक ही महान आत्मा या विश्वात्मा द्वारा संचालित होती है।

(ii) प्रकृतिवाद का सिद्धांत :
जर्मन विद्वान एफ. मैक्समूलर ने प्रकृति की शक्तियों के आधार पर धर्म की उत्पत्ति की व्याख्या की है जिसे प्रकृतिवाद कहा जाता है। मैक्समूलर ने धर्म की उत्पत्ति को मानव की भावनात्मक आवश्यकताओं में तलाशा। उनके अनुसार धर्म का उदय मानव की भावनाओं पर प्रकृति के प्रभावों के कारण ही हुआ। मार्क्स के विचार में भी धर्म की उत्पत्ति डर और चिन्ता से हुई जो मूलतः प्रकृति के भयंकर स्वरूपों से पैदा हुए थे। मार्क्स ने धर्मों को भिन्न-भिन्न समाज के सिद्धान्त अथवा विचारधाराएँ कहा है।

(iii) मानव के वैचारिक प्रयास का सिद्धांत:
जैम्स फ्रेजर ने धर्म की उत्पत्ति को मानव के वैचारिक प्रयासों में खोजा। उसने अपने उद्विकास वाले परिप्रेक्ष्य में सबसे पहले जादू की कल्पना तथा धर्म की कल्पना की और अन्ततः विज्ञान की व्यवस्था को आधुनिक समाजों का लक्षण कहा।

(iv) जीवित सत्तावाद का सिद्धांत :
मैक्समूलर ने आत्मवाद से पूर्व जीवित सत्तावाद का अस्तित्व स्वीकार किया, जिसके अनुसार प्रत्येक वस्तु में वह चाहे जड़ हो या चेतन, जीवित सत्ता होती है जो कि अलौकिक है जिसमें विश्वास, आराधना एवं पूजा से धर्म की उत्पत्ति हुई। काउरिंगटन एवं मैरेट ने उसे मानावाद कहा क्योंकि मलेनेशिया के लोग अलौकिक शक्ति को ‘माना’ के नाम से पुकारते हैं। मलेनेशिया की जनजातियों में यह विश्वास है कि किसी भी कार्य की सफलता या असपफलता माना की शक्ति पर निर्भर है।

(v) दुर्थीम का सिद्धांत :
समाजशास्त्री इमाईल दुर्थीम के अनुसार धर्म एक सामाजिक तथ्य है और उसकी उत्पत्ति में सामाजिक कारकों का हाथ रहा है। दुर्थीम के अनुसार धर्म पवित्र वस्तुओं अथवा पक्षों से सम्बन्धित विश्वास की एकताबद्ध व्यवस्था है, जिसका आधार सामूहिक चेतना का प्रतीक है। आस्ट्रेलिया की जनजाति अरूण्टा के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उसने कुछ चिह्न या टोटम की पवित्रता को अपवित्रता से दूर रखने के लिए विभिन्न संस्कारों, उत्सवों एवं आचरणों को जन्म दिया, जिनके पीछे सम्पूर्ण समूह या समाज की स्वीकृति एवं शक्ति विद्यमान थे। धार्मिक प्रतिनिधित्व सामूहिक प्रतिनिधित्व की ही अभिव्यक्ति है। समाज का विचार ही धर्म की आत्मा है।

प्रश्न 17.
भारतीय समाज के विभिन्न धर्मों के विश्वास, व्यवहार और प्रभाव का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय समाज के विभिन्न धर्मों के विश्वास, व्यवहार और प्रभाव भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। यहाँ विभिन्न प्रकार के धर्मों के पालन और विश्वास की स्वतंत्रता है। प्रमुख धर्मों में हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, सिक्ख धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म महत्वपूर्ण हैं।

(i) हिन्दू धर्म :
हिन्दू धर्म ‘प्राचीनतम धर्म’ है। यह सामाजिक-सांस्कृतिक एवं व्यवहारों में पवित्रता एवं आध्यात्मिक विश्वासों की एक लम्बी विकास प्रक्रिया का परिणाम है। यद्यपि हिन्दू धर्म का कोई प्रवर्तक नहीं हुआ किन्तु आदिकाल से इसका विकास अक्षुण्ण रूप से होता आ रहा है। इस कारण इसे सनातन धर्म कहा जाता है। अपनी प्राचीनता के कारण ही हिन्दू धर्म अनेकानेक बाह्य तत्वों, युग परिवर्तन, बाह्य आक्रमण और आन्दोलनों के बावजूद अपने मूलरूप से विचलित नहीं हुआ क्योंकि यह सनातन सत्य पर आधारित है।

विश्वास व्यवहार :
ईश्वर पर विश्वास, आध्यात्मिकता, मोक्ष का सिद्धांत, आश्रम व्यवस्था, विविधता में एकता, मूर्तिपूजा, अहिंसा, संस्कार, कर्मकांड विधि आदि हिन्दू धर्म के प्रमुख विश्वास व व्यवहार हैं।

प्रभाव :
हिन्दू धर्म भारतीय समाज और संस्कृति का पथ-प्रदर्शक है जिसने भारतीय समाज के संगठन, सामाजिक एकता, नियमों एवं नैतिकता, सामाजिक नियन्त्रण, परिवर्तन, पवित्रता की भावना, व्यक्तियों के चरित्र निर्माण एवं सद्गुणों का विकास, कर्तव्य का निर्धारण, भावात्मक सुरक्षा, मनोरंजनात्मक कार्य, संस्कृति एवं समाज की रक्षा आदि पर विस्तृत प्रभाव डाले हैं।

(ii) इस्लाम धर्म :
622 ई. में इस्लाम धर्म को उसके संस्थापक पैगम्बर मोहम्मद साहब ने एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया, जिसके दो प्रमुख ग्रन्थ हैं-कुरान तथा हदीस।

व्यवहार-विश्वास :
इस्लाम धर्म एक ही ईश्वर अर्थात् अल्लाह में विश्वास करता है, जो अच्छे अथवा बुरे कार्यों स्वर्ग और नरक का निर्धारण करता है। कुरान में लिखे आदेशों व निर्देशों को स्वीकार करना, नमाज पढ़ना, जकात देना एवं हज करना प्रत्येक मुसलमान का परम कर्तव्य है। इस्लाम धर्म पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता है। इस धर्म की मान्यता है कि कयामत के बाद रोजेशुमार के दिन, खुदा मृत प्राणियों के अच्छे-बुरे कर्मों का हिसाब करेगा तथा स्वर्ग अथवा नर्क देगा।

प्रभाव :
भारत में मूर्ति पूजा का विरोध, एकेश्वरवाद, अद्वैतवाद, छुआछूत, जाति प्रथा की समाप्ति, समानतावादी आदर्श व सुधारवादी आन्दोलनों का जन्म आदि इस्लाम के ही परिणाम हैं। हिन्दू और मुस्लिम धर्म विश्वास और व्यवहार के कारण परस्पर प्रभावित हुए हैं।

(iii) ईसाई धर्म, व्यवहार-विश्वास :
ईसाई धर्म के संस्थापक ईसामसीह हैं। ईसाई धर्म का पवित्र ग्रन्थ बाइबिल है। ईसाई धर्म एकेश्वरवाद में विश्वास करता है और मूर्तिपूजा का विरोधी है। अलौकिक व निराकर एक ईश्वर सम्पूर्ण मानव का पालन-पोषण करता है, उन पर दया रखता है, उनके हृदयों को शुद्ध करता है। ईश्वर का रूप एवं शक्ति आत्मा है।

