RBSE Solutions for Class 11 Accountancy Chapter 2 प्राचीन भारतीय लेखांकन

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Rajasthan Board RBSE Class 11 Accountancy Chapter 2 प्राचीन भारतीय लेखांकन

RBSE Class 11 Accountancy Chapter 2 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न

RBSE Class 11 Accountancy Chapter 2 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विश्व की सबसे प्राचीन लेखांकन पुस्तक किसे माना जा सकता है ?
उत्तर-
ब्रह्मा द्वारा रचित विशालकाय ग्रन्थ जिसमें एक लाख अध्याय एवं एक करोड़ श्लोक थे, को लेखांकन की सबसे प्राचीन पुस्तक माना जा सकता है।

प्रश्न 2.
प्राचीन भारत में लेखाधिकारी को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
अक्षपटलमध्यक्ष

प्रश्न 3.
किन्हीं दो प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थों के नाम बताइए।
उत्तर-.

  • वेद,
  • उपनिषद

प्रश्न 4.
‘नित्योत्पादक व्यय का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
नित्योत्पादक व्यये का आशय निर्धारित नित्य व्यय के अतिरिक्त किये गये व्यय से है।

प्रश्न 5.
प्राचीन भारतीय विचार के अनुसार पारलौकिक लेखाकार कौन है ?
उत्तर-
चित्रगुप्त

RBSE Class 11 Accountancy Chapter 2 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विभिन्न प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थों के नाम बताइए।
उत्तर-
विभिन्न प्राचीन भारतीय नीति ग्रन्थ निम्नलिखित हैं

  • वेद
  • उपनिषद्
  • धर्मसूत्र
  • स्मृतियाँ
  • वाल्मीकीय रामायण,
  • महाभारत
  • भगवद् ता
  • योग वशिष्ठ
  • पुराण
  • विदुर नीति
  • भर्तृहरि का नीति-शतक
  • शुक्र नीति
  • कामंदकीय नीति सार
  • पंचतंत्र हितोपदेश
  • चाणक्य नीति

प्रश्न 2.
प्राचीन भारतीय लेखाधिकारी के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
प्राचीन काल में राजव्यवस्था के सभी विभागाध्यक्ष अपने-अपने विभाग का लेखा रखते थे तथा इन सभी का समेकित लेखा रखने के लिए एक अलग विभाग रखा जाता था जिसे केन्द्रीय लेखा विभाग या अक्षपटल कहा जाता था। इसका अध्यक्ष केन्द्रीय लेखाधिकारी अथवा अक्षपटलमध्यक्ष कहलाती था। अक्षपटल में रखी जाने वाली लेखी पुस्तकों को उस समय निबन्ध पुस्तकें कहा जाता था। राष्ट्र के सभी विभागाध्यक्षों के लेखों के आधार पर ही अक्षपटलमध्यक्ष समेकित लेखे तैयार कर राजा के सम्मुख प्रस्तुत करता थो तथा सभी विभागीय अधिकारी भी अपने-अपने विभाग की तत्कालीन आय-व्यय की स्थिति का लेखा राजा के समक्ष प्रस्तुत करते थे।

प्रश्न 3.
विश्व की प्राचीनतम् लेखा पुस्तक की रचना के विषय में क्या मान्यता है ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि सृष्टि के आदिकाल में सरस्वती के उपदेशों के आधार पर ब्रह्मा ने एक लाख अध्याय वाले, एक करोड़ श्लोकों वाले एक महान् शास्त्र का निर्माण किया था। अतः ब्रह्मा रचित इसी शास्त्र को विश्व का सबसे प्राचीन लेखांकन विषयक ग्रंथ माना जा सकता है। इस शास्त्र का समय-समय पर विद्वानों द्वारा संक्षिप्तीकरण किया गया । कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है जिसमें लेखाशास्त्र विषय से सम्बन्धित सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।

प्रश्न 4.
प्राचीन भारतीय विचार के अनुसार लेखांकन की ऐसी शाखाओं के नाम बताइए जो वर्तमान में भी प्रचलित हैं ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थों में लेखांकन की कई विशिष्ट शाखाओं का उल्लेख मिलता है जिन्हें वर्तमान समय में प्रचलित लेखांकन शब्दावली से सम्बन्धित करके देखा जा सकता है। जैसे

  • उत्तरदायित्व लेखांकन (Responsibility Accounting),
  • कृषि लेखांकन (Farm Accounting),
  • कोष लेखांकन (Fund Accounting),
  • पशुपालन एवं दुग्धशाला लेखांकन (Animal Husbandry and Dairy Accounting),
  • बागवानी लेखांकन (Horticulture Accounting),
  • मत्स्य लेखांकन (Fisheries Accounting),
  • मानव संसाधन लेखांकन (Human Resource Accounting),
  • मिथ्या लेखांकन (False Accounting),
  • राजकीय लेखांकन (Government Accounting),
  • लोक हित लेखांकन (Public Interest Accounting),
  • सम्पदा लेखांकन (Estate Accounting),
  • समरूप लेखांकन (Uniform Accounting),
  • समष्टि लेखांकन (Macro Accounting),
  • सामाजिक लेखांकन (Social Accounting)

