Hindi Essay प्रत्येक क्लास के छात्र को पढ़ने पड़ते है और यह एग्जाम में महत्वपूर्ण भी होते है इसी को ध्यान में रखते हुए hindilearning.in में आपको विस्तार से essay को बताया गया है |
Table of Contents
विज्ञापन के प्रभाव – Paragraph Speech On Vigyapan Ke Prabhav Essay In Hindi
संकेत बिंदु :
- विज्ञापन का अर्थ
- विज्ञापन का प्रभाव
- विज्ञापन से लाभ
- विज्ञापन भारतीय
- संस्कृति के लिए घातक।
साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।
विज्ञापन-कितने सच्चे कितने झूठे (Vigyapan Kitne Sache Kitne Jhoothe)- Advertisement – How True How False
मनुष्य अपने जीवन को सुख-सुविधामय बनाने के लिए विभिन्न वस्तुओं का उपयोग और उपभोग करता है। उसे लगने लगा है कि उपभोग ही सुख है। उस पर पाश्चात्य उपभोक्तावाद का असर हो रहा है, इसी का फायदा उठाकर उत्पादक अपनी वस्तुओं को बढ़ा-चढ़ाकर उसके सामने प्रस्तुत करते हैं। इसे ही विज्ञापन कहा जाता है। आजकल इसका प्रचार-प्रसार इतना अधिक हो गया है कि वर्तमान को विज्ञापन का युग कहा जाने लगा है।
विज्ञापन ने हमारे जीवन को अत्यंत गहराई से प्रभावित किया है। यह हमारा स्वभाव बनता जा रहा है कि दुकानों पर वस्तुओं के उन्हीं ब्रांडों की माँग करते हैं जिन्हें हम समाचार पत्र, दूरदर्शन या पत्र-पत्रिकाओं में दिए गए विज्ञापनों में देखते हैं। हमने विज्ञापन में किसी साबुन या टूथपेस्ट के गुणों की लुभावनी भाषा सुनी और हम उसे खरीदने के लिए उत्सुक हो उठते हैं।
विज्ञापनों की भ्रामक और लुभावनी भाषा बच्चों पर सर्वाधिक प्रभाव डालती है। बच्चे चाहते हैं कि वे उन्हीं वस्तुओं का प्रयोग करें जो शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन या प्रियंका चोपड़ा द्वारा विज्ञापित करते हुए बेची जा रही हैं। वास्तव में बच्चों का कोमल मन और मस्तिष्क यह नहीं जान पाता है कि इन वस्तुओं के सच्चे-झूठे बखान के लिए ही उन्होंने लाखों रुपये एडवांस में ले रखे हैं।
यह विज्ञापनों का असर है कि हम कम गुणवत्ता वाली पर बहुविज्ञापित वस्तुओं को धड़ल्ले से खरीद रहे हैं। दुकानदार भी अपने उत्पाद-लागत का बड़ा हिस्सा विज्ञापनों पर खर्च कर रहे हैं और घटिया गुणवत्ता वाली वस्तुएँ भी उच्च लाभ अर्जित करते हुए बेच रहे हैं। उत्पादनकर्ता मालामाल हो रहे हैं और उपभोक्ताओं की जाने-अनजाने जेब कट रही है।
विज्ञापन का लाभ यह है कि इससे हमारे सामने चुनाव का विकल्प उपस्थित हो जाता है। किसी उत्पादक विशेष का बाज़ार से एकाधिकार खत्म हो जाता है। उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य और गुणवत्ता का तुलनात्मक अध्ययन कर आवश्यक वस्तुएँ खरीदते हैं, परंतु इसके लिए इनकी लुभावनी भाषा से बचने की आवश्यकता रहती है।
विज्ञापन भारतीय संस्कृति के लिए हितकारी नहीं। आज कोई भी विज्ञापन हो या किसी आयुवर्ग के विज्ञापन हों, पुरुषोपयोगी वस्तुओं का विज्ञापन हो, बच्चों या महिलाओं के प्रयोग की वस्तुओं का विज्ञापन हो, नारी के नग्नदेह के बिना पूरा नहीं होता। अनेक विज्ञापन परिवार के सदस्यों के साथ नहीं देखे जा सकते हैं।
एक ओर विज्ञापनों से वस्तुओं का मूल्य बढ़ रहा हैं, तो दूसरी ओर बच्चों का कोमल मन विकृत हो रहा है और वे जिद्दी होते जा रहे हैं। विज्ञापनों में छोटे होते जा रहे नायक-नायिका के वस्त्रों को देखकर युवावर्ग में भी अधनंगानप बढ़ रहा है। गरीब और मध्यम वर्ग का वजट विज्ञापनों के कारण बिगड़ रहा है। हमें बहुत सोच-समझकर ही विज्ञापनों पर विश्वास करना चाहिए।
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