प्रभाव :
ईसाई धर्म ने भारतीय समाज को अनेक रूपों में प्रभावित किया है। ईसाई मिशनरियों ने अनेक ऐसे कार्य किये हैं, जिससे समाज में समानता की भावना विकसित हुई। भारतीय समाज में ईसाई धर्म ने निम्न जातियों की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने, जाति-व्यवस्था को कमजोर करने, छुआछूत की भावना को समाप्त करने, स्त्रियों की स्थिति में सुधार करने, भाग्यवादिता समाप्त करने, आध्यात्मिकता से भौतिक जीवन अर्थात् भौतिकता को महत्व देने तथा जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण प्रदान करने में सहयोग दिया है।

सिक्ख धर्म, व्यवहार-विश्वास :
गुरुनानक के इस मत में धार्मिक संन्यासी, भक्त व सदस्य सभी समान थे। गुरुनानक ने अपने उपदेशों में हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल, बाह्य आडम्बरों का विरोध, जाति-प्रथा का विरोध, एक सर्वोच्च सत्ता, चरित्र की पवित्रता व गुरू की महत्ता पर जोर दिया तथा सदैव मानवता का समर्थन किया।

प्रभाव :
सिक्ख धर्म का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है। गुरुनानक की वाणी ने जनता में गुलामी, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध लोकचेतना पैदा करने का प्रयास किया। सिक्ख धर्म एक व्यवहारवादी धर्म है। जिसने बाह्य आडम्बर, रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, कर्मकाण्डों को कम करने, जाति प्रथा की निन्दा और मानवीय एकता पर बल दिया।

जैन धर्म :
जैन धर्म की स्थापना और विकास में योग देने वाले विद्वान महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है। छठी शताब्दी ई. पू. महावीर स्वामी के पहले तेईस तीर्थंकर हुए थे। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे।

विश्वास-व्यवहार :
महावीर स्वामी के उपदेशों में विश्वास, जिनका व्यावहारिक प्रयोग मनुष्य को कर्म बन्धनों से मुक्ति दिला सकता है। निर्वाण जैन धर्म का परम लक्ष्य है।

प्रभाव :
जैन धर्म ने जाति, भेद तथा लिंग-भेद आदि का विरोध किया एवं सामाजिक समानता को स्थापित किया।

बौद्धधर्म :
छठी शताब्दी ई. पू. भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध थे। बुद्ध ने चार आर्य सत्यों दुख, दुख का कारण, दुख निरोध और दुख निरोधमार्ग को बताया जो बौद्ध धर्म की आधारशिला है। बुद्ध ने नैतिकता पर जोर दिया और दसशील आवश्यक बताये हैं। मध्यम मार्ग, अहिंसा, सत्य, अस्तेय अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, नृत्य-गायन, सुगंधित पदार्थों का त्याग, असमायोजन का त्याग, कोमल शैय्या का त्याग। शिक्षुओं के लिये दसों शील का पालन आवश्यक था।

प्रभाव :
बौ द्धधर्म से भारतीय संस्कृति के अनेक क्षेत्र जैसे-धर्म, दर्शन, साहित्य, कला, शासन-नीति, आचार-विचार प्रभावित हुए। भारतीय समाज में सत्य, सेवा, त्याग, अहिंसा, परोपकार, समानता और सहनशीलता की भावना के विकास में बौद्ध धर्म का विशेष योगदान है।

प्रश्न 18.
शिक्षा को परिभाषित करते हुए इसकी अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा-शिक्षा बालक में उन शारीरिक, बौद्धिक तथा नैतिक अवस्थाओं को जागृत और विकसित करती है जिसकी अपेक्षा उससे समाज एवं तात्कालिक सामाजिक वातावरण दोनों करते हैं।

  1. विरासत में देना :
    शिक्षा परम्पराओं, संस्कृति, ज्ञान और कौशल को नई पीढ़ी को सौंपने के प्रति उत्तरदायी है।
  2. प्रतिनिधि के रूप में :
    यह सामाजिक परिवर्तन के एक प्रतिनिधि के रूप में काम करती है।
  3. नवीन विचार व मूल्य :
    यह नए विचारों और मूल्यों का प्रारंभ करती है जिन्हें युवा पीढ़ी द्वारा लक्ष्य बनाया जाता है और प्राप्त करने के प्रयास किए जाते हैं।
    शिक्षा के माध्यम से समाज दो लक्ष्य प्राप्त करता है :
    • व्यक्ति को सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप सामाजिक बनाना, ढालना तथा विकसित करना।
    • आधुनिक अर्थव्यवस्था के अनुसार उद्योग और प्रौद्योगिकी में विशिष्ट कौशलों के लिए मानव-संसाधनों से संबंधित प्रशिक्षण आदि एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना।

शिक्षा को परिभाषित करते हुए इसकी अवधारणा :

  • विशिष्ट विषयों का अध्ययन :
    चिकित्सा एवं जनस्वास्थ्य, इंजीनियरी, प्रबंध, कानून, अपराध विज्ञान, शारीरिक विज्ञान, कृषि और समाजशास्त्र आदि अनेक विशेषतापूर्ण विषय आधुनिक संस्थानों में पढ़ाए जाते हैं। शिक्षा समाज में व्यक्ति को उसके कौशल के उपयुक्त स्थान का आवंटन सुनिश्चित करती है।
  • निर्धारण :
    शिक्षा व्यक्ति की योग्यताओं के लिए उपयुक्त सामाजिक स्तरों के निर्धारण एवं वितरण को सुनिश्चित करती है। शिक्षा के आधार पर व्यक्ति को समाज में श्रेणियाँ प्राप्त होती हैं।
  • अवसर प्रदान करना :
    शिक्षा व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुसार अवसर प्रदान करती है और उसे अपने पूर्वजों का व्यवसाय चुनने की बाध्यता से मुक्त करती है।
  • योग्यता तंत्र को प्रेरणा :
    शिक्षा प्रणाली योग्यता तंत्र को प्रेरित एवं प्रोत्साहित करती है। यह सक्षम व्यक्तियों को समाज में महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त करने में सहायक होती है।
  • भौगोलिक गतिशीलता :
    विशेषज्ञतापूर्ण शिक्षा ने प्रौद्योगिकी और परिवहन के विकास के साथ मिलकर भौगोलिक गतिशीलता में वृद्धि की है।

प्रश्न 19.
औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए इसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा के दो प्रकार हैं औपचारिक शिक्षा तथा अनौपचारिक शिक्षा। गतिविधियों और परिवार तथा वहत समाज के साथ परस्पर प्रभाव से अर्जित शिक्षा अनौपचारिक होती है।
अनौपचारिक शिक्षा उन समाजों में मिलती है जहाँ :

  1. उपयुक्त नियमित विद्यालय नहीं हैं।
  2. औपचारिक विद्यालयी व्यवस्था अभी अविकसित या अपूर्ण है।

जनजातीय और कृषक समुदायों में इसे देखा जा सकता है। ऐसे समुदायों में बच्चे भाषा, परंपरागत पद्धतियों, दंत कथाएँ, लोकगीत, संगीत और उत्पादन कौशल जैसे मवेशी पालन, बुआई आदि का ज्ञान पर्यवेक्षक और अपने रिश्तेदारों के साथ परस्पर व्यवहार से सीखते हैं।