प्रश्न 5.
लेखांकन की पूर्ण प्रकटीकरण परम्परा की विद्यमानता का प्राचीन भारत में क्या प्रमाण मिलता है ?
उत्तर-
इस परम्परा के अनुसार, वित्तीय वर्ष के अन्त में सभी लेखा सूचनाओं को पूर्ण रूप से प्रकट किया जाना चाहिए अर्थात् कुछ भी छिपाया न जाए। प्राचीन भारत में भी पूर्ण प्रकटीकरण की परम्परा का पालन किया जाता था। प्राचीन ग्रन्थों में प्रमाण मिलता है कि उस समय लेखा सूचनाओं को जनसाधारण को सुनाकर अवगत कराने की परम्परा थी जिससे कि सभी लोगों को सारी राजकीय व्यवस्थाओं का ज्ञान ठीक प्रकार से हो सके।

RBSE Class 11 Accountancy Chapter 2 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थों के अनुसार आय के प्रकारों को बताइए।
उत्तर-
प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थों के अनुसार आय के विभिन्न प्रकारों का वर्गीकरण निम्नलिखित है

  • आय शरीर-इसके अन्तर्गत आय के प्राप्ति स्थानों व साधनों के अतिरिक्त उन अध्यक्षों एवं क्षेत्रों को भी सम्मिलित किया जाता है जिनके माध्यम से या जिनके कारण से आय की प्राप्ति हुई हो । आय शरीर के विभिन्न प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित
    (a) दुर्ग-इसके अन्तर्गत विभिन्न अध्यक्षों से प्राप्त होने वाली आय को शामिल किया जाता है।
    (b) राष्ट्रघाट रक्षक, सीमान्तपाल, चौकीदार आदि से प्राप्त आय को इसके अन्तर्गत रखा जाता है।
    (c) खान-विभिन्न खनिजों से प्राप्त आय को इसके अन्तर्गत रखा जाता है।
    (d) सेतु विभिन्न कृषि उपजों; जैसे-धान, फल, फूल आदि से प्राप्त आय सेतु के अन्तर्गत रखी जाती है।
    (e) वन-विभिन्न वनों से प्राप्त आय को इसके अन्तर्गत रखा जाता है ।
    (f) क्व्र विभिन्न पशुओं से प्राप्त आय वज्र कहलाती थी।
    (g) वाणिक पथ विभिन्न मार्गों; जैसे—स्थलमार्ग, जलमार्ग आदि से प्राप्त आय इस शीर्षक के अन्तर्गत रखी जाती है ।
  • आय मुख-आय के विभिन्न प्रकारों को आय मुख कहा जाता है। आय मुख के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं
    (a) मूल–अन्न, फल आदि की बिक्री से प्राप्त धन मूल कहलाता है।
    (b) भागयह धान्य आदि को छठा भाग होता है।
    (c) ब्याजी-तोल में किसी प्रकार की कमी की भरपाई के लिए किसी वस्तु के तोल में पाँच प्रतिशत अधिक लिया जाने वाला भाग ब्याजी कहलाता था।
    (d) परिध इसके अन्तर्गत लावारिस धन आदि को सम्मिलित किया जाता है।
    (e) क्लुप्त इसमें नियत कर को शामिल किया जाता है।
    (f) रूपिक-नमक कर अथवा लवणाध्यक्ष को नमक की बिक्री पर मिलने वाला आठवाँ भाग रूपिक कहलाता है।
    (g) अव्यय-दण्ड अथवा जुर्माने से प्राप्त धन अव्यय कहलाता था।

प्रश्न 2.
प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थों के अनुसार व्यय के प्रकारों को बताइए।
उत्तर-
कौटिल्य के व्यय सम्बन्धी विचारों को निम्नलिखित दो भागों में बाँटकर समझा जा सकता है
(1) व्यय शरीर–व्यय शरीर के अन्तर्गत आने वाली विभिन्न बाईस मदें निम्नलिखित हैं

  • देवपूजन
  • पितृ पूजन
  • दान
  • शान्ति एवं पुष्टि हेतु पुरोहित के
  • राज पत्नी, राजपुत्र आदि.
  • भोजन शाला
  • दूत
  • आयुधागार
  • कोष्ठागार,
  • पण्यगृह
  • कुप्यगृहे।
  • कारखाना ।
  • पैदल सेना
  • अश्व सेना
  • रथ सेना
  • हस्ति संग्रह।
  • गौमण्डल
  • पशुवाट
  • पक्षीवाट
  • हिंसक पशुओं की रक्षा
  • काष्टवाट
  • मजदूर

(2) व्ययों का वर्गीकरण–व्ययों की प्रकृति के अनुसार उनका वर्गीकरण निम्नलिखित है
(a) नित्य व्यय-प्रतिदिन होने वाला व्यय इसके अन्तर्गत आता है।
(b) नित्योत्पादक व्यय-निर्धारित व्यय के अतिरिक्त किया गया व्यय इसके अन्तर्गत आता है।
(c) लाभ व्यय–पाक्षिक, मासिक या वार्षिक लाभ के लिए किया जाने वाला व्यय इसके अन्तर्गत आता है।
(d) लाभोत्पादक व्यय निर्धारित लाभ व्यय के अतिरिक्त किया गया व्यय इसके अन्तर्गत आता है।

प्रश्न 3.
लेखांकन अवधारणाओं के प्राचीन भारतीय उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर-
लेखांकन अवधारणाओं के प्राचीन भारतीय उदाहरण अग्रलिखित हैं
(i) पृथक् अस्तित्व अवधारणा (Separate Entity Concept) इस अवधारणा के अनुसार व्यवसाय के स्वामी का व्यवसाय से अलग अपना एक पृथक् अस्तित्व होता है और प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थ अथर्ववेद में स्वयं राजा को राष्ट्र भृत्य अथवा नौकर कहा गया है तथा प्राचीन भारत में सम्पूर्ण राष्ट्र के लेखे अक्षपटल में रखे जाते थे। अतः प्राचीन भारत में भी लेखांकन की पृथक् अस्तित्व सम्बन्धी अवधारणा विद्यमान थी। यह इस अवधारणा का अच्छा उदाहरण है।

