RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 1 जय सुरभारति

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Rajasthan Board RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 1 जय सुरभारति

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 1 जय सुरभारति अभ्यास-प्रश्नाः

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 1 जय सुरभारति वस्तुनिष्ठप्रश्नाः

जय सुरभारती हिंदी अनुवाद 1.
निम्नलिखितेषु पदेषु संबोधनपदं नास्ति
(अ) भगवति
(आ) सुरभारति
(इ) वागीश्वर
(ई) मानसहंसे

जय सुरभारती पाठ का हिंदी अनुवाद 2.
अस्यां वन्दनायाम् आहत्य कति सम्बोधन-पदानि सन्ति
(अ) सप्त
(आ) अष्टौ
(इ) दश
(ई) त्रीणि

जय जय हे भगवती सुरभारती का हिंदी अर्थ 3.
अस्यां गीत्यां कस्याः वन्दना विधीयते
(अ) वाग्देव्याः
(आ) दुर्गायाः
(इ) भारतमातुः
(ई) ललितकलायाः

जय जय हे भगवती सुर भारती का हिंदी अर्थ 4.
‘वागीश्वरी’ इत्यत्र सन्धि-विच्छेदः अस्ति
(अ) वाक् + ईश्वरी
(आ) वाग + ईश्वरी
(इ) वागी + श्वरी
(ई) वागी + इश्वरी

उत्तराणि:

1. ई
2. इ
3. अ
4 अ

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 1 जय सुरभारति लघूत्तरात्मक – प्रश्नाः

1. ‘जय जय हे भगवति सुरभारति’ इत्यस्याः गीतेः रययिता कोइस्ति?
(‘जय जय हे भगवति सुरभारति’ इस गीत का रचयिता कौन है?)
उत्तरम्:
डाँ. हरिराम आचार्यः।
(डॉ. हरिराम आचार्य)

2. कति काव्यरसाः सन्ति? केषाञ्चन त्रयाणां रसानां नामानि लिखन्तु।
(रस कितने होते हैं? किन्हीं तीन रसों के नाम लिखिए।)
उत्तरम्:
नव रसाः भवन्ति। श्रृंगारः, करुणः, रौद्रश्चैते त्रयः रसाः।
(रस नौ होते हैं। श्रृंगार, करुण और रौद्र ये तीन रस हैं)

3. ‘मानस-हंसः’, इति अस्य किं अर्थद्वयं कर्तुं शक्यते?
(‘मानस-हंसः’ इस पद के कौन से दो अर्थ किये जा सकते हैं?)
उत्तरम्:

  1. मानसरोवरस्थे हंस’ (मानसरोवर में स्थित हंस पर ।)
  2. मानसरूप हंसे (हृदयरूपी हंस पर)।

4. ‘सितपङ्कजम्’ इत्यस्य पर्यायशब्दत्रयं लिखन्तु। (‘सितपङ्कजम्’ इस पद के तीन पर्यायवाची शब्द लिखें।)
उत्तरम्:

  1.  श्वेत कमलम्
  2. पुण्डरीकम्
  3. सितपङ्कजम्

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 1 जय सुरभारति निबन्धात्मक – प्रश्नाः

1. “आसीना भव ……. विमले।” इति पद्यं हिन्दीभाषया अनूद्यताम्।
(“आसीना भव ……. विमले”। इस पद्य का हिन्दी भाषा में अनुवाद करें।)
उत्तरम्:
पद्यांश-3 का हिन्दी-अनुवाद देखें।

2. “त्वमसि शरण्या ……. रुचिराभरणा।” इति पद्यं संस्कृतेन व्याख्यायताम्।
(“त्वमसि शरणया ……. रुचिराभरणा।” इस पद्य की संस्कृत में व्याख्या करिए।)
उत्तरम्:
पद्यांश-2 की सप्रसंग संस्कृत व्याख्या देखें।

RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 1 जय सुरभारति अन्य महत्वपूर्ण – प्रश्नोत्तराणि

अधोलिखितप्रश्नान् संस्कृतभाषया पूर्णवाक्येन उत्तरत – (निम्नलिखित प्रश्नों के संस्कृत भाषा में पूर्ण वाक्य में उत्तर दीजिए-)

सुरभारती का अर्थ प्रश्न 1.
जयतु सुरभारति’ इति गीतिः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलिता?
(‘जयतु सुरभारति’ यह गीत किस ग्रन्थ से संकलित है?)
उत्तरम्:
‘जयतु सुरभारति’ इति गीति: ‘मधुच्छन्दा’ इति गीति-संग्रहात् संकलिता।
(‘जयतु सुरभारति’ यह गीत ‘मधुच्छन्दा’ गीति-संग्रह ग्रन्थ से संकलित है।)

जय सुरभारति प्रश्न 2.
‘मधुच्छन्दा’ इति ग्रन्थस्य रचयिता कः?
(‘मधुच्छन्दा’ ग्रन्थ का रचयिता कौन है?)
उत्तरम्:
‘मधुच्छन्दा’ इति ग्रन्थस्य रचयिता डॉ. हरिराम आचार्यः अस्ति।
(‘मधुच्छन्दा’ ग्रन्थ के रचयिता डॉ. हरिराम आचार्य हैं।)।

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 1 जय सुरभारती प्रश्न 3.
कविः कस्य चरणयोः प्रणमति?
(कवि किसके चरणों में प्रणाम करता है?)
उत्तरम्:
कविः भगवत्याः सुरभारत्याः चरणयोः प्रणमति।
(कवि भगवती सुरभारती के चरणों में प्रणाम करता है।)

जय सुरभारती प्रश्न 4.
सुरभारती’ केन युक्ता अस्ति?
(सुरभारती किससे युक्त है?)
उत्तरम्:
सुरभारती नाद-ब्रह्ममयी अस्ति।
(सुरभारती नादब्रह्ममयी है।)

जय जय हे भगवती सुर भारती का अर्थ प्रश्न 5.
सुरभारती कस्य ईश्वरी कथ्यते?
(सुरभारती किसकी स्वामिनी कहलाती है?)
उत्तरम्:
सुरभारती वाचाम् ईश्वरी कथ्यते।
(सुरभारती वाणी की स्वामिनी कहलाती है।)