विकसित समुदायों में भी बच्चे औपचारिक स्कूली शिक्षा के साथ अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त करते हैं। आचरण, शिष्टाचार, सामाजिक कौशल का ज्ञान, परिवार के सदस्यों और तात्कालिक वातावरण से सम्बद्ध लोगों के व्यवहार के अवलोकन से प्राप्त होता है।

औपचारिक शिक्षा विधिवत स्थापित संस्थाओं में दी जाती है। औपचारिक शिक्षा के मुख्य घटक निम्न प्रकार हैं :

  1. नियमित और मान्यता प्राप्त विद्यालय,
  2. निश्चित और समुचित ढंग से तय की गई विषय सामग्री,
  3. निश्चित नियम तथा विनिमय।

मानव जीवन के विभिन्न पक्षों पर शिक्षा का प्रभाव :
मानव जीवन के विभिन्न पक्षों पर शिक्षा के प्रभाव निम्नलिखित हैं :
(i) समाजीकरण और सामाजिक नियंत्रण :
प्रत्येक समाज का अपना इतिहास, विरासत और संस्कृति होती है। वह उसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न करता है। उन्नति के लिए समाजों के अपने कुछ लक्ष्य होते हैं। समाज स्कूल के पाठ्यक्रम के माध्यम से इन लक्ष्यों की पूर्ति करने का प्रयास करते हैं।

स्कूल इस कार्य को दो प्रकार से सम्पन्न करते हैं :

  1. स्कूल बच्चों को एक स्थापित नैतिक पद्धतियों के अनुकूल शिक्षा देते हैं।
  2. विद्यार्थियों को समाज और अंततोगत्वा, विश्व की परिवर्तित होती परिस्थितियों से सामंजस्य रख सकने हेतु तैयार करते हैं।

(ii) मानव संसाधनों का विकास :
शिक्षा मानव संसाधनों के विकास के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है। यह व्यक्तियों को समाज की आवश्यकताओं के लिए अपेक्षित ज्ञान और कौशल का प्रशिक्षण देती है ताकि वे समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में समर्थ हो सकें।

पहले साधारण समाजों में परिवार उत्पादन की मूल इकाई था। व्यक्ति पारिवारिक व्यवसाय के लिए अपेक्षित कौशल घर पर ही सीख जाता था। इन कौशलों तथा हुनरों में बढ़ईगिरी, दस्तकारी, आभूषण-निर्माण, धातुओं का कार्य/ कृषि तथा अन्य संबंधित क्रियाएँ आती थीं।

कालान्तर में समुदायों में विविधता और जटिलता आने के साथ व्यवसायों की व्यापक श्रृंखला का उदय हुआ। ये अब घरों पर नहीं सीखे जा सकते थे। इनके लिए विशेष कौशल अपेक्षित था। अतः समुदायों ने अपनी शिक्षा प्रणाली के माध्यम से कौशल की बढ़ती माँग पूरी करने का प्रयास किया।

(iii) राजनैतिक शिक्षा :
शिक्षा राजनैतिक जागरूकता भी लाती है। यह कार्य निम्न प्रकार से होता है :

  • शिक्षा के माध्यम से सरकारें परस्पर समरसता तथा एकता बनाए रखने के लिए नागरिकों को अपने राष्ट्रीय लक्ष्य समझाने का प्रयास करती हैं।
  • आधुनिक शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों को अपने अद्भुत इतिहास तथा संस्कृति से परिचित कराती है। इस प्रकार यह जनतंत्र, स्वतंत्रता तथा समानता के आदर्शों को लोकप्रिय बनाने का प्रयास करती है।
  • राजनीतिक विचारधाराओं को स्वरूप देने में भी शिक्षा की भूमिका अहम् है।

RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
विवाह का वह स्वरूप क्या कहलाता है जिसमें एक आदमी एक ही समय में एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करता है?
(अ) बहुपति विवाह
(ब) बहुपत्नी विवाह
(स) अभ्रातृत्व बहुपति विवाह
(द) भ्रातृत्व बहुपति विवाह।
उत्तर:
(ब) बहुपत्नी विवाह

प्रश्न 2.
निम्न से किसे परिवार का महत्वपूर्ण प्रकार्य समझा जाता है?
(अ) आर्थिक सहयोग
(ब) बच्चों का प्रजनन
(स) यौन संतुष्टि
(द) ये सभी।
उत्तर:
(द) ये सभी।

प्रश्न 3.
हिंदू विवाह का सबसे लोकप्रिय स्वरूप है
(अ) ब्रह्म
(ब) प्रजापत्य
(स) दैव
(द) असुर।
उत्तर:
(अ) ब्रह्म

प्रश्न 4.
व्यक्ति के जीवन में परिवार एक महत्वपूर्ण समूह है, क्योंकि
(अ) परिवार अपने सदस्यों को आर्थिक और सामाजिक सहायता देता है।
(ब) परिवार के सदस्य एक-दूसरे के प्रति नि:स्वार्थ और समर्पित भावना रखते हैं।
(स) व्यक्ति के समाजीकरण में परिवार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है।
(द) ये सभी।
उत्तर:
(द) ये सभी।

प्रश्न 5.
परिवार का प्रकार्य है
(अ) भौतिक सुरक्षा प्रदान करना
(ब) आर्थिक सहायता देना
(स) समाज में मानदंडों और मूल्यों द्वारा बच्चे का समाजीकरण करना।
(द) ये सभी।
उत्तर:
(द) ये सभी।

प्रश्न 6.
परिवार का वह प्रकार, जिसमें नव-विवाहित दंपत्ति पति के मामा के घर में रहता है, कहलाता है
(अ) मातृस्थानिक परिवार
(ब) नव-स्थानिक परिवार
(स) मातुलस्थानिक परिवार
(द) पितृस्थानिक परिवार।
उत्तर:
(स) मातुलस्थानिक परिवार

प्रश्न 7.
नातेदारी व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि
(अ) इससे उसकी पहचान और प्रतिष्ठा बढ़ती है।
(ब) यह मनोवैज्ञानिक सुदृढ़ता देती है।
(स) यह व्यक्ति की भूमिका और उसके प्रतिमान को परिभाषित करती है।
(द) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 8.
जिस परिवार में व्यक्ति पैदा हुआ है, उसे कहते हैं,
(अ) प्रजनन का परिवार
(ब) संयुक्त परिवार
(स) आभावन्यास का परिवार
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(स) आभावन्यास का परिवार

प्रश्न 9.
गोत्र रिश्तेदारों का एक सेट है
(अ) जिसके सदस्य किसी परिचित पूर्वज के वंशज हैं
(ब) जिसके सदस्यों में विश्वास है कि वे एक समाज के सदस्य हैं।
(स) जिसमें माता-पिता और बच्चे होते हैं।
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(ब) जिसके सदस्यों में विश्वास है कि वे एक समाज के सदस्य हैं।

प्रश्न 10.
राज्य की उत्पत्ति से सम्बन्धित ‘शक्ति के सिद्धान्त’ के समर्थक थे
(अ) डेविड ह्यूम
(ब) कार्ल मार्क्स
(स) एंजिल
(द) ये सभी।
उत्तर:
(द) ये सभी।