(ii) मिलान अवधारणा (Matching Concept) कौटिल्य के अनुसार दैनिक, मासिक, वार्षिक आदि आधारों पर आय-व्यय तथा बचत का लेखा रखते हुए इनका मिलान कर लेना चाहिए, जिससे कि परिणाम जाने जा सकें। यह उदाहरण उस समय की मिलान की अवधारणा को स्पष्ट करता है।

(iii) मुद्रामापन की अवधारणा (Money Measurement Concept) इस अवधारणा के अनुसार लेखा पुस्तकों में केवल उन्हीं व्यवहारों का लेखा किया जाना चाहिए जिनका मुद्रा में मापन किया जा सकता हो । प्राचीन भारत में राजा द्वारा निश्चित स्वर्ण आदि की मुद्राएँ प्रत्येक वस्तु का मूल्य समझी जाती थीं तथा ऐसे तथ्यों का ही लेखांकन होता था जो इन मुद्राओं में मापी जा सकें। यह मुद्रा मापन की अवधारणा का उदाहरण है।

(iv) लेखांकन अवधि अवधारणा (Accounting Period Concept) लेखांकन की इस अवधारणा के अनुसार व्यवसाय के जीवनकाल को छोटी-छोटी अवधियों में बाँटकर प्रत्येक अवधि के लिए लेखा चक्र को पूरा किया जाता है। यह लेखा अवधि सामान्यतः एक वर्ष की होती है। प्राचीन काल में भी इस अवधारणा का पालन किया जाता था तथा लेखा वर्ष की समाप्ति आषाढ़ मास की पूर्णिमा को होती थी।

प्रश्न 4.
लेखांकन परम्पराओं के प्राचीन भारतीय उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर-
वर्तमान में प्रचलित कुछ लेखांकन परम्पराओं के उदाहरण प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में मिलते हैं, जो निम्नलिखित हैं
(i) पूर्ण प्रकटीकरण की परम्परा (Convention of Full Disclosure) इस परम्परा के अनुसार वित्तीय वर्ष के अन्त में सभी लेखा सूचनाओं को पूर्ण रूप से प्रकट किया जाना चाहिए अर्थात् कुछ भी छिपाना नहीं चाहिए। प्राचीन भारत में भी लेखे से सम्बन्धित सूचनाओं क़ो जनसाधारण को सुनाकर अवगत कराने की परम्परा थी जिससे सम्पूर्ण जनता को सारी राजकीय व्यवस्थाओं का ज्ञान हो जाता था। यह इस परम्परा का अच्छा उदाहरण है।

(ii) एकरूपता की परम्परा (Convention of Consistency) कौटिल्य के अनुसार, सन्निधाता को पिछले सौ वर्षों तक के आय-व्यय की अच्छी जानकारी होनी चाहिए जिससे कि वह राजा को बही दिखाकर आय-व्यय की जानकारी तुरन्त दे सके । इससे स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय लेखांकन में भी एकरूपता की परम्परा का विचार विद्यमान था।

प्रश्न 5.
पारलौकिक लेखांकन की प्राचीन भारतीय दृष्टि पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थों में पृथ्वीलोक के अतिरिक्त अन्य लोकों का भी उल्लेख मिलता है। इनके अनुसार व्यक्ति जैसे कर्म करता है वैसे ही फल भोगता है। यदि कोई व्यक्ति अच्छे कर्म करता है तो वह अच्छे फल प्राप्त करता है । लेकिन यदि कोई व्यक्ति बुरे कर्म करता है तो वह दण्ड का भागी होता है। इस प्रकार व्यक्ति के कर्मों के आधार पर उसको फल देने के लिए पारलौकिक लेखा होता है। अतः प्राचीन भारतीय मान्यता में पारलौकिक लेखांकन की अवधारणा विद्यमान थी।

नीतिग्रन्थों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने यमराज को सभी जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों का यथोचित फल देने का कार्य सौंपा। लेकिन इस कार्य को पूरा करने हेतु यमराज ने एक ऐसे सहायक की माँग की जो बुद्धिमान, न्यायिक एवं लेखा कर्म में निणुणता आदि गुणों से युक्त हो । ब्रह्मा जी ने ऐसे गुणों वाले ज्ञानी लेखापाल की प्राप्ति के लिए एक हजार वर्ष तक तपस्या की । इसके फलस्वरूप ब्रह्मा जी के सामने एक विलक्षण बुद्धिमान एवं लेखाकर्म में निपुण पुरुष हाथ में लेखनी, दवात और पाटी लिए उपस्थित हुआ, जिसका नाम ब्रह्मा जी ने चित्रगुप्त रखा तथा उसे यमलोक में सभी प्राणियों के अच्छे-बुरे कार्यों का लेखा करने का दायित्व सौंपा।

प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थों में पृथ्वीलोक एवं अन्य लोकों के मध्य व्यक्ति के कर्म, आये, व्यय आदि की सूचनाओं के विभिन्न प्रभावों का उल्लेख मिलता है। उस समय ऐसा विश्वास था कि दान करने से सारे पाप या बुरे कर्म नष्ट हो जाते हैं तथा युद्ध में प्राण त्यागने से प्राप्त होने वाले फल को अनेक यज्ञों के फल के समान माना जाता था। इसी प्रकार जो व्यक्ति गरीबों तथा रोगियों पर दया करता है उसे लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के सुख मिलते हैं।