RBSE Solutions For Class 10 Sanskrit प्रश्न 6.
वयं कस्य शरणं गच्छामः?
(हम किसकी शरण में जाते हैं ?)
उत्तरम्:
वयं सुरभारत्याः शरणं गच्छामः।
(हम सुरभारती की शरण में जाते हैं।)

RBSE Solutions For Class 10 Sanskrit 2021 प्रश्न 7.
शरण्या का उक्ता?
(शरण देने वाली किसे कहा गया है?)।
उत्तरम्:
सुरभारती शरण्या उक्ता।
(सुरभारती को शरण देने वाली कहा गया है।)

सुरभारती प्रश्न 8.
कुत्र धन्या सुरभारती?
(सुरभारती कहाँ धन्य (श्रेष्ठ) है?)
उत्तरम्:
त्रिभुवने धन्या सुरभारती।
(तीनों भुवनों में सुरभारती धन्य है।)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ्यक्रम RBSE 2021 प्रश्न 9.
‘जय सुरभारति!’ इति कीदृशी गीतिः?
(सुरभारती कैसा गीत है?)
उत्तरम्:
‘जय-सुरभारति!’ इति वाणी-वन्दना-गीतिः अस्ति।
(‘जय सुरभारति!’ यह वाणी की वन्दना का गीत है।)

RBSE 10th Sanskrit Book प्रश्न 10.
‘मधुच्छन्दा इति गीति संग्रहं कदा रचितम्?
(‘मधुच्छन्दा’ गीति संग्रह कब रचा गया?)
उत्तरम्:
मधुच्छन्दा इति गीति-संग्रहम् ईस्वीये वर्षे 1966 तमे रचितम्।।
(‘मधुच्छन्दा’ यह गीत संग्रह सन् 1966 ईसवी वर्ष में रचा गया।)

Class 10 RBSE Sanskrit Book प्रश्न 11.
‘मधुच्छन्दा’ केन रागेण उपनिबद्धा कृतिः?
(मधुच्छन्दा किस राग में उपनिबद्ध (रची हुई) कृति है?)
उत्तरम्:
मधुच्छन्दा वसन्त बहार रागेण उपनिबद्धा कृतिः?
(मधुच्छन्दा वसन्तबहार राग में निबद्ध कृति है।)

RBSE Sanskrit Solution Class 10 2021 प्रश्न 12.
सुरभारत्याः चरणयोः के वन्दन्ते?
(सुरभारती के चरणों की वन्दना कौन करते हैं?)
उत्तरम्सु:
रभारत्याः चरणयोः सुराः मुनयश्च वन्दन्ते।

(सुरभारती के चरणों की देव और मुनिजन वन्दना करते हैं।)

RBSE Solution Sanskrit Class 10 प्रश्ना 13.
काव्ये कति रसाः भवन्ति?
(काव्य में कितने रस होते हैं?)
उत्तरम्:
काव्ये नवरसाः भवन्ति।
(काव्य में नौ रस होते हैं।)

Spandana Sanskrit Book Class 10 प्रश्न 14.
नवरसानां नामानि लिखत।
(नौ रसों के नाम लिखिए।)
उत्तरम्:
शृङ्गारः, हास्यं, करुण: रौद्रः, वीरः, भयानकः, वीभत्सः अद्भुतं, शान्तः च एते नव काव्य रसाः।
(शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त ये नौ काव्य रस हैं।)

Sanskrit Book Class 10 RBSE प्रश्न 15.
सुरभारती कैः मधुरा अस्ति?
(सुरभारती किनसे मधुर है?)
उत्तरम्:
सुरभारती नवरसैः मधुरा अस्ति।
(सुरभारती नौ रसों से मधुर है।)

Class 10 RBSE Solutions Sanskrit प्रश्न 16.
सुरभारती केन मुखरा भवति?
(सुरभारती किससे मुखरित होती है?)
उत्तरम्:
सुरेभारती कवितया मुखरा भवति।
(सुरभारती कविता के माध्यम से मुखरित होती है।)

Class 10 Sanskrit Book RBSE प्रश्न 17.
का स्मिति-रुचिः?
(मन्द हँसी युक्त कौन है?)
उत्तरम्:
सुरभारती स्मिति-रुचिः अस्ति।
(सुरभारती मन्द हँसी से युक्त है।)

RBSE Solution Class 10 Sanskrit प्रश्न 18.
सुरभारती किं धारयति?
(सुरभारती क्या धारण करती है?)
उत्तरम्:
सुरभारती रुचिराभरणानि धारयति।
(सुरभारती सुन्दर आभूषण धारण करती है।)

Class 10 Sanskrit RBSE Solution प्रश्न 19.
कविः सुरभारत्यै कुत्र आसितुं निवेदयति?
(कवि सुरभारती को कहाँ बैठने के लिए निवेदन करता है?)
उत्तरम्:
कविः सुरभारत्यै मानसहंसे आसितुं निवेदयति।
(कवि सुरभारती से मानस के हंस पर बैठने के लिए निवेदन करता है।)

RBSE Class 10 Sanskrit Solutions प्रश्न 20.
सुरभारती कीदृशी धवला?
(सुरभारती कैसी सफेद है?)
उत्तरम्:
सुरभारती कुन्द-तुहिन-शशि इव धवला।
(सुरभारती चमेली, बर्फ और चन्द्रमा की तरह सफेद है।)

Sanjiv Pass Book Class 10 Sanskrit Pdf Download प्रश्न 21.
जडतां का हरति?
(मूर्खता को कौन दूर करती है?)
उत्तरम्:
जडतां सुरभारती हरति।
(मूर्खता को सुरभारती दूर करती है।)

RBSE Solutions Class 10 Sanskrit प्रश्न 22.
सुरभारती कस्य विकासं करोति?
(सुरभारती किसका विकास करती है?)
उत्तरम्:
सुरभारती ज्ञानस्य विकासं करोति।
(सुरभारती ज्ञान का विकास करती है।)