प्रश्न 11.
राज्य के आवश्यक तत्व हैं
(अ) तीन
(ब) दो
(स) चार
(द) छह।
उत्तर:
(स) चार

प्रश्न 12.
“भोजन और संपत्ति के संबंध में मनुष्य की क्रियाएँ आर्थिक संस्थाओं का निर्माण करती हैं।” यह कथन है
(अ) मजूमदार एवं मदान का
(ब) आगबर्न एवं निमकाफ का
(स) किंग्सले डेविस का
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(ब) आगबर्न एवं निमकाफ का

प्रश्न 13.
धर्म को एक सामाजिक उत्पादन कहा है
(अ) कार्ल मार्क्स ने
(ब) इमाईल दुर्थीम ने
(स) मैक्स वेबर ने
(द) इन सभी ने।
उत्तर:
(द) इन सभी ने।

प्रश्न 14.
इस्लाम धर्म के संस्थापक थे
(अ) पैगम्बर मोहम्मद साहब
(ब) जिब्रीलन
(स) हदीस
(द) रसूल।
उत्तर:
(अ) पैगम्बर मोहम्मद साहब

प्रश्न 15.
ईसामसीह का जन्म हुआ था
(अ) वेटिकिन सिटी में
(ब) येरूशलम में
(स) बेथलेहम में
(द) आस्ट्रिया में।
उत्तर:
(स) बेथलेहम में

प्रश्न 16.
अकाल तख्त की स्थापना की थी
(अ) गुरु गोविन्द सिंह ने
(ब) गुरु नानकदेव ने
(स) गुरु रामदास ने
(द) गुरु हरगोविन्द ने।
उत्तर:
(द) गुरु हरगोविन्द ने।

प्रश्न 17.
महावीर स्वामी जैन धर्म के तीर्थंकर थे
(अ) चौबीसवें
(ब) तेईसवें
(स) पहले
(द) इक्कीसवें।
उत्तर:
(अ) चौबीसवें

RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विवाह किसे कहते हैं?
उत्तर:
विवाह वह संस्था है, जो पुरुष तथा स्त्री की भौतिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।

प्रश्न 2.
मुस्लिम विवाह के स्वरूप कौन से हैं?
उत्तर:
निकाह, फासिद, मुताह, बातिल।

प्रश्न 3.
विवाह के दो प्रमुख प्रकार्य बताएँ।
उत्तर:

  1. विवाह पुरुष और स्त्री को जैविकीय संतुष्टि देता है।
  2. सामाजिक-आर्थिक संबंधों द्वारा परिवार का निर्माण होता है।

प्रश्न 4.
जीवन साथियों की संख्या के आधार पर विवाह के प्रकार लिखिए।
उत्तर:
एक विवाह व बहुविवाह।

प्रश्न 5.
बहुपति विवाह से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
बहुपति विवाह में एक स्त्री के एक ही समय में एक से अधिक पति होते हैं।

प्रश्न 6.
बहुपत्नी विवाह से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
बहुपत्नी विवाह में एक पति की एक के अधिक पत्नियाँ होती हैं।

प्रश्न 7.
परिवार मनुष्य की प्राथमिक पाठशाला है, कैसे ?
उत्तर:
परिवार इस अर्थ में मनुष्य की प्राथमिक पाठशाला है कि उसका प्रारम्भिक समाजीकरण परिवार में ही होता है।

प्रश्न 8.
परिवार के किसी एक आर्थिक प्रकार्य को लिखिए।
उत्तर:
सामान्यतः परिवार के वयस्क व्यक्ति किसी न किसी धंधे को करते हैं और परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकता को पूरा करते हैं।

प्रश्न 9.
संयुक्त परिवार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संयुक्त परिवार लोगों का वह समूह है जिसमें तीन या अधिक पीढ़ियाँ एक ही छत के नीचे रहती हैं। एक ही चूल्हे से पका खाना खाती हैं तथा सामान्य गतिविधियों में भाग लेती हैं।

प्रश्न 10.
नातेदारी का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर:
नातेदारी पारिवारिक संबंधों की अभिव्यक्ति और सामाजिक मान्यता है।

प्रश्न 11.
नातेदारी अथवा स्वजनता किस प्रकार नातेदारों को लाभान्वित करती है?
उत्तर:
नातेदारी के आधार पर ही प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और नाम का निर्धारण होता है। नातेदारी अपने नातेदारों को राजनीतिक शक्ति, व्यावसायिक एवं आर्थिक लाभ देती है।

प्रश्न 12.
चार आधारभूत या बुनियादी संस्थाएँ कौन सी हैं?
उत्तर:

  1. नातेदारी
  2. अर्थव्यवस्था
  3. राजनैतिक व्यवस्था
  4. धर्म।

प्रश्न 13.
आर्थिक संस्थाओं का संबंध किससे होता है?
उत्तर:
आर्थिक संस्थाओं का संबंध उत्पादन, विनिमय, वितरण और उपयोग से होता है।

प्रश्न 14.
कौन-सी संस्थाएँ राजनीतिक संस्थाएँ कहलाती हैं?
उत्तर:
वे संस्थाएँ, जो समाज में शक्ति का वितरण करती हैं, राजनैतिक संस्थाएँ कहलाती हैं।

प्रश्न 15.
बौद्ध धर्म के संस्थापक कौन थे?
उत्तर:
बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थे।

प्रश्न 16.
ईसाई धर्म का प्रमुख धार्मिक ग्रंथ कौन सा है?
उत्तर:
ईसाई धर्म का पवित्र ग्रंथ बाइबिल है। इसमें दो भाग हैं-पुरानी बाइबिल व नई बाइबिल।

प्रश्न 17.
इस्लाम धर्म के पवित्र ग्रंथ का नाम लिखिए।
उत्तर:
कुरान।

प्रश्न 18.
अमृतसर की स्थापना किसने की?
उत्तर:
सिक्खों के चौथे गुरु रामदास ने अमृतसर की स्थापना की थी।

प्रश्न 19.
औपचारिक शिक्षा की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  1. नियमित व मान्यता प्राप्त विद्यालय में शिक्षण।
  2. निश्चित और उचित तरीके से निर्धारित विषय सामग्री का होना।

प्रश्न 20.
अनौपचारिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
व्यक्ति द्वारा उसकी दैनिक गतिविधियों और वृहत् समाज के साथ परस्पर प्रभाव से अर्जित शिक्षा अनौपचारिक होती है।

RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 लघूत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हिन्दू विवाह मुस्लिम विवाह से कैसे भिन्न है?
उत्तर:
हिन्दू विवाह एक महत्वपूर्ण सामाजिक, धार्मिक संस्कार है। हिन्दुओं में एकल विवाह की प्रथा प्रचलित है, जो अग्नि को साक्षी मानकर विधि-विधान से किया जाता है। मुस्लिम विवाह एक संविदा है। इसका उद्देश्य लैंगिक संबंधों एवं बच्चों के प्रजनन को कानूनी रूप देना है। इनके विवाह (निकाह) में मौलवी गवाह के रूप में उपस्थित रहता है। मुस्लिम व्यक्ति एक से अधिक पत्नी रख सकता है।

प्रश्न 2.
पति-पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के कितने प्रकार हैं? रेखाचित्र दीजिए।
उत्तर:
पति-पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के प्रकार निम्नलिखित रेखाचित्र में दर्शाए गए हैं :
RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 4 सामाजिक संस्थाएँ 1
प्रश्न 3.
हिन्दू विवाह से संबंधित कानूनी प्रावधान कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
हिन्दू विवाह से संबंधित कानूनी प्रावधान निम्नलिखित हैं :

  1. हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856
  2. बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929
  3. अलग रहने एवं भरण-पोषण हेतु हिन्दू विवाहित स्त्रियों का अधिकार अधिनियम, 1946
  4. दहेज निरोधक अधिनियम, 1961
  5. विशेष विवाह अधिनियम, 1954
  6. हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955.