RBSE Class 11 Accountancy Chapter 2 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Accountancy Chapter 2 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
फ्रेडरिक श्लीगल ने “हिन्दुओं का वाङ्मय एवं प्रज्ञा” नामक पुस्तक किस भाषा में लिखी ?
(अ) हिन्दी
(ब) संस्कृत
(स) जर्मन
(द) अंग्रेजी।
उत्तर:
(स) जर्मन

प्रश्न 2.
सरस्वती के उपदेशों के आधार पर ब्रह्मा जी ने जिस महान शास्त्र का निर्माण किया उसमें अध्याय थे
(अ) एक हजार
(ब) एक लाख
(स) दस हजार
(द) दस लाख।
उत्तर:
(ब) एक लाख

प्रश्न 3.
सरस्वती के उपदेशों के आधार पर ब्रह्मा जी ने जिस महान शास्त्र का निर्माण किया, उसमें कितने श्लोक थे ?
(अ) दस करोड़
(ब) एक लाख
(स) दस लाख
(द) एक करोड़।
उत्तर:
(द) एक करोड़।

प्रश्न 4.
सृष्टि के आदिकाल में सरस्वती के उपदेशों के आधार पर एक महान शास्त्र का निर्माण किसने किया ?
(अ) चित्रगुप्त ने
(ब) यमराज ने।
(स) ब्रह्मा जी ने
(द) वेदव्यास ने।
उत्तर:
(स) ब्रह्मा जी ने

प्रश्न 5.
सम्भावित अथवा प्राप्त होने योग्य बन कहलाता था
(अ) करणीय धन
(ब) सिद्ध धन
(स) शेष धम
(द) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(अ) करणीय धन

प्रश्न 6.
वास्तविक अथवा अर्जित सम्पत्तियाँ हैं
(अ) करणीय धन
(ब) सिद्ध धन
(स) शेष धन
(द) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ब) सिद्ध धन

प्रश्न 7.
विभिन्न अध्यक्षों से प्राप्त होने वाली आय कहलाती है
(अ) खान
(ब) दुर्ग
(स) सेतु
(द) राष्ट्
उत्तर:
(ब) दुर्ग

प्रश्न 8.
निर्धारित नित्य व्यय के अतिरिक्त किया गया व्यय है
(अ) नित्य व्यय
(ब) लाभोत्पादक व्यय
(स) नित्योत्पादक व्यय
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(स) नित्योत्पादक व्यय

प्रश्न 9.
प्राचीनकाल में लेखी वर्ष की समाप्ति होती थी
(अ) कर्तिक पूर्णिमा को
(ब) आषाढ़ की अमावस्या को
(स) 31 दिसम्बर को.
(द) आषाढ़ की पूर्णिमा को
उत्तर:
(द) आषाढ़ की पूर्णिमा को

प्रश्न 10.
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का फल देने का कार्य सौंपा था
(अ) चित्रगुप्त को
(ब) इन्द्रदेवता को
(स) यमराज को
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(स) यमराज को

RBSE Class 11 Accountancy Chapter 2 अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“हिन्दुओं को वाड्मय एवं प्रज्ञा” नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं ?
उत्तर-
फ्रेडरिक श्लीगल ।

प्रश्न 2.
प्राचीन भारत में ‘वार्ता’ विद्या में क्या-क्या सम्मिलित था ?
उत्तर-
‘वार्ता विद्या में कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि सम्मिलित थे।

प्रश्न 3.
सृष्टि के आदिकाल में सरस्वती के उपदेशों के आधार पर किसने एक महान ग्रन्थ की रचना की ?
उत्तर-
ब्रह्मा जी ने।

प्रश्न 4.
ब्रह्मा द्वारा रचित महान शास्त्र में कितने अध्याय तथा श्लोक थे ?
उत्तर-
ब्रह्मा द्वारा रचित महान शास्त्र में एक लाख अध्याय तथा एक करोड़ श्लोक थे।

प्रश्न 5.
कौटिल्य द्वारा बताये गये धन के प्रकारों के नाम लिखिए।
उत्तर-
कौटिल्य द्वारा धन के निम्नलिखित तीन प्रकार बताये गये हैं

  • करणीय धन,
  • सिद्ध धन,
  • शेष धन

प्रश्न 6.
करणीय धन क्या है ?
उत्तर-
प्राचीन काल में सम्भावित अथवा प्राप्त होने योग्य धन को करणीय धन कहा जाता था।

प्रश्न 7.
सिद्ध धन से क्या आशय है ?
उत्तर-
प्राचीन काल में वास्तविक अथवा अर्जित सम्पत्तियाँ सिद्ध धन कहलाती थीं।

प्रश्न 8.
कौटिल्य के अनुसार शेष धन से क्या आशय है ?
उत्तर-
जो धन करणीय तथा सिद्ध धन के अन्तर्गत नहीं आता,उसे कौटिल्य ने शेष धन कहा है।

प्रश्न 9.
कौटिल्य ने आय सम्बन्धी विचारों को कौन-कौन-से दो वर्गों में बाँटा है ?
उत्तर-
कौटिल्य ने आय सम्बन्धी विचारों को निम्नलिखित दो वर्गों में बाँटा है

  • आय शरीर,
  • आय-मुख ।

प्रश्न 10.
कौटिल्य के अनुसार आय शरीर के दो प्रकार बताइए ।
उत्तर-

  • दुर्ग,
  • राष्ट्

प्रश्न 11.
विभिन्न वनों से प्राप्त आय को आय शरीर के किस प्रकार के अन्तर्गत रखा जाता है ?
उत्तर-
वन आय के अन्तर्गत