RBSE Solutions For Class 10th Sanskrit प्रश्न 23.
सुरभारत्याः तनुः किंवत् विमलमस्ति?
(सुरभारती का शरीर किसकी तरह निर्मल है?)
उत्तरम्:
सुरभारत्या: तनु: श्वेत कमलम् इव विमलम् अस्ति।
(सुरभारती का शरीर श्वेत कमल के समान निर्मल है।)

RBSE Sanskrit Solution Class 10 प्रश्न 24.
सुरभारती केन विभाति?
(सुरभारती किससे शोभा देती है?)
उत्तरम्:
सुरभारती ज्ञानेन विभाति।
(सुरभारती ज्ञान से शोभा देती है।)

RBSE Class 10 Sanskrit Book Pdf Download प्रश्न 25.
‘शरणं ते गच्छामः’ अत्रं ‘ते’ इति सर्वनाम पदं कस्य पदस्य स्थाने प्रयुक्तम्?
(‘शरणं ते गच्छामः’ यहाँ ‘ते’ सर्वनामपद किस पद के स्थान पर प्रयुक्त है?)
उत्तरम्:
‘ते’ इति सर्वनाम पदं ‘सुरभारत्याः’ इति पदस्थाने प्रयुक्तम्।
(‘ते’ सर्वनाम पद ‘सुरभारत्याः’ पद के स्थान पर प्रयोग हुआ है।)

स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत – (मोटे पदों के आधार पर प्रश्न निर्माण कीजिए)

RBSE Class 10 Sanskrit प्रश्न 1.
सुरभारती कुण्ठा विषं हरति।
(सुरभारती कुण्ठा के जहर को दूर करती है।)
उत्तरम्:
सुरभारती कि हरति?
(सुरभारती क्या दूर करती है?)

RBSE Solution Class 10th Sanskrit प्रश्न 2.
मतिरास्तान्नो तव पद कमले।
(हमारी बुद्धि तेरे चरण कमलों में हो।)
उत्तरम्:
नः मतिः कुत्र आस्ताम् ?
(हमारी बुद्धि कहाँ हो?)

Spandana Sanskrit Book Class 10 Pdf Download प्रश्न 3.
सुरभारती वीणां-पुस्तकं धारयति।
(सुरभारती वीणा और पुस्तक धारण करती है।)
उत्तरम्:
सुरभारती किं धारयति ?
(सुरभारती क्या धारण करती है?)

RBSE Class 10th Sanskrit Solution प्रश्न 4.
सुरभारती ललित कलामयी अस्ति।
(सुरभारती ललित कलाओं से युक्त है।)
उत्तरम्:
ललित कलामयी अस्ति?
(ललित कलाओं से युक्त कौन है?)

Sanskrit Class 10 RBSE प्रश्न 5.
सुरभारती ज्ञान-विभा युक्ता।
(सुरभारती ज्ञान की कान्ति से युक्त है।)
उत्तरम्:
सुरभारती कया युक्ता?
(सुरभारती किससे युक्त है?)

10 वीं कक्षा संस्कृत पुस्तक Pdf Download प्रश्न 6.
भगवति! जडतां हर।
(हे भगवती जडता को हरो।)
उत्तरम्:
भगवती किं हरतु?
(भगवती किसको दूर करे।)

RBSE 10th Sanskrit Solution प्रश्न 7.
देवी सुरभारती मानस हंसे आसीना भवति।
(देवी सुरभारती मानस के हंस पर आसीन होती है।)
उत्तरम्:
देवी सुरभारती कुत्र आसीना भवति?
(देवी सुरभारती कहाँ आसीन होती है?)

10th Class Sanskrit Book RBSE प्रश्न 8.
सुरभारती बोधेः विकासं करोति।
(सुरभारती ज्ञान का विकास करती है।)
उत्तरम्:
सुरभारती कस्य विकासं करोति ?
(सुरभारती किसका विकास करती है?)

RBSE Class 10 Sanskrit Book प्रश्न 9.
सुरभारत्याः आभरणानि रुचिराणि सन्ति।
(सुरभारती के आभूषण सुन्दर हैं।)
उत्तरम्:
रभारत्याः आभरणानि कीदृशानि सन्ति?
(सुरभारती के आभूषण कैसे हैं?)

Surbharti Meaning In Hindi प्रश्न 10.
भगवती सुरभारती नवरसैः मधुरा अस्ति।
(भगवती सुरभारती नौ रसों से मधुर है।)
उत्तरम्:
भगवती सुरभारती कतिभिः रसैः मधुरा अस्ति?
(भगवती सुरभारती कितने रसों से मधुर है?)

RBSE Solution Of Class 10 Sanskrit प्रश्न 11.
सुरभारती स्मितरुचिः अस्ति।
(सुरभारती मृदुहास की छवि वाली है।)
उत्तरम्:
सुरभारती कीदृशी अस्ति?
(सुरभारती कैसी है?)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ्यक्रम RBSE 2021 प्रश्न 12.
सुरभारती कवितायाः माध्यमेन मुखरा भवति।
(सुरभारती कविता के माध्यम से मुखर होती है।)
उत्तरम्:
सुरभारती कस्याः माध्यमेन मुखरा भवति?
(सुरभारती किसके माध्यम से मुखर होती है।)

RBSE Class 10 Sanskrit Chapter 3 Hindi Translation प्रश्न 13.
सुरभारती सुर-मुनि वन्दित चरणा अस्ति।
(सुरभारती देवताओं व मुनियों द्वारा चरण वंदित है)
उत्तरम्:
सुरभारती कैः वन्दित चरणा अस्ति?
(सुरभारती किसके द्वारा चरण वंदित है।)

RBSE Class 10 Sanskrit Solution प्रश्न 14.
सुरभारती शरण्या अस्ति।
(सुरभारती आश्रयदात्री है।)
उत्तरम्:
का शरण्या अस्ति?
(आश्रयदात्री कौन है?)।

Sanskrit Class 10 RBSE Solutions प्रश्न 15.
सा त्रिभुवनेषु धन्या अस्ति।
(वह तीनों लोकों में श्रेष्ठ है।)
उत्तरम्:
सा केषु धन्या अस्ति?
(वह किनमें श्रेष्ठ है?)