प्रश्न 4.
परिवार की विद्वानों द्वारा दी गई दो परिभाषाएँ लिखिए।
उत्तर:

  1. “परिवार एक ऐसा समूह है जो लिंग संबंधों के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है, जो इतना छोटा व स्थायी है कि जिसमें संतानोत्पत्ति एवं उनका पालन-पोषण किया जा सके।” -मैकाइबर एवं पेज
  2. “परिवार व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो एक छत के नीचे रहते हैं, वंश तथा रक्त संबंधी सूत्रों से संबंध रहते हैं तथा स्थान, हित और कृतज्ञता की अन्योन्याश्रिता के आधार पर जाति की जागरूकता रखते हैं।” -मजुमदार एवं मदन

प्रश्न 5.
परिवार में परिवर्तन के चार कारक लिखिए
उत्तर:
परिवार में परिवर्तन के प्रमुख कारक :

  1. औद्योगीकरण एवं नगरीकरण या नवीन आर्थिक शक्तियाँ।
  2. पश्चिमी शिक्षा या नवीन विचार और आधुनिक सोच।
  3. परिवार में मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व।
  4. सामाजिक अधिनियम और कानून।

प्रश्न 6.
नातेदारी या स्वजनता का समाजशास्त्रीय महत्व बताइए।
उत्तर :
नातेदारी या स्वजनता न केवल व्यक्ति के सामाजिक दायित्वों का निर्धारण करती है वरन् उसे सुरक्षा तथा मानसिक संतोष भी देती है। पारस्परिक संबंधों में जो व्यक्ति जितना नजदीक होगा, नातेदार उसकी आर्थिक सहायता के लिए उतना ही अधिक तैयार रहेंगे। नातेदारी उसको यह विश्वास दिलाती है कि वह समाज में अकेला नहीं है। नातेदारी उसको मानसिक सुरक्षा देती है। नातेदारी या स्वजनता के आधार पर ही विवाह, परिवार, वंश उत्तराधिकारी, सामाजिक दायित्वों आदि का निर्धारण होता है।

प्रश्न 7.
संश्रय सिद्धांत और वंशानुक्रम पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
संश्रय सिद्धांत :
इसके अनुसार शरीर के विभिन्न अंग जिस प्रकार अपना प्राथमिक अस्तित्व बनाए रखने के बावजूद एक दूसरे के अन्तः संबंधित और अन्तः निर्भर होते हैं, उसी प्रकार एक जाति के विभिन्न गोत्र विवाह के माध्यम से जाति के अन्य गोत्रों से जुड़ जाते हैं।

वंशानुक्रम :
वंशानुक्रम से अभिप्राय उन मान्यता प्राप्त सामाजिक संबंधों से है, जिन्हें व्यक्ति अपने पूर्वजों के साथ जोड़ता है। किसी भी व्यक्ति के वंश को उसके पिता या माता के वंश के आधार पर देखा जाता है। कहीं-कहीं माता-पिता दोनों के वंश से आधार पर वंशानुक्रम का निर्धारण किया जाता है।

प्रश्न 8.
राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धांत की चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
शक्ति के सिद्धांत की चार विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं :

  1. राज्य शक्ति पर निर्भर है अर्थात् शक्ति सत्य है।
  2. प्रथम राजा बड़ा युद्ध करने वाला तथा विजयी था।
  3. राज्य का पहला कार्य युद्ध करना है।
  4. राज्य युद्ध द्वारा उत्पन्न होता है।

प्रश्न 9.
सामाजिक नियंत्रण के लिए आवश्यक तत्वों का उल्लेख करते हुए ‘अधिकार तत्व’ को समझाइये।
उत्तर :
सामाजिक नियंत्रण के लिए आवश्यक तत्व :

  1. अधिकार
  2. आज्ञा देने की क्षमता
  3. आज्ञा पालन करवाने की क्षमता
  4. भय या दंड देने की क्षमता।

अधिकार तत्व :
सामाजिक नियंत्रण तभी प्रभावी होता है जब उसमें अधिकारिता के तत्व निहित हैं। बिना अधिकार के कोई भी साधन सफल नहीं हो सकता। नियंत्रण करने में वही साधन या संस्था सफल होती है जिसे समाज से स्वीकृति एवं मान्यता प्राप्त हो।

प्रश्न 10.
‘द्रव्य व साख’ आज के युग की एक महत्वपूर्ण संस्था है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पुराकाल के अविकसित समाज में वस्तु विनिमय प्रथा प्रचलित थी। आज वह प्रचलन में नहीं है। आधुनिक समय में सारा विनिमय, व्यापार एवं धंधा द्रव्य के माध्यम से होता है। द्रव्य आज की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ है। द्रव्य के साथ साख भी एक महत्वपूर्ण आर्थिक संस्था है। वर्तमान में लाखों-करोड़ों का व्यापार साख पर होता है। द्रव्य और साख की व्यवस्था करने में बैंकों का बहुत बड़ा योगदान है।

प्रश्न 11.
आर्थिक संस्थाओं के विकास से सामाजिक संस्थाओं पर पड़े प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
आर्थिक संस्थाओं के विकास से सामाजिक संस्थाओं पर पड़ा प्रभाव :

  • परिवार के स्वरूपों में परिवर्तन :
    संयुक्त परिवार के स्थान पर एकाकी परिवारों का प्रचलन।
  • विवाह के आधार में परिवर्तन :
    जाति-प्रथा के बंधन शिथिल हो रहे हैं।
  • सामाजिक विघटन :
    सामाजिक विघटन आधुनिक जटिल समाजों का अनिवार्य लक्षण बन गया है।

प्रश्न 12.
धर्म के बारे में डॉ. राधाकृष्णन और धर्मशास्त्री पी.वी.काणे के विचारों को लिखिए।
उत्तर:
राधाकृष्णन के अनुसार, “जिन सिद्धांतों का हमें अपने दैनिक जीवन में और सामाजिक संबंधों में पालन करना है, वे उस व्यवस्था द्वारा नियत किए गए हैं, जिसे धर्म कहा जाता है। यह सत्य का जीवन में मूर्तरूप है और हमारी प्रकृति को नए रूप में ढालने की शाक्ति है।”

धर्मशास्त्री पी.वी. काणे के अनुसार, “धर्मशास्त्रों के लेखकों ने धर्म का अर्थ एक मत या विश्वास नहीं माना है, अपितु उसे जीवन के एक ऐसे तरीके या आचरण की ऐसी संहिता माना है जो व्यक्ति को समाज के रूप में और व्यक्ति के रूप में कार्य एवं क्रियाओं को नियमित करता है और जो व्यक्ति के क्रमिक विकास की दृष्टि से किया गया है। यह मानव को उसके अस्तित्व में उद्देश्य तक पहुँचाने में सहायता करता है।”

प्रश्न 13.
धर्म के प्रमुख प्रकार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
धर्म के प्रमुख प्रकार्य  :