प्रश्न 12.
विभिन्न खनिजों से प्राप्त आय को क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
खान

प्रश्न 13.
कौटिल्य के अनुसार विभिन्न पशुओं से प्राप्त आय को क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
वज्र

प्रश्न 14.
आय मुख किसे कहते हैं ?
उत्तर-
आय के विभिन्न प्रकारों को आय मुख कहा जाता है।

प्रश्न 15.
आय मुख के कोई दो प्रकार बताइए।
उत्तर-

प्रश्न 16.
आय मुख के प्रकार के रूप में परिध का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
परिध का अर्थ लावारिस धन आदि से लिया जाता है।

प्रश्न 17.
कौटिल्य ने व्यय सम्बन्धी विचारों को कौन-कौन-से दो भागों में बाँटा है ?
उत्तर-

  • व्यय शरीर तथा
  • व्ययों का वर्गीकरण

प्रश्न 18.
कौटिल्य के अनुसार व्यय शरीर के अन्तर्गत कुल कितनी मदें आती हैं ?
उत्तर-
बाईस मदें

प्रश्न 19.
व्यय शरीर की कोई दो मदें बताइए।
उत्तर-

  • देवपूजन
  • पितृ पूजन

प्रश्न 20.
प्रतिदिन होने वाला व्यय क्या कहलाता है ?
उत्तर-
नित्य व्यय

प्रश्न 21.
लाभ व्यय से क्या आशय है ?
उत्तर-
पाक्षिक, मासिक या वार्षिक लाभ के लिए किया जाने वाला व्यय लाभ व्यय कहलाता है।

प्रश्न 22.
लाभोत्पादक व्यय को अर्थ बताइए।
उत्तर-
निर्धारित लाभ व्यय के अतिरिक्त किया गया व्यय लाभोत्पादक व्यय कहलाता है।

प्रश्न 23.
प्राचीन काल में वार्षिक लेख़ अवधि की समाप्ति कब होती थी ?
उत्तर-
आषाढ़ की पूर्णिमा को

प्रश्न 24.
अक्षपटल में रखी जाने वाली लेखा पुस्तकों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
निबन्ध पुस्तकें

प्रश्न 25.
कौटिल्य के अनुसार सन्निधाता को विगत कितने वर्षों की जानकारी होनी चाहिए ?
उत्तर-
विगत सौ वर्षों तक की

प्रश्न 26.
प्राचीन भारतीय नीति ग्रन्थों में विद्यमान एवं वर्तमान में प्रचलित लेखांकन की दो शाखाओं के नाम बताइए।
उत्तर-

  • उत्तरदायित्व लेखांकन,
  • कृषि लेखांकन

प्रश्न 27.
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने सभी जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों का यथोचित फल देने का कार्य किसे सौंपा ?
उत्तर-
यमराज को ।

प्रश्न 28.
नीतिग्रन्थों के अनुसार यमलोक में प्राणियों के कर्मों का लेखा कौन रखता है ?
उत्तर-
चित्रगुप्त

RBSE Class 11 Accountancy Chapter 2 लघु उत्तरीय प्रश्न (I)

प्रश्न 1.
फ्रेडरिक श्लीगल ने भारत के बारे में क्या कहा था ?
उत्तर-
फ्रेडरिक श्लीगल ने भारत के लगभग 200 हस्तलिखित ग्रन्थों के अध्ययन के बाद “हिन्दुओं का वाङ्मय एवं प्रज्ञा नामक पुस्तक लिखी तथा भारत के बारे में कहा कि “भारत से हमें आज तक प्राचीन विश्व के उन पृष्ठों पर प्रकाश की आशा है जो कि आज तक अंधकार से आच्छादित थे ।”

प्रश्न 2.
ग्रन्थ अथवा शास्त्र का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
ग्रन्थ अथवा शास्त्र का अर्थ उस ज्ञान और उपदेश से है जिसे मानव जाति के श्रेष्ठतम मनुष्यों ने अपने अन्तर्मन, अनुभव और विवेक से लिपिबद्ध किया है तथा जिसमें उन्होंने जीवन के विज्ञान, कला और मानव जाति के श्रेष्ठतम आदर्श बतलाये हैं।

प्रश्न 3.
नीतिशास्त्र क्या है ?
उत्तर-
नीतिशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जो मनुष्य के सही या गलत, अच्छे या बुरे आचरण की मीमांसा करता है। अर्थात् मनुष्य का कौन-सा आचरण सही है तथा कौन-सा गलत है, इसका बोध कराने वाला शास्त्र ही नीतिशास्त्र कहलाता है।

प्रश्न 4.
आय शरीर के अन्तर्गत क्या-क्या शामिल किया गया है ?
उत्तर-
ओय शरीर के अन्तर्गत आय के प्राप्ति स्थानों व साधनों के अतिरिक्त उन अध्यक्षों एवं क्षेत्रों को भी सम्मिलित किया जाता है जिनके माध्यम से या जिनके कारण से आय की प्राप्ति हुई हो।

प्रश्न 5.
आय शरीर के प्रकार के रूप में राष्ट्र का अर्थ समझाइए।
उत्तर-
कौटिल्य ने आय शरीर के सात प्रकार बताये हैं जिनमें से राष्ट्र का आशय उस आय से है जो घाट रक्षक, सीमान्तपाल, चौकीदार आदि से प्राप्त होती है।