Sanskrit Solution Class 10 RBSE प्रश्न 16.
नाद-ब्रह्मयुक्ता सुरभारती।
(सुरभारती नादब्रह्म से युक्त है।)
उत्तरम्:
सुरभारती केन युक्ता?
(सुरभारती किससे युक्त है?)

प्रश्न 17.
कविः सुरभारत्याः शरणं गच्छति।
(कवि सुरभारती की शरण में जाता है।)
उत्तरम्:
विः कस्याः शरणं गच्छति?
(कवि किसकी शरण में जाता है?)

प्रश्न 18.
सुरभारती एव वागीश्वरी।
(सुरभारती ही वाणी की स्वामिनी है।)
उत्तरम्:
का वागीश्वरी?
(वाणियों की स्वामिनी कौन है?)

पाठ – परिचयः

यह वाणी (सरस्वती) की प्रार्थना का गीत है। यह सरल और रसयुक्त प्रार्थना का गीत कवियों में श्रेष्ठ डॉ. हरिराम आचार्य द्वारा रचा गया है। सन् 1966 ईस्वी वर्ष में रचित यह गीत वसन्तबहार राग में निबद्ध ‘मधुच्छन्दा’ नाम के ग्रन्थ से संकलित और लोक में सुप्रसिद्ध वास्तव में कवि की आदि (प्रथम) गीत-रचना थी क्योंकि जो बहुत जगह पर प्रकाशित, आकाशवाणी और दूरदर्शन से बहुत दिनों तक प्रसारित और प्रचारित की गई।

[ मूलपाठ, अन्वय, शब्दार्थ, हिन्दी-अनुवाद एवं सप्रसङ्ग संस्कृत व्याख्या ]

1. जय जय हे भगवति सुरभारति! तव चरणौ प्रणमामः।
नाद-ब्रह्ममयि जय वागीश्वरि! शरणं ते गच्छामः ॥ 1 ॥

अन्वय :
हे भगवति सुरभारति ! जय जय। (वयं) तव चरणौ प्रणमामः। नाद-ब्रह्ममयि (हे) वागीश्वरि ! जय। (वयं) ते शरणं गच्छामः।

शब्दार्था:
सुरभारति = शब्दस्य अधिष्ठात्रि देवि! (सरस्वती !)। नाद-ब्रह्ममयि = शब्दब्रह्म युक्ते (शब्द ब्रह्म से युक्त)। वागीश्वरि = वाचाम् ईश्वरी (वाणी की स्वामिनी) । शरणम् = आश्रयम् (आश्रय)।

हिन्दी-अनुवाद:
हे देवी, सरस्वती तुम्हारी जय हो (हम) तुम्हारे चरणों में प्रणाम करते हैं। हे शब्द-ब्रह्ममयी वाणी की स्वामिनी (हम) आपकी शरण में जाते हैं।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंग:
पद्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य’ ‘जय सुरभारति’ इति पाठात् उद्धृतः। गीतिरियं मूलतः डॉ. हरिराम आचार्य विरचितात् ‘मधुच्छन्दा’ इति ग्रन्थात् संकलिता। अस्मिन् पद्यांशे कवि: देवी सुरभारत वन्दते।।

(यह पद्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य-पुस्तक के ‘जय सुरभारति’ पाठ से उद्धृत है। यह गीत मूलत: डॉ. हरिराम आचार्य रचित ‘मधुच्छन्दा’ ग्रन्थ से सङ्कलित है। इस गद्यांश में कवि देवी सुरभारती की वन्दना करता है-)

व्याख्या:
हे देवि! शब्दस्याधिकारिणि सरस्वति ते सदैव विजयः भवतु ! वयं ते पादयोः नमाम:। हे शब्द ब्रह्म युक्ते वाचाम् ईश्वरी देवि वयं तव आश्रयं यामः। देहि माम् आश्रयं स्वीकरोतु च मे प्रणतिततिम्।।

(हे देवी, शब्द की अधिकारिणी सरस्वती तेरी सदैव विजय हो। हम तुम्हारे चरणों में नमस्कार करते हैं। हे शब्द ब्रह्ममयी वाणी की स्वामिनी देवी हम तुम्हारे आश्रय में जाते हैं। मुझे आश्रय दो और मेरी प्रणाम पंक्ति को स्वीकार करो।)

व्याकरणिक-बिन्दव:
सुरभारति = सुराणाम् भारती (सम्बोधन षष्ठी तत्पुरुष) । वागीश्वरी = वाचाम् ईश्वरी (षष्ठी तत्पुरुष) । चरणौ = चर् + ल्युट् (प्रथम, द्विवचन)।

2. त्वमसि शरण्या त्रिभुवनधन्या, सुर-मुनि-वन्दित-चरणी।
नवरस-मधुरा कविता-मुखरा, स्मित-रुचि-रुचिराभरणा ॥ 2 ॥

अन्वय:
(हे भगवति !) त्वम् शरण्या, त्रिभुवनधन्या, सुर-मुनि-वन्दित-चरणा, नवरस-मधुरा, कविता-मुखरा, स्मित-रुचिः, रुचिराभरणा च असि।
शब्दार्था: शरण्या = आश्रयभूता (सहारा)। त्रिभुवनधन्या = त्रिलोकेश्रेष्ठ (तीनों लोकों में श्रेष्ठ)। सुर-मुनि-वन्दित-चरणा = देवैः, मुनिभिः च वन्दितौ चरणौ यस्याः सा (देव, मुनियों द्वारा जिसके चरणों की वन्दना की गई है)। नवरस-मधुरा = शृङ्गारादिभिः नव साहित्यिक (काव्य) रसैः माधुर्यमयी। (शृंगार आदि नौ काव्य-रसों से मधुर)। कविता-मुखरा = कविता-रूपेण शब्दायमाना, अभिव्यञ्जिता (कविता के रूप में अभिव्यक्त होने वाली)। स्मित-रुचिः = मन्दहासयुक्ता छवि: (मन्द-मन्द मुस्कान युक्त छविवाली)। रुचिराभरणा = सुन्दरैः आभूषणैः उपेता (सुन्दर आभूषणों से युक्त)।