  1. मानसिक तनावों व संघर्षों से मुक्ति दिलाना।
  2. सामाजिक मूल्यों व मान्यताओं का संरक्षण करना।
  3. नैतिकता को बनाए रखना।
  4. सामाजिक एकता व विश्व-बन्धुत्व की भावना में सहायक।
  5. सामाजिक नियंत्रण, सुरक्षा की भावना, सद्गुणों के विकास के सहायक
  6. पवित्र-अपवित्र में भेद करना तथा पवित्रता को धारण करना।

प्रश्न 14.
समाजीकरण में शिक्षा की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा सीखने, आत्मसात करने और उसके अनुरूप व्यवहार की प्रक्रियाओं से संबंधित है। यह दो प्रकार की है औपचारिक शिक्षा-जो निश्चित विषयों द्वारा मान्यता प्राप्त विद्यालयों में दी जाती है। अनौपचारिक शिक्षा-इसे व्यक्ति अपने परिवेश से सीखता है।

एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को परंपरा, संस्कृति, कौशल और ज्ञान को औपचारिक या अनौपचारिक ढंग से हस्तांतरित करने में शिक्षा की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्था के रूप में है।

RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“विवाह संस्कार द्वारा एक हिन्दू स्त्री व पुरुष गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से पूर्णता प्राप्त करते हैं।” इस कथन की विस्तृत समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
‘संस्कार’ शब्द का अर्थ किसी सभ्यता या संस्कृति से नहीं है वरन् संस्कार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति का विशेष प्रकार से समाजीकरण किया जाता है। संस्कार कर्मकाण्ड नहीं है बल्कि व्यक्ति के विशेष क्रिया पक्षों से जुड़ा हुआ शब्द है। जो समय समय पर मनुष्य को दिशा निर्देश देते हैं। विवाह के द्वारा एक व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है जो अन्य सभी आश्रमों का मूल है। हिन्दू धर्मशास्त्रों में जिन चार पुरुषार्थों का उल्लेख किया गया है, उनकी पूर्ति गृहस्थाश्रम में ही सम्भव है।

हिन्दू लोगों का यह विश्वास है कि प्रत्येक व्यक्ति तीन प्रकार के ऋणों के साथ जन्म लेता है। ये तीन प्रकार के ऋण हैं- ‘पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण। पितरों के ऋण से उऋण होने के लिये श्राद्ध के अवसर पर पितरों का तर्पण, पिण्डदान आदि किये जाते हैं और ये करने का अधिकार धर्मशास्त्रों के अनुसार मुख्य रूप से संतान का ही होता है। संतान की प्राप्ति हिन्दू विवाह पद्धति के अन्तर्गत कुछ धार्मिक कृत्यों का सम्पादन कर की जाती। इन धार्मिक कृत्यों में होम, पाणिग्रहण, सप्तपदी आदि प्रमुख हैं। अग्नि हिन्दुओं के तैंतीस कोटि देवी-देवताओं में से एक है इसके द्वारा होम की क्रिया सम्पन्न होती है।

पाणिग्रहण के अन्तर्गत कन्या का पिता या संरक्षक हाथ में जल लेकर वेदमंत्रों का उच्चारण करते हुए लड़के वर को कन्या का दान करता है जिसे स्वीकार करके वर अग्नि तथा भगवान को साक्षी मानकर वधू के हाथ को अपने हाथ में लेकर पाणिग्रहण करता है। वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ वर तथा वधू कुछ प्रतिज्ञाएँ करते हैं तदनन्तर दोनों गाँठ बाँधकर अग्नि के समक्ष उत्तर-पूर्व की दिशा में सात कदम एक साथ चलते हैं जिसे सप्तपदी कहते हैं। एक हिन्दू पुरुष अपने जीवन में अनेक संस्कार (आमतौर पर) सम्पादित करता है। इन संस्कारों का सम्पादन वह क्रमशः एक के बाद एक करके पूरा करता है। ये संस्कार क्रमशः हैं गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णछेदन, विद्यारम्भ या पट्टीपूजन, उपनयन, विवाह और अन्त्येष्टि। हिन्दू धर्मशास्त्रों ने इन सोलह संस्कारों के सम्पादन का विधान किया है। विवाह संस्कार द्वारा एक हिन्दू स्त्री व पुरुष गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से पूर्णता प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 2.
मुस्लिम विवाह के प्रकार बताइए। मुस्लिम विवाह विच्छेद किन स्थिति में हो जाता है।
उत्तर:
मुस्लिम विवाह के प्रकार :
मुस्लिम समाज में निम्न प्रकार के विवाह पाये जाते हैं :
(क) वैध विवाह ऐसा विवाह जो मुस्लिम विवाह की समस्त शर्तों को पूरा करते हुये किये गये हैं वैध विवाह कहलाते हैं। हमारे देश के अधिकांश मुसलमानों में विवाह के इसी स्वरूप का प्रचलन है। इस विवाह की प्रकृति आमतौर पर तब तक स्थायी होती है जब तक कि कोई पक्ष दूसरे पक्ष को तलाक नहीं दे। इस प्रकार के विवाह में वर और वधू की स्वीकृति आवश्यक होती है। नाबालिग होने की स्थिति में संरक्षक की अनुमति/ स्वीकृति आवश्यक होती है। प्रत्येक पक्ष में एक साक्षी होता है तथा काजी की उपस्थिति अनिवार्य होती है। शरीयत के अनुसार अन्य आवश्यक शर्ते पूर्ण करते हुए विवाह किया जाता है।

(ख) मुताह विवाह यह विवाह पति और पत्नी के बीच एक निश्चित अवधि के लिये किया गया समझौता है। जैसे ही समझौते की अवधि समाप्त होती है विवाह सम्बन्ध भी समाप्त हो जाता है। मुताह विवाह में भी मेहर की रकम निश्चित की जाती है जिसे विवाह की अवधि समाप्त होते ही पति पत्नी को चुकाता है। इस विवाह के द्वारा उत्पन्न सन्तान को वैध माना जाता है तथा उसका पिता की सम्पत्ति पर अधिकार भी होता है। वर्तमान समय में इस विवाह का प्रचलन समाप्त होता जा रहा है।

सन् 1939 में मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम पारित किया गया और मुस्लिम स्त्रियों की विवाह विच्छेद सम्बन्धी सभी निर्योग्यताएँ दूर कर उन्हें व्यापक अधिकार प्रदान किये गये। अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार यदि पति का चार वर्षों से कोई पता न हो, दो वर्ष से पत्नी का भरण-पोषण करने में असमर्थ हो, बिना किसी उचित कारण के तीन वर्षों से वैवाहिक कर्तव्य को निभाने में असमर्थ रहा हो, सात या अधिक वर्षों के लिए पति को जेल की सजा मिली हो, पति पागल हो, कोढ़ी हो, पत्नी के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता हो, उसके धार्मिक कार्यों में रुकावट डालता हो, उसकी सम्पत्ति को बेचता हो, सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों में बाधा उत्पन्न करता हो, सभी पत्नियों के साथ समानता का व्यवहार नहीं करता हो आदि आधारों पर विवाह विच्छेद की माँग का अधिकार मुस्लिम स्त्रियों को दिया गया है। इस अधिनियम के पारित होने से पहले मुस्लिम स्त्री को बिना पति की स्वीकृति के विवाह विच्छेद का अधिकार नहीं था।