प्रश्न 6.
आय शरीर के प्रकार के रूप में सेतु एवं वाणिक पथ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
सेतु का अर्थ- सेतु का आशय उस आय से है जो विभिन्न कृषि उपजों; जैसे-धान, फल, फूल आदि से प्राप्त होती है। वणिक-पथ का अर्थवाणिक पथ का आशय उस आय से है जो विभिन्न मार्गों; जैसे—स्थलमार्ग, जलमार्ग आदि से प्राप्त होती

प्रश्न 7.
आय मुख से क्या आशय है ? इसके विभिन्न प्रकारों का उल्लेख़ कीजिए।
उत्तर-
आय के विभिन्न प्रकारों को आय मुख कहा जाता है। आय मुख के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं

  • मूल
  • भाग
  • ब्याजी
  • परिध
  • क्लृप्त
  • रूपिक
  • अव्यय।

प्रश्न 8.
अक्षपटले या केन्द्रीय विभाग के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
प्राचीनकाल में राजव्यवस्था के सभी विभागाध्यक्ष अपने-अपने विभाग का लेखा रखते थे। इन सभी विभागों का एक समेकित लेखा भी रखा जाता था। इस प्रकार समेकित लेखा रखने वाला एक अलग विभाग था जिसे अक्षपटल या केन्द्रीय लेखा विभाग कहा जाता था।

प्रश्न 9.
ऐसी वर्तमान लेखांकन अवधारणाओं के नाम बताएं जिनके उदाहरण प्राचीन नीतिग्रन्थों में मिलते हैं।
उत्तर-

  • पृथक अस्तित्व सम्बन्धी अवधारणा
  • मिलान की अवधारणा
  • मुद्रा मापन सम्बन्धी अवधारणा
  • लेखांकन अवधि सम्बन्धी अवधारणा।

प्रश्न 10.
वर्तमान में प्रचलित लेखांकन ज्ञान के अतिरिक्त प्राचीन भारतीय लेखंकन में मिलने वाले अन्य लेखांकन विचार कौन-से हैं?
उत्तर-
वर्तमान में प्रचलित लेखांकन ज्ञान के अतिरिक्त प्राचीन भारतीय लेखांकन में मिलने वाले अन्य लेखंकन विचार निम्नलिखित हैं

  • अश्व लेखांकन (Horse Accounting),
  • कुप्य लेखांकन (Forest Accounting),
  • कोष्ठागार लेखांकन (Stores Accounting),
  • ग्राम लेखांकन (Village Accounting),
  • नगर लेखांकन (City Accounting),
  • सैन्य लेखांकन (Military Accounting),
  • हस्त्य लेखांकन (Elephant Accounting)

प्रश्न 11.
प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थों में उपलब्य प्राचीन लेखांकन विचार किन रूप में प्रासंगिकता रखते हैं ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय नीति ग्रन्थों में उपलब्ध प्राचीन लेखांकन विचार सन्तुलित सामाजिक व्यवहार को सुनिश्चित करने एवं समाज में नीतिपरक व्यवहार का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आज भी प्रासंगिक हैं।

RBSE Class 11 Accountancy Chapter 2 लघु उत्तरीय प्रश्न (II)

प्रश्न 1.
प्राचीन भारतीय ज्ञान के महत्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
ज्ञान के सभी क्षेत्रों में प्राचीन भारतीय ज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि भारत के प्राचीन ज्ञान पुंज की विश्वभर में सराहना होती रही है। अमेरिका के कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के इतिहासकार ने सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप में हुई वैज्ञानिक क्रांति के विषय में कहा है कि “यदि भारतीय ज्ञान यूरोप तक नहीं पहुँचता तो यह क्रांति नहीं हुई होती ।” फ्रेडरिक श्लीगल ने 200 भारतीय हस्तलिखित ग्रन्थों के अध्ययन के बाद कहा कि भारत से हमें आज तक प्राचीन विश्व के उन पृष्ठों पर प्रकाश की आशा है। जो कि आज तक अंधकार से आच्छादित थे।” अतः स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान अपना विशेष स्थान रखता है।

प्रश्न 2.
शास्त्र एवं नीतिशास्त्र का आशय स्पष्ट कीजिए तथा कुछ प्राचीन भारतीय नीतिशास्त्रों के नाम बताइए।
उत्तर-
प्रन्थ अथवा शास्त्र का आशय उस ज्ञान और उपदेश से है जिसे मानव जाति के श्रेष्ठतम मनुष्यों ने अपने अन्तर्मन, अनुभव और विवेक से लिपिबद्ध किया है तथा जिसमें उन्होंने जीवन का विज्ञान, कला और मानव जाति के श्रेष्ठतम आदर्श बताये हैं।

नीतिशास्त्र का आशय उस विज्ञान से है जो मनुष्य के सही या गलत, अच्छे या बुरे आचरण की मीमांसा करता है । वेद, उपनिषद्, धर्मसूत्र, स्मृतियाँ, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, योग वशिष्ठ, पुराण, विदुर नीति, भर्तृहरि का नीति-शतक, शुक्रनीति, कामंदकीय नीति,पंचतंत्र, हितोपदेश, चाणक्य नीति आदि प्राचीन भारतीय नीतिग्रन्थ हैं।

प्रश्न 3.
प्राचीनतम लेखांकन ग्रंथ के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के अनुसार सृष्टि के आदिकाल में सरस्वती ने जो उपदेश दिया था उसके आधार पर ब्रह्मा ने एक लाख अध्याय वाले, एक करोड़ श्लोकों वाले प्राचीनतम लेखांकन ग्रन्थ का निर्माण किया । कालान्तर में इस शास्त्र का विद्वानों द्वारा संक्षिप्तीकरण होता रहा। कैटिल्य अर्थशास्त्र भी इसी श्रृंखला का एक अंग है । अतः ब्रह्मा जी द्वारा रचित ग्रंथ को ही विश्व का प्राचीनतम लेखांकन ग्रन्थ माना जा सकता है।