हिन्दी-अनुवाद:
(हे देवी) तुम आश्रय प्रदान करने वाली, तीनों लोकों में श्रेष्ठ, देवों और मुनियों द्वारा जिसके चरणों की वन्दना की जाती है, श्रृंगार आदि नौ काव्य रसों से माधुर्यमयी, कविता के माध्यम से व्यक्त होने वाली, मधुर मुस्काने वाली तथा सुन्दर आभूषणों से युक्त हो।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसङ्ग:
पद्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘जय सुरभारति’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतः इयं गीति: डॉ. हरिराम आचार्य विरचितात् ‘मधुच्छन्दा’ इति ग्रन्थात् सङ्कलिता । अत्र कविः सुरभरित्या: सद्गुणान् वर्णयन् कथयति-

(यह पद्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य-पुस्तक के ‘जय सुरेभारतिः’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह गीत डॉ. हरिराम आचार्य द्वारा रचित ‘मधुच्छन्दा’ ग्रन्थ से संकलित है। यहाँ कवि (गीतकार) सुरभारती के गुणों का वर्णन करते हुए कहता है-)

व्याख्या:
हे देवि सुरभारति त्वम् आश्रयप्रदायिनी, त्रिलोके श्रेष्ठी, देवै: मुनिभिः च वन्दितौ चरणौ यस्याः सा शृङ्गारादिभिः नव-काव्य-रसै: माधुर्यमयी, कविता रूपेण अभिव्यञ्जिता, मृदु-हासयुता, सुन्दराभूषणैः च शोभिता असि। एवं त्वम् अति मनोहरा असि।

(हे देवी सुरभारती ! तुम सहारा देने वाली, तीनों लोकों में श्रेष्ठ, देव-मुनियों द्वारा जिसके चरणों की वन्दना की जाती है ऐसी, नौ काव्य रसों से माधुर्यमयी, कविता के रूप में अभिव्यक्त होने वाली, मन्द मुस्कान युक्त तथा सुन्दर आभूषणों वाली हो। इस प्रकारे तुम अत्यन्त मन को आकर्षित करने वाली हो ।)

व्याकरणिक-बिन्दव:
त्रिभुवनधन्या = त्रिषु भुवनेषु धन्या (कर्मधारय, सप्तमी तत्पुरुष)। सुर-मुनि-वन्दित-चेरणा = सुरैः मुनिभिः वन्दितौ चरणौ यस्याः सा (बहुव्रीहि समास)। नवरेसमधुरा = नवरसैः मधुरा (तृतीया तत्पुरुष)। रुचिराभरणी = रुचिराणि आभरणानि यस्याः सा (बहुव्रीहि समास)।

3. आसीना भव मानस-हंसे,
कुन्द-तुहिने-शशि-धवले!
हर जडतां कुरु बोधि-विकास,
सित-पङ्कज-तनु-विमले! ॥ 3॥

अन्वय:
हे कुन्द-तुहिने-शशि-धवले ! सित-पङ्कज-तनु-विमले! मानस हंसे (त्वं मम मानसे) आसीना भव, जडतां हरे, बोधि-विकासं च कुरु।

शब्दार्था:
मानस हंसे = सरोवरस्थे हंसे, मनोरूपिणे हंसे (मानसरोवर के हंस पर या मेरे हृदयरूपी हंस पर)। आसीना-भव = तिष्ठतु (विराजें)। कुन्द-तुहिन-शशि-धवले = कुन्दपुष्प, हिम, चन्द्र-इव शुभ्रा (चमेली के फूल, बर्फ और चन्द्रमा की तरह श्वेत)। जडताम् = अज्ञानम् (मूर्खता को) बोधि-विकासम् = ज्ञानस्य विस्तारम् (ज्ञान का विकास)। हर = दूरीकुरु (दूर कर)। सित-पङ्कज-तनु-विमले = श्वेत-कमल इवे-वपु-निर्मले (सफेद कमल के समान निर्मल शरीर वाली।)

हिन्दी-अनुवाद:
हे चमेली, बर्फ और चन्द्रमा के समान शुभ्र, श्वेत कमल के समान निर्मल शरीर वाली (देवी सुर भारती) तुम मानसरोवर के राजहंस पर अर्थात् मेरे हृदयरूपी हंस पर विराजें, मूर्खता को हरें (दूर करो) तथा ज्ञान का विकास करो।

सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसङ्ग:
पद्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘जय सुरभारति’ इति पाठात् उदधृतः। गीतिरियं मूलत: डॉ. हरिराम आचार्य विरचितात् ‘मधुच्छन्दा’ इति ग्रन्थात् सङ्कलिता। गीतांशेऽस्मिन् कविः सुरभारत्या: वैशिष्ट्यं वर्णयन्। कथयति-

(यह पद्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य-पुस्तक के ‘जय सुरभारति’ पाठ से लिया गया है। यह गीत मूलत: डॉ. हरिराम आचार्य रचित ‘मधुच्छंदा’ ग्रन्थ से संकलित है। इस गीत के अंश में कवि सुरभारती की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहता है-)

व्याख्या:
हे कुन्द-हिम-चन्द्रादीव शुभ्रा, श्वेत कमलमिव निर्मल कलेवरा, त्वं मानसरोवरस्थे हंसे तिष्ठतु, मम मूर्खता। दूरी कुरु ज्ञानस्य च विकास कुरु। हे शुभ्रे मम हृदय-हंसे आरूढा सती मह्यं ज्ञानं देहि।

(हे चमेली, बर्फ, चन्द्रमा आदि की तरह शुभ्र, श्वेत कमल जैसे निर्मल शरीर वाली (देवी सुरभारती, तुम मानसरोवर के हस पर विराजे अर्थात् मेरे, हृदयरूपी हंस पर बैठें, मेरी मूर्खता को दूर करें तथा ज्ञान विस्तार करें।)