प्रश्न 3.
ईसाई विवाह की परिभाषा और उसके प्रकार लिखिए। इसाई विवाह विच्छेद किन स्थितियों में संभव है, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ईसाई विवाह ईसाई विवाह की परिभाषा देते हुए क्रिश्चियन बुलेटिन में कहा गया है कि “विवाह समाज में एक पुरुष तथा एक स्त्री के बीच एक समझौता है जो साधारणतः सम्पूर्ण जीवन भर के लिये होता है और इसका उद्देश्य परिवार की स्थापना है। इस परिभाषा से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं :

  1. ईसाई विवाह स्त्री पुरुष के बीच एक समझौता है।
  2. यह समझौता आजीवन रहता है।
  3. यह समझौता जीवन भर के लिये किये जाने के कारण पति और पत्नी के सम्बन्धों में स्थिरता आती है।
  4. इस समझौते के द्वारा सन्तानोत्पत्ति के माध्यम से परिवार का निर्माण किया जाता है।

ईसाई विवाह के प्रकार :
ईसाइयों में निम्नलिखित दो प्रकार के विवाहों का प्रचलन है :

  • धार्मिक विवाह :
    ये विवाह गिरजाघरों में पादरी द्वारा वर व वधू को पति पत्नी घोषित करने के साथ सम्पन्न होता है। ऐसे विवाह अधिकांशतः नियोजित होते हैं।
  • सिविल मैरिज :
    विवाह के इच्छुक युवक व युवती को मैरिज रजिस्ट्रार पति-पत्नी घोषित कर देता है। ईसाई विवाह से सम्बन्धित विधान : ईसाई विवाह से सम्बन्धित विधान निम्नलिखित हैं :
    1. भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम 1869
    2. भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872

ईसाई धर्म की दो शाखाएँ हैं :
रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट। रोमन कैथोलिक विवाह विच्छेद को स्वीकार नहीं करते हैं जबकि प्रोटेस्टेण्ट परिस्थिति विशेष में इसे स्वीकार करते हैं। 1869 में पारित भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम के अनुसार एक ईसाई स्त्री भी उन्हीं आधारों पर विवाह विच्छेद की माँग कर सकती हैं जिन आधारों पर हिन्दू स्त्री को विवाह विच्छेद की माँग का अधिकार है।

भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम (1872) के अनुसार विवाह के लिये लड़के की आयु 16 वर्ष और लड़की की आयु 13 वर्ष होना अनिवार्य है। लड़के और लड़की की आयु इससे कम होने पर उनके संरक्षक की स्वीकृति अनिवार्य है। विवाह के समय दोनों में से किसी का भी पहला जीवन साथी नहीं होना चाहिये। पादरी या सरकार द्वारा लाइसेन्स प्राप्त व्यक्ति अथवा सरकार द्वारा नियुक्त मैरिज रजिस्ट्रार दो ईसाइयों के बीच विवाह करवा सकते हैं। मैरिज रजिस्ट्रार की अनुपलब्धता पर जिला मजिस्ट्रेट विवाह करवा सकता है। विवाह के समय दोनों पक्ष पादरी अथवा मैरिज रजिस्ट्रार के सम्मुख दो गवाहों की मौजूदगी में ईश्वर की शपथ लेकर वैधानिक रूप से एक दूसरे को पति-पत्नी स्वीकारते हैं।

प्रश्न 4.
हाब्स लॉक एवं रूसों के सामाजिक समझौते संबंधी विचारों को निम्न शीर्षकों के अंतर्गत स्पष्ट कीजिए।
(i) प्राकृतिक अवस्था,
(ii) संविदा या समझौते का स्वरूप,
(iii) संप्रभुता।
उत्तर:
हाब्स के विचार :
प्राकृतिक अवस्था :
हाब्स के अनुसार इस अवस्था में सदैव युद्ध की स्थिति बनी रहती थी। मनुष्य स्वार्थी था, जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक मनुष्य का दुश्मन था। मनुष्य का जीवन एकाकी, दरिद्र, गन्दा और अव्यवस्थित था। विधि, शान्ति तथा सुरक्षा का अभाव था। हाब्स का विचार था कि इस प्रकार की स्थिति से मुक्ति पाने के लिए तथा शान्ति, सुरक्षा एवं सुव्यवस्था की प्राप्ति के लिए व्यक्तियों ने समझौता किया।

समझौते का स्वरूप :
हाब्स के सतानुसार यह समझौता व्यक्तियों तथा संप्रभु के मध्य न होकर केवल व्यक्तियों के मध्य ही हुआ था। इसमें व्यक्तियों ने अपने समस्त अधिकार संप्रभु को सौंप दिए। सम्प्रभु, शासक इस समझौते से अलग था।

जान लॉक के विचार :
प्राकृतिक अवस्था-लॉक के अनुसार व्यक्ति, स्वभाव से ही शान्तिप्रिय होता है परन्तु इस अवस्था में तीन कमियाँ थीं।

  1. व्यवस्थित, निश्चित और प्रतिष्ठित विधान
  2. एक निश्चित और निष्यक्ष न्यायाधीश
  3. सही दण्ड को कार्यान्वित और उनका समर्थन करने की शक्ति।

समझौते का स्वरूप :
उपर्युक्त कमियों को दूर करने के लिए व्यक्तियों ने पारस्परिक समझौता कर राज्य और समाज का निर्माण किया। लॉक दो समझौतों का होना मानते हैं। पहला जनता के बीच जिससे समाज का निर्माण हुआ। जनता ने अपने कुछ अधिकार राज्य को सौंप दिए तथा शासन ने इसके बदले शान्ति, सुव्यवस्था व न्याय की व्यवस्था की। जनता शासक को हटा भी सकती थी। इस प्रकार यह समझौता सीमित तथा विशेष प्रयोजन से था।

संप्रभुता :
लॉक यह मानते हैं कि समाज सर्वोच्च या संप्रभु है जो दूसरे समझौते के द्वारा व्यक्तियों के जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति की रक्षा के उद्देश्य से अपनी शक्तियाँ सरकार को सौंपता है। यदि सरकार ठीक प्रकार से कार्य न करे तो व्यक्तियों को सरकार को हटाने तथा उसका विरोध करने का अधिकार है। इस प्रकार सरकार की शक्ति निरंकुश नहीं वरन् सीमित है।

रूसो के विचार :
प्राकतिक अवस्था रूसो प्राकृतिक अवस्था को आनन्दमयी मानता है। मनुष्य एक भद्र बर्बर था। यह अवस्था असामाजिक नहीं वरन् अराजनीतिक थी। व्यक्तिगत सम्पत्ति का अभाव था। धीरे-धीरे सभ्यता के उदय के साथ-साथ कला एवं विज्ञान का विकास हुआ। निजी सम्पत्ति, विवाह तथा श्रम-विभाजन के कारण समस्याएँ जटिल होती चली गईं। अतः राज्य की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। इस प्रकार मनुष्य की असमानताओं के कारण ही राज्य अनिवार्य हुआ।

समझौते का स्वरूप :
रूसो, एक समझौता होना स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार यह समझौता नागरिकों के वैयक्तिक स्वरूप तथा सामूहिक स्वरूप के बीच हुआ। इस सामूहिक समाज द्वारा ही शासन का निर्माण हुआ।