प्रश्न 4.
कौटिल्य द्वारा बताये गये थन के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
धन (Wealth)-प्राचीन काल में धन शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होता था । कौटिल्य ने धन के निम्नलिखित तीन प्रकार बताये हैं

  • करणीय धन–सम्भावित अथवा प्राप्त होने योग्य धन को इसके अन्तर्गत रखा जाता है।
  • सिद्ध धन-इसके अन्तर्गत वास्तविक अथवा अर्जित सम्पत्तियों को रखा जाता है।
  • शेष घन-करणीय तथा सिद्ध धन के अतिरिक्त अन्य प्रकार के धन को इसके अन्तर्गत रखा जाता है।

प्रश्न 5.
कौटिल्य के अनुसार आय शरीर के अन्तर्गत क्या-क्या सम्मिलित है ? इसके विभिन्न प्रकारों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
आय शरीर कौटिल्य के अनुसार आय शरीर के अन्तर्गत आय के प्राप्ति स्थानों व साधनों के अतिरिक्त उन अध्यक्षों एवं क्षेत्रों को भी सम्मिलित किया जाता है जिनके माध्यम से या जिनके कारण से आय की प्राप्ति हुई है। आय शरीर के विभिन्न प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है

  • दुर्ग-इसके अन्तर्गत विभिन्न अध्यक्षों से प्राप्त होने वाली आय को शामिल किया जाता है।
  • राष्ट्र घाट रक्षक, सीमान्तपाल, चौकीदार आदि से प्राप्त आय को इसके अन्तर्गत रखा जाता है।
  • खान-विभिन्न खनिजों से प्राप्त आय को इसके अन्तर्गत रखा जाता है।
  • सेतु विभिन्न कृषि उपजों; जैसे-धान, फल, फूल आदि से प्राप्त आय सेतु के अन्तर्गत रखी जाती है।
  • वन–विभिन्न वनों से प्राप्त आय को इसके अन्तर्गत रखा जाता है।
  • वज्र विभिन्न पशुओं से प्राप्त आय वज्र कहलाती थी।
  • वणिक पथ विभिन्न मार्गों; जैसे—स्थलमार्ग, जलमार्ग आदि से प्राप्त आय इस शीर्षक के अन्तर्गत रखी जाती है ।

प्रश्न 6.
कौटिल्य के अनुसार आय मुख के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
आय मुख-आय के विभिन्न प्रकारों को आय मुख कहा जाता है। आय मुख के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं

  • मूल—अन्य, फल आदि की बिक्री से प्राप्त धन मूल कहलाता है।
  • भाग–यह धान्य आदि का छठा भाग होता है।
  • ब्याजी-तोल में किसी प्रकार की कमी की भरपाई के लिए किसी वस्तु के तोल में पाँच प्रतिशत अधिक लिया जाने वाला भाग ब्याजी कहलाता था।
  • परिष—इसके अन्तर्गत लावारिस धन आदि को सम्मिलित किया जाता है।
  • क्लुप्त इसमें नियत कर को शामिल किया जाता है।
  • रूपिक-नमक कर अथवा लवणाध्यक्ष को नमक की बिक्री पर मिलने वाला आठवाँ भाग रूपिक कहलाता है।
  • अव्यय दण्ड अथवा जुर्माने से प्राप्त धन अव्यय कहलाता था।

प्रश्न 7.
कौटिल्य के अनुसार व्यय शरीर के अन्तर्गत आने वाली मदें बताइए।
उत्तर-
कौटिल्य के अनुसार व्यय शरीर के अन्तर्गत निम्नलिखित बाईस मदें आती है

  • देवपूजन
  • पितृपूजन
  • दान
  • शान्ति एवं पुष्टि हेतु
  • राजपत्नी, राजपुत्र आदि
  • भोजन शाला
  • दूत
  • आयुधागार
  • कोष्ठागार
  • पण्यगृह
  • कुप्पगृह
  • कारखाना,
  • पैदल सेना
  • अश्वसेना
  • रथ सेना
  • हस्ति संग्रह
  • गौमण्डल
  • पशुवाट
  • पक्षीवाट,
  • हिंसक पशुओं की रक्षा
  • काष्टवाट
  • मजदूर

प्रश्न 8.
कौटिल्य के अनुसार व्ययों के वर्गीकरण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
व्ययों का वर्गीकरण कौटिल्य ने व्ययों की प्रकृति के अनुसार व्ययों को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया है

  • नित्य व्यय-प्रतिदिन होने वाला व्यय नित्य व्यय कहलाता है।
  • नित्योत्पादक व्यय-निर्धारित नित्य व्यय के अतिरिक्त किया गया व्यय नित्योत्पादक व्यय कहलाता है।
  • लाभ व्यय–पाक्षिक, मासिक या वार्षिक लाभ के लिए किया जाने वाला व्यय लाभ व्यय कहलाता है।
  • लामोत्पादक व्यय-निर्धारित लाभ व्यय के अतिरिक्त किया गया व्यय लाभोत्पादक व्यय कहलाता है।

प्रश्न 9.
नीवी अथवा बचत धन से क्या आशय है ?
उत्तर-
जीवी या बचत धन (Savings)-आयों में से व्ययों को घटाकर शेष बचे धन को नीवी कहा जाता है । कौटिल्य ने इसे दो भागों में बाँटकर बताया है