व्याकरणिक-बिन्दव:
आसीना = आस् + शानच् + टाप्। मानस-हंसे =: मानसस्य हंसे (षष्ठी तत्पुरुष समास)।

4. ललित-कलामयि, ज्ञान-विभोमयि, वीणा-पुस्तक-धारिणि!
मतिरास्तान्नो तव पद-कमले अयि कुण्ठा-विष हारिणि! ॥4॥

अन्वय:
हे ललित-कलामयि, ज्ञानविभामयि, वीणा-पुस्तक-धारिणि, अयि कुण्ठा-विष-हारिणि न: मतिः तव पदकमले आस्ताम् ।।

शब्दार्था:
ललिते-कलामयि = ललितकलाभिः समन्विते (हे ललित कलाओं से युक्त)। ज्ञानविभामयि = ज्ञान-कान्ति-युक्ते (ज्ञानरूपी कान्ति को धारण करने वाली)। पदकमले = चरण-कमले पाद पद्मयोः उपविष्टा (कमल जैसे चरणों वाली)। मतिः = बुद्धि । नः = अस्माकम् (हमारी)। आस्ताम् = स्यात् (लगी रहे करे)। कुण्ठाविषहारिणि = कुण्ठायोः हलाहलं विनाशिनी (कुंठा रूपी जहरे को नष्ट करने वाली ।)

हिन्दी-अनुवाद:
हे ललित कलाओं से युक्त, ज्ञान की कान्ति (चमक) से युक्त, वीणा तथा पुस्तक धारण करने वाली, हे कुण्ठारूपी जहर को दूर करने वाली (मेरी यही प्रार्थना है कि) मेरी बुद्धि सदैव आपके चरण-कमल में लगी रहे।

सप्रसंग संस्कृत व्याख्या

प्रसङ्ग:
पद्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘जय-सुरेभारति !’ इति पाठात् उद्धृतः। पाठोऽयम् डॉ. हरिराम आचार्य कृत ‘मधुच्छन्दा’ इति गीति-संग्रहात् सङ्कलितः। अस्मिन् पद्यांशे गीतकार: स्वबुद्धिं सुरभरित्याः चरण-कमले निक्षेप्तुमिच्छति।

(यह पद्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘जय सुरभारति!’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ डॉ. हरिराम आचार्य रचित मधुच्छन्दा गीत-संग्रह से संकलित है। इस पद्यांश में गीतकार अपनी बुद्धि को सुरभारती के चरण-कमलों में लगाने की प्रार्थना करता है-)

व्याख्या:
हे नृत्य सङ्गीतादिभिः कलाभिः समन्विते ज्ञानस्य कान्तिना युक्ते, हस्तयो: वीणां पुस्तकं च धारयन्ती, हे कुण्ठायाः हालाहलम् अपसारिणि (अहमीहे यत्) अस्माकं बुद्धिः ते पादपद्मयोः तिष्ठतु। सदैव ते चरणयोः सेवको भवामि।

(हे नृत्य संगीतादि कलाओं से युक्त, ज्ञान की कान्ति से युक्त, हाथों में वीणा और पुस्तक धारण करने वाली, हे कुण्ठा के जहर को दूर करने वाली (मेरी इच्छा है कि) हमारी बुद्धि सदैव आपके चरण कमलों में रहे अर्थात् आपका चरण सेवक रहूँ।)

व्याकरणिक-बिदव:
मतिरास्तान्नो = मतिः + आस्ताम् + नः (विसर्ग एवं हल् सन्धि) पदकमले = पदौ कमले इव। (कर्मधारय)।

पाठ-परिचय:

यह वाणी (सरस्वती) की प्रार्थना का गीत है। यह सरल और रसयुक्त प्रार्थना का गीत कवियों में श्रेष्ठ डॉ. हरिराम आचार्य द्वारा रचा गया है। सन् 1966 ईस्वी वर्ष में रचित यह गीत वसन्तबहार राग में निबद्ध ‘मधुच्छन्दा’ नाम के ग्रन्थ से संकलित और लोक में सुप्रसिद्ध वास्तव में कवि की आदि (प्रथम) गीत-रचना थी क्योंकि जो बहुत जगह पर प्रकाशित, आकाशवाणी और दूरदर्शन से बहुत दिनों तक प्रसारित और प्रचारित की गई।

मूलपाठ, अन्वय, शब्दार्थ, हिन्दी-अनुवाद एवं सप्रसङ्ग संस्कृत व्याख्या

1. जय जय हे भगवति सुरभारति! तव चरणौ प्रणमामः।
नादे-ब्रह्ममयि जय वागीश्वर! शरणं ते गच्छामः॥1॥

अन्वयः-हे भगवति सुरभारति! जय जय। (वयं) तव चरणौ प्रणमामः। नाद-ब्रह्ममयि (हे) वागीश्वरि ! जय। (वयं) ते शरणं गच्छामः।

शब्दार्थाः-सुरभारति = शब्दस्य अधिष्ठात्रि देवि! (सरस्वती!)। नाद-ब्रह्ममयि = शब्दब्रह्म युक्ते (शब्द ब्रह्म से युक्त)। वागीश्वरि = वाचाम् ईश्वरी (वाणी की स्वामिनी)। शरणम् = आश्रयम् (आश्रय)।

हिन्दी-अनुवादः-हे देवी, सरस्वती तुम्हारी जय हो (हम) तुम्हारे चरणों में प्रणाम करते हैं। हे शब्द-ब्रह्ममयी वाणी की स्वामिनी (हम) आपकी शरण में जाते हैं।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसंगः-पद्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य’ ‘जय सुरभारति’ इति पाठात् उद्धृतः। गीतिरियं मूलतः डॉ. हरिराम आचार्य विरचितात् ‘मधुच्छन्दा’ इति ग्रन्थात् संकलिता। अस्मिन् पद्यांशे कवि: देवी सुरभारती वन्दते।

