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Table of Contents
मानसिक सुख और सन्तोष निबंध – Essay On Happiness In Hindi
जब आवै संतोष धन सब धन – When there is satisfaction, wealth is all wealth
रूपरेखा–
- प्रस्तावना,
- आध्यात्मिक धन,
- संसार की अर्थव्यवस्था में असंतोष,
- असंतोष का कारण,
- संतोष में ही सुख,
- संतोष कौन करे?
- उपसंहार।।
साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।
मानसिक सुख और सन्तोष निबंध – Maanasik Sukh Aur Santosh Nibandh
प्रस्तावना–
संसार में धन का सदा महत्त्व रहा है। धन से सब कुछ खरीदा जाता है। धन को सुख का साधन माना गया है। आज मनुष्य का सारा जीवन धन कमाने में ही बीतता है। इसके लिए वह उचित–अनुचित सब उपाय अपनाता है। आर्थिक मनोकामनाएँ निरंतर पूरी होते रहने पर भी मनुष्य असन्तुष्ट रहता है।
आध्यात्मिक धन–असंतोष मानव जीवन का अभिशाप है और संतोष मानव जीवन का वरदान है। इस सम्बन्ध में भारत के अनेक कवियों की काव्य–पंक्तियों को उद्धृत किया जा सकता है।
साईं इतना दीजियो जामें कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।
कबीर मीत न नीत गलीत है जो धरिये धन जोर।
खाए खरचे जो बचै तौ जोरिये करोर। – बिहारी
उपर्युक्त सभी कवियों ने एक ही बात पर जोर दिया है कि संसार में संतोषरूपी धन ही सबसे बड़ा धन है और जब यह प्राप्त हो जाता है तो संसार में किसी धन की आवश्यकता नहीं रह जाती।
हयधन, गजधन, वाजिधन और रतन धन खानि।
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।
संसार की अर्थव्यवस्था में असंतोष–
आज सारा संसार पूँजीवादी व्यवस्था को अपनाकर अधिक–से–अधिक धन कमाने की होड़ में लगा हुआ है। उसकी मान्यता है कि कैसे भी कमाया जाय अधिक धन कमाना चाहिए। धनोपार्जन के लिए मनुष्य किसी भी सीमा तक गिर सकता है। अनुचित साधनों द्वारा अर्जित काला धन ही लोगों की उज्ज्वलता का माध्यम बन गया है। अत: संसार की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था दूषित हो गई है। अधिक–से–अधिक धन बटोरने की होड़ मची है। अमीर और अमीर बन रहा है। गरीब और गरीब होता जा रहा है। गरीब मजबूर है, आत्महत्या करने को विवश है।
असंतोष का कारण–सम्पूर्ण
मानव–जाति आज जिस स्थिति में पहुंच गई है, उसका कारण कहीं बाहर नहीं है स्वयं मनुष्य के विचारों में ही है। आज का मानव इतना स्वार्थी हो गया है कि उसे केवल अपना सुख ही दिखाई देता है। वह स्वयं अधिक से अधिक धन कमाकर संसार का सबसे अमीर व्यक्ति बनना चाहता है। यही असंतोष का कारण है।
संतोष में ही सुख–
प्राचीनकाल से आज तक अनेक महापुरुषों ने इस विषय में अपने विचार व्यक्त किये हैं तथा निष् रूप में यही कहा है कि “धन केवल साधन है साध्य नहीं”। अत: संतोष धन प्राप्त करने में नहीं है। उपनिषद, है–”तेन त्यक्तेन भुंजीथा” जो त्याग करने में समर्थ है उसे ही भोगने का अधिकार है। अत: संतोष में हो सुख है। किन्तु यः उपदेश केवल गरीबों के लिए है और इकतरफा है।
संतोष कौन करे?–
प्रश्न यह है कि संतोष कौन करे? क्या वह निर्धन, दु:खी, त्रस्त, अभावग्रस्त मनुष्य, जो पहले से ही धनिकों के शोषण का शिकार है? संतोष का उपदेश देने वाला कहता है– ‘तू अपनी रूखी–सूखी रोटी खाकर ठंडा पानी पी ले! मुझे चुपड़ी रोटी खाने दे।
मेरी ओर मत देख।” यह शिक्षा उन महान उपदेशकों की है जो भाग्य को मनुष्य की नियति बताकर उसे अभावों की कारा में बन्दी बनाए रखना चाहते हैं। यह कुशिक्षा मनुष्य को निष्क्रिय बनाती है। शोषण को भाग्य और ईश्वर की इच्छा बताकर प्रतिरोध न करने का उपदेश देता है।
चाहे कोई तुम्हें असंतोषी कहे परन्तु अपने अधिकारों को बलात् छीन लेना जरूरी है। अर्थातस्था जो अमीर को और अमीर बना रही है, उसके पीछे गरीबों का संतोष ही कारण है। संतोष गरीबी का जन्मदाता है। मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
अधिकार खोकर बैठ रहना भी महादुष्कर्म है।
न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है।
संतोष संन्यासियों का धन हो सकता है, राष्ट्र के निर्माण में व्यस्त युवकों के लिए तो वह लोहे की जंजीर के समान है, जो उनको आगे बढ़ने से रोकती है। इसी कारण किसी कवि ने संतोष को सम्बोधित करके कहा है-
बहुत देश ने पूजा तुमको अब तो करो प्रयाण।
इस स्वतंत्र भारत को करने दो अब नव निर्माण॥
उपसंहार–
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संतोष का उपदेश देना ही काफी नहीं है। उत्पादन के साधनों का समान वितरण भी जरूरी है। जब समाज में असमानता नहीं होगी, अमीरी–गरीबी के दो ऊँचे–नीचे पर्वत नहीं बने होंगे तो असंतोष स्वयं ही नष्ट हो जायेगा।
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