  • प्राप्त जो धन राजकोष में जमा किया जा चुका है, वह ‘प्राप्त’ कहलाता है।
  • अनुवृत जो धन राजकोष में जमा किया जाना है लेकिन अभी जमा नहीं किया गया है, वह अनुवृत कहलाता है।

प्रश्न 10.
पृथक् अस्तित्व की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
पृथक् अस्तित्व अवधारणा (Separate Entity Concept)–लेखांकन में व्यावसायिक संस्था का अस्तित्व उसके स्वामी के अस्तित्व से पृथक् माना जाता है, यही लेखांकन की पृथक् अस्तित्व अवधारणा है। प्राचीन भारत में भी सम्पूर्ण राष्ट्र के लेखे अक्षपटल में रखे जाते थे तथा राजा को अथर्ववेद के अनुसार राष्ट्र, भृत्य अर्थात् नौकर कहा जाता था। अतः उस समय भी पृथक् अस्तित्व सम्बन्धी अवधारणा विद्यमान थी।

प्रश्न 11.
मिलान की अवधारणा के प्राचीन भारत में मिलने वाले उदाहरणों को बताइए।
उत्तर-
कौटिल्य के मतानुसार दैनिक, पाक्षिक, मासिक, वार्षिक आदि आधारों पर आय-व्यय तथा नीवी (बचत) लेखा रखते हुए परिणाम की जानकारी प्राप्त करने के लिए क्रमशः इन्हीं अवधि में हिसाब का मिलान कर लेना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि वर्तमान में अपने ही पिछले वर्षों के लेखों से मिलान एवं अपने जैसी अन्य फर्मों के लेखों से मिलान की अवधारणा के समान ही अवधारणा थी । अतः कौटिल्य का मत वर्तमान मिलान की लेखांकन अवधारणा को स्पष्ट करता है।

प्रश्न 12.
मुद्रामापन सम्बन्धी अवधारणा के प्राचीन भारत में मिलने वाले उदाहरणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
मुद्रा मापन अवधारणा (Money Measurement Concept) इस अवधारणा के अनुसार उन्हीं लेन-देनों एवं घटनाओं का लेखा किया जाना चाहिए जिनका मुद्रा में मूल्यांकन किया जा सकता हो । प्राचीन भारत में भी लेन-देन के लिए राजा द्वारा निश्चित स्वर्ण आदि की मुद्राओं में ही वस्तुओं का मूल्य निर्धारित किया जाता था तथा उसी के आधार पर लेखांकन किया जाता था। अतः प्राचीन : काल में भी मुद्रा मापन की अवधारणा विद्यमान थी।

प्रश्न 13.
लेखांकन अवधि सम्बन्धी अवधारणा प्राचीन भारत में किस प्रकार विद्यमान थी ?
उत्तर-
लेखांकन अवधि अवधारणा (Accounting Period Concept)–लेखांकन की इस अवधारणा के अनुसार व्यवसाय के जीवन काल को छोटी-छोटी समान अवधियों में बाँटकर प्रत्येक लेखा अवधि के लिए लेखा चक्र को पूरा किया जाना चाहिए। यह लेखा अवधि सामान्यतः एक वर्ष की होती है । जो सामान्यतः प्रतिवर्ष 1 अप्रैल से प्रारम्भ होकर अगले वर्ष 31 मार्च को समाप्त हो जाती है। प्राचीन काल में लेखा वर्ष की समाप्ति आषाढ़ मास की पूर्णिमा को होती थी तथा आय व्यय एवं नीवी (बचत) का परिणाम तुरन्त जानने के लिए दैनिक, पाक्षिक, मासिक, तिमाही, वार्षिक आदि आधारों पर लेखों का मिलान किया जाता था। अतः प्राचीन काल में भी लेखांकन अवधि अवधारणा विद्यमान थी।

प्रश्न 14.
लेखांकन की एकरूपता सम्बन्धी परम्परा के प्राचीन भारतीय लेखांकन में मिलने वाले उदाहरणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
एकरूपता सम्बन्धी परम्परा (Convention of Consistency)–लेखांकन की एकरूपता सम्बन्धी अवधारणा के अनुसार लेखांकन प्रविधियों एवं सिद्धान्तों में अनावश्यक परिवर्तन नहीं होने चाहिए जिससे कि एक ही विधि से तैयार लेखों का मिलान करके संस्थान की प्रगति का अध्ययन आसानी से किया जा सके। कौटिल्य के अनुसार, सन्निधाता को विगत सौ वर्षों तक के आय-व्यय की अच्छी जानकारी होनी चाहिए थी तथा बहियाँ भी सुरक्षित रखनी चाहिए थी जिससे कि वह आवश्यक होने पर राजा को आय-व्यय की जानकारी दे सके। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय लेखों में भी एकरूपता की परम्परा का विचार विद्यमान था।

प्रश्न 15.
पारलौकिक लेखांकन क्या है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
पारलौकिक लेखांकन (Eternal Accounting)-प्राचीन भारतीय नीतिग्रंथों में पृथ्वीलोक के अतिरिक्त अन्य लोकों अथवा परलोक का भी वर्णन मिलता है। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने अच्छे या बुरे कर्मों के अनुसार विभिन्न लोकों में फल भोगता है अथवा दण्ड पाता है। इस प्रकार प्राचीन भारतीय मान्यता में पारलौकिक लेखांकन की अवधारणा विद्यमान थी। नीतिग्रन्थों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि यमलोक में चित्रगुप्त सभी प्राणियों के अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा रखते हैं तथा यमराज उसी के अनुसार जीवधारियों को फल या दण्ड देते हैं।

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