(यह पद्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य पुस्तक के ‘जय सुरभारति’ पाठ से उद्धृत है। यह गीत मूलत: डॉ. हरिराम आचार्य रचित मधुच्छन्दा’ ग्रन्थ से सङ्कलित है। इस गद्यांश में कवि देवी सुरभारती की वन्दना करता है-)

व्याख्या:-हे देवि! शब्दस्याधिकारिणि सरस्वति ते सदैव विजयः भवतु ! वयं ते पादयोः नमामः। हे शब्द ब्रह्म युक्ते वाचाम् ईश्वरी देवि वयं तव आश्रयं यामः। देहि माम् आश्रयं स्वीकरोतु च मे प्रणतिततिम्।

(हे देवी, शब्द की अधिकारिणी सरस्वती तेरी सदैव विजय हो। हम तुम्हारे चरणों में नमस्कार करते हैं। हे शब्द ब्रह्ममयी वाणी की स्वामिनी देवी हम तुम्हारे आश्रय में जाते हैं। मुझे आश्रय दो और मेरी प्रणाम पंक्ति को स्वीकार करो।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-सुरभारति = सुराणाम् भारती (सम्बोधन षष्ठी तत्पुरुष)। वागीश्वरी = वाचाम् ईश्वरी (षष्ठी तत्पुरुष)। चरणौ = चर् + ल्युट् (प्रथम, द्विवचन)

2. त्वमसि शरण्या त्रिभुवनधन्या, सुर-मुनि-वन्दित-चरणी।
नवरस-मधुरा कविता-मुखरा, स्मित-रुचि-रुचिराभरणा ॥2॥

अन्वयः-(हे भगवति !) त्वम् शरण्या, त्रिभुवनधन्या, सुर-मुनि-वन्दित-चरणा, नवरस-मधुरा, कविता-मुखरा, स्मित-रुचिः, रुचिराभरणा च असि।

शब्दार्था:-शरण्या = आश्रयभूता (सहारा)। त्रिभुवनधन्या = त्रिलोकेश्रेष्ठी (तीनों लोकों में श्रेष्ठ)। सुर-मुनि-वन्दित-चरणा = देवैः, मुनिभिः च वन्दितौ चरणौ यस्याः सा (देव, मुनियों द्वारा जिसके चरणों की वन्दना की गई है)। नवरस-मधुरा = शृङ्गारादिभिः नव साहित्यिक (काव्य) रसैः माधुर्यमयी। (शृंगार आदि नौ काव्य-रसों से मधुर)। कविता-मुखरा = कविता-रूपेण शब्दायमाना, अभिव्यञ्जिता (कविता के रूप में अभिव्यक्त होने वाली)। स्मित-रुचिः = मन्दहासयुक्ता छवि: (मन्द-मन्द मुस्कान युक्त छविवाली)। रुचिराभरणा = सुन्दरैः आभूषणैः उपेता (सुन्दर आभूषणों से युक्त)।

हिन्दी-अनुवादः-(हे देवी) तुम आश्रय प्रदान करने वाली, तीनों लोकों में श्रेष्ठ, देवों और मुनियों द्वारा जिसके चरणों की वन्दना की जाती है, शृंगारे आदि नौ काव्य रसों से माधुर्यमयी, कविता के माध्यम से व्यक्त होने वाली, मधुर मुस्काने वाली तथा सुन्दर आभूषणों से युक्त हो।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसङ्गः-पद्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘जय सुरभारति’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलत: इयं गीति: डॉ. हरिराम आचार्य विरचितात् ‘मधुच्छन्दा’ इति ग्रन्थात् सङ्कलिता। अत्र कविः सुरभरित्या: सद्गुणान् वर्णयन् कथयति–(यह पद्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य-पुस्तक के ‘जय सुरेभारतिः पठि से लिया गया है। मूलतः यह गीत डॉ. हरिराम आचार्य द्वारा रचित ‘मधुच्छन्दा’ ग्रन्थ से संकलित है। यहाँ कवि (गीतकार) सुरेभारती के गुणों का वर्णन करते हुए कहता है—)

व्याख्याः- हे देवि सुरभारति त्वम् आश्रयप्रदायिनी, त्रिलोके श्रेष्ठी, देवै: मुनिभिः च वन्दितौ चरणौ यस्याः सा शृङ्गारादिभिः नव-काव्य-रसैः माधुर्यमयी, कविता रूपेण अभिव्यञ्जिता, मृदु-हासयुता, सुन्दराभूषणैः च शोभिता असि। एवं त्वम् अति मनोहरा असि। (हे देवी सुरभारती ! तुम सहारा देने वाली, तीनों लोकों में श्रेष्ठ, देव-मुनियों द्वारा जिसके चरणों की वन्दना की जाती है ऐसी, नौ काव्य रसों से माधुर्यमयी, कविता के रूप में अभिव्यक्त होने वाली, मन्द मुस्कान युक्त तथा सुन्दर आभूषणों वाली हो। इस प्रकार तुम अत्यन्त मन को आकर्षित करने वाली हो।) व्याकरणिक-बिन्दवः-त्रिभुवनधन्या = त्रिषु भुवनेषु धन्या (कर्मधारय, सप्तमी तत्पुरुष)। सुरे-मुनि-वन्दित-चेरणा = सुरैः मुनिभिः वन्दितौ चरणौ यस्याः सा (बहुव्रीहि समास)। नवरेसमधुरा = नवरसैः मधुरा (तृतीया तत्पुरुष)। रुचिराभरणा = रुचिराणि आभरणानि यस्याः सा (बहुव्रीहि समास)।

3. आसीना भव मानस-हंसे,
कुन्द-तुहिन-शशि-धवले!
हर जडतां कुरु बोधि-विकास,
सित-पङ्कज-तनु-विमले! ॥3॥

अन्वयः-हे कुन्द-तुहिन-शशि-धवले! सित-पङ्कज-तनु-विमले! मानस हंसे (त्वं मम मानसे) आसीना भव, जडतां हेर, बोधि-विकासं च कुरु।