संप्रभुता :
रूसो के अनुसार व्यक्तियों ने संविदा या समझौते द्वारा अपने अधिकार सामूहिक सता को सौंप दिए। इसी सामूहिक सत्ता या समाज ने शासन को अधिकार तथा शक्तियाँ प्रदान दी। यह सिद्धांत इतिहास सम्मत नहीं हैं। इतिहास में इस प्रकार के समझौते का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।

प्रश्न 5.
अर्थव्यवस्था से आप क्या समझते हैं? विस्तारपूर्वक समझाइए।
उत्तर:
अर्थव्यवस्था :
अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन, विनिमय, वितरण एवं उपभोग से है। मनुष्य पशुओं की तरह नहीं है जो प्रकृति के परजीवी होते हैं और इसके कच्चे माल का उपभोग करते हैं। मानव न केवल अपने जीवित रहने के लिए आवश्यक वस्तुओं को स्वयं बनाते हैं, बल्कि वे प्रकृति के कच्चे उत्पादों को प्रौद्योगिकी की मदद से रूपान्तरित भी करते हैं। वे कच्चे उत्पादन को पके हुए माल में रूपांतरित करते हैं। मनुष्य का सबसे महत्त्वपूर्ण लक्षण यह है वह कच्ची उपज पकाता है। आग उत्पन्न करना तथा आग द्वारा अनेक कार्यों को करना मनुष्य जाति का विशेष लक्षण है।

अर्थव्यवस्था से संबंधित किसी भी प्रक्रिया को मनुष्य पृथक रूप से क्रियान्वित नहीं कर सकता। उत्पादन की व्यवस्था में, व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के संपर्क में आता है। वस्तुओं का वितरण तथा विनिमय इस बात को मानकर चलता है कि मनुष्यों के मध्य में परस्पर संबंध होते हैं। इन संबंधों की प्रकृति से यह सुनिश्चित होता है कि वितरण तथा विनिमय की गुणवत्ता कैसी होगी और विनिर्मित वस्तुओं अथवा सेवाओं की गुणवत्ता कैसी होगी। मानव संबंध तथा सामाजिक मूल्य भी उपभोग के प्रतिमानों का निर्धारण करते हैं। इस प्रकार अर्थव्यवस्था के समाजशास्त्रीय अध्ययन में, हम उत्पादन, वितरण और विनिमय की व्यवस्था में बने सामाजिक संबंधों से सम्बद्ध होते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि आर्थिक व्यवस्था वह है जिसमें उत्पादन, वितरण, विनिमय व वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग किया जाता है।

प्रश्न 6.
हिन्दू धर्म की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
हिन्दू धर्म हिन्दू धर्म प्राचीनतम धर्म है। यह सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था एवं व्यवहारों में पवित्रता तथा आध्यात्मिक विश्वासों की एक लम्बी विकास प्रक्रिया का परिणाम है। लोकमान्य तिलक के अनुसार सिन्धु नदी के उद्गम स्थान से लेकर हिन्द महासागर तक सम्पूर्ण भारतभूमि जिसकी मातृभूमि तथा पवित्र भूमि है, वह हिन्दू कहलाता है और उसका धर्म हिन्दू धर्म अथवा हिन्दुत्व है।

सनातनता :
यद्यपि. हिन्दू धर्म का कोई प्रवर्तक नहीं हुआ किन्तु अनादिकाल से इसका विकास अक्षुण्ण रूप से होता आ रहा है। इस कारण इसे सनातन धर्म कहा जाता है। अपनी प्राचीनता के कारण ही अनेकानेक बाह्य तत्वों, युग परिवर्तन, बाह्य आक्रमण और आन्दोलनों के बावजूद अपने मूलरूप से विचलित नहीं हुआ क्योंकि यह सनातन सत्य पर आधारित है।

ईश्वर में विश्वास :
सम्पूर्ण दृश्यमान जगत एक अलौकिक शक्ति या एक ईश्वर द्वारा संचालित है, जिसका स्वरूप अलग-अलग या बहुईश्वरवादी हो सकता है। ये शक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं, एक अच्छे काम करने वाली और दूसरी, बुरे काम करने वाली। जैसे देव एवं दानव जिसे द्वैत सिद्धान्त कहा जाता है।

आध्यात्मिकता :
हिन्दू धर्म ईश्वर के आध्यात्मिक स्वरूप अर्थात् परम सत्ता की सम्पूर्णता पर विश्वास करता है। जो समस्त वस्तुओं की अभिव्यक्ति है। आध्यात्मिक सत्ता के पक्ष-सत्, चिद् और आनन्द की प्राप्ति के लिए व्यक्ति सदै तत्पर रहते हैं। हिन्दुओं का जीवन-दर्शन आध्यात्मिकता से परिपूर्ण है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति की आत्मा, परमात्मा से एकाकार होने के लिये सतत् प्रयत्नशील रहती है।

कर्म का सिद्धान्त :
हिन्दू धर्म शुभाशुभ कर्मों के फल भोगने पर विश्वास करता है, जो प्रत्येक जन्म में सद्कमो” को करने की प्रेरणा देता है और बुरे कर्म करने से रोकता है। कर्मों के फल संस्कार रूप में सुरक्षित रहते हैं जो भावी जीवन को संचालित करते हैं।

पुनर्जन्म का सिद्धान्त :
अच्छे और बुरे कर्मों के फल भोगने के लिए दूसरा जन्म धारण करना आवश्यक होता है। पुनर्जन्म सिद्धान्त के अनुसार वर्तमान योनि में प्राप्त जन्म पूर्व जन्म के कम का फल है। यह धारणा है कि सत्कर्म करने से इहलोक और परलोक दोनों सुधरते हैं।

मोक्ष का सिद्धान्त :
हिन्दू धर्म में ऐसा विश्वास है कि सुख-दुख, जन्म-मृत्यु व भौतिक जगत के चक्र से मुक्त होकर ईश्वरीय पूर्णता प्राप्त करना परम मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करना है। धर्म, अर्थ, काम तीनों ही पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्ति के लिए हैं।

ऋत-नियम :
वैदिक धर्म में ऋत (नैतिक) को सूर्य, चन्द्र आदि प्राकृतिक शक्तियों का नियन्ता कहा गया है जो ऋत-नियम के आधर पर संचालित होते हैं। उसी प्रकार यह जगत एक नैतिक व्यवस्था में आबद्ध है। नैतिक नियम ही धर्म हैं जो मानव जीवन के लिये सर्वोपरि हैं।

आश्रम :
व्यवस्था हिन्दू धर्म में व्यक्ति के जीवन को क्रमशः चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास में विभाजित किया गया है। प्रथम दो आश्रम मनुष्य के शारीरिक एवं सामाजिक दायित्वों को और बाद के दोनों आश्रम ईश्वर और मानवता के प्रति उच्चतर दायित्वों को निभाने के लिए हैं। व्यावहारिक रूप में आश्रम व्यवस्था नैतिक मूल्यों की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती है।

विविधता में एकता :
हिन्दू धर्म के अन्तर्गत अनेक सम्प्रदाय, विचारधाराएँ एवं रीति-रिवाज पाये जाते हैं। जैसे-वैदान्ती, अद्वैतवादी, सांख्य, न्याय, वैशेषिक जो स्वतंत्र रूप से अनुकरणीय हैं। हिन्दू धर्म की यह विशेषता जनतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राज्य का मूल सिद्धान्त है।

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