शब्दार्थाः-मानस हंसे = सरोवरस्थे हंसे, मनोरूपिणे हंसे (मानसरोवर के हंस पर या मेरे हृदयरूपी हंस पर)। आसीना-भव = तिष्ठतु (विराजें)। कुन्द-तुहिन-शशि-धवले = कुन्दपुष्प, हिम, चन्द्र-इव शुभ्रा (चमेली के फूल, बर्फ और चन्द्रमा की तरह श्वेत)। जडताम् = अज्ञानम् (मूर्खता को) बोधि-विकासम् = ज्ञानस्य विस्तारम् (ज्ञाने का विकास)। हर = दूरीकुरु (दूर कर)। सित-पङ्कज-तनु-विमेले = श्वेत-कमल इव-वपु-निर्मल (सफेद कमल के समान निर्मल शरीर वाली।)। हिन्दी-अनुवाद-हे चमेली, बर्फ और चन्द्रमा के समान शुभ्र, श्वेत कमल के समान निर्मल शरीर वाली (देवी सुर भारती) तुम मानसरोवर के राजहंस पर अर्थात् मेरे हृदयरूपी हंस पर विराजे, मूर्खता को हरें (दूर करो) तथा ज्ञान का विकास करो।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या

प्रसङ्गः-पद्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘जय सुरभारति’ इति पाठात् उदधृतः। गीतिरियं मूलत: डॉ. हरिराम आचार्य विरचितात् ‘मधुच्छन्दा’ इति ग्रन्थात् सङ्कलिता। गीतांशेऽस्मिन् कविः सुरभारत्या: वैशिष्टयं वर्णयन्। कथयति–(यह पद्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य-पुस्तक के ‘जय सुरभारति’ पाठे से लिया गया है। यह गीत मूलत: डॉ. हरिराम आचार्य रचित ‘मधुच्छंदा’ ग्रन्थ से संकलित है। इस गीत के अंश में कवि सुरभारती की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहता है-)

व्याख्याः- हे कुन्द-हिम-चन्द्रादीव शुभ्रा, श्वेत कमलमिव निर्मल कलेवरी, त्वं मानसरोवरेस्थे हंसे तिष्ठतु, मम मूर्खतां दूरी कुरु ज्ञानस्य च विकास कुरु। हे शुभ्रे मम हृदय-हंसे आरूढा सती मह्यं ज्ञानं देहि।

(हे चमेली, बर्फ, चन्द्रमा आदि की तरह शुभ्र, श्वेत कमल जैसे निर्मल शरीर वाली (देवी सुरभारती, तुम मानसरोवर के हंस पर विराजे अर्थात् मेरे, हृदयरूपी हंस पर बैठे, मेरी मूर्खता को दूर करें तथा ज्ञान विस्तार करें।)।

व्याकरणिक-बिन्दवः-आसीना = आस् + शानच् + टाप्। मानस-हंसे = मानसस्य हंसे (षष्ठी तत्पुरुष समास)।

4. ललित-कलामयि, ज्ञान-विभामयि, वीणा-पुस्तक-धारिणि!
मतिरास्तान्नो तव पद-कमले अयि कुण्ठा-विष हारिणि! ॥4॥

अन्वयः-हे ललित-कलामयि, ज्ञानविभामयि, वीणा-पुस्तक-धारिणि, अयि कुण्ठा-विष-हारिणि नेः मतिः तव पद– कमले आस्ताम्।

शब्दार्थाः-ललित-कलामयि = ललितकलाभिः समन्विते (हे ललित कलाओं से युक्त)। ज्ञानविभामयि = ज्ञान-कान्ति-युक्ते (ज्ञानरूपी कान्ति को धारण करने वाली)। पदकमले = चरण-कमले पाद पद्मयोः उपविष्टा (कमल जैसे चरणों वाली)। मतिः = बुद्धि। नः = अस्माकम् (हमारी)। आस्ताम् = स्यात् (लगी रहे करे)। कुण्ठाविषहारिणि = कुण्ठायाः हलाहलं विनाशिनी (कुंठा रूपी जहर को नष्ट करने वाली।) हिन्दी-अनुवादः-हे ललित कलाओं से युक्त, ज्ञान की कान्ति (चमक) से युक्त, वीणा तथा पुस्तक धारण करने वाली, हे कुण्ठारूपी जहर को दूर करने वाली (मेरी यही प्रार्थना है कि) मेरी बुद्धि सदैव आपके चरण-कमल में लगी रहे।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।

प्रसङ्गः-पद्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य जय-सुरेभारति !’ इति पाठात् उद्धृतः। पाठोऽयम् डॉ. हरिराम आचार्य कृत ‘मधुच्छन्दा’ इति गीति-संग्रहात् सङ्कलिताः। अस्मिन् पद्यांशे गीतकारः स्वबुद्धिं सुरभरित्याः चरण-कमले निक्षेप्तुमिच्छति। (यह पद्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘जय सुरभारति!’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ डॉ. हरिराम आचार्य रचित मधुच्छन्दा गीत-संग्रह से संकलित है। इस पद्यांश में गीतकार अपनी बुद्धि को सुरभारती के चरण-कमलों में लगाने की प्रार्थना करता है-)

व्याख्या:-हे नृत्य सङ्गीतादिभिः कलाभिः समन्विते ज्ञानस्य कान्तिना युक्ते, हस्तयो: वीणां पुस्तकं च धारयन्ती, हे कुण्ठायाः हालाहलम् अपसारिणि (अहमीहे यत्) अस्माकं बुद्धिः ते पादपद्मयो: तिष्ठतु। सदैव ते चरणयोः सेवको भवामि। (हे नृत्य संगीतादि कलाओं से युक्त, ज्ञान की कान्ति से युक्त, हाथों में वीणा और पुस्तक धारण करने वाली, हे कुण्ठा के जहर को दूर करने वाली (मेरी इच्छा है कि) हेमारी बुद्धि सदैव आपके चरण कमलों में रहे अर्थात् आपका चरण सेवक रहूँ।

व्याकरणिक-बिदवः-मतिरास्ता-नो = मति: + आस्ताम् + नः (विसर्ग एवं हल् सन्धि) पदकमले = पदौ कमले इव (कर्मधारय)।

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